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हिन्दू परम्परा में कर्म सिद्धान्त की अवधारणा : ९९
के नाश के लिए देवस्तुति का सहारा लिया गया एवं सजीव और निर्जीव वस्तुओं की यज्ञ में आहुति दी गई। यह मान्यता संहिता-काल से लेकर ब्राह्मण-काल तक विकसित हुई।
जिनकी यह मान्यता है कि वेदों अर्थात् संहिता-ग्रन्थों में कर्मवाद का उल्लेख है वे कहते हैं कि कर्मवाद, कर्मगति आदि शब्द भले ही वेदों में न हों किन्तु संहिताओं में कर्मवाद का उल्लेख ही नहीं है, यह धारणा सर्वथा निर्मूल है। कर्मवाद के सम्बन्ध में ऋग्वेद-संहिता में जो मन्त्र हैं वे इस प्रकार हैं :
शुभस्पतिः (शुभ कर्मों के रक्षक), धियस्पतिः (सत्कर्मों के रक्षक), विचर्षणिः तथा विश्वस्य कर्मणो धर्ता (सभी कर्मों के आधार) आदि पदों का देवों के विशेषणों के रूप में प्रयोग हुआ है। कई मन्त्रों में यह स्पष्ट कहा गया है कि शुभ कर्म करने से अमरत्व की प्राप्ति होती है। जीवन अनेक बार इस संसार में अपने कर्मों के अनुसार उत्पन्न होता है तथा मृत्यु को प्राप्त करता है। वामदेव ने पूर्व के अपने अनेक जन्मों का वर्णन किया है। पूर्व जन्म के • दुष्ट कर्मों के कारण लोग पापकर्म करने में प्रवृत्त होते हैं, इत्यादि उल्लेख वेदों के मन्त्रों में स्पष्ट हैं। पूर्व जन्म के पापकर्मों से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य देवों से प्रार्थना करता है। संचित तथा प्रारब्ध कर्मों का वर्णन भी मन्त्रों में है। इसी प्रकार देवयान एवं पितृयान का वर्णन तथा किस प्रकार अच्छे कर्म करने वाले लोग देवयान के द्वारा ब्रह्मलोक को और साधारण कर्म करने वाले पितृयान के द्वारा चन्द्रलोक को जाते हैं, इन बातों का वर्णन भी मन्त्रों में है। जीव पूर्व जन्म के नीच कर्मों के भोग के लिए किस प्रकार वृक्ष, लता आदि स्थावरशरीरों में प्रविष्ट होता है, इसका भी वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। "मा वो भुजेमान्यजातमेनो', “मा वा एनो अन्यकृतं भुजेम' आदि मन्त्रों से यह भी मालूम होता है कि एक जीव दूसरे जीव के द्वारा किये गये कर्मों का भी भोग कर सकता है जिससे बचने के लिए साधक ने इन मन्त्रों में प्रार्थना की है। साधारणत: जो जीव कर्म करता है वही उसके फल का भोग भी करता है किन्तु विशेष शक्ति के प्रभाव से एक जीव के कर्मफल को दूसरा भी भोग सकता है। कर्म की कतिपय दार्शनिक अवधारणा
न्याय दर्शन के अनुसार राग, द्वेष और मोह इन तीन दोषों से प्रेरणा संप्राप्त कर जीवों में मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ होती हैं और उससे धर्म और अधर्म की उत्पत्ति होती है। ये धर्म और अधर्म संस्कार कहलाते हैं।
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