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११० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ किया है। बौद्ध तार्किकों के अनुसार जाति केवल काल्पनिक पदार्थ है, जिसकी बाह्य सत्ता नहीं है। क्षणिक विज्ञान ही सत् है और वह व्यक्त है, उसे शब्दों से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, अत: वह अव्यवहार्य है। बौद्धों के मत से शब्द किसी तत्त्व अथवा भावरूपता का उद्देश्य नहीं करते, वरन् जो शब्द का अर्थ है वह तद्भिन्न सारे अर्थों से भिन्न है। इसी तदभिन्नाभिन्नत्व या अपोह को ही बौद्ध पद का अर्थ मानते हैं। नैयायिकों और मीमांसकों के विरुद्ध दिङनाग का तर्क इसी पर अवलम्बित है। पदार्थ के स्वरूप के विषय में विभिन्न दर्शनों से सम्बद्ध जिन आचार्यों के मध्य दीर्घकाल तक विवाद चलता रहा, उनमें से प्रमुख हैं- दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, शान्तरक्षित, उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र, जयन्तभट्ट, कुमारिल एवं प्रभाकर किन्तु इन सभी दार्शनिकों ने वाणी के मुखरित स्वरूप-वैखरी पर ही विचार किया। उसके शेष रूपों-परा, पश्यन्ती और मध्यमा का विवेचन उपेक्षित ही बना रहा। इस महनीय आवश्यकता पर व्याडि, उपवर्ष, वसुरात्र एवं भर्तृहरि ने ध्यान आकृष्ट किया। इस प्रसंग में व्याडि, उपवर्ष एवं वसुरात्र के नाममात्र से ही हम परिचित हैं,जबकि भर्तृहरि की मान्यताओं को प्रकाशित करने वाला उनका ग्रंथ 'वाक्यपदीय' उपलब्ध है। इस ग्रन्थ से हमें शब्द के मोक्षदायक स्वरूप का ज्ञान होता है।
भर्तृहरि ने 'वाक्यपदीय' में उपनिषदों के अतिरिक्त अपने पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों का नामोल्लेख किया है जिससे इस शब्द शास्त्र की सुदीर्घ परम्परा का ज्ञान होता है। भर्तृहरि के अनुसार शब्दत्व में ही सारा शब्द जगत् और अर्थ जगत् विवर्त रूप में समाहित है।२३ भर्तृहरि शब्द की सबसे छोटी सार्थक इकाई वाक्य को मानते हैं। वाक्य में पदों का भेद और पदों में वर्गों का भेद अतात्त्विक है। जितना जो कुछ भी बोला जाता है, वह सब मिलकर एक और अविभाज्य है। पदों और वाक्यों का अर्थ कोई व्यक्ति को मानता है, कोई जाति को, जबकि भर्तृहरि के मत में शब्द का तात्त्विक अर्थ न तो जाति है और न व्यक्ति। यह अर्थ है-'शुद्ध सत्ता'। हमारी उदीरणा का अर्थ परमसत्ता है जिसे भर्तृहरि शब्दब्रह्म कहते हैं। अर्थवान तथा नित्य तात्त्विक शब्द परमसत्ता से नित्य सम्बन्ध रखते हैं। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध औत्पत्तिक नहीं है, वरन् स्वाभाविक है। शब्द स्वभावतः अर्थ का उद्भावक होता है। यदि कोई अर्थ ज्ञेय है तो वह बिना पदवाच्यता के स्थिर नहीं रह सकता। परमसत्ता अपने आपको पदों और पदार्थों के रूप में विवृत्त कर देती है। पद और पदार्थ में कोई भेद है और परमसत्ता - स्वयं भी शब्दतत्त्व है। भर्तृहरि के मत में भाषा की न्यूनतम इकाई वाक्य है।
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