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सिद्धांतरहस्य ॥२३३॥
कालिकी, २ हेतुवादोपदेशिकी अने ३ दृष्टिवादोपदेशिकी. तेमां जे जीवोने भूत भविष्यकालादि दीर्घकालनी जे संज्ञा होय ते दीर्घकालिकीमज्ञा. तात्कालिक इष्ट-अनीष्ट वस्तु जाणीने प्रवृत्ति के निवृत्ति करवी ते हेतुवादो
दो | पदेशिकीसंज्ञा अने क्षायोपशमिकज्ञान बडे सम्यग्दृष्टिने जे विशिष्टज्ञानरुप संज्ञा ते दृष्टिवादोपदेशिकीसंज्ञा. एत्रण संज्ञामां हेतुवादोपदेशिकीसंज्ञा, विकलेंद्रिय तथा असंज्ञि पंचेंद्रियने होय छे अने संज्ञिपंचेंद्रियने दीर्घ-| | कालिकी संज्ञा होय छे. एकेंद्रियने कोइपण संज्ञा न होय. माटे सिद्धांतमा दीर्घकालिकी संज्ञा वडेज संज्ञीपणु कहेलं छे ते संज्ञिनुं जे श्रुत ते संज्ञिश्रुत. चोथु असंज्ञीश्रुत एटले-मनरहित (असजी) जीवोने केवळ इंद्रियथी उत्पन्न थयेलं जे ज्ञान ते. जे जिनेश्वर प्रणीत आवश्यकादिश्रुत ते पांचमुं सम्यकश्रुत अने स्वकल्पनाथी रचित. जे श्रुत ते छटुं असम्यकश्रुत. हवे ७ सादिश्रुत, ८ अनादिश्रुत, ९मपर्यवसित (मांत) श्रुत अने १० अपर्यवसित ( अनंत) श्रुत. ए चारनु स्वरुप साथे कहे छः-१ द्रव्यथी एक जीव आश्रयी द्वादशांगी, मादि-सांत
पांचज्ञान
स्वरुप ॥२३३॥
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२ सम्बगरष्टि मनुष्यनेज होव, ३ सम्यकदृष्टि जीवे ग्रहण करेलु मिथ्याश्रुत पण सम्यक्त होय छे अने मिथ्यारिवए ग्रहण करेलु आवश्यकादिसूत्र मिथ्याभुत थाय छे. आ सबंधे भाष्यकार कहे के के:-सदसद विसेसगाओ, भवहेउ जहच्छिओवलंभाओ; नाणफलाभावाओ, मिच्छादिहिस्स अन्नाणं. १ सन् अपत्नो तफावत न हीवाधी, अमुक अपेक्षाए वस्तु, सत् अने अमुक अपेक्षाए असत् एम अनेकांत ज्ञानना अभावधी, संसारना हेतुभूत अने बद्रछा [स्वेच्छा ] पणे कहेल होबाथी तेमज ज्ञान- फल जे विरति तेनो अभाव होवाधी मिथ्यादृष्टिनुं सर्वश्रुत अज्ञानजले, विपयोसपणाधी मिध्या दृष्टिने देशे उगा दश पूर्व सुधीनु सम्यक्श्रुत पण मिथ्याश्रुत थाय छे. दश पूर्वना ज्ञानवालो नियमा सम्पष्टि होय छे.
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