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७२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई - दिसम्बर २००६
तथा इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस प्रकार के प्रत्ययवादी दर्शन में " वास्तविक मनुष्य" के वास्तविकता की एक अभिव्यक्ति किसी अन्य स्थिति में होती है और यह अन्य स्थिति जो कुछ भी हो उसका सम्भाव्य स्वरूप पहले से ज्ञात है। अतः इस दर्शन तन्त्र में मनुष्य की व्यष्टिता का निषेध किया गया है। मनुष्य ब्रह्मरूप में वास्तविक है, व्यक्ति के रूप में नहीं।
दर्शनशास्त्र का इतिहास मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित प्रश्नों के वस्तुगत सामान्य तथा सुनिश्चित उत्तर की तलाश का इतिहास है, किन्तु अस्तित्ववादियों के अनुसार दर्शन का मुख्य कार्य सुनिश्चित उत्तर की खोज नहीं है। उन प्रश्नों का सुनिश्चित उत्तर हो ही नहीं सकता। दर्शन का मुख्य कार्य मनुष्य को अपने अस्तित्वगत समस्या के प्रति सचेत करना है तथा उत्तरों की भ्रामक तलाश करने की प्रवृत्ति को रोकना है । जीवन तथा जगत् एवं विचार तथा अस्तित्व के अलगाव की समस्या का समाधान विचार की सीमा में रह कर नहीं खोजा जा सकता है। अस्तित्ववादी दर्शन का मुख्य प्रयोजन मनुष्य के अस्तित्व की मूल संरचना का विश्लेषण करना तथा उसके मूलतः स्वतंत्र अस्तित्व का बोध कराना है । अस्तित्ववादी दर्शन मानवीय वास्तविकता का दर्शन है- 'अस्तित्व सार का पूर्वगामी है' यह कथन मानवीय वास्तविकता पर ही लागू होता है, वस्तुओं के समुदाय पर नहीं। दर्शन का लक्ष्य सामान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना नहीं है अपितु उसका उद्देश्य मनुष्य को दार्शनिकता के प्रथम बिन्दु पर यह प्रश्न पूछना है कि मनुष्य होने का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न को कोई एक वस्तुगत वैज्ञानिक तथा सुनिश्चित उत्तर नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए नहीं कि मनुष्य अपने सत्ता में निरन्तर एक प्रश्न बना रहता है। मानवीय वास्तविकता के सम्बन्ध में जगत् भी एक प्रश्न है। एक खुली सम्भावना है, दोनों के बारे में जितना कहा जाय वे उससे अधिक होते हैं। मानवीय व्यवहार को किसी सामान्य सूत्र द्वारा सीमित अथवा नियंत्रित नहीं किया जा सकता। उसका अपना व्यवहार भी उसकी वास्तविकता को परिसीमित नहीं कर सकता, क्योंकि मनुष्य अपने ही व्यवहार द्वारा निरन्तर अपना निर्माण करता रहता है।
अस्तित्ववाद व्यक्तिवादी होने के कारण व्यक्ति की समस्याओं को यथार्थ रूप से प्रस्तुत करता है लेकिन उनके समाधान के लिए कोई ठोस रास्ता नहीं दिखाता है। अतः अस्तित्ववाद में किसी प्रश्न का समाधान नहीं मिलता है। अस्तित्ववादी प्रश्नों के समाधान के लिए हमें अध्यात्मवादी दर्शनों की शरण लेनी पड़ती है।
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