Book Title: Stree Nirvan Kevalibhukti Prakarane Tika
Author(s): Shaktayanacharya, Jambuvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 27
________________ 20 स्त्रीनिर्वाणनो अने स्त्रीओने सर्वविरति चारित्रनो निषेध करवाथी 'भगवान साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघनी स्थापना करे छे' आ वातनो ज उच्छेद थई जाय छे. साध्वी ज न होवाथी त्रिविध संघ बनो जाय छे. एकान्ते वस्त्रनिषेधक दिगंबरोना पक्षमा आवा अनेक दोषो आवी पड्या. आम छतां प्राचीन समयमां, केटलाक तटस्थ अने विचारक “यापनीय' नामे ओळखाता साधुओ पण हता के जे दिगंबर-नग्न रहेता होवा छतां एकान्ते बस्त्र-पात्रना विरोधी न हता. सामान्य संयोगोमा पोते वस्त्र न पहेरता होवा छतां आपवादिक प्रसंगोमा साधुओ माटे तथा सामान्य रोते बधी साध्वीओ माटे वस्त्रनु परिधान स्वीकारता हता, केवलिभुक्ति पण मानता हता, तथा आचारांगादि आगमो अने तेनी नियुक्ति वगेरेने पण प्रमाणभूत मानता हता. यापनीय संघना साधुओए जे साहित्य रच्युं छे ते पैकीनो आ पण एक ग्रंथ छे. आमां बे प्रकरणो होवा छतां बे स्वतंत्र ग्रंथो समजवाना नथी. एक ज ग्रंथनां बे प्रकरणो अहीं ग्रंथकारने विवक्षित छे. स्त्रीनिर्वाणप्रकरणनी प्रथम कारिका जोतां आ वात स्पष्ट जणाशे. प्रथम कारिकामा स्त्रीनिर्वाण अने केवलिभुक्तिनी रचना करवानी प्रतिज्ञा करीने खरेखर बीजी कारिकाथी ज स्त्रीनिर्वाणनी चर्चानो ग्रंथकारे प्रारंभ कर्यो छे. ए पूर्ण थया पछी केवलिभुक्तिनी चर्चा ग्रंथकारे शरू करी छ [जुओ पृ० ३९ पं० १]. तेथी एक ज ग्रंथनां आ बंने प्रकरणो अथवा परिच्छेदो समजवाना छे. कर्ता:- आ ग्रंथना कर्ता शाकटायन छे ए वात आ ग्रंथना पृ० १२मां ग्रंथसमाप्तिमा रहेला “इति स्त्रीनिर्वाणकेवलिभुक्तिप्रकरणं (णे)। कृतिरियं भगवदाचार्यशाकटायनभदन्तपादानामिति ॥" आ उल्लेखथी निश्चित छे. स्याद्वादरत्नाकरमा वादी देवसूरिए पण “यदाह शाकटायनः" एम जणावीने केवलिभुक्ति प्रकरणनी प्रथम कारिका उद्धृत करी छे. १. दर्शनसारना कर्ता दिगंबराचार्य देवसेनसूरिना कथन प्रमाणे विक्रम संवत् २०५मां यापनीय संघ अस्तित्वमां आव्यो इतो. जुओ आ अंगे तथा यापनीय साहित्य अंगे खूब ज विस्तारथी विवेचन करतो लेख - 'यापनीय साहित्यकी खोज' [जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४१-६०, लेखक - नाथूराम प्रेमी] २. हरिभद्रसूरिविरचित षड्दर्शनसमुच्चयनी गुणरत्नसूरिकृत टीकामां जैनमतनिरूपण प्रसंगे यापनीयो माटे नीचे मजब उल्लेख छ-- “अथादौ जैनमते लिङ्ग-वेषा-ऽऽचारादि प्रोच्यते । जैना द्विविधाः श्वेताम्बरा दिगम्बराश्च । तत्र श्वेताम्बराणां रजोहरण-मुखवस्त्रिका-लोचादिलिङ्गम् चोलपट्ट-कल्पादिको वेषः; पञ्च समितयस्तिस्रश्च गुप्तयस्तेषामाचारः। . . . . . . अहिंसा-सत्या-ऽस्तेय-ब्रह्म-ऽऽकिञ्चन्यवान् क्रोधादिविजयी दान्तेन्द्रियो निर्ग्रन्थो गुरुः । माधुकर्या वृत्त्या नवकोटीविशुद्धस्तेषां नित्यमाहार :। संयमनिर्वाहार्थमेव वस्त्रपात्रादिधारणम् । वन्द्यमाना धर्मलाभमाचक्षते । दिगम्बरा : पुनर्नाग्न्यलिङ्गाः पाणिपात्राश्च । ते चतुर्धा काष्ठासंघ-मूलसंघ-माथुरसंघ-गोप्यसंघभेदात् । काष्ठासंघे चमरीवालैः पिच्छिका । गोप्या मायरपिच्छिकाः। मलसंघे मायरपिच्छै: पिच्छिका। माथरसंघे मलतोऽपि पिच्छका नादता । आद्यास्त्रयोऽपि संघा वन्द्यमाना धर्मवद्धि भणन्ति, स्त्रीणां मुक्ति केवलिनां भुक्ति सद्वतस्यापि सचीवरस्य मुक्ति च न मन्यन्ते । गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्ति केवलिना भुक्तिं च मन्यन्ते । गोप्या यापनीया इत्यपि उच्यन्ते।"- पृ० १६०-१६१ षट्प्राभृतटीकामा दिगंबराचार्य श्रुतसागरसूरि जणावे छे के - “यापनीयास्तु . . ... स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं केवलिजिनानां कवलाहारं . . . . कथयन्ति ।" (माणिक्यचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला प्रकाशित पृ० ११) यापनीयोना विचारो कंईक अंश श्वेतांबरोने अने कईक अंशे दिगंबरोने अनुरूप हता छतां तेमना आचारो दिगंबरोने विशेष अनुरूप होवाथी तेमणे रचेलं घणुंखरूं साहित्य दिगंबर साहित्यमां समाई गयुं जणाय छे. आथी यापनीय आचार्य शाकटायने रचेला 'शाकटायन' व्याकरणनो तथा शिवार्ये रचेला आराधना अपरनाम भगवती आराधना (अथवा मूलाराधना) आदि यापनीय ग्रंथोनो दिगंबरोमां ज घणो प्रचार छे. जओ 'जैन साहित्य और इतिहास'मा प्रकाशित थयेला नाथूराम प्रेमीजीना त्रण लेखो-१ आराधना और उसकी टीकायें (प० २३-४०), २ यापनीय साहित्यकी खोज (पृ० ४१-६०), ३ शाकटायन और उनका शब्दानुशासन (पृ० १५०-१६२). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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