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दुःख का कारण कमी नहीं कामना : ११९
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नहीं है। उससे पूछा जाय कि 'तुम बचपन में या आज से दस वर्ष पूर्व अधिक सुखी थे या आज? तो उत्तर मिलेगा कि मैं बचपन में या आज से दस वर्ष पूर्व ही अधिक सुखी था।
आशय यह कि प्रत्येक व्यक्ति की अनेक कामनाओं की पूर्ति होती है। एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसकी कोई भी कामना पूरी नहीं हुई हो; परन्तु उस कामना - पूर्ति से उसके सुख में वृद्धि हुई हो, ऐसा नहीं देखा जाता। इससे यह परिणाम निकलता है कि 'सुख कामना - पूर्ति में है', यह मान्यता मिथ्या है। सच्चाई यह है कि सुख कामना पूर्ति में नहीं, प्रत्युत् कामना के परित्याग में है ।
सुख कामनापूर्ति से नहीं : व्यक्ति की जब कामना पूर्ण हो जाती है, तब उसे सुखानुभूति होती है और वह समझता है कि उसका वह सुख कामनापूर्ति होने से ही मिला है; जो कि भ्रान्ति है। कारण कि कामनापूर्ति हेतु प्राप्त वस्तु अब भी उसी प्रकार उससे अलग है, जैसे पहले थी। अब केवल उस व्यक्ति में उस कामना की पूर्ति न होने का दुःख नहीं रहा अर्थात् कामना न * रेही, अतः सुख कामना न रहने से मिला। परन्तु कामना की पूर्ति कामना का अभाव युगपत् (एक साथ) होता है। इसलिये यह भ्रम हो जाता है कि सुख कामना - पूर्ति से मिला । यदि सुख कामना पूर्ति के रूप में प्राप्त वस्तु से मिलता तो वह सुख उस वस्तु के रहते बराबर मिलना चाहिये; परन्तु यह सर्वविदित है कि कामनापूर्तिजनित सुख प्रतिक्षण क्षीण होता है और एक स्थिति ऐसी आती है कि उस वस्तु से जनित सुख सूख जाता है तथा जीवन में नीरसता आ जाती है। नीरसता से मानव ऊबता है और सुख प्राप्ति के लिये फिर नयी कामना पैदा करता है। इस नयी कामना का भी यही परिणाम होता है, जो पूर्ण कामना का हुआ था, अर्थात् यह नयी कामना पूरी होती है और उससे प्राप्त सुख सूखकर नीरसता को प्राप्त हो जाता है। फिर नीरसता नयी कामना को जन्म देती है। इस प्रकार कामना-उत्पत्ति - पूर्ति का चक्र चलता रहता है। यह चक्र आनादि काल से चला आ रहा है। इस चक्र का कारण है- कामना पूर्ति से प्राप्त वस्तु में सुख मानना ।
उपर्युक्त तथ्य को हम एक उदाहरण से समझें
कल्पना करें कि एक व्यक्ति 'क' अध्यापक है । वह बड़ी शान्ति से बैठा है। इसी समय उसका सहपाठी पुराना मित्र 'ख' कार में बैठकर आता है और बातचीत के सिलसिले में बताता है कि वह किस प्रकार अपने व्यवसाय में सफल
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