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सूक्तिमुक्तावली विनाशे अभिलषति । पुनः काळकूटाद् विषाद् जीवितं प्राणधारणं अभिलपति। यः पुमान् जोबानां वधात् धम्म इच्छेत् स एतानि वस्तूनि चान्छेत ॥ २७ ॥
अर्थ-जो व्यक्ति जीव हिंमा से धर्म की इच्छा करता है अर्थात् जीव हिंसा में धर्म-स्म समभाता है, यह मामलों मन को उत्पन्न करना चाहता है, सूर्य के अस्त से दिन की अभिलाषा करता है, सर्प के मुंह से अमृत की वांछा करता है, दूसरों के साथ कलह करके कीर्ति की इच्छा करता है, अजीर्ण से रोग के नाश होने की अभिलाषा करता है, और कालकूट हालाहल विष का भक्षण करके जीवित रहने की इच्छा करता है।
भाषार्थ-जीव हिंसा में कभी भी किंचित् भी धर्म नहीं हो सकता, अगर जीव हिंसा में धर्म माना जायगा तो क्या में पाप मानना पड़ेगा परन्तु तीन लोक और चीन काल में ऐसी असंभव बात कभी भी संभव न हुई और न होगी। अतः जीव हिंसा के समान संसार में कोई महान् पाप नहीं है और अहिंसा (प्राणिया) के समान कोई दूसरा महान पुण्य नहीं है ॥ २७ ॥
शार्दूलविक्रीडितछन्दः आयुर्वीर्घतरं वपुर्वरतरं गोत्रं गरीयस्तरं
विचं भूरितरं बलं बहुतरं स्वामित्वमुच्चस्तरं । ' आरोग्यं विगतान्तरं त्रिजगति साध्यत्वमम्पेसर
संसाराम्बुनिधि करोति सुसरं चेता कृषान्तरम् ||२८||