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अनेकान्तवाद–एक दृष्टि : ७१ अस्तित्ववादी विचारक व्यक्ति को विशेष महत्त्व देते हैं तथा अस्तित्व को सार का पूर्वगामी मानते हैं। उनके अनुसार विशेष ही यथार्थ है तथा सार्वभौम मिथ्या अथवा सन्देहात्मक। अस्तित्ववाद को व्याख्यायित करते हुए सार्च की महत्त्वपूर्ण उक्ति है कि “अस्तित्व सार का पूर्वगामी है।" इस कथन के अर्थ को इस उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। कुर्सी एक पदार्थ है, बढ़ई ने इसका निर्माण किया, कुर्सी को बनाने की प्रेरणा उसे कुर्सी के प्रत्यय से मिली अर्थात् कुर्सी का प्रत्यय उसके मन में पहले आया और उसी विचार को उसने अपने निर्माण कौशल द्वारा वस्तु का रूप दे दिया। कुर्सी बनने के पहले उसके मन में पहले से यह धारणा थी कि कुर्सी क्या होती है। उसका रूप, आकार कैसा होता है और उसकी जरूरत क्या होगी, इत्यादि। किसी विशेष कुर्सी के निर्माण के पहले यह धारणा विद्यमान पहले रहती है तथा उसके स्वरूप को निर्धारित तथा परिभाषित करती है। हम कह सकते हैं कि कुर्सी का अस्तित्व उसके सार द्वारा निर्धारित है। कुर्सी के सार से अर्थ उसके गुण, उपयोगिता तथा उसके निर्माण विधि से है। कुर्सी के वास्तविक आने से पूर्व यह सब बातें बढ़ई • के मन में पहले से विद्यमान थीं, और उसी के नाते वह कुर्सी का निर्माण करता है। कुर्सी के अस्तित्व के हर पहलू रंग, आकार, रूप आदि पूर्व विद्यमान प्रत्यय द्वारा निर्धारित हैं। उसके अस्तित्व में अपने से पूर्व उसका सार निर्धारित हो चुका होता है।
देकार्त तथा लाइबनित्स जैसे दार्शनिक जो कि सृष्टिकर्ता ईश्वर में विश्वास करते हैं। मनुष्य के अस्तित्व को कुर्सी की तरह पूर्व निर्धारित बना देते हैं। सृष्टिकर्ता ईश्वर के मन में अपनी सृष्टि, जिसमें मनुष्य सम्मिलित है, का प्रत्यय उसी प्रकार पूर्व विद्यमान होता है जिस प्रकार बढ़ई के मन में कुर्सी का प्रत्यय पूर्व विद्यमान होता है। ईश्वर एक महान कलाकार है, उसके दैवी विवेक अथवा प्रत्यय का परिणाम मनुष्य है। ईश्वर ने इच्छा किया प्रकाश हो गया। उसी प्रकार ईश्वर के मन में विचार आया कि एक सृष्टि की रचना हो, मनुष्य जैसा प्राणी हो जो अमुक-अमुक लक्षणों से युक्त हो। ऐसे मनुष्य के सम्बन्ध में उसका सार उसके अस्तित्व का उसी प्रकार पूर्वगामी है जिस प्रकार कुर्सी का सार उसके अस्तित्व का पूर्वगामी है। यह कहा जा सकता है कि सभी प्रत्ययवादी दर्शन तो सृष्टिकर्ता ईश्वर को परम सत् के रूप में नहीं स्वीकार करते। ब्रह्मवादियों तथा निरपेक्षवादियों की ओर से यह कहा जा सकता है कि यह ब्रह्म कोई अतिरिक्त या पारलौकिक सत्ता नहीं है, अपितु यह मनुष्य के स्वरूप का एक आयाम है
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