________________
६८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ परिस्थितियों को महत्त्व देती है। उपरोक्त पाँच दृष्टियों में से जैन दर्शन की विशेषता यह है कि वह सभी दृष्टियों को सापेक्षतः सत्य अथवा किसी विशेष संदर्भ में सत्य मानने को तैयार है लेकिन संदर्भ मुक्त होकर किसी भी दृष्टि की असत्यता को स्वीकार करना अनर्थकारी नहीं होगा। भाषा का प्रयोग एक निश्चित अभिप्राय से किया जाता है अत: वाक्यों के माध्यम से एक निश्चित अभिप्राय का उन्मेष होने पर अन्य अभिप्राय अनिश्चित अथवा अवक्तव्य हो जाते हैं उस अवक्तव्यता को तत्त्व का अभाव समझना ठीक नहीं होगा अथवा एक अभिप्राय होने पर यह नहीं समझना चाहिए कि अन्य अभिप्राय के आलम्बन तत्त्व में नहीं हैं। अनेक दर्शनों तथा धर्मों ने अवक्तव्यता के तत्त्व को भली प्रकार से नहीं समझा है जिससे अनेक भ्रम खड़े हो जाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करते समय यह नहीं समझना चाहिए कि कोई पदार्थ मात्र इलेक्ट्रान, प्रोटान का संग्रह है। सौंदर्य की दृष्टि से भी तत्त्व का एक पृथक् आयाम है। कोई भी दृष्टि चेतना के एक निश्चित पहलू की ही अभिव्यक्ति होती है, अत: उस दृष्टि के समानान्तर बाह्यार्थ का एक निश्चित पहलू ही दृष्टि पथ पर अंकित होता है, लेकिन अनेक लोग उस दृष्टि की प्रगाढ भावना के कारण, दृष्टि विषयक आसक्ति के कारण अन्य दृष्टियों की उपेक्षा कर देते हैं, जिससे तत्त्व का वास्तविक स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता है। जैन दर्शन के अनेकवादी सिद्धान्त की कुछ विशेषता उपर्युक्त वर्णित चार दृष्टियों के विश्लेषण से स्पष्ट हो सकती है।
प्रथम दृष्टि के उदाहरण के रूप में अद्वैत वेदान्त को लिया जा सकता है- अद्वैत वेदान्त की यह मान्यता है कि ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है। शंकराचार्य के अनुसार ईश्वर- सत्, चित् और आनन्द स्वरूप है। जीव सत्-असत्, चित्-अचित् और सुख-दुःख का मिश्रण है। जीव
और ईश्वर का भेद व्यावहारिक है लेकिन परमार्थतः जीव और ईश्वर में कोई भेद नहीं है। वस्तुत: जीव, ईश्वर और ब्रह्म एक ही है। अनादि अविद्या की गाढ़ निद्रा में चिरकाल से सोया जीव जब तत्त्वमसि (आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता ही तत्त्वमसि है) आदि वाक्य ज्ञान से जागता है, तब उसे देह, इन्द्रिय, बुद्धि की उपाधि से परे अद्वैत आत्मतत्त्व का साक्षात्कार होता है। जीव और ईश्वर दोनों अविद्या से युक्त है। परन्तु ईश्वर की अविद्या शक्ति मूलाशक्ति या माया शक्ति कहलाती है। जीव के लिए यह अविद्या है। ईश्वर अविद्या को अपने वेश में रखता है। जीव को अविद्या अपने वश में कर लेती है। जीव सांसारिक दुःख सुखादि का अनुभव करता है, परन्तु ईश्वर नहीं। जीव अज्ञान के कारण देह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org