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जैन दर्शन का कारणता सिद्धान्त : ५१
को ही अनेकरूपत्व माना गया है न कि धर्मों को तथा वस्तु का जो अभेदपना है वह धर्मी ही है, धर्म तो भेदरूप ही है- ऐसा मानने में कोई अनवस्था दोष भी नहीं होगा। अभाव नामक दोष तो जैनाभिमत तत्त्व से दूर से ही निराकृत हो जाता है, क्योंकि वस्तु अनेक धर्मात्मक है इसकी प्रतीति अनुभवसिद्ध है। इस प्रकार विविध विरोधी मतों का खण्डन कर जैन सद्सत्कार्यवाद की स्थापना करते हैं। सन्दर्भ १. शास्त्रावार्तासमुच्चय, पृ. १४२॥ २. उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्तं सत्। तत्त्वार्थसूत्र, ५.२९ ३. गुणपर्यायवद् द्रव्यम्, तत्त्वार्थसूत्र, १५.३७।। ४. (क) भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। पञ्चास्तिकाय, श्लोक १५
(ख) एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो। वही, श्लोक १९। ५. पञ्चास्तिकाय तत्त्वदीपिकातात्पर्यवृत्ति, पृ. ३३। ६. शास्त्रवार्तासमुच्चय, पृ. १४४। ७. प्रमेयकमलमार्तण्ड, (प्रथम भाग) पृ. ५३०। ८. वही, (प्रथम भाग) पृ. ५४-५४१। ९. वही, (प्रथम भाग) पृ. ५४२। १०. सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणतपज्जाया।
भंगुप्पादधुक्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ।। पंचास्तिकाय, ८। ११. सन्मतिप्रकरण, ३.३४। १२. तत्त्वार्थसूत्र, ५.१-६ १३. ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य, २.२.२३। १४. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग ३, पृ. १८७-१८८ १५. वस्तुनो हि भेदः पर्यायरूपतैव, अभेदस्तु द्रव्यरूपत्वमेव, भेदाभेदौ तु
द्रव्यपर्यायस्वभावावेव । न खलु द्रव्यमानं पर्यायमानं वा वस्तु, उभयात्मनः समुदायस्य
वस्तुत्वात्। प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग ३, पृ. २००। १६. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग ३, पृ. २०२।। १७. नापि वैयधिकरण्यम्, निर्बाध बोधे भेदाभेदयोः सत्त्वासत्त्वयोर्वा एकाधारतया
प्रतीयमानत्वात्। प्रमेयकमलमार्तण्ड, तदेव, पृ. २११। १८. तदेव, पृ. २१२।
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