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४८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई - दिसम्बर २००६
पर्याय उत्पन्न होता है वह सदृश और स्वभावात्मक होता है, उसमें विलक्षणता.. नहीं आती। धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये द्रव्य स्वरूप में परिणमन करते हैं। १२ दूसरा विभावरूप परिणाम है। यह विभावरूप परिणमन की क्रिया जीव और पुद्गल में होती है। इसमें पूर्व पर्याय के नष्ट हो जाने पर जो उत्तर पर्याय उत्पन्न होता है वह उससे नया उत्पाद होता है, यह वस्तु में आकारगत परिवर्तन लाता है। उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन में परिणाम, परिवर्तन तथा उत्पत्ति की व्याख्या द्रव्य, गुण और पर्याय के सम्बन्ध के आधार पर की गयी है।
कारण और कार्य के सम्बन्ध में जैन दर्शन न तो पूर्णरूपेण भेदवाद का समर्थन करता है और न अभेदवाद का अपितु तन्तु और पट के समान कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद को स्वीकार करता है। उनके अनुसार कारण और कार्य में न तादात्म्य सम्बन्ध है और न समवाय । अपितु कारण और कार्य का यह स्वभाव है कि वे एक दूसरे से सम्बद्ध हो जाते हैं। इसलिये जैन दार्शनिक कारणकार्य में भेदाभेद सम्बन्ध मानते हैं। उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि जैन दार्शनिक सत् के स्वरूप के आधार पर (गुण और पर्याय के माध्यम से) उत्पत्ति पूर्व कार्य के कारण में सद्सत् का सम्यक् निरूपण करते हैं, यही कारण है कि इनके कारणता सिद्धान्त को सदसत्कार्यवाद के नाम से सम्बोधित किया जाता है। जैन मत की समालोचना एवं समाधान
आचार्य शङ्कर और शान्तरक्षित आदि ने जैन दर्शन सम्मत इस अनेकान्तवाद की आलोचना की है। उनके अनुसार दो विरोधी तत्त्व भेद और अभेद, सत् और असत्, नित्य और अनित्य एक ही आधार में नहीं रह सकते। १३ सत्य और असत्य परस्पर में शीत और उष्ण की तरह प्रतिरोधी हैं अतः एक ही आश्रय में नहीं रह सकते।
श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने उक्त समस्त शङ्काओं का अत्यन्त तर्कपूर्ण समाधान प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रस्तुत किया है । सर्वप्रथम उन्होंने इन शङ्काओं को स्वयं पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किया है। यथा- " न च तन्तुपटादीनां कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकत्वमभ्युपगन्तव्यम्; संशयादिदोषोपनिपातानुषङ्गात। 'केन खलु स्वरूपेण तेषां भेदः केन चाभेद:' इति संशयः । तथा 'यत्राभेदस्तत्र भेदस्य विरोधो यत्र च भेदस्तत्राभेदस्य शीतोष्णस्पर्शवत्' इति विरोधः । तथा‘अभेदस्यैकत्वस्वभावस्यान्यधिकरणं
भेदस्य चानेकस्वभावस्यान्यत्' इति
वैयाधिकरणम्यम् । तथा 'एकान्तेनैकात्मकत्वे यो दोषistata -
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