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१३४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई - दिसम्बर २००६
लांछन है। जैसा कि चन्दा ने पढ़ा है, पादपीठ के किनारे पर एक शिलालेख की आंशिक रूप से सुरक्षित लकीर, उस चंद्रगुप्त को निर्दिष्ट करती है जिसे शिलालेख की लिपि के साक्ष्य से चंद्रगुप्त - II के रूप में पहचाना गया है।
कुषाण काल के मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त मूर्तिशिल्प पर तीर्थंकरों के लांछन नहीं पाये जाते हैं। जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है, गुप्तकाल के राजगिर से प्राप्त मूर्तिशिल्प पर वे दिखाई दिये हैं, परन्तु उनकी स्थिति अंतिम रूप से निर्णीत (fixed) नहीं हुई थी ।
वैभार पहाड़ी से गुप्तोत्तर काल का मूर्तिशिल्प, आदिनाथ को प्ररूपित करता हुआ लगभग सातवीं-आठवीं सदी का प्राप्त हुआ है जिसकी पादपीठ पर प्रत्येक बाजू में ऋषभ के द्वारा घेरे हुए (flanked) धर्म चक्र है। ऋषभ, आदिनाथ का लांछन है जिन्हें अपने कंधों पर छाये हुए केश कुंडल के द्वारा भी पहचाना गया है (देखिये, "Jaina Art and Architecture" - A Ghosh द्वारा सम्पादित, भाग १ प्लेट ९० ) । तत्पश्चात् धर्मचक्र को बाजू से घेरे हुए दो हिरण हैं जबकि लांछन धर्मचक्र के या तो ऊपर या नीचे, पादपीठ पर हैं।
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नछन कुठर के निकट सीता पहाड़ी से मध्य भारत में दो मूर्तिशिल्प हैं, जिनमें से एक कायोत्सर्ग मुद्रा में ऋषभनाथ हैं और अन्य पद्मासन मुद्रा में महावीर हैं, (Jaina Art and Architecture, भाग - १ ) ३ जहाँ पादपीठ के दोनों सिरों पर प्रत्येक पर लांछन है जब कि धर्मचक्र सामान्यतया केन्द्र में है। दोनों मूर्तिशिल्प कुषाण काल से गुप्तकाल शैली में हुई संक्रमण की प्रथमश्रेणी (stepe) को प्ररूपित करते हैं।
राजगिर मूर्ति शिल्पों में से एक अत्यंत जिज्ञासापूर्ण नमूना खोजा गया है । यहाँ पद्मासन पर स्थित तीर्थंकर के सिर के ऊपर सात सर्पफण हैं- और इसलिये वह या तो पार्श्वनाथ अथवा सुपार्श्वनाथ होना चाहिये, क्योंकि अन्य किसी भी तीर्थंकर के सिर पर सर्पफण नहीं होते हैं। धर्म चक्र के प्रत्येक ओर एक शंख है जो दोनों सम्प्रदायों के अनुसार नेमिनाथ का लांछन है। इसलिये स्पष्ट है कि या तो यह मूर्ति शिल्पी की भूल थी या लांछन तब तक अंतिम रूप से निर्णीत नहीं हुए थे। यह मूर्तिशिल्प पालकालीन कला का अपरिष्कृत नमूना है।
यद्यपि चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियों में से एक मूर्ति का भी वर्णन जैन आगमिक अंग ग्रंथों में नहीं मिलता है, तथापि सिद्धायतन कहे जाने वाले शाश्वत
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