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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : १७
• १. औत्पत्तिकी, २. वैनयिकी, ३. कर्मजा तथा ४. पारिणामिकी । —
१. औत्पत्तिकी बुद्धि - इस बुद्धि की उत्पत्ति में क्षयोपशम कारण होता है।
२. वैनयिकी बुद्धि - विनय अर्थात् गुरु शुश्रूषा आदि ही प्रधान कारण जिसमें होता है, वह वैनयिकी बुद्धि है ।
३. कर्मजा बुद्धि - कर्म रूप नित्य व्यापार से जो बुद्धि उत्पन्न होती है, वह कर्मजा बुद्धि है।
४. पारिणामिकी बुद्धि- सुदीर्घकाल तक पूर्वापर तत्त्व - अवलोकन आदि से उत्पन्न आत्मधर्म जिसमें प्रधान कारण होता है, उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं।
- बुद्धि के उपर्युक्त चार भेदों को अनेक पदों द्वारा अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया गया है।
प्रथम औत्पत्तिकी बुद्धि के विषय में सत्रह उदाहरण (पद) प्रस्तुत किये हैं— १. भरतशिला, २. पणित, ३. वृत्त, ४. मुद्रारत्न, ५. पट, ६. सरड, ७. काक, ८. उच्चार, ९. गज (गोल खम्भे ), १०. भाण्ड (घयण), ११. गोल, १२. स्तम्भ, १३. क्षुल्लक, १४. मार्ग, १५, स्त्री, १६. द्वौपती तथा १७. पुत्र । १९
उपर्युक्त दृष्टान्तों में से रोहक कुमार के ये तेरह दृष्टान्त नन्दीसूत्र में बतलाये हैं २० भरहसिल, मिंट, कुक्कुड, तिल, बालुण, हत्थि, अगड, वणसंडे, पासय, अइआ, पत्ते, खाडहिला तथा पंचपियरो। इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि इन सभी आख्यानों का स्रोत नन्दीसूत्र है । भाव तथा भाषा की दृष्टि से यह भी ज्ञात होता है कि वैनयिकी तथा पारिणामिकी बुद्धि के लक्षण एवं उदाहरण भी नन्दीसूत्र से ग्रहण किये हैं।
भरतशिला नामक पद में रोहक कुमार का उदाहरण दिया है कि उज्जैन के राजा जितशत्रु प्रत्युत्पन्नमति रोहक की अनेक प्रकार से बुद्धि की परीक्षा लेते हैं और अन्त में उसे अपना प्रधानमंत्री बना लेते हैं । २१ इस कथा में रोहक की बुद्धि का चमत्कार विभिन्न रूपों में वर्णित है।
" स्त्री - व्यन्तरी" के विषय में कारणिक- नामक कथा में कहा है कि एक युवा पुरुष गाड़ी पर अपनी पत्नी को लेकर कहीं जा रहा था। रास्ते में पत्नी
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