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स्मृति प्रमाण (प्रमाणमीमांसा के संदर्भ में एक समीक्षात्मक अध्ययन ) : १५१
अप्रमाण नहीं कहा जा सकता है जैसा कि विरोधियों का मानना है। अनुमान के द्वारा गृहीत अग्नि का उत्तरकाल में प्रत्यक्ष होने पर उसे भी अप्रमाण नहीं माना जाता है। यदि अधिगत अर्थ का अधिगम करने पर भी प्रत्यक्ष के द्वारा अर्थाश का ज्ञान होना सम्भव है अतः वह प्रमाण है, तो स्मृति को भी इस आधार पर अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह भी वर्तमान काल में ज्ञात अर्थ का अतीत काल के रूप में ज्ञान कराने से अपूर्व अर्थाश का ज्ञान कराती है, अतः वह भी प्रमाण है । संक्षेप में कहें तो स्मृति प्रमाण है, क्योंकि प्रमाणान्तर से ज्ञात अर्थ का भी वह किसी अंश से अपूर्व अर्थ के रूप में ज्ञान कराती है । वादिदेवसूरि ने गृहीतग्राही स्मृति ज्ञान को भी पर व्यवसायी एवं अविसंवादक होने से प्रमाण माना है। अविद्यमान अतीत अर्थ में प्रवर्तक होने से स्मृति को अप्रमाण मानना उचित नहीं है। स्वकाल में भी स्मृति विद्यमान रहती ही है, स्मृतिकाल में भी स्मृति को ग्राह्य अर्थ की अप्रमाणता नहीं है। स्मृति ज्ञान का प्रामाण्य तो उसकी अविसंवादिता से है तथा अपने विषय की प्रकाशता से है । 17 आचार्य हेमचन्द्र का मानना है कि यदि स्मृति को प्रमाण नहीं माना जाए तो अनुमान को अप्रमाण मानना पड़ेगा। सभी वादी यह स्वीकार करते हैं कि लिङ्ग एवं लिङ्गी के सम्बन्ध से स्मरणपूर्वक अनुमान होता है। अतः अनुमान का होना स्मरण पर आश्रित है । इस कारण स्मरण को प्रमाण माने बिना अनुमान को प्रमाण नहीं माना जा सकता है। 18 इस प्रकार अकलङ्क, प्रभाचन्द्र, विद्यानन्द, वादिदेवसूरि और आचार्य हेमचन्द्र आदि जैनाचार्यों ने स्मृतिज्ञान को अविसंवादक, समारोष का व्यवच्छेद एवं कथञ्चित अगृहीत अर्थ का ग्राहक स्वीकार किया है। वे उसे प्रत्यक्ष की भाँति ही मानते हैं। स्मृति प्रयोजन भूत है उसके बिना अनुमान संभव नहीं है । यह परिच्छतिविशेष का प्रतिपादक है । इसलिए भी वह प्रत्यक्ष प्रमाण की भाँति प्रमाण है ।
आचार्य हेमचन्द्र तथा वादिदेवसूरि ने स्मृति को गृहीतग्राही होने पर प्रमाण माना है। 19 आचार्य हेमचन्द्र ने तो स्मृति में प्रामाण्य सिद्ध करते हुए जयन्तभट्ट के इस मत का भी उल्लेख किया है कि गृहीतग्राही होने से स्मृति का अप्रमाण्य नहीं है, अपितु अर्थ से उत्पन्न होने के कारण इसका अप्रमाण्य है। हेमचन्द्र इसका उत्तर देते हुए बौद्ध तथा नैयायिकों से कहते हैं कि जिस प्रकार दीपक अपनी सामग्री ( तेल, वाती आदि) से उत्पन्न होकर तथा घटादि से अनुत्पन्न रहकर भी घटादि को प्रकाशित करता है । उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम तथा इन्द्रिय एवं मन के बल से
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