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१०६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६
ऋग्वेद के एक सूक्त में बृहस्पति को वाक् का रक्षक कहा गया है। वहाँ उल्लेख है कि पणि नामक एक राक्षस ने देवराज इन्द्र की सब गायें चुराकर अज्ञान की गुफा में छिपा दी। इन्द्र ने बृहस्पति से प्रार्थना की और बृहस्पति ने इन्द्र की गायें पणि से छीनकर उसे वापस कर दी। इस कथानक का एक लाक्षणिक संकेत यह है कि गायें ही वाणी हैं, जो अज्ञान में छिपी रहती हैं, जैसे ही वाणी का स्पष्ट स्वरूप व्यक्ति को प्रत्यक्ष होता है, यह पूरा विश्व उसके लिये वाणी से परिपूर्ण हो जाता है। मानव मस्तिष्क का अज्ञान दूर हो जाता है और ऐसे व्यक्ति के लिए अनुभव का संसार अपने रहस्य - मुक्त कर देता है । ऋग्वेद की एक ऋचा' में वाणी के चार भाग बताये गये हैं । महाभाष्यकार पतञ्जलि ने इस ऋचाको उद्धृत करते हुए इसके चार भाग- नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात स्वीकार किये हैं, जबकि नागेश भट्ट के अनुसार ये चार भाग परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी हैं।
ऋग्वेद के अतिरिक्त उदीरणा के गवेषित स्वरूप का परिचय 'शतपथब्राह्मण' ‘ताण्ड्यमहाब्राह्मण', 'तैत्तिरीय-आरण्यक' आदि से भी मिलता है। उपनिषदें भी इस विषय में पीछे नहीं हैं। ' ' तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि प्रारम्भ में वाणी का विश्लेषण नहीं हुआ था। एक बार देवताओं ने इन्द्र से इसके व्याकरण की प्रार्थना की और तब इन्द्र ने देवताओं के लिए वाणी को व्याकृत कर दिया । इन्द्र को प्रथम वैयाकरण माना जाता है, जिसने सर्वप्रथम भाषा का विश्लेषण करके उसे व्याकरण से शासित किया । १० इस प्रकार से भाषायी विश्लेषण का विधिवत प्रारम्भ वैदिक वाङ्मय में दिखायी देता है, जिसका परवर्ती काल में व्याकरण और मीमांसा जैसे दर्शनों में पूर्ण विकास हुआ।
भाषा का शुद्धतम और सर्वोत्तम स्वरूप उपनिषदों में अधिक सूक्ष्मता के साथ विवेचित हुआ है। वह वाणी जिसका हम प्रयोग करते हैं, कभी भी अवाङ्मनसगोचर परमतत्त्व (ब्रह्म) को प्राप्त नहीं कर सकती।" यदि वह अक्षर तत्त्व एक, शुद्ध और चेतन है तथा पूरा विश्व उसका विवर्त्त है, तो वाणी भी उसका विवर्त्त (अतात्त्विक) होने से उसे कैसे ग्रहण कर सकती है? उस तत्त्व का वर्णन तो निषेधमुखेन ही किया जा सका है। 'न इति' 'न इति' रूप में उपनिषदों में उसका निषेध रूप में वर्णन है। वस्तुतः वह तत्त्व मानव वाणी से परे है, तथापि 'माण्डूक्योपनिषद्' में उसके लिये ओम् शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसकी - आकार, उकार, मकार - तीन मात्राओं से तीन पादों का बोध करना बताया गया है। उक्त तीनों मात्राओं से परे ॐ पद की एक तुरीय मात्रा भी होती
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