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श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ जुलाई - दिसम्बर २००६
वर्णव्यवस्था - जैनधर्म तथा हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में
डा० दीपंजय श्रीवास्तव
विश्व के धर्मों में जैन एवं हिन्दू धर्म का विशिष्ट स्थान है। इनकी प्राचीनता का आकलन सम्भव नहीं है। एक अनादित: अस्तित्व में है तो दूसरे का उद्गम अपौरुषेय वेद से है। वैदिक वाङ्मय में तीर्थंकरों के नामोल्लेख से जैन धर्म की प्राचीनता प्रमाणित होती है। दोनों भारत के सनातन तथा जीवन्त धर्म हैं और दोनों में देश - काल की इयत्ता के अतिक्रमण का सामर्थ्य है। निश्चयतः वह दिन दूर नहीं जब युद्ध की विभीषिका से भयभीत विश्व का प्रत्येक मानव वास्तविक सुख और शान्ति के लिये इन धर्मों का स्वेच्छापूर्वक वरण करेगा ।
‘वर्णव्यवस्था' प्राचीन भारत में स्थापित उन शाश्वत मूल्यों में से एक है जिसकी स्थापना भौतिकी और आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए की गयी थी। प्राचीन भारत में वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में चार वर्णों का विभाजन किया गया था जिसका आधार समाज में व्याप्त सहयोग सामंजस्य, और सहकारिता की भावना थी।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'वर्ण' शब्द 'वृञ् वरणे' या 'वरी' धातु से बना है जिसका अर्थ है- वरण करना अथवा चुनना। अपने स्वभाव के अनुसार मनुष्य जिस व्यवसाय का वरण करता है वही उसका वर्ण होता है। अतः वर्ण का जाति से कोई अनिवार्य सम्बन्ध नही होता । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार भागों के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि ये ज्ञान, सुरक्षा, आजीविका तथा सेवा मनुष्य की चार स्वाभाविक इच्छाओं की तुष्टि करते हैं। इस दृष्टि से जो पठन-पाठन का कार्य करते हैं वे ब्राह्मण, जो रक्षा का कार्य करते हैं वे क्षत्रिय, जो व्यवसाय में रुचि लेते हैं वे वैश्य तथा जिनकी सेवा कार्य में विशेष अभिरुचि है, वे शूद्र कहलाते हैं। 'वर्ण' का यही वास्तविक अर्थ है। ऋग्वेद
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पुरुषसूक्त में चार वर्णों का वर्णन इस प्रकार आया है - विराट पुरुष ( परमेश्वर ) के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघों से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई है। इससे हमें पता चलता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
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