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अनेकान्तवाद एवं उसकी प्रासंगिकता : ५९ सम्बन्धी दार्शनिक धारणाओं की विवेचना करें तो हम देखेंगे कि उपनिषदों में घट के उपादान-कारण मृत्तिका को ही परम सत्य मानकर उसके सभी गुणों को नाम रूप की संज्ञा देकर सत्य से वंचित कर दिया गया। इसके विपरीत बौद्धों ने घट की पृष्ठभूमि में किसी चिरस्थायी एवं नित्य सत्य की कल्पना न करके उसे गुणों का पुंजीकरण मात्र माना है। जैनों के अनुसार यद्यपि घट के अस्तित्वसम्बन्धी ये दोनों सिद्धान्त (उपनिषद् एवं बौद्ध) अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य हैं तथापि उनकी कमी केवल इसमें है कि वे अपने विचारों को परम सत्य मानते हैं। प्रत्येक वस्तु में कुछ ऐसे तथ्य होते हैं जो सदैव अपरिवर्तनशील रहते हैं, उदाहरण के लिए घट में मृत्तिका अपरिवर्तनशील है। इसके अतिरिक्त उसमें कुछ गुण भी होते हैं जो सदैव नष्ट एवं उत्पन्न हुआ करते हैं, जैसे घट का रंग, रूप आदि। घट की उत्पत्ति के पूर्व मृत्तिका एक ढेले के रूप में थी, उसकी उत्पत्ति के बाद वह घट रूप हो गई तथा उसके ध्वंस के उपरान्त वही मृत्तिका घट के सैकड़ों टुकड़ों में परिवर्तित हो जायेगी । अतएव बौद्धों के समान यह कल्पना करना कि घट में कोई चिरस्थायी एवं अपरिवर्तनशील द्रव्य नहीं है, यह विचार जैनों के अनुसार अनुभव विरुद्ध है। इसी प्रकार उपनिषदों की यह धारणा कि गुणों की अपनी कोई सत्ता नहीं है, भ्रामक सिद्ध होता है क्योंकि गुणों के अभाव में वस्तु का अस्तित्व ही असम्भव है। जैनों के मत से औपनिषद एवं बौद्ध दोनों सिद्धान्त एक विशेष दृष्टिकोण से अर्धसत्य मात्र हैं। भारतीय दर्शन में जैनों का यह सिद्धान्त अनेकान्तवाद के नाम से विख्यात है। किसी वस्तु के एक ही दृष्टिकोण को सर्वोपरि मानकर अन्य दृष्टिकोणों की अवहेलना करना एकान्तवाद है जिसका उदाहरण हमें औपनिषद् एवं बौद्ध दर्शनों में मिलता हैं। इसके विपरीत सभी दृष्टिकोणों की सत्यता में आस्था रखकर उन्हें तथ्य की विशेषाभिव्यक्ति मानना अनेकान्तवाद कहलाता है जो जैन दर्शन की प्रमुख विशेषता है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है और जैनेतर सभी दर्शन एकान्तवादी हैं। स्पष्टतः अनेकान्तवाद समन्वयवाद का एक सबल प्रकार है।
भारतीय दर्शन में अनेकान्तवाद का सिद्धान्त समन्वयात्मक पक्ष को बल प्रदान करने वाला एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है जो जैन दर्शन की विशिष्ट देन है। यह जीवन के आचार-विचार, व्यवहार और तत्त्वचिन्तन दोनों को प्रभावित करता है। इस सिद्धान्त की उद्भावना में समता और सहिष्णुता की वह भावना निःसन्देह सहायक रही है जो जैन दर्शन की आधारभूमि है। आचार और विचार • के प्रति व्यापक दृष्टिकोण का अभाव, दूसरे के कथनों या मान्यताओं में दोष देखना या विचार-स्वातन्त्र्य का विरोध आदि ऐसी परिस्थितियों को जन्म देते
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