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हिन्दू परम्परा में कर्म सिद्धान्त की अवधारणा : ९७
धार्मिक क्रियाओं को कर्म रूप कहते हैं। बौद्ध दर्शन जीवों की विचित्रता के कारण को कर्म कहता है जो वासना रूप है। जैन-परम्परा में कर्म दो प्रकार का माना गया है-भावकर्म और द्रव्यकर्म। राग-द्वेषात्मक परिणाम अर्थात् कषाय भाव कर्म कहलाता है। कार्मण जाति का पुद्गल-जड़तत्त्व विशेष जो कि कषाय के कारण आत्मा-चेतनतत्त्व के साथ मिल जाता है, द्रव्यकर्म कहलाता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है- आत्मा के द्वारा प्राप्य होने वाली क्रिया को कर्म कहते हैं उस क्रिया के निमित्त से परिणमन-विशेष प्राप्त पुद्गल भी कर्म हैं। कर्म जो पुद्गल का ही एक विशेष रूप है, आत्मा से भिन्न एक विजातीय तत्त्व है। जब तक आत्मा के साथ इस विजातीय तत्त्व कर्म का संयोग है, तभी तक संसार है और इस संयोग के नाश होने पर आत्मा मुक्त हो जाता है। कर्मवाद और इच्छा-स्वातन्त्र्य ___प्राणी अनादिकाल से कर्म परम्परा में उलझा हुआ है। पुराने कर्मों का भोग एवं नये कर्मों का बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। प्राणी अपने कृतकर्मों को भोगता जाता है तथा नवीन कर्मों का उपार्जन करता जाता है। इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि प्राणी सर्वथा कर्माधीन है अर्थात् वह कर्मबन्ध को नहीं रोक सकता। यदि प्राणी का प्रत्येक कार्य कर्माधीन ही माना जाएगा तो वह अपनी आत्मशक्ति का स्वतन्त्रता पूर्वक उपयोग कैसे कर सकेगा? दूसरे शब्दों में, प्राणी को सर्वथा कर्माधीन मानने पर इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता। प्रत्येक क्रिया को कर्ममूलक मानने पर प्राणी का न अपने पर कोई अधिकार रह जाता है, न दूसरों पर। ऐसी दशा में उसकी समस्त क्रियाएँ या स्वचालित कर्म स्वत: अपना फल देते रहेंगे एवं उसकी तत्कालीन निश्चित कर्माधीन परिस्थिति के अनुसार नये कर्म बंधते रहेंगे जो समयानुसार भविष्य में अपना फल प्रदान करते हुए कर्म परम्परा को स्वचालित यन्त्र की भाँति बराबर आगे बढ़ाते रहेंगे। परिणामत: कर्मवाद नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद (Determinism or Necessitarianism) में परिणत हो जायेगा तथा इच्छा स्वातंत्र्य अथवा स्वतन्त्रतावाद (Frredom of Will or Libertarianism) का प्राणी के जीवन में कोई स्थान न रहेगा। कर्मवाद की विभिन्न अवधारणाएं
विश्व-वैचित्र्य के कारण की खोज करते हुए कुछ विचारकों ने कर्मवाद ' के स्थान पर अन्य वादों की स्थापना की है। इन वादों में प्रमुख हैं: कालवाद,
स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद, पुरुषवाद, दैववाद और
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