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श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ जुलाई-दिसम्बर २००६
भारतीय विद्या में शब्दविषयक अवधारणा का
विकास
डॉ. जयन्त उपाध्याय
भाषा और भाषायी व्यवहार मनुष्य के आविर्भाव के साथ-साथ उद्भूत हुआ है। भारतीय मनीषा की दृष्टि में भाषायी व्यवहार की परम्परा अनादि है। भाषायीव्यवहार की आधारशिला शब्द है। शब्द के द्वारा अर्थाभिव्यक्ति वाग्व्यवहार का प्रयोजन है। शब्द और तदर्थ की मीमांसा वैदिक काल से ही प्रारम्भ हो गयी थी। वेद के संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद भागों में इसके पर्याप्त बीज मिलते हैं। मानव संस्कृति के विकास में यदि वेद को प्राचीनतम लिखित साक्ष्य मानें तो हमें यह मानना पड़ेगा कि तत्कालीन मानव ने भाषा के बारे सोचना प्रारम्भ कर दिया था। 'ऋग्वेद' के एक वाक्सूक्त में यह स्वीकार किया गया है कि उदीरणा या वाणी ईश्वरकृत है जिसे उसने सर्वत्र प्रसरित कर दिया। वैदिक ऋषियों का कहना है कि जब तक ब्रह्म की अवस्थिति है, तब तक वाक् की स्थिति है।" व्यक्ति का देखना, श्वास लेना और दूसरे की बातें सुनना - सब वाक् का ही प्रभाव है। वैदिक वाङ्मय के ये साक्ष्य यह स्पष्ट करते हैं कि तत्कालीन लोगों ने वाक् के विशेष महत्त्व को पहचाना था ।
वैदिक ऋषियों का मत है कि वाग्व्यवहार और अर्थबोध वाक् पर निर्भर होता है अतः व्यक्ति को सदा सार्थक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। निरर्थक शब्द उस वृक्ष की भाँति व्यर्थ है जो फलता-फूलता नहीं। " जो भाषा के सौन्दर्य को नहीं जानता, वह भाषा को देखते हुए भी नहीं देखता है और सुनते हुए भी नहीं सुनता है, जबकि वाणी अपने सौन्दर्य के पारखी व्यक्ति के लिए सभी रहस्य स्वयं उसी प्रकार खोल देती है, जिस प्रकार सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत स्त्री अपने पति के लिए अपना शरीर अनावृत कर देती है।
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* जनरल फेलो (आई. सी. पी.आर.) दर्शन एवं धर्म विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
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