Book Title: Sramana 2006 07
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 231
________________ श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४|| जुलाई-दिसम्बर २००६ पुस्तक समीक्षा ग्रन्थ का नाम: समयसार, लेखक : कुन्दकुन्द, हिन्दी टीकाकार, डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल, प्रकाशक : श्री कल्याणमल राजमल पाटनी, सिद्ध चेतना ट्रस्ट, कोलकाता एवं पण्डित टोडरमल सर्वोदय ट्रस्ट ए-४, बापू नगर जयपुर१५ (राज.) साइज, पृष्ठ ६२७ मूल्य-५० रुपये। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य शिरोमणि कुन्दकुन्द का जैन जगत् में क्या स्थान है, यह बताने की आवश्यकता नहीं। आचार्य का नाम न केवल जैनजगत् अपितु भारतीय संस्कृति के अन्य विद्वानों और आचार्यों द्वारा सम्मान के साथ लिया जाता है। वैसे तो समयसार पर अभी तक अनेकों प्रकाशन किये जा चके हैं किन्तु इस ग्रन्थ की विशेषता है कि इसकी टीका तथा पद्यानुवाद दोनों का महत्त्वपूर्ण कार्य डॉ० हुमचन्द भारिल्ल द्वारा किया गया है। यही विशेषता इसे समयसार पर हुए अन्य प्रकाशनों से अलग सिद्ध करती है। इस ग्रन्थ में ग्यारह परिशिष्टों के अन्तर्गत ४१५ गाथाओं का वर्णन किया गया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही संवर और निर्जरा जिसे मोक्ष का प्रधान कारण माना जाता है, का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ की एक अन्य विशेषता जीव-अजीव आदि नव तत्त्वों के माध्यम से किस प्रकार सम्यक दर्शन, ज्ञान-चारित्र रूप मोक्ष प्रकट होता है तथा बन्धन से ग्रस्त मानव किस प्रकार बन्धन से मुक्त हो मोक्ष प्राप्त करता है, इसकी उदाहरण सहित बहुत ही सरल और भावपूर्व अभिव्यक्ति डॉ० भारिल्ल द्वारा की गयी है। यह ग्रन्थ निश्चित रूप से उन लोगों के लिये स्वाध्याय का विषय है जो मोक्ष के चिन्तन में अपने चित्त को व्यर्थ ही इधर-उधर भटका कर अपना वक्त गवां रहे हैं। इस ग्रन्थ का सार यही है कि मनुष्य को अपने चित्त को एकमात्र मोक्षमार्ग में स्थापित करना चाहिए, इसकी उपलब्धि हेतु ही तत्त्वों का ज्ञान, पाप-पुण्य अधिकार, आस्त्रव, निर्जरा, बन्ध आदि का विवेचन किया गया है। मोक्ष निश्चयनय की दृष्टि से सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र, ही है अत: परद्रव्यों में विहार न करके अपने को स्वात्मा में स्थापित करना चाहिए क्योंकि जो व्यक्ति शुद्धनय रूप आत्मा को जानता है, वही ज्ञाता है। इसी को इस ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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