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५६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६
लोगों ने उसे नित्य घोषित किया है। किन्तु इसका खण्डन करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने जो तर्क प्रस्तुत किया है, उसमें पहली बात यह आती है कि ईश्वरवाद में ईश्वर को जगत् का कर्ता माना गया है। किसी भी कार्य का कर्ता तब निर्धारित होता है जब कार्य समाप्त हो जाता है। कार्य समाप्त होने से पूर्व किसी भी हालत में यह नहीं कहा जा सकता कि उसका कर्ता कौन हैं, क्योंकि कार्य पूरा होने से पहले उसको सम्पन्न करने में एक नहीं, बल्कि अनेक लोगों के हाथ हो सकते हैं। अतएव कार्य समाप्त होने पर ही यह कहा जा सकता है कि उसका कर्ता एक है, या दो हैं, या अनेक (कितने) हैं। ईश्वर क्योंकि जगत् का कर्ता है इसलिए यह समझा जाता है कि ईश्वर का कार्य पूरा हो चुका है। अन्यथा उसे कर्ता नहीं कहा जाता। कार्य पूरा होने का मतलब है कार्य नित्य नहीं हैं, क्योंकि वह समाप्त हो चुका है। आगे एक सिद्धान्त यह भी आता है कि कार्य से ही कर्ता का बोध होता है, जैसे- “अर्थ क्रियाकारित्वम् सत् ।" सत् या व्यक्ति को वैसा ही समझा जाता है जैसा वह करता है, यानी जैसा उसका कार्य होता है। यदि उसका कार्य अनित्य है तो वह अनित्य समझा जायेगा। यदि कार्य नित्य है तो उसका कर्ता भी नित्य माना जायेगा। ईश्वर चूँकि इस जगत् का कर्ता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि उसका कार्य समाप्त हो चुका है और नित्य नहीं है। इस आधार पर यह प्रमाणित होता है कि अनित्य कार्य या अनित्य सृष्टि का कर्ता ईश्वर भी अनित्य है। ____ जैन चिन्तन में जब ईश्वर का खण्डन हो जाता है तो उसके साथ ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ईश्वरवाद में तो सब कुछ ईश्वर करता है, क्योंकि वह सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता है। किन्तु ईश्वर के अभाव में वे सारे कार्य कैसे होते हैं जिन्हें ईश्वर करता है? इसके समाधान स्वरूप जैन चिन्तन में यह कहा जाता है कि जगत् अनादिकाल से चला आ रहा है और चलता रहेगा। अतः इसमें किसी सृष्टिकर्ता या संहारकर्ता की जरूरत नहीं हैं। लेकिन एक समस्या यह रह जाती है कि जगत् की व्यवस्था कैसे होती है? इस सम्बन्ध में जैन चिन्तन यह बताता है कि जगत् में जो कुछ होता है वह कर्मानुसार होता है। यदि ऐसी बात है तो फिर प्रश्न सामने आता है कि क्या कर्म वही है, जो ईश्वर है। यदि ऐसा है तो यहाँ पर मात्र शब्द का अन्तर देखा जाता है। ईश्वरवादी जिसे ईश्वर कहते हैं, जैन दार्शनिक उसे कर्म कहते हैं। लेकिन इसका उत्तर देते हुए जैन मतावलम्बी यह मानते है कि ईश्वरकृत संसार में मानव स्वतंत्र नहीं है ईश्वर के अधीन है, जैसा कि प्रारम्भ में तुलसीदास जी की उक्ति
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