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श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४
जुलाई-दिसम्बर २००६
जैन 'हिन्दू' ही हैं, लेकिन किस अर्थ में?
विनायक दामोदर सावरकर
हिन्दू धर्म के कतिपय कर्मकांडों के विरुद्ध जन्में नए धर्मों को लेकर अक्सर एक ऊहापोह की स्थिति रही हैं। बल्कि कई बार तो ऐसी स्थितियाँ गढ़ी जाती है कि जो लोग इस विषय पर अपना स्वतन्त्र और सुरक्षित मत रखते हैं उन्हें भी, वे हिन्दू हैं या हिन्दू धर्म का एक हिस्सा हैं, इस पर सोचने को विवश कर दिया जाता है जिससे मनोमालिन्य उद्भूत होता है। इस वजह से देश में अप्रिय विवाद भी पैदा होते रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा हाल ही में हिन्दुत्व पर बनाई गई फिल्म में सिक्ख धर्म को हिन्दू समुदाय का अंग बनाए जाने को लेकर उपजा विवाद इसका सबसे ताजा उदाहरण है। लेकिन उत्तर प्रदेश के एटा जिले के एक स्कूल से सम्बन्धित मामले में शीर्ष अदालत ने यह साफ कर दिया है कि जैन समुदाय हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। माननीय सुप्रीमकोर्ट के न्यायमूर्ति श्री एस० बी० सिन्हा और न्यायमूर्ति श्री दलबीर भंडारी की दो सदस्यीय खण्डपीठ ने एटा जिले के कन्या जूनियर हाईस्कूल बालविद्या मंदिर के एक शिक्षक की सेवायें समाप्त करने से सम्बन्धित मामले में अपने ४५ पृष्ठ के फैसले में यह व्यवस्था दी कि एक धर्म विशेष के सदस्य द्वारा संस्था के संचालन मात्र से उसे अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा संचालित संस्था नहीं माना जा सकता। अदालत ने इसके पक्ष में संविधान निर्माताओं द्वारा इसे एक अलग धार्मिक इकाई के रूप में मान्यता दिए जाने और इसके प्रमाण संविद सभा की कार्यवाही में मौजद होने के तथ्य का उल्लेख भी किया है। अदालत का यह फैसला यकीनन दोनों समुदायों के बीच की स्थिति को स्पष्ट करता है। बल्कि वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार करीब ४२ लाख की जैन आबादी को यह अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में संविधान प्रदत्त तमाम अधिकारों से लैस भी करता है। आखिर भारत की कुल आबादी का यह समुदाय ०.४ प्रतिशत है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसे वैधानिक फैसलों से धार्मिक समुदायों के अन्तर्सम्बन्धों में भी खटास पड़ती है? नहीं ! यह सुखद है कि कानूनी रूप से पृथक् धार्मिक पहचान के बावजूद जैन व हिन्दू धर्मावलंबियों के बीच कभी कोई टकराव नहीं देखा गया है। दोनों समुदाय के अनुयायियों को आज भी एक
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