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जैन दर्शन में ईश्वर विचार : ५७
बताती है। किन्तु जैन परम्परा में कर्म करने में व्यक्ति पूर्णत: बँधा हुआ नहीं है। वह कर्म के फल भोगने में अवश्य बंधा हुआ है, किन्तु कर्म के उपार्जन में वह स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छा से कर्मोपार्जन कर सकता है। अतः ईश्वरवाद का ईश्वर और जैन दर्शन का कर्म एक नहीं कहा जा सकता।
___ उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता हैं कि किसी भी तथ्य के द्वारा ईश्वर का जगत्कर्ता या सृष्टिकर्ता सिद्ध नहीं होता है। सन्दर्भ सूची१. श्री रामचरितमानस- टीकाकार- हनुमान प्रसाद पौद्दार, गीता प्रेस, गोरखपुर
एक सौ इकसठवां संस्करण-वि. सं. २०५७, उत्तरकाण्ड ९८/१, पृष्ठ-९८५ तथा "नर मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद उस गावत।।"
- वही, किष्किन्धाकाण्ड - ६/१२, पृ.६७३। २. आचार्य हेमचन्द्र ने वर्द्धमान महावीर की स्तुति रूप बत्तीस-बत्तीस श्लोक प्रमाण दो
स्तवनों की भावपूर्ण विशिष्ट रचना की- प्रथम 'अयोगव्यवच्छेदस्तवन' और द्वितीय 'अन्ययोगव्यवच्छेदस्तवन'। स्यादवाद की उपयोगिता सिद्ध करने का अभीष्ट साधन दूसरे स्तवन को जानकर श्री मल्लिषेण सूरि ने उस पर महत्त्वपूर्ण विस्तृत टीका
'स्याद्वादमंजरी' लिखी है। ३. स्याद्वादमंजरी- सम्पादक- श्री पं.जवाहिरलाल जी शास्त्री तथा प. वंशीधर जी शास्त्री,
परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास (गुजरात), प्रथम संस्करण
१९१०ई. सन्- श्लोक-६, पृष्ठ-२८ । ४. स्याद्वादमंजरी- सम्पादक- डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, द्वितीय संस्करण-१९३५ ई.
सन्, पृष्ठ-२८॥ ५. वही, पृष्ठ-३४। ६. वही, पृष्ठ-३७। ७. वही, तृतीय संस्करण-१९७० ई., पृष्ठ-३९। ८. वही, पृष्ठ-४०।
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