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जैन दर्शन का कारणता सिद्धान्त : ४७
पर्याय शक्ति में जिस सहकारी की अपेक्षा है वह एक नहीं अनेक हैं और ये अनेक कारण स्वयं कार्य की उत्पत्ति में सक्रिय नहीं होते अपितु इन्हें पुरुष प्रयत्न की अपेक्षा होती है, इसीलिये इस मत में पदार्थों में अनेक शक्तियाँ स्वीकार की गयी हैं- 'तत्रार्थानाम नैकेव शक्तिः । ९ कार्यों में अनेकता या विविधता का कारण- कारणों में शक्ति भेद ही है।
जैनदर्शन में द्रव्य स्वभावतः परिणमनशील माना गया है
सत्ता
सविश्वरूपा
अनन्तपर्याया ||
सर्वपदस्था भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका सत्प्रतिपक्षा भवत्येका ।। १०
परन्तु निरन्तर परिणमनशील होते हुये भी वह अपने स्वभाव से च्युत नहीं होता । वस्तुतः निरन्तर परिणमनशील द्रव्य में जब प्रतिक्षण परिणाम होता है दब उसमें सर्वदा द्रव्यान्तर की उत्पत्ति तथा नवीन परिणमन स्वीकार करना होगा, परन्तु द्रव्य बाह्य निमित्त की अपेक्षा से ही भिन्न रूप में परिणत होता है, सर्वथा नहीं। जैन दर्शन में उत्पत्ति दो प्रकार की स्वीकार की गयी है- (१) नैसर्गिक और प्रायोगिक। नैसर्गिक उत्पत्ति के भी दो प्रकार हैं- (१) समुदायकृत एवं (२) एकत्विक । यथा बादल, पर्वत आदि बिना किसी की सहायता के अपने समुदायों द्वारा बनते हैं अत: समुदायकृत उत्पत्ति के अन्तर्गत आते हैं। आकाश, धर्म और अधर्म आदि एकत्विक उत्पत्ति के अन्तर्गत आते हैं। नवीन उत्पाद न होने पर भी इनमें सदृश परिणमन रूप क्रिया होती रहती है। उत्पत्ति का द्वितीय प्रकार 'प्रायोगिक' है जिसे समुदायवाद भी कहते हैं। जिसके अनुसार उत्पत्ति समुदाय के द्वारा होती है, किसी एक के द्वारा नहीं । १ १ जैन दर्शन के अनुसार नये द्रव्य स्कन्ध । (दो या दो से अधिक परमाणुओं) के द्वारा उत्पन्न होते हैं। परमाणुओं का समुच्चय होने से इसे समुदाय कहा गया है और गुणों के नवीन रूप में प्रस्तुत होने से नवीन वस्तु ।
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इस प्रकार जैन दर्शन में उत्पत्ति का तात्पर्य न तो सर्वथा नवीन वस्तु का अपलाप करना है और न ही वस्तुमात्र को सर्वथा नवीन बना कर उत्पत्ति पूर्व उसके किसी प्रकार के अस्तित्व को नकारना है अपितु यही उत्पत्ति का तात्पर्य मूलद्रव्य रूप में स्थित रहते हुये आकार की दृष्टि से नवीन वस्तु का उत्पाद है।
जैनदर्शन में सत् का परिणाम भी दो प्रकार का स्वीकार किया गया हैपहला स्वभावात्मक है, इस परिणाम में पूर्व पर्याय के नष्ट होने पर जो उत्तर
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