________________
१२२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ 'ना' करता है। फिर भी उसे यदि जबरदस्ती हलवा खिलाना चाहता है तो उसे .. बुरा लगता है, दुःख होता है। खानेवाला व्यक्ति वही है और हलवा भी वही है, फिर भी धीरे-धीरे सुख समाप्त हो गया।
यहाँ यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि 'उसका पेट भर गया, इसलिये उसका सुख मिट गया है,' या ऐसा सुख प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है?इस प्रश्न के समाधान के लिये हम श्रोत्रेन्द्रिय के विषय सुख, संगीत या राग-रागिनियों को लें। किसी गायिका की मधुर ध्वनि का एक रेकार्ड भरा हुआ है, उसे सुनते ही चित्त प्रफुल्लित हो गया। फिर दुबारा वही रेकार्ड सुनाया गया तो उतना सुख न हुआ, इसी प्रकार तीन बार, चार बार, पाँच बार, छ: बार सुनाते-सुनाते यदि पचास बार सुनाया जाय तो अपनी प्रिय गायिका के कण्ठ की वही मधुर ध्वनि सुनने में नीरस लगने लगेगी। यद्यपि उस ध्वनि के बार-बार सनने से कान भर नहीं गये हैं, उसने कान में जगह नहीं रोकी है। फिर भी वही ध्वनि
और वही सुननेवाला होनेपर भी कान में वजन न बढ़ने तथा स्थान न घेरने पर भी सुख का समाप्त हो जाना इस बात का द्योतक है कि इन्द्रिय-सुख प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है।
इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय के विषय को लें-एक व्यक्ति विदेश से हजारों रुपये किराये में व्यय करके ताजमहल देखने आया। वह ताजमहल की पत्थर की पच्चीकारी को देखकर दंग रह गया। अपने को बड़ा सुखी अनुभव किया; परन्तु धीरे-धीरे ताजमहल के सौन्दर्य का वह सुख धीमा पड़ गया, घटता गया। छ:सात घंटे पश्चात् ताजमहल को देखते-देखते वह ऊब जायेगा और उसे वहाँ ठहरना या ताजमहल को देखना पसंद न आयेगा।
ताजमहल वही, देखनेवाला भी वही, व्यक्ति और ताजमहल देखने से न उसकी आँखों में स्थान भरा, न आँखें देखने से थकीं; क्योंकि आँखें तो अभी भी दूसरी वस्तुयें देख ही रही हैं, फिर भी उसका देखने का सुख समाप्त हो गया। यही तथ्य घ्राणेन्द्रिय के विषय-सुख गन्ध, स्पर्शेन्द्रिय के विषय-सुख कोमलता, मृदुता, शीतलता, उष्णता आदि पर भी घटित होता है, अर्थात् विषय-सुख प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है।
शक्तिक्षीणता- इन्द्रिय-सुख में इन्द्रिय और मन-वचन-काया की प्रवृत्ति कार्य करती है। यह नियम है कि प्रत्येक प्रवृत्ति में शक्ति का उपयोग होता है, इससे शक्ति क्षीण होती है। यही कारण है कि विषय-सुख को भोगते-भोगते इन्द्रिय, मन आदि भी थक जाते हैं।
अभाव- ऐसा कभी नहीं होता कि किसी की सभी कामनाएँ पूरी हो जाएँ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org