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स्मृति प्रमाण (प्रमाणमीमांसा के संदर्भ में एक समीक्षात्मक अध्ययन) : १४८
श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४|| | जुलाई-दिसम्बर२००६ ॥
स्मृति प्रमाण (प्रमाणमीमांसा के संदर्भ में) ____एक समीक्षात्मक अध्ययन
भूपेन्द्र शुक्ल
__ जैन नैयायिकों ने प्रमाण का विभाजन दो रूपों में विशद्ता तथा अविशदता के आधार पर किया गया है अर्थात् विशद् या स्पष्टता प्रत्यक्ष प्रमाण है; और जो सम्यक् निर्णय अविशद् हो अर्थात् जिस ज्ञान में 'इदम्' रूप का प्रतिभास न हो अथवा जिसकी उत्पत्ति में दूसरे प्रमाण की अपेक्षा हो वह परोक्ष प्रमाण कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष की तरह परोक्ष प्रमाण भी सम्यक् निर्णय रूप होता है, किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण विशद होता है जबकि परोक्ष में प्रमाण में विशदता नहीं होती है। दोनों ही प्रमाणों के स्वरूप में यही अन्तर है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी प्रमाणमीमांसा में परोक्ष प्रमाण के पाँच भेदों-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, ऊह, अनुमान और आगम का उल्लेख किया है।
जैन नैयायिकों ने स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को पृथक प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया है। भारतीय दर्शन के समस्त प्रस्थानों में प्रायः स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क या ऊह की चर्चा मिलती है। किन्तु इन्हें पृथक प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित नहीं करते हैं, जबकि लोक व्यवहार तथा अनुमान की प्रक्रिया में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
जैन दार्शनिकों ने स्मृति को प्रत्यक्ष एवं अनुमान से पृथक प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया है। तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्दों में स्मृति का उल्लेख किया गया है यथा- मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध । अकलङ्क ने मतिज्ञान के इन पर्यायवाची शब्दों को आधार बनाकर ही क्रमशः, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क प्रमाणों को स्थापित किया है। "स्मृति' शब्द से उन्होंने 'स्मृतिप्रमाण', "संज्ञा' शब्द से प्रत्यभिज्ञान प्रमाण
* शोध छात्र, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
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