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सूक्तिमुक्तावली स्वैरं स्वेच्छया विलसति भागत्य बिलासं क्रीडां करोति तितीत्यर्थः पुनः संसार सुखेन तीयते इति सुतरः सुखेन तरीतुं शक्यो भवति । पुनः शिगं मोक्षं अन्नसा शीघ्र तस्य करतलकोडे हसतलमध्ये लुठति हरतगोचरो भवतीत्यर्थः । अतोऽहतां पूजा कार्या। तत्रातिश्चसुविधाः नामस्थापनाद्रव्यमावभेदात् । णामजिणा जिणणामा उपजिरणा तह य ताह पहिमाओ। जिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्या ।।
इति भो भव्यप्राणिन् । एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय अर्हतां पूजा कार्या 1 तस्कुर्वतां च सतां यस्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमांगलिक्यमालिका विस्तरन्तु ॥ १० ॥
___ अर्थ-श्रद्धा का भाजन जो पुरुष श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करता है, स्वर्ग उसके घर के आंगन के समान है, चक्रवर्ती इन्द्र धरणेन्द्र की लक्ष्मी उसकी दासी हो जाती है, सौभाग्य आदि गुण उसके शरीर रूपी घर में स्वच्छन्द क्रीडा ( विलास ) करते हैं, विकट संसार उसके द्वारा आसानी से पार करने योग्य हो जाता है, और तो क्या ? निश्चय से उसके हाथों के मध्य मोक्ष का सुख लोटता है अर्थात शीघ्र ही निर्मल मोक्ष पद प्राप्त कर लेता है।
विशेष---जैसे किसी बर्तन ( पात्र ) में कोई वस्तु रखी जाती है उसी प्रकार जो पुरुष अपने हृदय में वीतराग देव की श्रद्धा भर लेता है तो उसको तत्काल सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। नदीश्व द्वीप की पूजन में उल्लेख है कि उन भकृत्रिम चैत्यालयस्थ वीसरा