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जैन 'हिन्दू' ही हैं, लेकिन किस अर्थ में ? : २७
दूसरे के पूजा स्थलों में श्रद्धा से झुकते देखा जा सकता है। ऐसा सिर्फ जैन धर्म के आलोक में ही नहीं देखा जाना चाहिए। सच तो यह भी है कि आनन्दमार्गियों और रामकृष्ण मिशन से जुड़े लोगों ने भी अपने को हिन्दू धर्म से पृथक् एक अलग सम्प्रदाय के रूप में स्थापित करने की लम्बी लड़ाई लड़ी। रामकृष्ण मिशन की खुद को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करने की याचिका को तो बाकायदा अदालत ने खारिज किया था। लेकिन आज भी उसके मठों में हिन्दुओं की आस्था कायम है। क्यों? भारतीय मानस सर्वधर्म समभाव की सांस्कृतिक विरासत से निर्मित होता है और देश की बहुसंख्यक आबादी अपनी संरचना में ही नहीं, अपनी सोच में भी लोकतांत्रिक है। यही वजह है कि बहुसंख्यकों के धार्मिक हितों के नाम पर जब भी गुब्बारे भरे जाते हैं, तो उनको फूटते देर नहीं लगती। धार्मिक हिंसा व नफरतों से छलनी होते वैश्विक समाज को आज ऐसे ही जज्बे की जरूरत है। बहरहाल, हमारी ताकत हजारों जातियों व दर्जनों संप्रदायों से बनती है। इन सबको सहेजने के लिए जरूरी है कि पृथक् अस्तित्व रखते हुए भी हम एकदूसरे को थामे रहें | वर्तमान में एक प्रश्न अत्यन्त चर्चा में है कि जैन हिन्दू ही
या उनका अपना पृथक् अस्तित्व है। इस प्रश्न के समाधान के सन्दर्भ में श्री विनायक दामोदर सावरकर का प्रस्तुत लेख अत्यन्त प्रासंगिक है । आशा है इस विषय में यह लेख कुछ समुचित समाधान प्रस्तुत कर सकेगा। - सम्पादक
ज्ञातव्य है कि भगवान श्री ऋषभदेव को जहाँ जैन प्रथम तीर्थंकर मानते हैं, वहीं श्रीमद्भागवत् के अनुसार वे अष्टम अवतार हैं और उन्हें आदिब्रह्मा भी कहते हैं। चौबीसों तीर्थंकर क्षत्रिय कुल के थे और इन सभी के गणधर ब्राह्मण थे। आज भी अनेक जैन संत क्षत्रिय और ब्राह्मण कुल के हैं। हिन्दू शब्द की एक प्राचीन व्याख्या इस प्रकार मिलती है - 'हिण्ड्यते भवाद् भवम् इतिये मन्यन्ते ते हिन्दवः' अर्थात् - आत्मा एक भव से दूसरे भव में जाती है, ऐसा मानने वाले हिन्दू हैं। उसी प्रकार भैरु तंत्र में भी लिखा है - 'हिंसा दुह्यते यस्य हृदयं सः हिन्दू', अर्थात्-हिंसा से जिसका हृदय दुःखी होता है, वह हिन्दू है । इसीलिए जैनाचार्यों ने कहा कि 'यदि कोई हिन्दू ही नहीं है तो वह जैन कैसे हो सकता है । '
वर्तमान परिवेश में इन प्रश्नों के समाधान की दिशा में सन् १९५० में प्रकाशित प्रख्यात क्रान्तिकारी, राष्ट्रभक्त, स्वतन्त्रता सेनानी श्री विनायक दामोदर सावरकर का लेख एकबार पुनः प्रासंगिक हो गया है, आइये देखें इस सम्बन्ध में उनके क्या विचार हैं
मैं हिन्दू क्यों ? - इस समय जैनों के हिन्दुत्व के विषय में फिर से 'वाद' उपस्थित हुआ है। यदि 'हिन्दू' शब्द की व्याख्या पहले से ही ठीक हुई होती, तो इस तरह के 'वाद' उपस्थित नहीं होते। जब तक हिन्दू शब्द की स्पष्ट, अनुत्तरणीय (unanswerable ) एवं निर्विवाद व्याख्या सामने नहीं आती, तब तक यह 'वाद' कभी मिट नहीं सकता। जब कर्मठ हिन्दू ही “मैं हिन्दू क्यों ? " - इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर नहीं दे सकता, तब
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