________________
वर्णव्यवस्था-जैनधर्म तथा हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में : ९३ अन्य जातीय पुरुष के द्वारा अन्य जातीय स्त्री में गर्भोत्पत्ति देखी जाती है। इससे सिद्ध है कि ब्राह्मणादि में जाति वैचित्र्य नहीं है। कोई जाति निन्दनीय नहीं है, गुण ही कल्याण करने वाले हैं। यही कारण है कि व्रत धारण करने वाले चाण्डाल को भी गणधरादि देव ब्राह्मण कहते हैं।२० विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल के विषय में पण्डित जन समदर्शी होते हैं।२१ 'पद्मचरित में बतलाया गया है कि 'नामधारी ब्राह्मण' जो सब प्रकार के आरम्भ में प्रवृत्त हैं, निरन्तर कुशील में लीन रहते हैं तथा क्रियाशील हैं वे केवल ब्राह्मण नामधारी ही हैं, वास्तविक ब्राह्मणत्व उनमें कुछ भी नहीं है।२२
जैन धर्म सम्पूर्ण मानव जाति को एक ही मानता है। जैन धर्म के अनुसार जातियों के भेद की कल्पना केवल आचार की विशेषता से ही की गयी है। ब्राह्मणों की प्रशंसनीय जाति कहीं भी नियत नहीं है, किन्तु जप-तप, पूजन-पाठ एवं अध्ययन अध्यापन आदि रूप समीचीन आचरण से ही प्राप्त होते हैं।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों ही वर्णवालों की जाति वस्तुत: एक है मनुष्य जाति है। उसके भीतर यदि विभाग किया जाता है तो वह विविध प्रकार के आचार से ही किया जाता है। यदि उक्त चारों वर्ण वालों के मध्य स्वभावत: जाति-भेद होता है तो फिर ब्राह्मणी से क्षत्रिय की उत्पत्ति किसी प्रकार से भी नहीं होनी चाहिए थी।
यदि यहां उत्तर दिया जाये कि शुद्ध शील वाली ब्राह्मण स्री में पवित्र आचार के धारक ब्राह्मण द्वारा जो पुत्र उत्पन्न किया गया हो, वह ब्राह्मण कहा जाता है, तो यह उत्तर भी ठीक नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण और ब्राह्मणेतर में सर्वकाल शुद्धशीलपन स्थित नहीं रह सकता है। इसका भी कारण यह है कि अनादि काल से आने वाले कुल में उस शुद्ध शीलता से पतन कहां नहीं होता है? कभी न कभी उस शुद्ध शीलता का विनाश होता ही है। जैन धर्म के अनुसार शूद्र भी धर्मपालन का अधिकारी है।
"शूद्रो ऽप्युपस्कराचारवपुः शुद्धास्तु ताद्रशः।
जात्या हीनोऽपि कालादिलब्यौ ह्यात्माऽस्ति धर्मभाक् ।।" उपकरण आचार और शरीर की पवित्रता से युक्त शूद्र भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान जिन धर्म सुनने का अधिकारी है। जाति से हीन भी आत्मा, काल आदि लब्धि के आने पर धर्म का अधिकारी होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org