________________
सिद्धांत
रहस्य
२३७॥
पडे ते. ६ अप्रतिपाती जे संपूर्ण लोक जाणीने अलोकनो एक आकाश प्रदेशने जाणवानुं सामर्थ्य ते. अप्रति| पाती ज्ञानवाळाने अवश्य केवलज्ञान उत्पन्न थाय. आ छ प्रकारनं अवधिज्ञान, देव अने नारकने भवप्रत्ययिक होप छे अने मनुष्य अने तिर्यंचने गुण प्रत्यधिक होय छे. चोथुं मनः पर्यवज्ञान, तेना वे भेदः-१ ऋजुमति अने २ विपुलमति. ते अप्रमत्त अने लब्धिसंपन्न संयमीने होय छे. “ अमुके घडो चिंतव्यो छे " एवं जे सामान्यरुपे जाणवुं ते ऋजुमति अने ए घडो, द्रव्यथी सुवर्णादिकनो, क्षेत्रथी पाटली पुत्रादिनो, कालधी शीतकालादिनो अने भावधी पीतवर्णादिनो छे एवी रीते विशेष जाणे ते विपुलमति. ऋजुमति कदाच पडे पण खरो अने विपुलमति, तद्भव मोक्षगामी होय छे. पांचमुं केवलज्ञान ते एकज प्रकारनुं छे. केवलज्ञान उत्पन्न थया पछी शेष क्षायोपशमिक चार ज्ञान होता नथी. केवलज्ञान, सर्व लोकालोकनुं प्रकाशक छे. हवे अज्ञाननुं स्वरुप अने भेद कहे छे अज्ञान एटले कुत्सित ( अयथार्थ ) ज्ञान. जोके ते ज्ञानावरणीयना क्षयोपशम जन्य छे तोपण मिथ्यात्व मोहनीयना योगधी मलिन थयेलं छे माटे आगममां सर्वज्ञ तीर्थंकरोए तेने अज्ञान कहेलुं छे, जेम उत्तम पुरुष नीचना संगधी नीच गणाय के तेम मति अने श्रुतज्ञान पण मिध्यात्वना योगधी अज्ञान संज्ञाने पामेल छे. विएटले विरुद्ध अने भंग एटले विकल्प, अर्थात् विरुद्ध विकल्पो जेमां थाय एवं जे ज्ञान ते विभंगज्ञान कहेवाय छे. हवे पांच ज्ञाननुं स्वरुप द्रव्य क्षेत्र, काल अने भावधी कहे छे:- १ मतिज्ञानी, आदेशथी (सामान्य थी)
२ केटलाक आचार्यों कहे छे के चार ज्ञान केवलज्ञानमां अंतर्भाव पाने के.
पांचज्ञाननुं
स्वरुप
॥२३७॥