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हिन्दू परम्परा में कर्म सिद्धान्त की अवधारणा : १०३
जैनदर्शन का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो सुख और दुःख प्राप्त हो रहा है उसका निर्माता आत्मा स्वयं ही है। जैसा आत्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा | २३ वैदिकदर्शन और बौद्धदर्शन की तरह वह कर्म फल के संविभाग में विश्वास नहीं करता । विश्वास ही नहीं, किन्तु उसका विचारधारा का खण्डन भी करता है।२४ एक व्यक्ति का कर्म दूसरे व्यक्ति में विभक्त नहीं किया जा सकता। यदि विभाग को स्वीकार किया जायेगा तो पुरुषार्थ और साधना का मूल्य ही क्या है ? पाप-पुण्य करेगा कोई और भरेगा कोई । अतः यह सिद्धान्त युक्तियुक्त नहीं है । २५
कर्मवाद का विकास
वैदिक युग में यज्ञवाद- देववाद दोनों का प्राधान्य था। जब यज्ञ तथा देव की अपेक्षा कर्म का महत्त्व बढ़ने लगा तब यज्ञवाद एवं देववाद के समर्थकों ने इन दोनों वादों का कर्मवाद के साथ समन्वय करने की चेष्टा से यज्ञ को ही देव तथा कर्म बना दिया एवं यज्ञ से ही समस्त फल की प्राप्ति स्वीकार की। इस मान्यता का दार्शनिक रूप मीमांसा दर्शन है। वैदिक परम्परा में प्रदत्त यज्ञ एवं देव विषयक महत्त्व के कारण यज्ञ कर्म के विकास के साथ-साथ देव विषयक विचारणा का भी विकास हुआ। ब्राह्मण काल में अनेक देवों के स्थान पर एक प्रजापति देवाधिदेव के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। प्रजापतिवादियों ने भी कर्म के साथ प्रजापति का समन्वय करने का प्रयत्न किया एवं कहा कि प्राणी अपने कर्म के अनुसार फल अवश्य प्राप्त करता है किन्तु यह फल प्राप्ति स्वतः न होकर देवाधिदेव ईश्वर के द्वारा होती है। ईश्वर जीवों को अपने - अपने कर्म के अनुसार ही फल प्रदान करता है, मनमाने ढंग से नहीं। वह न्यायाधीश की भांति आचरण करता है, स्वेच्छाचारी की भांति नहीं। इस मान्यता के समर्थक दर्शनों में न्याय-वैशेषिक, सेश्वर सांख्य तथा वेदान्त का समावेश होता है।
उपर्युक्त मतों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू परम्परा में कर्मविषयक मान्यताओं का अभाव तो नहीं है किन्तु यज्ञवाद एवं देववाद के प्रभुत्व के कारण कर्मवाद क्या है, कैसे उपार्जित होता है, किस प्रकार छूटता है, आदि प्रश्नों का हिन्दू परम्परा में स्पष्ट समाधान नहीं है। उनमें अधिकांशतः यज्ञकर्म को ही कर्म मान लिया गया है तथा देवों की सहायता की अत्यधिक अपेक्षा रखी गई है। कर्मवाद का जो रूप जैन, बौद्ध एवं अन्य भारतीय दर्शनों में उपलब्ध होता है उसका हिन्दू परम्परा में निःसन्देह अभाव है। जैन दर्शन में कर्म व्यवस्था का तो जैसा स्वरूप मिलता है वैसा अन्य किसी भी भारतीय
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