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जैन दर्शन व शैव सिद्धान्त दर्शन में प्रतिपादित मोक्ष : ८९
• अभाव रहता है।
सर्वलोकव्यापी के प्रश्न पर शैव सिद्धान्त भी इससे सहमत है कि मोक्षावस्था में शरीर का अभाव होता है अथवा जीव इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् समझता है, क्योंकि वह अपने आप को शिव में स्थित कर देता है और 'शिवोऽहं' भावना के अभ्यास द्वारा महसूस करता है कि मैं शिव हूँ। इस अभ्यास द्वारा आत्मा शिवमय हो जाती है। यही शैव सिद्धान्त की मुक्ति की उच्चतर अवस्था मानी गयी है। किन्तु इससे अलग वे जैन दर्शन के समान मुक्तात्मा का कोई स्वरूप स्वीकार नहीं करते।
अन्त में दोनों दर्शनों में तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात् हम कह सकते हैं कि ये दोनों दर्शन एक-दूसरे के पूरक हैं न कि विरोधी। अगर उनमें विरोध दिखाई देता है तो वह उनकी अपनी दार्शनिक संरचना के कारण तथा अपनेअपने मतों के प्रतिपादन का लेकर है।
जैन दर्शन जिसे समत्व की साधना कहता है शैव उसे शिवोऽहं की साधना "कहता है, क्योंकि जैन दर्शन में ज्ञानमीमांसा की पराकाष्ठा है तो शैव सिद्धान्त में भक्ति की पराकाष्ठा है। इसमें प्रधान अन्तर है तो यह की जहां शैव दर्शन में आत्मा मुक्ति के पश्चात् शिव में स्थित हो जाता है वहां जैन दर्शन में मुक्त जीवों के सिद्धशिला पर स्थित होने का वर्णन मिलता है। अत: महत्त्वपूर्ण भेदों के होते हुए भी दोनों दर्शनों में साम्यता भी सामान्य रूप से दिखाई देती है। सन्दर्भ १. सर्वार्थसिद्धि,१/४ २. सर्वार्थसिद्धि,उत्थानिका,पृ०१ ३. शिवज्ञान सिद्धियार,११/३२१ ४. शैव सिद्धान्त दर्शन ,पृ० १० ५. दयावैकालिकसूत्र,१/११/१२/१३ ६. शैव सिद्धान्त दर्शन, पृ० १५८ ७. शैव सिद्धान्त दर्शन, पृ० १५८-१५६ ८. शिवज्ञान सिद्धियार,११/३२१ ६. योगशास्त्र, पृ०४/५ १०. शैव सिद्धान्त दर्शन, पृ०१६६
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