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श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ जुलाई - दिसम्बर २००६
जैन साहित्य में शिक्षा का स्वरूप
अजय कुमार गौतम *
भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति का उद्देश्य था चरित्र का संगठन, व्यक्तित्व का निर्माण, प्राचीन संस्कृति की रक्षा तथा सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों को सम्पन्न करने के लिए उदीयमान पीढ़ी का प्रशिक्षण |
जैनसूत्रों में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है - १. कलाचार्य २. शिल्पाचार्य ३. धर्माचार्य । कलाचार्य और शिल्पाचार्य के सम्बन्ध में कहा गया है कि उनका उपलेपन और संमर्दन करना चाहिए, उन्हें पुष्प समर्पित करने चाहिए, तथा स्नान कराने के पश्चात् उन्हें वस्त्राभूषण से मंडित करना चाहिए। धर्माचार्य को देखकर उनका सम्मान करना चाहिए और उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था करनी चाहिए । २
जैन विदुषी साध्वी चन्दना का कहना है कि “शिक्षा वह है जो स्वयं को तथा दूसरों को मुक्ति दिलाये अर्थात मोक्ष की प्राप्ति कराये । ३
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अध्यापक और विद्यार्थियों के सम्बन्ध प्रेमपूर्ण होते थे और विद्यार्थी अपने गुरुओं के प्रति अत्यन्त श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते थे। अच्छे शिष्य के सम्बन्ध में कहा है कि वे गुरुजी के पढ़ाये हुए विषय को हमेशा ध्यानपूर्वक सुनते हैं, प्रश्न पूछते हैं, प्रश्नोत्तर सुनते हैं, उसका अर्थ ग्रहण करते हैं, पर चिन्तन करते हैं, उसकी प्रामाणिकता का निश्चय करते हैं, उसके अर्थ को याद रखते हैं और तदनुसार आचरण करते हैं। दुर्विनीत शिष्य अपने आचार्यों पर हाथ भी उठा देते थे। इस सन्दर्भ में इन्द्रपुर के राजा इन्द्रदत्त के बाइस पुत्रों का उल्लेख मिलता है। जब उन्हें आचार्य के पास पढ़ने भेजा गया तो उन्होंने कुछ नहीं पढ़ा। आचार्य यदि कभी कुछ कहते-सुनते तो वे आचार्य को मारतेपीटते और दुर्वचन बोलते । यदि आचार्य उनकी ताड़ना करते तो वे अपनी माँ से जाकर शिकायत करते । माँ आचार्य के ऊपर गुस्सा करती और ताना मारती * शोध छात्र, इतिहास विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी।
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