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११२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६
के समय तन्त्र का अभ्युदय हुआ। तान्त्रिकों ने मानव जीवन में मन्त्रों के महत्त्व - पर बल दिया। मन्त्रों की शक्ति अक्षय है और उनसे मानव सब कुछ, यहाँ तक कि मोक्ष भी पा सकता है, परन्तु इनके लिए निश्चित प्रक्रिया में बताये गये मन्त्रों का अभ्यास आवश्यक है। तन्त्र की मान्यता है कि पूरा विश्व शब्दों से उद्भूत है और परमसत्ता 'शिव' अपनी 'शक्ति' से संवलित होकर इन शक्तिशाली मन्त्रों को अर्थ देते हैं। इस प्रकार भारतीय भाषायी विचारधारा परमसत्तावादिता का जन्म उपनिषदों में और अन्त तन्त्र में होता है, अर्थात् अन्तत: साधना के आध्यात्मिक क्षेत्र में भारत के सभी दार्शनिक एकमत हो गये अथवा यह कहें कि वैदिक दर्शन विविध सम्प्रदायों और मतवादों का चक्कर लगाकर अन्त में तन्त्र में सिमट गया।
भारत की जीवन-पद्धति से सम्बद्ध उन विधाओं की तरह भाषा और शब्द का शास्त्र भी कभी दार्शनिक विचारणा से पृथक् नहीं रहा। इसने लोगों के जीवन पर स्थायी प्रभाव डाला। लोग परमसत्ता की उपेक्षा भाषा के क्षेत्र में भी नहीं कर पाये। विश्व की परिवर्तनधर्मिता के बावजूद अपरिवर्तित रहने वाली परमसत्ता को लोगों ने पहचाना। आस्तिक लोग परमसत्ता के द्वारा कष्ट, दुःख और असफलताओं के विरुद्ध शान्ति खोजने का प्रयास करते रहे। आज भी कोई भारतीय-विशेषतः हिन्दू जब किसी विपत्ति में होता है तो वह ईश्वर का नाम लेता हुआ विश्वास करता है कि नाम और नामी के अभेद सम्बन्ध वाला शब्दब्रह्म उसके सामने उपस्थित है जो अवश्य ही उसे विपत्ति से उबार लेगा। परिणामतः पूरी दार्शनिक पर्यालोचना में शब्द के व्यवहार और परमार्थ दोनों पक्षों का निरपवाद रूप से चिन्तन भारतीय शब्द-दर्शन की अजस्र उपलब्धि
सन्दर्भः १. ता मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्यत्रा भूर्यावेशयन्तीम्। ऋक्० १०/१०/१२५/३ २. भावद् ब्रह्म विष्ठीतं तावती वाक्। -वही, १०/१०/१४८/८ ३. ऋग्वेद १०/१०/१२५/४ ४. उत त्वं सव्ये स्थिरपीतमाहुनैर्न चिन्वन्त्यपि वजिनेषु।
अधेन्वा चरति माययैषा शुश्रुयामफलामपुष्पाम् ।। -ऋक्० १०/६/७१/५ ५. उत त्व: पश्यन्न ददर्श वाचमुतत्व: शृण्वन् शृणोत्येनाम् ।
उतो त्वस्मै तन्वं विसो जायेव पत्य उशती सुवासाः ।। - वही १०/६/७१/४ ६. गुहां तिष्ठन्तीरनृतस्य सेतौ। -वही, १०/५/६७ ७. चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
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