________________
श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४
जुलाई-दिसम्बर २००६
हिन्दू परम्परा में कर्म सिद्धान्त की अवधारणा
____डॉ. रजनीश शुक्ल
भारतीय तत्त्वचिन्तन में कर्मसिद्धान्त का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारतीय दर्शन, धर्म, साहित्य, कला विज्ञान आदि पर कर्म सिद्धान्त का प्रभाव स्पष्ट होता है। सुख-दुःख एवं सांसारिक वैविध्य का कारण ढूँढ़ते हुए भारतीय विचारकों ने कर्म के अद्भुत सिद्धान्त का अन्वेषण किया है। जन सामान्य की यह धारणा रही कि प्राणियों को प्राप्त होने वाला सुख-दुःख स्वकृत कर्मफल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जन्म एवं मृत्यु की जड़ कर्म है। जन्म और मरण ही सबसे बड़ा दुःख है। जीवन अपने शुभ और अशुभ कर्मों के साथ परभव में जाता है। जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। एक प्राणी दूसरे प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता। प्रत्येक प्राणी का कर्म स्वसम्बद्ध होता है, परसम्बद्ध नहीं। कर्म का अर्थ
कर्म का शाब्दिक अर्थ कार्य, प्रवृत्ति या क्रिया है। जीवन व्यवहार में जो कुछ भी कार्य किया जाता है वह कर्म कहलाता है। व्याकरण शास्त्र के कर्ता पाणिनि ने कर्म की व्याख्या करते हुए कहा-जो कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट हो वह कर्म है। मीमांसादर्शन ने क्रिया-काण्ड, यज्ञ आदि अनुष्ठान को कर्म कहा है। वैशेषिक दर्शन में कर्म की परिभाषा इस प्रकार है-जो एक द्रव्य में समवाय से रहता हो, जिसमें कोई गुण न हो, और जो संयोग या विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे, वही कर्म है। सांख्य दर्शन में संस्कार के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग मिलता है। गीता में कर्मशीलता को कर्म कहा है। न्यायशास्त्र में उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, तथा गमनरूप पाँच प्रकार की क्रियाओं के लिए कर्म शब्द व्यवहृत हुआ है। स्मार्त-विद्वान चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्तव्यों को कर्म की संज्ञा प्रदान करते हैं। पौराणिक लोग व्रत-नियम आदि . * शिक्षा निदेशक, श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन श्रुत संवर्धिनी महासभा, नई दिल्ली।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org