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१०२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६
नूतन चिन्तन भी दृष्टिगोचर होता है। उपनिषदों के पूर्वकालीन वैदिक ग्रन्थों में कर्मविषयक इस चिन्तन का अभाव है। उनमें अदृष्टरूप कर्म का स्पष्ट दर्शन नहीं होता। श्वेताश्वतर - उपनिषद् के प्रारम्भ में विश्ववैचित्र्य का कारण मानने में उपनिषद् भी एकमत नहीं हैं। क्योंकि विश्ववैचित्र्य के जिन अनेक कारणों का उल्लेख है उनमें कर्म का समावेश नहीं है। वहाँ काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष ही निर्दिष्ट हैं।
तुलनात्मक परिचय ( ईश्वर और कर्मवाद)
जैनदर्शन का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है । १५ न्यायदर्शन १६ की तरह वह कर्मफल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता । कर्मफल का नियमन करने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। कर्म - परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम समुत्पन्न होता है १७ जिससे वह द्रव्य, १८ क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति ९ प्रभृति उदय के अनुकूल सामग्री से विपाकप्रदर्शन में समर्थ होकर आत्मा के संस्कारों को मलिन करता है उससे उनका फलोपभोग होता है। पीयूष और विष, पथ्य और अपथ्य भोजन में कुछ भी ज्ञान नहीं होता, तथापि आत्मा का संयोग पाकर वे अपनी-अपनी प्रकृति के अनुकूल विपाक उत्पन्न करते हैं। वह बिना किसी प्रेरणा अथवा बिना ज्ञान के अपना कार्य करते ही हैं। अपना प्रभाव डालते ही हैं। कर्म का संविभाग नहीं
वैदिक दर्शन का यह मन्तव्य है कि आत्मा सर्वशक्तिमान ईश्वर के हाथ की कठपुतली है। उससे स्वयं कुछ भी कार्य करने की क्षमता नहीं है । स्वर्ग और नरक में भेजने वाला, सुख और दुःख को देने वाला ईश्वर है। ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव स्वर्ग और नरक में जाता है | २०
जैनदर्शन के कर्मसिद्धान्त ने प्रस्तुत कथन का खण्डन करते हुए कहा कि ईश्वर किसी का उत्थान और पतन करने वाला नहीं है। वह तो वीतराग है। आत्मा ही अपना उत्थान और पतन करता है और जब आत्मा स्वभाव - दशा में रमण करता है तब उत्थान करता है और विभावदशा में रमण करने वाला आत्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष है, और स्वभावदशा में रमण करने वाला आत्मा कामधेनु और नन्दनवन है । २१ यह आत्मा सुख और दुःख का कर्ता, भोक्ता स्वयं ही है। शुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा मित्र है, और अशुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा शत्रु
है । २२
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