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सूक्तिमुक्तावली मोक्षस्य वयस्था। पुनः कथंभूना कुगत्यर्गला कुगतेदुर्गतेः अर्गला द्वारपरिघः इति ज्ञास्वा जीवेषु कृपा एवं क्रियतां ॥ २५ ॥
अर्थ--उपरोक्त श्लोक में आचार्य ने दया का माहात्म्य दिखाया है, कि-छह काय के लीवों की रक्षा रूप दया कर । यही सब जप तपादि हैं। यदि तु जपत्तपादि करता है और दया पालन नहीं करता तो वह सब व्यर्थ है। वह दया कैसी है ? पुण्य की कोडा करने की भूमि है, पाप रूपी रज [ धूल ] को नष्ट करने के लिये पवन के समान है, संसाररूपी समुद्र को तिरने के लिये नाव के समान है. व्यसन रूपी अग्नि को बुझाने के लिये मेघवृष्टि है, लक्ष्मी को बुलाने के लिये दूती समान है, स्वर्ग के बढ़ने के लिये नसैनी समान है, मुक्ति की प्यारी सखी है, और कुगतिगमन के रोकने को आगल समान है, ऐसी कृपा जीवों पर करो अन्य दूसरे किसी क्लेश को सहन करने से क्या लाभ है । दया ही सर्व श्रेष्ठ है, ऐसा जान कर समस्त जी पर दया करना योग्य है।
शिखरिणीछन्दः (यदि ग्रावा तोये तरति तरणिर्ययुदयते । प्रतीच्या सप्ताचियदि भजति शैत्यं कथमपि ।। यदि मापीठं स्यादुपरि सकलस्यापि जगतः । प्रसूते सत्त्वानां तदपि न वधः क्वापि सुकृतं ॥२६॥
व्याख्या-यदि मावा पाषाणस्तोये मले तरति । पुनर्यदि तरणिः सूर्यः प्रतीच्या पश्चिमायां दिशि उदयति । पुनः सप्ताञ्चिः