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जैन दर्शन में ईश्वर विचार : ५३
मस्तिष्क की प्रखरता तथा शरीर की सबलता होती है, किसी के नचाने पर बन्दर की तरह नाचे? क्योंकि विश्व की प्रक्रिया में मनुष्य सबसे विकसित प्राणी है। अतएव जो कुछ वह करता है, वह स्वेच्छा से करता है।
- श्रमण परम्परावादी खासतौर से जैन मतावलम्बी ईश्वर के अवतारवाद को व्यंगात्मक ढंग से उतारवाद कहते हैं। क्योंकि ईश्वर अपने उस लोक से जो इहलोक से परे माना जाता है, अवतरित होकर नीचे की ओर उतरता है। मनुष्य की प्रगतिशीलता ऊपर की ओर बढ़ने में होती है, नीचे की ओर उतरने में नहीं। वह अपनी साधना, त्याग, तपस्या आदि से स्वयं आध्यात्मिकता के उतुंग शिखर पर पहुँचता है। उसे किसी परे शक्ति की आवश्यकता नहीं होती है। अत: जैन चिन्तन ईश्वर की सत्ता का खण्डन करता है।
जैनाचार्य हेमचन्द्र ने अपनी प्रसिद्ध रचना 'अन्ययोगव्यवच्छेद- द्वात्रिंशिका' में, जिसकी टीका आचार्य मल्लिषेण ने की है और वह ‘स्याद्वाद मंजरी' के नाम से प्रसिद्ध है,२ में ईश्वरवाद का प्रबल विरोध किया है। उन्होंने ईश्वर के विभिन्न लक्षणों को अपने सुतर्क के आधार पर इस तरह खण्डित किया है कि उससे ईश्वरवाद का भव्य प्रासाद धराशायी होते दिखाई पड़ता है। इन्होंने पूर्व पक्ष के रूप में ईश्वर के लक्षणों को प्रस्तुत किया है, फिर उन्हें दोषग्रस्त प्रमाणित किया है जो इस प्रकार है
"कर्तास्ति कश्चिज्जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः। इमा कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ।।
अर्थात् ईश्वर जगत् का कर्ता है, वह एक है, सर्वव्यापी है, स्वतंत्र है और नित्य है। एक-एक करके इन लक्षणों का खण्डन आचार्य हेमचन्द्र जी ने इस प्रकार किया है और इस तरह बताया है
१. ईश्वर जगत का कर्ता नहीं हैं:४- ईश्वरवादी यह मानते हैं कि किसी भी कार्य का कोई न कोई सष्टिकर्ता या निमित्तकर्ता अवश्य होता है, जैसे- बढ़ई लकड़ी से कुर्सी बनाता है। इसमें कुर्सी का उपादान कारण तो लकड़ी है, किन्तु निमित्त कारण बढ़ई है। इसी तरह चर्मकार जूता बनाता है, स्वर्णकार आभूषण बनाता है, जुलाहा कपड़ा बनाता है इत्यादि। यह जगत् भी एक बहुत बड़ा कार्य है इसलिए इसका भी कोई निमित्त कारण अवश्य है, क्योंकि जगत् का कार्य या जगत् की सृष्टि बहुत बड़ा कार्य है। जिसे साधारण क्षमता वाला व्यक्ति नहीं
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