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सिद्धांतरहस्य ॥२१॥
| मोक्षतत्व
॥२१॥
कर्मनो स्वभाव अथवा परिणाम, जे कर्मनी जेटली स्थिति होय छे ते स्थितिबंध, कर्मनो जे तीव्रमंदादि रस ते अनुभावबंध अने कर्मपुद्गलना दल ते प्रदेशबंध. आ चार प्रकारना बंधन स्वरूप मोदकना दृष्टांतथी कहे छे. जेम कोइ मोदक, घणा प्रकारना द्रव्यना संयोगवडे बनावेल ते (लाड)मा वायुने पित्तने के कफने हरबानो स्वभाव होय छे, तेम कर्मप्रकृतिमा कोइनो ज्ञानने आबरण करवानो, कोइनो दर्शनने आवरण करवानो स्वभाव होय छे, वली तेज मोदक, एक पक्ष, मास के वे मास सुधी रहे, तेम कोइ कर्मप्रकृति वीश त्रीश के सित्तेर कोडाकोडी सुधी रहे ते स्थितिबंध, ते मोदक अल्प के तीब्र, कडवो के मीठो होय तेम कर्मप्रकृति पण मंद के तीव्र, शुभ के अशुभ रसवाली होय ते अनुभावबंध, तेज मोदक कोइ अल्पदलवाल के बहुदलवालु होय, तेम कोइ पण कर्मप्रकृति अल्पदल के बहुदलवाली होय ते प्रदेशबंध कहेवाय छे.ए चार प्रकारनो कर्मबंध जाणवो.इति बंधतत्व समाप्त. | हवे मोक्षतत्त्व कहे छे:-सर्व कर्मथी मुक्त थइने सिद्ध पदने प्राप्त करवू, ते सिद्धना पन्नर भेद छे:-१ तीर्थ सिद्ध, २ अतीर्थ सि०, ३ तीर्थंकर सि०, ४ अतीर्थंकर सि०,५ गृहस्थलिंग सि०, ६ अन्यलिंग सि०,७ स्व. लिंग सि०, ८ स्त्रिलिंग सि०,१ पुरुष लिंग सि०,१० नपुंसक लिंग सि०, ११ स्वयंवुद्ध सि०, १२ प्रत्येकबुद्ध सि०, १३ बुद्धयोधित सि०,१४ एक सिद्ध, १५ अनेक सिद्ध. जीव चार कारणे मोक्ष जाय-ज्ञान, दर्शन, चारित्र
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, कषायनी तरतमता कपायना अध्यवसायथी होय छे, एकेक कषाय-स्थान के अध्यवसाय-स्थानक असंख्य होय छे.