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अनेकान्तवाद-एक दृष्टि : ६७
से सीमित होने के कारण आयी हुई परतंत्रता तथा द्वितीय- किसी विशेष प्रकार से सीमा के कारण आई हुई परतंत्रता। प्रथम प्रकार की परतंत्रता व्यक्ति की सत्ता को किसी अन्य प्रकार की सत्ता पर आश्रित मानने से आती है तथा द्वितीय प्रकार की परतंत्रता व्यक्ति की ज्ञान, दर्शन और क्रिया की सीमा को मानने से आती है। जैन दार्शनिक दोनों प्रकार की परतंत्रताओं से मुक्त होने के लिए अनेकान्तवाद का सहारा लेते हैं। वे एक ओर व्यक्ति को स्वतंत्र मानते हैं तथा दूसरी ओर जगत् के यथार्थ चित्रकार स्वरूप का अपोहन भी नहीं स्वीकार करते हैं। अनेक दार्शनिक व्यक्ति को स्वतंत्र मानते समय जगत् को ही भ्रम स्वरूप वाला मान लेते हैं। इस प्रकार जगत् के चित्रकार स्वरूप का निषेध यथार्थता की दृष्टि से अथवा मानवीय संवेदना की दृष्टि से अयथार्थ प्रतीत होता है। जैन दार्शनिक “अनेकान्तवाद" के माध्यम से सत्ता के प्रत्येक पहलू के साथ अनावश्यक छेड़खानी को निन्दनीय मानते हैं। अहिंसा का स्थान न केवल नैतिकता के स्तर पर है, अपितु तात्त्विक स्तर पर भी है। अहिंसा ही तात्त्विक स्तर पर "अनेकान्तवाद" के रूप में प्रतिष्ठित है। जब कोई भी तथ्य तात्त्विक स्तर पर अहिंसात्मक है तो विभिन्न धर्मों में विरोध तत्त्व के "अनेकान्तवादी" स्वरूप को न समझने के कारण ही हो सकता है, या फिर उनके मध्य समन्वय तत्त्व के “अनेकान्तवादी' स्वरूप को न समझने के कारण हो सकता है। अतः "अनेकान्तवाद" विभिन्न धर्मों में समन्वय के लिए एक उचित माध्यम बन सकता
भारतीय दर्शन में तत्त्व के स्वरूप के विषय में तीन प्रमुख दृष्टियाँ पायी जाती हैं- प्रथम तत्त्व एक है, वह अद्वयरूप है तथा भेद मिथ्या है अथवा कभीकभी यह प्रतिपादित करने की चेष्टा की जाती है कि किसी विशेष यथार्थवादी दर्शन का मत भी यथार्थ मत है। अन्य मत अयथार्थ हैं। द्वितीय- सभी मत असत्य हैं अथवा भ्रामक हैं, तत्त्व शून्य है। तृतीय तत्त्व अनेकान्त स्वरूप वाला है। अन्तिम दो दृष्टियाँ श्रमण परम्परा में पायी जाती हैं तथा प्रथम दृष्टि का सबल प्रतिपादन ब्राह्मण परम्परा में देखने में आता है। प्रथम दृष्टि के उदाहरण के रूप में हम अद्वैत वेदान्त के रूप में ले सकते हैं। द्वितीय दृष्टि का उदाहरण माध्यमिक दर्शन है, तथा तृतीय दृष्टि का उदाहरण जैन परम्परा है। इन तीन दृष्टियों के अतिरिक्त दो अन्य प्रकार की भी दृष्टियों का प्रचार आधुनिक पाश्चात्य परम्परा में बहुलता से दिखाई पड़ता है। प्रथम अस्तित्ववादी परम्परा, जो व्यक्ति की स्वतंत्रता पर बल देती है तथा द्वितीय मार्क्सवादी परम्परा जो व्यक्ति की अपेक्षा
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