Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ- जो भव्य पुरुष पुष्पों से जिनेन्द्रदेव की पूजा करता है वह मन्द हास्ययुक्त देवाङ्गनाओंके कमलों द्वारा पूजा जाता है, जो पुष एकनार जिनेन्द्रदेव को वन्दना करता है वह तीन लोक द्वारा सदा वन्दनीक होता है, और जो जिनेन्द्र देवको स्तुति करता है उसकी परभव में इन्द्रों द्वारा स्तुति की जाती है। जो जिनेंद्र देवका ध्यान करता है वह मठों कर्मों का नाश कर देता है और तब सिद्ध परमेष्ठी हो जानेके कारण योगियों द्वारा ध्यान करने योग्य हो जाता है । २० इति पूजायाः प्रकरणं समाप्तम् । अथ चतुर्भिर्वृत्तै गुरुभक्तिद्वार माइ वंशस्य छन्दः अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्तते Addressनं च निःस्पृहः । स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परम् ।। १३ ।। | व्याख्या - आत्महितवांछकेन पुरुषेण स एव गुरुः सेव्यः सः कः यः अवयमुक्ते पापवर्जिते सत्ये पथि धर्ममार्गे स्वयं प्रचलते च पुनः अन्यजनं श्रन्यलोकं शुद्धमार्गे प्रवर्तयति । यो गुरुः निस्पृहः परिमहादिवांच्छारहितः सन् पुनर्यः स्वयं संसारसमुद्र तरन् सन् परं अन्यं तारयितुं क्षमः समर्थः । गृणाति तवमिति गुरुः । तत्रोपदेशकः शुद्धप्ररूपक इत्यर्थः ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155