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२० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६
कर्मजा बुद्धि के अन्तर्गत भी अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इसी में तन्तुवाय, रथकार, कान्दविक, कुम्भकार, चित्रकार, मृतपिण्ड चित्रादि ज्ञान सम्बन्धी विवरण हैं । ३३
पारिणामिकी बुद्धि के आख्यानों में अभयकुमार, काष्ठक श्रेष्ठि, श्रेणिक राजसुत नन्दिषेण, चिलातीपुत्र, चाणक्य, चन्द्रगुप्त, स्थूलिभद्र आचार्य, वज्रस्वामि, गौतमस्वामी, चण्डकौशिक, नारद - पर्वत आदि के आख्यान तथा नारी चरित्रों में रति सुन्दरी (गाथा ६९७), बुद्धिसुन्दरी (गाथा ७०३), गुणसुन्दरी (गाथा - ७१३), ऋद्धिसुन्दरी (गाथा ७०८), नृपपत्नी ( गाथा ८९१ ) तथा देवदत्ता आदि के आख्यान ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । ३४
इसी के अन्तर्गत 'नन्द की उलझन' कथा का आरम्भ विलास से और अन्त त्याग से होता है। आदि से अन्त तक कार्य-व्यापारों का तनाव है। नन्द साधु हो जाने पर भी अपनी पत्नी सुन्दरी का ही ध्यान किया करता है। रोमान्स उसके जीवन में घुला - मिला है। नन्द का भाई अपने कई चमत्कारपूर्ण कार्यों के द्वारा नन्द को सुन्दरी से विरक्त करता है । ३५
यहाँ आर्य महागिरि तथा आर्य सुहस्ति के आख्यान भी दिये गये हैं । ३६ गजाग्रपुर तीर्थ में महागिरि ने पादोपगमन धारण कर मृत्यु प्राप्त की थी । गोविन्द्र वाचक के दृष्टान्त में कहा गया है कि गोविन्द्र वाचक बौद्ध धर्मानुयायी महावादी थे और श्रीगुप्तसूरि से शास्त्रार्थ में पराजित होने पर ये जैन धर्म में दीक्षित हुए थे । ३७ धर्मबीज की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जैन शासन में श्रद्धा प्रधान दया - दान आदि अनवद्य भाव ही धर्मबीज हैं । ३८ स्थविरकल्प में करणीय कार्य, ३९ वैयावृत्य का स्वरूप, सम्यग्दर्शन की निर्मलता आदि विषयों का सम्यक् प्रतिपादन है । ४० आगे अध्यात्म की प्रधानता के विषय में कहा है कि अध्यात्म ही मूलबद्ध अनुष्ठान है। इसके विपरीत सब कुछ शरीर में लगे हुए मैल की तरह असार है। जैनेतर शास्त्रों में भी अध्यात्म की प्रधानता वर्णित है । ४१
चैत्यद्रव्य के उपयोग की विविध प्रकार से निन्दा करते हुए चैत्यद्रव्य के उपयोग से सकांश श्रावक का आख्यान दिया गया है जो अनेक जन्म-जन्मान्तरों तक दुःख भोगता है । उपदेशपद में देवद्रव्य का स्वरूप तथा उसके रक्षण के फल का अच्छा प्रतिपादन है। ४२ सम्यग्ज्ञान का स्वरूप और फल, अभिग्रह, कर्मबन्ध के हेतु, गुणस्थान, अणुव्रत, महाव्रत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति, गुरुकुलवास से ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति, स्वाध्याय, यत्नाचार, उत्सर्ग - अपवाद लक्षण से भी
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