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वर्णव्यवस्था-जैनधर्म तथा हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में ९१
'नामक चार वर्णों की उत्पत्ति विराट पुरुष ( परमेश्वर) से हुई है । भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण ने बतलाया है कि गुण और कर्म के अनुसार चारों वर्णों की उत्पत्ति भगवान से हुई है। महाभारत में कहा गया है कि इन चार वर्णों के स्वभाव और कर्म भिन्न-भिन्न हैं । ३
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भृगु संहिता के अनुसार ब्रह्मा ने सर्वप्रथम केवल ब्राह्मणों की ही सृष्टि की थी। पर आगे चलकर मानव जाति उनके रंगों के अनुसार चार वर्णों में विकसित हो गई। ब्राह्मणों का रंग सफेद, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला तथा शूद्रों का रंग काला था। किन्तु आगे चलकर स्वयं भृगु मुनि को स्वीकार करना पड़ा कि रंग के आधार पर वर्णों का वैज्ञानिक विभाजन नहीं किया जा सकता। वर्णों के विभाजन का वास्तविक आधार तो कर्म है। जो सत्त्व गुण प्रधान थे वे ब्राह्मण कहलाये, जो रजोगुण प्रधान थे वे क्षत्रिय हुये, जो तमोगुण मिश्रित रजो प्रधान व्यक्ति थे वे वैश्य कहलाये तथा जो तमोगुण प्रधान थे उन्हें शूद्र के नाम से अभिहित किया गया।
यद्यपि हिन्दू धर्म में वर्णव्यवस्था को माना गया है फिर भी इसे कट्टरता के साथ नहीं माना गया है। विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति तथा समूह अपनी सामाजिक जाति या वर्ण को बदल सकते हैं। विश्वामित्र, पुरामिध और अजामिध ब्राह्मण जाति के अन्तर्गत माने गये और उन्होंने वैदिक मंत्रों की भी रचना की । राजा जनक जन्म से क्षत्रिय होते हुये भी अपनी परिपक्व विद्वता तथा पवित्र चरित्र के कारण ब्राह्मण माने गये । शूद्र होते हुए भी व्यक्ति अच्छा कार्य करने पर ब्राह्मण हो सकता है | "
१. ब्राह्मण
ब्राह्मण का मुख्य धर्म वेदाध्ययन करना और कराना, यज्ञ करना और कराना, दान लेना और देना है।' निरूक्त तथा मनुस्मृति में कहा गया है कि विद्या ब्राह्मणों के पास आयी और सम्पत्ति के समान अपनी रक्षा करने के लिये ब्राह्मणों से प्रार्थना की। महाभारत के अनुसार सत्य, दान, क्षमा, शील, मृदुता, तप और दया आदि ब्राह्मण के लक्षण माने गये हैं । " आर्थिक क्षेत्र में विशेषाधिकार के अन्तर्गत ब्राह्मण को दान लेने का अधिकार था। यज्ञ की बची सामग्री ब्राह्मण की ही होती थी। उसके धन को राजा भी ग्रहण नहीं कर सकता था। वह राजकर
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से मुक्त था।' ब्राह्मण को प्रत्येक वर्ण में विवाह करने का अधिकार था। चार पत्नियां रखना उसकी स्थिति, गरिमा और प्रतिष्ठा को व्यक्त करती है । "
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