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| श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४
जुलाई-दिसम्बर २००६ ।
जैन आगमों में शिल्प : एक दार्शनिक दृष्टि
डॉ० राघवेन्द्र पाण्डेय
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जैन आगम प्रमुख रूप से धर्म और दर्शन से सम्बन्धित है। उसमें जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आजीविका के साधनों का उल्लेख पर्याप्त रूप में प्राप्त होता है। भारतवर्ष कृषि प्रधान देश होते हुए भी कुटीर उद्योग में विकसित था। यहाँ के शिल्पी अपने कर्म में कुशल थे जिसकी चर्चा जैन आगमों में विस्तार से की गयी है। 'दशवैकालिकचूर्णि' में कुटीर उद्योगों से अर्थोपार्जन करने का उल्लेख मिलता है। * जैन आगम साहित्य से तत्कालीन सामाजिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। प्राचीन काल में पुत्र अपने पिता के व्यवसाय में दक्षता प्राप्त करता था। अधिकतर शिल्प वंश परम्परागत थे। शिल्पी को व्यावसायिक कुशलता उत्तराधिकार में ही प्राप्त होती थी। प्रायः पिता ही शिक्षक होता था और उसकी कार्यशाला शैक्षणिक प्रतिष्ठान होती थी। वंशानुगत प्रवृत्ति के साथ शिल्प के स्थानीकरण की भावना भी पाई जाती थी।
शिल्पियों ने अपनी निजी कार्यशालाएँ बना रखी थीं और वे अपने-अपने व्यवसाय के संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति सचेष्ट रहते थे। एक शिल्प विद्यालय का भी उल्लेख मिलता है जो कपिलवस्तु के आम्रोद्यान में स्थित था। उसमें विविध शिल्पों की शिक्षा प्रदान को जाती थी। जम्बूद्वीप में शिल्पियों के १८ श्रेणियों का उल्लेख मिलता है। 'वर्द्धकिरत्न' नाम का एक कुशल शिल्पी का भी वर्णन मिलता है जो राजा भरत के काल का सर्वगुण सम्पन्न शिल्पकार था।
शिल्पशालाओं के लिए पर्याप्त मात्रा में स्थान उपलब्ध थे। नगरों और गाँवों के बाहर उपलब्ध भूमि में शिल्पशालाएँ बनाई जाती थीं और शिल्पी अपना कार्य
करते थे। शिल्पशालाओं में कुम्भारशाला, लोहारशाला, पण्यशाला आदि नाम • प्राप्त होते हैं। लोहारों की शिल्पशाला 'कारशाला', 'समर' और 'आयस', कही
* पूर्व शोध-छात्र, दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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