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26 प्रस्तुतमें शान्त्याचार्यने भी मुख्यरूपसे शाकटायनके प्रकरणको ही पूर्वोत्तरपक्षकी चर्चाका आधार बनाया है जो तुलनासे स्पष्ट होगा।"
न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीयभागनी प्रस्तावनामां पं० महेन्द्रकुमारजीए जे लख्युं छे ते पण जाणवा योग्य होवाथी अहीं नीचे उद्धृत करवामां आवे छे --
"राष्ट्रकूटवंशी राजा अमोघवर्ष के राज्यकाल (ईस्वी. ८१४-८७७) मे शाकटायन नामके प्रसिद्ध वैयाकरण हो गए है। ये यापनीय संघके आचार्य थे। यापनीयसंघका बाह्य आचार बहुत कुच्छ दिगम्बरोंसे मिलता जुलता था। ये नग्न रहते थे। श्वेताम्बर आगमोंको आदरकी दृष्टिसे देखते थे। आ. शाकटायनने अमोघवर्षके नामसे अपने शाकटायनव्याकरण पर 'अमोघवृत्ति' नामकी टीका बनाई थी। अतः इनका समय भी लगभग ई. ८०० से ८७५ तक समजना चाहिये। यापनीयसंघके अनुयायो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी कुछ कुछ बातोंको स्वीकार करते थे। एक तरहसे यह संघ दोनों सम्प्रदायोंको जोड़नेके लिए शृंखलाका कार्य करता था। आचार्य मलयगिरिने अपनी नन्दीसूत्रकी टीका (पृ० १५) में शाकटायनको 'यापनीययतिग्रामाग्रणी' लिखा है- “शाकटायनोऽपि यापनीययतिग्रामाग्रणी : स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ।" शाकटायन आचार्यने अपनी अमोघवृत्तिमें छेदसूत्र नियुक्ति कालिकसूत्र आदि श्वे० ग्रन्थोंका बड़े आदरसे उल्लेख किया है। आचार्य शाकटायनने केवलिकवलाहार तथा स्त्रीमुक्तिके समर्थनके लिए स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति नामके दो प्रकरण बनाए है। दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके परस्पर बिलगावमें ये दोनों सिद्धान्त ही मुख्य माने जाते हैं। यों तो दिगम्बर ग्रन्थोंमें कुन्दकुन्दाचार्य पूज्यपाद आदिके ग्रन्थोंमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका सूत्ररूपसे निरसन किया गया है, परन्तु इन्हीं विषयोंके पूर्वोत्तरपक्ष स्थापित करके शास्त्रार्थका रूप आ. प्रभाचन्द्रने ही अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें दिया है। श्वेताम्बरोंके तर्कसाहित्यमें हम सर्वप्रथम हा भद्रसूरिकी ललितविस्तरामें स्त्रीमुक्तिका संक्षिप्त समर्थन देखते हैं, परन्तु इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप सन्मतिटीकाकार अभयदेव, उत्तराध्ययन पाइयटीकाके रचयिता शान्तिसूरि, तथा स्याद्वादरत्नाकरकार वादि देवसूरिने ही दिया है। पीछे तो यशोविजय उपाध्याय, तथा मेघविजयगणि आदिने पर्याप्त साम्प्रदायिक रूपसे इनका विस्तार किया है। इन विवादग्रस्त विषयों पर लिखे गए उभयपक्षीय साहित्यका ऐतिहासिक तथा तात्त्विकदृष्टिसे सूक्ष्म अध्ययन करने पर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति विषयोंके समर्थनका प्रारम्भ श्वेताम्बर आचार्योंकी अपेक्षा यापनीयसंघ वालोंने ही पहिले तथा दिलचस्पीके साथ किया है। इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप देनेवाले प्रभाचन्द्र, अभयदेव, तथा शान्तिसूरि करीब करीब समकालीन तथा समदेशीय थे। परन्तु इन आचार्योने अपने पक्षके समर्थन में एक दूसरेका उल्लेख या एक दूसरेकी दलीलोंका साक्षात् खंडन नहीं किया। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका जो विस्तृत पूर्वपक्ष लिखा गया है वह किसी श्वेताम्बर आचार्यके ग्रन्थका न होकर यापनीयाग्रणी शाकटायनके केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंसे ही लिया गया है। इन ग्रन्थोंके उत्तरपक्षमें शाकटायनके उक्त दोनों प्रकरणोंकी एक एक दलीलका शब्दशः पूर्वपक्ष करके सयुक्तिक निरास
। इसी तरह अभयदेवकी सन्मतितर्कटीका, और शान्तिसरिकी उत्तराध्ययन पाइयटीका और जैनतर्कवातिकमें शाकटायनके इन्हीं प्रकरणोंके आधारसे ही उक्त बातोंका समर्थन किया गया है। हाँ, वादिदेवसूरिके रत्नाकरमें इन मतभेदोंमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सामने सामने आते हैं। रत्नाकरमें प्रभाचन्द्रकी दलीलें पूर्वपक्ष रूपमें पाई जाती हैं। तात्पर्य यह कि प्रभाचन्द्रने स्त्रीमुक्तिवाद तथा केवलिकवलाहारवादमें श्वेताम्बर आचार्योकी वजाय शाकटायनके केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंको ही अपने खंडनका प्रधान लक्ष्य बनाया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ८६९) के पूर्वपक्षमें शाकटायनके स्त्रीमुक्ति प्रकरणकी यह कारिका भी प्रमाण रूपसे उद्धृत की गई है।
"गार्हस्थ्येऽपि सुसत्त्वा विख्याता: शीलवत्तया जगति। सीतादयः कथं तास्तपसि विसत्त्वा विशीलाश्च ॥” (स्त्रीनिर्वाण. ३७)
१. देखो-पं. नाथूरामप्रेमीका 'यापनीय साहित्यकी खोज' (अनेकांत वर्ष ३ किरण-१) तथा प्रो. ए. उपाध्यका
'यापनीय संघ' (जैनदर्शन वर्ष अंक ७) लेख । २. ये प्रकरण जैनसाहित्यसंशोधक खंड २ अंक ३-४ में मुद्रित हुए हैं।
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