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तीर्थंकरों की मूर्तियों पर उकेरित चिह्न : १३५ चैत्यों में शाश्वत-जिन-प्रतिमाओं के थोक (stock) वर्णन से जिन-प्रतिमा की पूर्व अवधारणा प्राप्त कर सकते हैं। दोनों सम्प्रदायों की जैन परम्पराएँ सिद्धायतनों का निर्देश करती हैं। इनमें शाश्वत-जिनों की मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियाँ चार जिनों की हैं, नामतः चन्द्रानन, वारिषेण, ऋषभ और वर्द्धमान।' उन्हें शाश्वत जिन इसलिये कहते हैं क्योंकि प्रत्येक उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल में इनके नाम सदैव दोहराये जाते हैं और वे पंद्रह कर्मभूमियों में से किसी में भी विकसित होते हैं। सिद्धायतनों और शाश्वत जिनों का बृहद् विवरण जीवाभिगमसूत्र नामक उपांग ग्रन्थ में उपलब्ध है। ये सिद्धायतन विभिन्न स्वर्गों तथा पर्वत शिखरों पर पाये जाते हैं।
विभिन्न तीर्थंकरों के लांछनों का कोई भी निर्देश पुनः इन वर्णनों में नहीं पाया जाता है। लगभग छठी सदी के एक लेखन में वराहमिहिर कहते हैं कि अर्हतों के अनुयायियों के प्रभु घुटने तक पहुँचने वाली भुजाओं तथा वक्ष पर श्रीवत्स के चिह्न (mark) द्वारा प्ररूपित किये जाते हैं। दिखने में युवा एवं सुन्दर, प्रभु का मुख शांतिपूर्ण होता है तथा उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं होता। इस प्रकार वराहमिहिर ने जिनबिम्बों के लांछनों का कोई निर्देश नहीं किया है। ___मथुरा में हुई लगभग ३००-३१५ ईस्वी सन् की परिषद् में आर्य स्कन्दिल की वाचना के युग में भी समवायांगसूत्र, कल्पसूत्र एवं स्थानांगसूत्र में लांछनों की सूची प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त अवकाश था। परन्तु ऐसे आगम ग्रंथों में भी लांछनों का अभाव है। यहाँ तक कि लगभग ईस्वी सन् ४५३ के वलभी वाचना में भी हम ऐसे ग्रन्थों के उल्लेख नहीं पाते हैं।
निष्कर्षतः स्पष्ट है कि जिन बिम्बों के पादपीठों पर लांछन चौथी या पांचवीं ईस्वी सदी से दिये जाने लगे होंगे, किन्तु पादपीठ पर उनकी स्थिति निश्चित नहीं थी, न ही कला में लांछन सार्वभौमिक रूप से लोकप्रिय है। लखनऊ के प्रादेशिक संग्रहालय में एक छोटा वर्गाकार स्तम्भ, क्रमांक J.268 है जिसमें केवल दो ओर निम्न उभारदार उकेरण (low relief carvings) हैं जो मात्र मथुरा के कंकाली टीले से लाई गईं हैं। एक पर उभरे आकार में सिंहारूढ़ स्तम्भ की परिक्रमा करते हुए एक पुरुष और एक स्त्री दर्शाए गये हैं। उकेरण की शैली लगभग द्वितीय या प्रथम सदी ईसवी पूर्व की प्रतीत होती है। इस उभारदार आकार में स्तम्भ की परिक्रमा दर्शाती है कि यह सिंह-स्तम्भ एक पवित्र वस्तु माना जाता था। यह हमें उस गरुड़ध्वज का स्मरण कराता है जिसे विदिशा में विष्णु मन्दिर के समक्ष हेलिओडोरस द्वारा स्थापित कराया गया था। हमें तल-ध्वज राजधानी
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