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श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४
जुलाई-दिसम्बर २००६
जैन दर्शन व शैव सिद्धान्त दर्शन में प्रतिपादित मोक्षः एक तुलनात्मक अध्ययन
डा० शारदा सिंह
भारतीय परम्परा के अन्तर्गत वैदिक, अवैदिक और आगमिक परम्परा की सामान्य मान्यता है कि मानव जीवन एक संतुलित और परिष्कृत जीवन है जिसका केन्द्र हमारा व्यक्तित्व है और वास्तव में समत्वपूर्ण व्यक्तित्व ही मानव जीवन का लक्ष्य है। समत्वपूर्ण जीवन आत्मकेन्द्रित होता है। इसी कारण भारतीय दर्शन का लक्ष्य हमें अपने आत्मा का केन्द्र अर्थात् परम साध्य मोक्ष को पाने में हमारी मदद करना है।
मोक्ष विचार जैन दर्शन और शैव सिद्धान्त दर्शन का ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय दर्शन का एक मूल प्रश्न है। प्रस्तुत लेख में हम शैव सिद्धान्त तथा जैन दर्शन में प्रतिपादित मोक्ष तत्त्व की विवेचना करेंगे। जैन दर्शन के निवृत्तिमार्गी और शैव सिद्धान्त के प्रवृत्तिमार्गी होने से दोनों ही दर्शनों में अपनीअपनी परम्परा की विशेषताएं समान रूप से परिलक्षित होती है। ये दर्शन अपनी परम्परा की विचारधाराओं को अपने-अपने ढंग से व्यक्त करने का प्रयास करते है। इसलिये जहां उनमें वैचारिक समानता पायी जाती है वहीं विषमताएं भी स्पष्ट रूप से इंगित होती हैं। इन विषमताओं का मूल कारण दोनों दर्शनों में मान्य तात्त्विक अवधारणा है। इन्हीं मान्यताओं के कारण ही दोनों दर्शनों का सैद्धान्तिक मतभेद है।
जैन विचारधारा के अनुसार “बन्धहेत्वाभाव निर्जराभ्यां कृत्स्नकाय विप्रमोक्षो मोक्षः१ अर्थात् बन्ध हेतुओं (मिथ्यात्व व कषाय आदि) के अभाव व निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है। इसी प्रकार मोक्ष का स्वरूप बताते हुये कहा गया है कि 'निरवशेषनिराकृत कर्ममलकलंकस्यः शरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविक ज्ञानादिगुणमव्याबाधसुखमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति'२ अर्थात् आत्मा जब कर्ममल रूपी कलंक और शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देती है तब जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि रूप और
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