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४६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६
"भावस्य सतो हि द्रव्यस्य न द्रव्यत्वेन विनाशः अभावस्यासतोऽन्यद्रव्यस्य न द्रव्यत्वेनोत्पादः। किन्तु भावा सन्ति द्रव्याणि सदच्छेदमशदुत्पादं चान्तरेणैव गुणपर्यायेषु विनाशमुत्पादं चारम्भन्ते । "५
अर्थात् जो वस्तु है उसका नाश नहीं है और जो वस्तु नहीं है उसका उत्पाद नहीं है। इस कारण द्रव्यार्थिक नय से न तो द्रव्य उत्पन्न होता है और नविनष्ट होता है और जो त्रिकाल अविनाशी द्रव्य के उत्पाद व्यय होते हैं, उन्हें पर्यायार्थिक नय की विवक्षा कर गुणपर्यायों में जानना चाहिये। जैसे घट अपने आकार रूप में मृत्तिका में पहले से विद्यमान नहीं रहता; किन्तु जिस क्षण इस आकार का उदय होता है, वह आकारात्मक घट का आद्यक्षण है। यह उत्पत्ति एक नवीन उत्पत्ति है क्योंकि यह अपने कारण में उत्पत्ति के पूर्व नहीं थी । ध्यातव्य है कि जैन दार्शनिकों के अनुसार उपादान कारण का सम्बन्ध द्रव्य से है और निमित्त कारण का सम्बन्ध पर्याय से है। इस तरह जैन दार्शनिक 'सत्' के स्वरूप के आधार पर उत्पत्ति पूर्व कार्य के कारण में सदसत् का सम्यक् निरूपण करते हैं और यही कारण है कि कारणता के सम्बन्ध में 'सत्कार्यवाद : और 'असत्कार्य' को एकांगी बताते हुये अपना समन्वयात्मक सिद्धान्त 'सदसत्कार्यवाद' प्रस्तुत करते हैं।
जैनदर्शन के कारण मात्र अनन्यथासिद्ध नियतपूर्ववर्ती ही नहीं अपितु उसमें अर्थक्रियाकारित्व अर्थात् कार्य की उत्पत्ति की शक्ति का विचार भी निहित है । इस दर्शन के अनुसार कार्य अपने कारण में शक्तिरूप से विद्यमान है । इस शक्ति के कारण ही नियत कारण से नियत कार्य की उत्पत्ति होती है । " स्याद्वादी जैन दर्शन में कारण में विद्यमान शक्ति को शक्तिमान् से कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न माना गया है । ' शक्तिमान् के प्रत्यक्ष होने पर भी शक्ति का प्रत्यक्ष न होने से वह भिन्न स्वरूप है और शक्तिमान से पृथक् अस्तित्व न रखने के कारण वह अभिन्न स्वरूपा भी है। यह शक्ति द्रव्य के अनादि होने से, द्रव्य शक्ति के रूप में नित्य है और पर्याय के सादि और सान्त होने से पर्यायशक्ति के रूप में अनित्य है। किसी भी कार्य की निष्पत्ति के लिये दोनों शक्तियों का सम्मिलित होना अनिवार्य है। क्योंकि यदि मात्र द्रव्य शक्ति से कार्य का निष्पादन स्वीकार किया जाये तब द्रव्य शक्ति के नित्य होने से सदैव कार्य की उत्पत्ति का प्रसङ्ग उपस्थित होगा, जबकि द्रव्य की कार्यरूप में परिणति अन्य सहकारी कारणों की अपेक्षा से होती है। स्पष्ट है कि पर्याय शक्ति के बिना कार्य नहीं होता, किन्तु पर्याय शक्ति के जो सहकारी कारण हैं वे सर्वदा स्वयं उपस्थित नहीं होते क्योंकि
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