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सूक्तिमुक्तावली
सा भट्ठो भट्ठो दंसण भटुस्स एरिथ निव्वाणं । सिति चरण रहिआ दंसणा रहिआ न सिति ॥
भो भव्यप्राणिन् एवं ज्ञात्वा मनसि बिवेकमानीय शुद्धप्ररूपको जिनाज्ञाराधको गुरुः सेव्यः । तत्सेवमानानां यत्पुण्यमुत्पद्यते तगुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरन्तु || १३ ||
अर्थ- जो पापरहित मुक्ति के मार्ग में प्रवृत्ति करते हैं तथा वा रहित होकर अन्य भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में लगाते हैं। अपना हित चाहने वाले व्यक्ति द्वारा ऐसे ही गुरु सेवन करने योग्य हैं। ऐसे ही निर्मान्य गुरु संसार समुद्र से आप तिरते हैं और दूसरों को भी संसार समुद्र से पार करने में समर्थ होते हैं।
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कापरिया आरंभ रहित विगम्बर जैन साधु ही
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सेवा एवं श्रद्धा के योग्य हैं। अन्य भेपी कुलिंगी सेवन करने योग्य नहीं, वे संसार में पत्थर की नौका के समान स्वयं डूबने वाले और दूसरों को डुबाने वाले हैं।
अथ पुनरपि गुरुसेवायाः फलमाह -
मालिनी छन्दः
विलयति सुगतिकुगतिमार्गौ
कुबोधं पुण्यपापे
गुरुर्यो
अवगमयति कृत्याकृत्य भेदं भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् ॥ १४ ॥
बोधयत्यागमार्थं
व्यनक्ति ।
व्याख्या--भो भव्याप्तं गुरु विना अन्यः कश्चित् भवजह -
निधिपोतः प्रवहणं नास्ति भव एव संसार एवं जलनिधिः । समुद्रस्तत्र