Book Title: Siddhant Rahasya Part 01
Author(s): Devchandra Upadhyay
Publisher: Gangji Virji Shah
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ॐ अहम् ॥ जीवविचारादि प्रकरणो अने अनेक मौलिक आगमोना दोहनरूप ॥ सिद्धान्त-रहस्य (थोकडासंग्रह ) ॥ ..., भाग पहेलो संपादक अने संशोधकःउपाध्याय विद्वद्वर्य श्रीदेवचंद्रजी महाराज. प्रकाशक:-कच्छ-पत्री निवासी शाह गांगजी वीरजी. प्रथमावृत्ति-प्रतिक २००० मूल्यम् - सने १९३७ संवत १९९४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रकःमेनेजर-बालचंद हीरालाल श्री जैन भास्करोदय प्रि. प्रेस-जामनगर. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्पणपत्रिका. 3 परमोपकारी प्रातःस्मरणीय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्रीदेवचंद्रजी महाराज ! आपश्री पारमेश्वरी प्रव्रज्यानी निर्मळ भावनाना प्रतापे आ जगत्ना अज्ञान मनुष्यने ज्ञानरूपी प्रवाहने पुस्तकोद्वारा जुदाजुदा रुपमां अवारनवार प्रगट करी अनेक जीवो पर उपकार करी रह्या छो एटलुंज नहिं परंतु प्रकरण ग्रंथो, जेवाके जीवविचार. नवतत्व, दंडक आदि ग्रंथोमां आपश्रीनी सविशेष अभिरुचीना कारणे मने आ ग्रंथ प्रकाशन करवामां आपे जे सहानुभूति आपी मारा आ मार्गने सरळ करी आप्यो छे ते माटे आ ग्रंथ आपना हस्त कमळमां समर्पण करी कृतार्थता अनुभवं एं. लि. सेवक:गांगजी वीरजी. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवचन परमोपकारक श्री जिनेश्वरोए ज्ञान अने क्रिया वडे मोक्षनी प्राप्ति थाय छे एम प्रतिपादन करेलु छे, तेमां पण प्रथम ज्ञान अने पछी क्रिया माटे मुक्तिना इच्छकोए अवश्य ज्ञान मेळवQ जोहए. ते ज्ञान-१ द्रव्यानुयोग, २ चरणकरणानुयोग, ३ गणितानुयोग अने ४ धर्मकथानुयोग ए चार विभागथी सिद्धांतमां कथन करायेलुं छे. ते मूल सिद्धांत मागधी (प्राकृत ) भाषामा छे अने पूर्वाचार्योए वृत्ति वगेरे अनेक ग्रंथो पण संस्कृत अने प्राकृत भाषामां रचेलां छे. तेनुं ज्ञान सामान्य जीवोने समजबुं मुश्केल थाय माटे तेनु रहस्य (सार) आ पुस्तकमां संग्रह करवामां आवेल छे. तेथी आनुं नाम " सिद्धांतरहस्य" राखवामां आवेलु छे. आ पुस्तकमां जीव विचार, नवतत्त्व वगेरे बत्रीश विषयो छे, एर्नु अपर नाम “थोकडा संग्रह" पण राखेलं छे. आ ग्रंथमां मुख्यत्वे द्रव्यानुयोग अने गौणताए चरणकरणादि अनुयोगोने पण स्थान आपवामां आवेलुं छे. यद्यपि थोकडा (प्रकरण संग्रहादि )ना पुस्तको प्रथम छपाइ गया छे तथापि तेमां प्रायः गतानुगतिकता माथे रुदिनु प्राबल्य पण विशेषज्ञोने जणाशे. आ ग्रंथमां घणोज सुधारो-वधारो करवामां आव्यो छे. आगति-गति अने गुणस्थान जेवा विषयोमां तो घणीज नवीनता जणाशे. परंतु सूक्ष्मदृष्टिथी अवलोकन करनारने सत्य वस्तु ख्यालमा आवी जशे, तेमज कर्मप्रकृतिमां पण खास उत्तर प्रकृतिनी स्थिति वगेरे अने लेश्या तथा समुद्रात अने ज्ञानस्वरूपचं वर्णन पण शास्त्रनु मंथन करी लखवामां आव्युं छे. अने स्थाने स्थाने आवश्यक टिप्पणो पण लखेल छे जेथी वस्तुनु स्वरूप समजबुं सुगम पडे. आ पुस्तक लखती वखते-१ श्रीठाणांगसूत्र २ श्रीभगवतिमूत्र Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S अग्रवचन सिद्धांत **** * ३ जीवाभीगम ४ पन्नवणा ५ अनुयोगद्वार ६ नंदी ७ उत्तराध्ययन ८ जंबूद्वीप पन्नती तथा ते सूत्रोनी टीकाओ, आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यक, कर्मग्रंथ, कर्मप्रकृति. पंचसंग्रह, प्रवचनसारोद्वार, विचारसार. लोकप्रकाश. संग्रहणी, क्षेत्रसमास, पंचनिग्रंथी. तथा हस्तलिग्वित पानाओ. नगेरेनी सहाय लेवामां आवी छे, जेथी जे काइ सुधारो वधारो करेल छे ते उपरोक्त सूत्र अने ग्रंथोना आधारे करवामां आवेल छे. आमां जे कोइने न समजाय अगर विरुद्धता भासे तो लेखकने पूछयु, तो तेनो लेखक खुलाशो करी आपशे. आ ग्रंथ लग्ववानुं परमोपकारी विद्वद्वर्य उपाध्यायजी महाराज श्रीदेवचंद्रजी स्वामीनी प्रेरणा अने अनुग्रहथीज बनेल छे कारण, प्रेममेटर सुधारवान तथा प्रुफो सुधारवानें काम तेओएज करेल छे अने टीपणीओ पण तेओनी कृपाद्रष्टिधी बनेल छे माटे | तेओश्रीनो अनन्य उपकार छे. तथा स्वर्गस्थ परमोपकारी स्यादवाद तत्वनाज्ञाता परमपूज्य गुरुवर्यश्री विजय-14 |पालजीस्वामी तथा पूज्यश्री कानजीस्वामीनो पण अनहद उपकार छ कारण. केटलाएक सूक्ष्म तत्वनी गवेषणा तो परमोपकारीना अनुग्रहथीज थाय छे. आ पुस्तकने आदिथी अंत सुधी वांची जवा दरेकने भलामण छे. आ | ग्रंथ लखधामा घणी कालजी राखवामां आवेल छे छतां द्रष्टि दोषथी के प्रेस दोषयी जे कांड भूलो रही होय तो तेनी सज्जनो पासेथी क्षमा मागु छु अने खास विषयोनी भूल जणाय तो लखवा कृपा करवी. विशेष आ ग्रंथना अगाउधी ग्राहक तरीके पोताना नामो नोधावी अमोने अमारा प्रकाशनमां मदद करी छे ते माटे तेमनो पण आभार मानुं छु. एज. लि. श्री संघनो सेवक, शाह गांगजी वीरजी (कच्छ पत्री.) * HARE* ** * *** Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका. **** १जीवविचार २नवतस्व . ४ ** . . . ५ गतिभागति ५ गुणठाणा ६ बासठ-बोल-विचार • छ-आरानो विचार 6 अठाणुबोलनो अल्पबहुत्व ९ कर्मप्रकृतिविचार १० धर्मध्यानविचार ११ पदवीविचार १२ सिक्षणाद्वार . १३ विरहविचार १४ चोवीश जिनना आंतरां १५ पाँचदेवनो विचार १६ दिसाणुवाय १७ संयतविचार १८ षट्दन्यविचार १९ रुपिअरुपिना बोल २० प्रमाणबोध २१ सिद्धांतमान २२ ३२-असझाय विचार २६ नियंठाविचार २५ कायस्थितिविचार २५ चक्रवर्तिचतुर्दशद्वार दादार २६ वासु. बलदेवना २२ द्वार २७ गणभरोना १२ द्वार २८ वीशविहरमान जिनना सोलद्वार २९ लेश्याविचार ३० भवसंवेध ३. समुद्घातस्वरुप ३२ ज्ञानस्वरुप 20.4304 . -000 - *** ११२ - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धि पृष्ट पंक्ति शुद्धि अशुद्धि क सिद्धांतरहस्य शुधिपत्रक पल्यनो पापल्यनो पृष्ट पंक्ति शुद्धि . अशुद्धि ४३ २ । चोथु श्रीजु लेशे लीघेल छे मारा नथी माराधी आवे आपे . ___ ८९ १४ ११०४ भेद 5 R4444 335555 १७३ २० २ २० १४ २१ १३ उदधिकु. उदविकु. पिशाच पिशाचि आयुष्यनी ___ गतिनी भाराभवो ___ आरधवो बंध गंध रसनी ... कषायनी अस्थिनिचय- शरीरनी रचना वानमंतर वानमंत साडात्रण पृथकत्व प्रत्येक त्रीस लेश्या-तेजु लेश्या ५२७ ५२९ ४२३ ३२३ प्रत्याख्या अप्रत्याख्या कोडाकोडी कोडी सातमा सातमे भाठमे आठमे १०८१० उत्तर मूल उत्तर सादि अनादि नक्षत्रे नक्षत्र % २८ . % श्रण % ३६ पंदर १२ पहेले बीजे पहेले विशेषाधिक विषाधिक ७ । भव धवानो भव। % % Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ شک کی སྦ ཤྩ བྷཱུ བྷྱཱ ཙ ग्राहकना नामो राधा CHHAKKRABAD मुंद्रा. एक सद्गृहस्थ भुज. एक सदगृहस्थ एक सदगृहस्थ शा, माधवजी जीवराज नगरीया अंजार. शा. देवसी कानजी मगनलाल मोणसी मांडवी. शा. डोसा पानाचंद हुबली. शा. दामजी जादवजीनी कु. प्रथमधी प्राहक धमेल सद्गृहस्थमा मुबारक नामो. १०] शा. लखमसी भीमसी ५] शा. ताला शिवजी शा. जेठा धारसी लाखापर. २५] शा. भाणजी पांचाना सुत कानजी, . भाणजी शा रतनसी शिवराज २५] शा, बेरसी हीरजी १५] शा. पचाण मोणसी १५] शा. लालजी पालण शा, धारसी माणक ५] शा. चांपसी जेतसी शा. खीमजी गुणपत नवीनार. शा. देवराज जेठा [धर्मपत्नीना स्मरणार्थे] २५] शा जेठा चांपसी । २०] शा. राजपार शामर पटेल शा. मोनजी धारसी भाडिया. शा. पासु आणंद शा. रतनसी खीमजी ترقی ५] शा. धनजी आणंद५] शा. वजी बेलजी ५] शा. देवसी डाझा शा. पुंजा देवसी देशलपुर. शा, आणंदजी भूला बहेन भाणवाइ रताडिया १०] शा. मुरजी देवसी शा. रवजी जादवजी शा, वेरसी खींसी लुणी. शा. चांपसी देवसी [मातुश्री पञ्चाबाइना स्मरणार्थे ] २०] शा. करमसी हरधोर कपाया. १५] शा. देवजी द्वारा ५) शा. लालजी मुरजी बेराजा. बहेन मोंधीबाह मेघजी शा. भीमसी जादव पत्री 36638086 शा, उमरसी केसबजी शा. घेला जेसंग शा. तेशु आशारीया बोरा मावजी रतनसी शा लालजी भीमसी शा. स्वाज़ी भोजराज शा. भूला मालसी शा. खीमजी मोणसी 863 تک ق Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१॥ है थोकडासंग्रह भा०१ ॥१॥ CIRCI-ReseARAKe ॐ वीरः सिद्धान्तरहस्य भाग १ ( थोकडा संग्रह भाग १) ॐकाराबिंदुसंयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ॐकाराय नमोनमः १ मङ्गलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमः प्रभुः। मंगलं स्थूलिभद्राद्याः, जैनोधर्मोऽस्तु मंगलम् २ अज्ञानतिमिरान्धानाम् , ज्ञानाञ्जनशलाकया। नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरुवे नमः ३ अथ श्रीजीवविचार लिख्यते-प्रथम छ जीव-निकायना नाम कहे छे १ इंद्रस्थावरकाये,२ ब्रह्मस्थावरकाय,३ शिल्प स्थावरकाय, ४ सम्मतिस्थावरकाय, ५ प्राजापत्य स्थावरकाय अने ६ जंगमकाय. हवे छ जीवनिकायना गोत्र कहे छे १ पृथिवीकाय, २ अप्काय, ३ तेजस्काय, ४ वायुकाय, ५ वनस्पतिकाय अने ६ त्रसकाय.हवे | पृथिवीकायिक जीवना बे भेद, सूक्ष्म अने बादर. सूक्ष्म ते आपणी नजरे न आवे ज्ञानी जाणे देखे. बादर ते १ प्राकृत भाषामा छ कायना नाम आ प्रमाणे छे-इंद थावरकाय, बंभथा९, सिप्पथा०, सम्मइथा०, पायावच्चथा० ने अंगमकाय. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R थोकडासंग्रह भा०१ ॥२॥ AKA5%+5+ नजरे आवे वली सू० ने बा० पृथिवीकायना बे भेद, पर्याप्त अने अपर्याप्त. बादर पृथिवीना नाम कहे छे:-१ माटी सिद्धांत ने मीठानी जाति, २ खडी ने खारानी जाति, ३ कालमींढ ने मरडिया पाहाणानी जाति, ४ हींगलो ने हरतारहस्य हैलनी जाति, ५ गेरु ने गोपीचंदनी जाति, ६ रत्न-परवालानी जाति, ७ सोल जातिना रत्नो सुवर्णादि धातु, ॥२॥ ४ा अभ्रक सुरमो वगेरे तेंतालीस जातिनी पृथिवी छे. तेना एक ककडामां असंख्यात जीव श्रीभगवंते कह्या छे. | जुवार के पीलु जेटली पृ० काय लइएं तेमांथी एकेको जीव जो पारेवा जेवडी काया करे तो आ जंबूद्वीपमा समाय नहिं. तेनां कुल बार लाख क्रोड छे. तेनी अवगाहना अंगुलना असंख्यातमा भागनी छे तेनुं आयुष्यसू० पृथवीकायिकर्नु जघन्य अने उत्कृष्ट अंतर्मुहर्तन अने बा० पृ० कायिकर्नु ज. अंत. अने उ० बावीस हजा|रवर्षनुं छे. तेनी जो दया पालीएं तो अनंत मोक्षनां सुख पामीएं. हवे अप्कायिकना बे भेद-सू० ने बा० सूक्ष्म | पूर्ववत्. हवे बादर पाणीना भेद कहे छे-१ वर्षादने कराना पाणी, २ झाकरने धुमरना पाणी ३ कूवा ने तला| वना पाणी, ४ समुद्रने झरणाना पाणी, ५ खारां-खाटां पाणी, ६ मीठां-मोळां पाणी अने घनोदधि आदि अनेक जातिना पाणी छे. तेना एक बिंदुमां असंख्यात जीव कह्या छे. तेमांथी एकेको जीव जो सरसवना दाणा | जेवडी काया करे तो आ जंबदीपमां समाय नहि. तेनां कुल सात लाख क्रोड छे. तेनी अवगाहना, अंगुलना असंख्यातमा भागनी छे. तेनुं आयुष्य-सू० अप्कायर्नु ज० ने उ. अंतर्मुहूर्तनुं अने बा० अप्कायर्नु ज० अंत. ने उ० सात हजार वर्षनुं छे. तेनी दया पालीएं तो अनंत मोक्षना सुख पामीएं. हवे तेजस्कायिक (अग्निना जीवना CRACCES + + + Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत 4%A-4-9 थोकडासंग्रह भा०१ ॥३॥ -%25 COCOC4:5TOSECRECIRCT बे भेद सू० ने बा०, वली तेना के भेद पर्याप्त ने अप० सूक्ष्म पूर्ववत् हवे बावर अग्निना भेद कहे छे. १ चूला ने भट्ठीनी अग्नि, २ धूमाडी ने तापणीनी अग्नि, ३ चकमक ने बीजलीनी अग्नि, ४ दीवा ने उमाडानी अग्नि, ५ धगधगता लोढा ने अरणीनी अग्नि अने उल्कापातादि अनेक जातिनी अग्नि छे. तेना एक तणखामां असंख्यात जीव कह्या छे. तेमांधी एकेको जीव, जो खसखसना दाणा जेवडी काया करे तो आ जंबूद्वीपमा समाय नहि. तेनां कुल ऋण लाख क्रोड छे. सूक्ष्म तेउकायिकर्नु ज. आयुष्य अंतर्मुहर्तनं अने बा. तेउका. मुंज अंत० ने उ. त्रण अहोरात्रिनु छे. तेनी दया पालीएं तो अनंत मोक्षना सुख पामीएं. हवे वायुकायिक (वायुना जीव)ना बे भेद मू० ने बा०, सूक्ष्म ते पूर्ववत्. तेना वली बे भेद पर्याप्त ने अपर्याप्त. बा. वायुका. ना भेद कहे छे| पूर्वने पश्चिमनो वायु, २ उत्तरने दक्षिणनो वायु, ३ उंचो नीचो ने तिरछो वायु, ४ वटोलियो ने मंडलियो वायु, ५ गुंज वायु ने शुद्ध वायु अने घन वायु आदि अनेक जातिना वायु छे. हवे वायुना जीब जे निमित्तथी हणाय छे ते कहे छे-१ उघाडे मोढे बोलवाथी, अति झापट नाखवाथी, मृपडे सोजवाथी, झाटकवाथी, कांतवाथी वींझणे वींझवाथी, तालोटा वगाडवाथी, हींचोले हींचकवाथी, ए आदि अनेक शस्त्रथी हणाय छे. वायुनो एकेको जीव वडना बीज जेवडी काया करे तो आ जंबूद्वीपमा समाय नहिं, तेनां कुल सात लाख क्रोड छे अने अवगाहना अंगुलना असंख्यातमा भागनी छे. तेनुं आयुष्य सू० वायुकायिकनुं ज० ने उ० अंतर्मुहर्तन अने बा० वायुका नुं ज. अंत. अने उ० त्रण हजार वर्षनु छे. तेनी दया पालीएं तो अनंत मोक्षना सुख पामीएं. हवे वन -3-644 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥ ४ ॥ स्पतिकायिकना बे भेद सू० ने बा०, सूक्ष्म पूर्ववत् तेना बादरप० अने अप० हवे बा० वनस्पतिकायिकना बे भेद प्रत्येक ने साधारण एक शरीरने विषे एक जींव होय तेने प्रत्येक कहीएं अने एक शरीरने विषे अनंत जीव होय तेने साधारण कहीएं. साधारण ने प्रत्येकनुं विशेष लक्षण कहे छे-जेनी नसो, सांधा (संधि) अने पर्व गुप्त होय, तथा समान भंग थाय-भांगतां तांतण न देखाय अने छेद्या थका फरीथी उगे ते साधारण कहेवाय; तेथी विपरीत लक्षण होय ते प्रत्येक कहेवाय छे. प्रत्येकना भेद कहे छे -१ वृक्षने वेलानी जाति, २रींगणी तुलसी अने गुल्मनी जाति, ३ एरंडा आकडा ने धतूरानी जाति, ४ दाडम शेलडी ने केलानी जाति, ५ प्रो केवडो दाभडो ने तरणानी जाति, ६ फूल - कमल ने नागरवेलनी जाति, ७ बोरडी केरडो ने कसेलानी जाति, ८ जुवार बाजरो मठ ने मकाइनी जाति, ९ तांजलजो सुवा मोघरी वालोर फलीनी जाति, ए आदि अनेक जाति, प्रत्येक वनस्पति छे. तेमां संख्याता असंख्यता जीव कह्या छे. तेनी अवगाहना ज० अंगुलना भागनी अने उ० एक हजार योजननी झाझेरी छे. तेनुं आयुष्य ज० अंत० अने उ० १० हजार वर्षनुं हवे साधारण वनस्पतिना नाम कहे छे १ लील फूल ने सेवालनी जाति, २ गाजर-मूलानी जाति, ३ डुंगली-लशणनी जाति, ४ आदु - गरमरनी जाति, ५ रतालु - पिंडालुनी जाति, ६ कंटालो थोर खुरसाणी कुंवार ने शेलरानी जाति, ७ मोथ ने लुणीनी जाति, ८ उगता अंकुरा ने कोमल फलनी जाति, तथा वज्रकंद सरणकंद अने गलो आदि अनेक जातिनी साधा१ भूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल पत्र, पुष्प, फल अने बीज ने भांगवाथी समभंग वगेरे लक्षण होय तो ए बधा अनंत जीवात्मक छे. थोकडासंग्रह भा० १ ॥ ४ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडासंग्रह भा०१ 18रण बनस्पति छे. कंदमूलना एक ककडामा (सोयना अग्रभागे रहे तेमा) अनंत जीव कह्या छे. तेनी अवगाहना सिद्धांत- अंगुलना असंख्यातमाभागनी छे. तेनुं आयुष्य ज० ने उ० अंतर्मुहर्त्तनुं छे. ते बन्नेना मलीने कुल अठावीश रहस्य लाख क्रोड छे तेनी दया पालीएतो अनंत मोक्षना सुख पामीए. हवे त्रसकायनाचार भेद कहे छे:-१ बेइन्द्रिय, २ तेइंद्रिय, ३ चरिंद्रिय अने ४ पंचेंद्रिय. बेइंद्रियना बे भेद-अपर्याप्ता ने पर्याप्ता. बेइंद्रिय कोने कहीएं | जेने काया (स्पर्शनेंद्रिय ) ने जीभ ( रसनेंद्रिय) होय तेने बेइंद्रिय कहीए. तेना नाम-जळो, कीडा, पोरा, करमिया, सरमिया, अलसिया, लाट, शंख, छीप, कोडा अने चंदनकआदि अनेक जातिना बेइंद्रिय जीवो छे. तेना कुल सात लाख क्रोड छे. अवगाहना ज० अंगुलना असंख्यातमा भागनी ने उ० बार योजननी छे. तेनु आयुष्य ज. अंत० अने उ० बार वर्षनुं छे. तेनी दया पालीएं तो अनंतमोक्षना सुख पामीए तेइंद्रियना वे भेद अपर्या० ने पर्या. तेइंद्रिय कोने कहीए? जेने काया, जीभ अने नासिका (घ्राणेंद्रिय) होय तेने तेइंद्रिय कहीएं. तेना नाम-लीख, चांचड, मांकड, कीडी, कुंथुआ, माटला, धनेडा, इतडी, जवा, गोडा, धीमेल, गधैया, कानखजुरा, मकोडा; इत्यादि घणी जातिना तेइंद्रियजीवो छे. तेना कुल आठ लाख क्रोड छे. अवगाहना ज. अंगुलना असंख्यातमा भागनी अने उ० ऋण गाउनी छे. तेनुं आयुष्य ज. अंत. अने उ० उगणपञ्चास दिवसर्नु छे. तेनी दया० ॥ चरिंद्रियना बे भेद अप० ने पर्या०, चउरिद्रिय कोने कहीए ? जेने १ ए शंखनी जाति छे अचित्त 'चंदनक' ने स्थापनाचार्य तरीके उपयोग अमूक गच्छवाला करे छे. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडासंग्रह सिद्धांतरहस्य भा०१ ॥६॥ काया, जीभ, नासिका अने आंख (चक्षुःइन्द्रिय) होय तेने चउरिन्द्रिय कहीए तेना नाम मांखी, मसला, दास, मच्छर, भमरा, तीड, पतंग, करोलिया, कंसारी, वीच्छु, खडमांकडी, बगाइ, धुलिया, फूदा, इत्यादि घणी जातिना चउरिंद्रिय जीवो छे. तेना कुल नवलाख क्रोड छे. अवगाहना ज० अंगुलना असंख्यातमा भागनी उ० एक योजननी छे. तेनुं आयुष्य ज० अंत. अने उ० छ भासतुं छे. तेनी दया० ॥ पंचेंद्रियना बे भेद अप० ने पर्या. पंचेंद्रिय ते कोने कहीए? जेने काया, जीभ, नासिका, आंख अने कान (श्रोत्रेन्द्रिय) होय तेने पंचेन्द्रिय कहीए. तेना चार भेद १ नारक, २ तिर्यंच, ३ मनुष्य अने देव. तेमां चौद भेद नारकना, अडतालीस भेद तिर्यंचना, त्रणसे त्रण भेद मनुष्यना अने एकशो अठाणु भेद देवना. मनुष्यना चार भेद-१ पन्नर कर्मभूमिना मनुष्य, त्रीश अकर्म भूमिना मनुष्य, छप्पन अंतरद्वीपना मनुष्य अने चौद स्थानकना समूच्छिम मनुष्य. देवना चार भेद-१ भवनपति, २ व्यन्तर, ३ ज्योतिष्क अने ४ वैमानिक. नारकना कुल पच्चीशलाख क्रोड छे. तियेचना कुल साडत्रेपनलाख क्रोड छे. मनुष्यना कुल बार लाख क्रोड छे अने देवना कुल छवीश लाख क्रोड छे- अवगाहना नारकीनी ज. अंगु० असंख्या छे अने उ० पांचसे धनुष्यनी छे. मनुष्यनी तिर्यच पंचेंद्वियना २० भेदमा एकैद्रियादिना ८ भेद मेळवता ४८ थाय छे.. २ साडाबार लाख क्रोड जलचरना, १० लाख कोड थलचरना. १० लाख क्रोड उरपरिसर्पना, ९ लाख कोड भुजपरिसर्पना, १२ लाख क्रोड खेचरना, सर्व मली ५३॥ लाख कोड.. 144 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य 119 11 ज० अंगु० असंख्या० अने उ० त्रण गाउनी छे. तिर्यंचनी ज० अंगु० असंख्या० अने उ० एक हजार योजननी छे. देवनी ज० अंगु० असंख्या० अने उ० सात हाथनी छे. नारक अने देवनुं आयुष्य ज० दश हजार वर्षं अने उ० तेत्रीश सागरोपमनुं छे. तिर्यच अने मनुष्यनुं आयुष्य ज० अंत० अने उ० त्रण पल्योपमनुं छे. तेनी दया पालीए तो अनंत मोक्षना सुख पामीए ॥ इति जीव विचार समाप्त. अथ श्रीवतत्त्व लिख्यतेः - हवे विवेकी सम्यक्दृष्टि जीवने, नवपदार्थ जेवा छे तेंवा-तथा रूप बुद्धि प्रमाणे गुरु- आम्नायथी धारवा. नव पदार्थ - (तत्त्व) ना नाम कहे छे:- १ जीवतस्त्व, २ अजीवतत्त्व, ३ पुण्यतत्त्व, ४ पापतत्त्व, ५ आश्रवतत्त्व, ६ संवरतत्त्व, ७ निर्जरातत्त्व, ८ बंधतत्त्व अने ९ मोक्षतत्व जीवतत्त्व ते कोने कहीए ? चैतन्यलक्षण, सदासउपयोगी, असंख्यात प्रदेशी सुखदुःखनो जाण-सुख दुःखनो जे वेदक तेने जीव कहीए. अजीवतत्व कोने कहीए ? जे जड लक्षण - चैतन्यरहित तेने अजीव कहीए पुण्यतत्व कोने कहीए ? आत्मानो जे शुभ अध्यवसाय (परिणाम) ते पुण्य कहीए. पापतस्व ते कोने कहीए? जे आत्मानो अशुभ अध्यवसाय ते पाप कहीए. आश्रवतत्त्व ते कोने कहीए ? अव्रत - अपचक्खाणवडे विषय कषायने सेववाथी जीवरूप तलावने १ प्रथम उपाए थोकडानां पुण्य-पापनीजे व्याख्या करी ते कारण-कार्यरूप हे लाक्षणिक व्याख्या नथी. थोकडासंग्रह भा० १ ॥७॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥ 11 2 11 विषे इन्द्रियरूप घडनाळाथी कर्म (पाप) रुप जे जलनो प्रवाह आवे तेने आश्रव कहीए. संवरतव कोने कहीए ? जीवरूप तलावने विषे कर्म (पाप) रुप जलना प्रवाहने व्रत - पञ्चक्खाणरुपद्वारथी रोकीए तेने संवर कहीए, निर्जरातत्व कोने कहीए ? बार भेदे तपस्याए करी आत्माना प्रदेशथी देश थकी कर्मनुं निर्झरबुं - आत्मप्रदेशथी दूर थ तेने निर्जरा कहीए. बंधतत्त्व कोने कहीए ! आत्माना प्रदेशो अने कर्मपुद्गलना दल, खीर-नीरनी परे, लोहपिंडअग्निनी परे, एकरूप थइने बंधाय तेने बंध कहीए. मोक्षतत्त्व कोने कहीए ? आत्माना सकल प्रदेशथी सर्व कर्मनुं छूट, सर्वथा बंधथी मुक्त थवं अने संपूर्ण कार्यनुं सिद्ध धनुं; तेने मोक्ष कहीए. ए जीवादिकनुं जीवपणुं वगेरे तेने तत्त्व कहीए. संग्रहनयनी अपेक्षाए सर्व जीवोनुं चैतन्यलक्षण एकज छे, माटे एक भेदे जीव कहीए. व्यवहार नयनी अपेक्षाए जीवना बे भेद छे १ त्रसने २ स्थावर, अथवा सिद्धने संसारी, तथा त्रण भेदे जीव कहीए १ स्त्रीवेद, २ पुरुषवेद ३ नपुंसक वेद. अथवा भवसिद्धिया, अभवसिद्धया, नो भवनो अभवसिद्धिया. तथा चार प्रकारना जीव कहीए-१ नारक, २ तिर्यंच, ३ मनुष्य ४ देव. अथवा चक्षुदर्शनी, २ अचक्षुदर्शनी, ३ अवधिदर्शनी, केवलदर्शनी. तथा पांच प्रकारना जीव कहीए १ एकेंद्रिय, २ बेइंद्रिय, ३ तेइंद्रिय, ४ चउरिंद्रिय, ५ पंचेंद्रिय अथवा १ सयोगी, २ मनयोगी, ३ वचनयोगी, ४ काययोगी, ५ अयोगी तथा छ प्रकारना जीव छे- १ पृथिवीकायिक, २ अपकायिक, ३ तेउकायिक, ४ वायुकायिक, ५ वनस्पतिकायिक, ६ सकायिक. अथवा १ सकषायी, २ क्रोधकषायी, ३ मानकषायी, ४ १ आश्रवनुं लक्षण व्युत्पत्यर्थ रूपे छे तेमज संवर वगेरेनुं समजवु. २ 'एगे आया' ठाणांगसूत्र. 1996 थोकडासंग्रह भा० १ ॥ ८ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहस्य जीवनाप्रकारतथाभेद ॥९॥ ६ अकषायी. तथा सात प्रकारना जीव छे-१ नारक तिर्यच, ३ तिर्यंचणी, ४ मनुष्य, ५ मनुष्यणी, ६ देव, सिद्धांत-२७ देवी.आठ प्रकारना जीव छे-१ सलेशी, २ कृष्णलेशी, ३ नीललेशी, ४ कापुतलेशी, ५ तेजुलेशी, ६ पद्मलेशी ७ शुक्ललेशी, ८ अलेशी. तथा नव प्रकारना जीव छे-१ पृथवीका०, २ अपका०, ३ तेउका०, ४ वायुका०, ५ ॥९ ॥ बनस्पतिका०, ६ बेइंद्रिय, ७ तेइंद्रिय, ८ चउरिन्द्रिय,९पंचेंद्रिय. तथा दश प्रकारना जीव छे-एकेंद्रियथी यावत् पंचेन्द्रिय ए पांचना अपर्याप्ता अने पर्याता. तथा इग्यार प्रकारना जीव छे-१ एकेंद्रिय, २ बेइंद्रिय, ३ तेइंद्रिय, ४ च उरिंद्रिय, ५ नारक, ६ तिर्यंच, ७ मनुष्य, ८ भवनपति, ९ व्यंतर, १० ज्योतिष्क ११ वैमानिक. तथा बार प्रकारना जीव छ:-पृथिवीकायिक आदि छकायना अपर्याप्ता अने पर्याप्ता. तथा तेर प्रकारना जीव छे-कृष्णले४ शीथी यावत् शुक्ललेशी, ए छना अपर्याप्ना अने पर्याप्ता एवं बार. अने १३ अलेशी. तथा चौद प्रकारना जीव छे-१ सूक्ष्म एकेंद्रिय, २ बादर एकेंद्रिय, ३ बेइंद्रिय, ४ तेइंद्रिय, ५ चरिंद्रिय, ६ असंज्ञीपंचेंद्रिय, ७ संज्ञीपंचेंद्रिय ए सातना अपर्याप्ता अने पर्याप्ता. हवे विस्तारथी जीवना पांचसें त्रेसठ भेद कहे छे-त्रणसोने त्रण भेद मनुष्यना, एकसो अठाणु भेद देवना, अडतालीश भेद तिर्यंचना अने चौद भेद नारकना एवं पांचप्तो वेसठ भेद थया. हवे त्रण सो व्रण भेद मनुष्यना, कहे छे:-पन्नर कर्मभूमि, त्रीश अकर्मभूमि अने छप्पन अंतरद्वी. एवं कसोने एक क्षेत्रना. गर्भज मनुष्यना अपर्याप्ता अने पर्याप्ता. एवं बमोने बे अने एकसोने एक क्षेत्र ना समूच्छिम अनुयना अपर्याप्ता सर्व मलीने त्रणलो त्रण भेद मनुयना छे. कर्मभूमि ते कोने कहीए? असि, NAGAR- A-A marne Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जंबूद्वीप वर्णन ॥१०॥ - - सिद्धांत मषी अने कृषि ए त्रण प्रकारना व्यापारे करी जीवे तेने कर्मभूमि कहीए. ते कर्मभूमिना पन्नरक्षेत्र छे, पांच भरत पांच ऐरावत अने पांच महाविदेह. ए कर्मभूमिना क्षेत्रो क्या छ ? एक लाख योजननो जंबूदीप छे, तेमां रहस्य भरत, १ एरावत अने १ महाविदेह छे. तेने फरतो बे लाख योजननो लवणसमुद्र छे, तेने फरतो चार लाख ॥१०॥ योजननो धातकीखंड द्वीप छे, तेमां २ भरत २ एरावत अने २ महाविदेह छे. तेने फरतो आठ लाख योजननो दिकालोदधि समुद्र छे, तेने फरतो आठ लाख योजननो अर्द्धपुष्करदीप छे, तेमां २ भरत, २ एरावत अने बे| महाविदेह छे. ए क्षेत्रोमा रहेनार पन्नर कर्मभूमिना मनुष्य कह्या. हवे अकर्मभूमि ते कोने कहीए ? त्रण प्रकारना कर्म रहित अने दश प्रकारना कल्पवृक्षवडे जीवे तेने अकर्मभूमि कहीए. ते केटला छे ? ट्रा५ हैमवत, ५ हरण्यवत, ५ हरिवर्ष, ५ रम्यकवर्ष, ५ देवकुरु, अने ५ उत्तरकुरु एवं त्रीश छे. जंबूद्वीपमा १ हैमवत, १ हैरण्यवत, १ हरिवर्ष १ रम्यकवर्ष, १ देवकुरु ने १ उत्तरकुरू, ए छ क्षेत्र छे. धातकीखंडमां बबे जाणवा. तेमज अर्धपुष्करद्वीपमां पण बबे जाणवा. एवं त्रीश अकर्मभूमिना मनुष्यो कह्या. हवे छप्पन अंतरद्वीपना मनुष्यो कहे छे:-जंबूद्वीपना भरतक्षेत्रनी मर्यादानो करनार चूलहिमवंत पर्वत छे, ते पीळा सोनामय छे. ते एकसो योजननो उंचो, एकसो गाउनो उंडो, एक हजार बावन योजन ने बार कलानो पहोलो छे अने चोवीस हजार नवसे बत्रीश योजननो लांबो छे. तेनी पूर्व-पश्चिमने छेडे बबे दाढा नीकळी छे. एकेकी । एक योजननो उगुणीशमो भाग ते 'कला' SAROKARKALARGERA - - -- - -%15 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥११॥ दाढा, चोरासी चोरासीसें योजननी झांझेरी लांबी छे; ते एकेकी दाढा उपर सात सात अंतरद्वीपा छे. ते अंतरद्वीपा क्यां छे ? जगतीना कोटथी त्रणसें योजन लवणसमुद्रमां जइए त्यारे पहेलो अंतरद्वीप आवे ते त्रणसे योजननो लांबो-पहोळो छे. त्यांची चारसे योजन ल० स० मां जइए त्यारे बीजो अंतरद्वीप आ चारसो योजननो लांबो पहोलो छे. ए प्रमाणे पांचसो, छसो, सातसो, आठसो अने नवसो योजन लवण स० माँ जइए त्यारे अनुक्रमे त्रीजाथी मांडी यावत् नवमो अंतरद्वीप आवे ते त्रणसो योजनथी यावत् नवसो योजनना लांबा-पहोळा छे, एवं सात चोकुं अठावीस अंतरद्वीप जाणवा. एरावतक्षेत्रनी मर्यादानो करनार शिखरी पर्वत छे, ते चुल हिमवंत सरखो जाणवो, त्यां पण अठावीस अंतरद्वीपा छे बन्ने मलीने छपन अंतरद्वीपा कथा. अंतरद्वीप ते शुं ? हेटे समुद्र छे उपर अधर दाढा छे तेमां जे द्वीप छे तेने अंतरद्वीप कहीए. तेमां मनुष्यो रहे छे, माटे अंतरीपना मनुष्य कहीए. हवे एकसोने एक सतुच्छिम मनुष्य, चौद स्थानकमां उपजे छे ते कहे छे:- १ उच्चारे सुवा-ते विष्टामां उपजे २ पासवणेसुवा - ते मुत्रमां उ०, ३ खेलेसुवा-ते कफ, वळवा वगेरेमां उ०, ४ सिंघाणेसुवा -ते लींट-सेडामां उ०, ५ वत्तेसुवा-ते वमनमां उ०, ६ पित्तेसुवा-ते नीला-पीला पित्तनां उ०, ७ पुइरसुवा-ते परुमां उ०,८ सोणिएसुवा - ते रुधिरमां उ०,९ सुक्केसुवा ते वीर्यमां उ०, १० सुक्क पुगलपरिसाडिएसुवा - ते वीर्यादिकना पुद्गलो फरीश्री जे भीनां थाय तेमां उ०, ११ विगय जीवकलेवरेखुवा-ते २ वीर्यादिना पुद्गलो सडे तेमांपण समुच्छिम उपजे. - समुच्छिम उत्पत्तिस्थान ॥ ११ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत AA%EC% देवनाभेदो ॥१२॥ रहस्य ॥१२॥ C4- SACROCHRONORESC-%AGENCE |जीव रहित मनुष्यादिना कलेबरमां उ०, १२ इत्थी-पुरिससंजोगे सुवा-ते स्त्री-पुरुषना संयोगमा उ०, १३ नगर-निधमणेसुवा-ते नगरनी खाळोमां उ०, १४ सम्वेसुचेव असुइ ठाणे सुवा-ते सर्व ( मनुष्यादि संबंधी) अशुचि स्थानकोमा उपजे. एवं एकसोने एक क्षेत्रना संमुच्छिम मनुष्यना अपर्याप्ता, सर्व मलीने त्रणसें त्रण | भेद मनुष्यना कह्या. हवे एकसो अठाणु भेद देवना कहे छे-तेमां दश भवनपतिना नाम १ असुरकुमार, २ नागकु०, ३ सुवर्णकु०, ४ विद्युतकु०, ५ अग्निकु०, ६ बीपकु०, ७ उदयिकु०, ८ दिशाकु०,९ पवनकु०, १० थणितकु०, पन्नर परमाधामीना नाम-१ अंब, २ अंबरीष, ३ श्याम, ४ शबल, ५ रौद्र, ६ महारौद्र, ७ काल, ८ महाकाल, ९ असिपत्र, १० धनुष्य, ११ कुंभ १२ वालुक, १३ वैतरणी, १४ खरस्वर, १५ महाघोष, सोल व्यंतरना नाम-१ पिशाचि, २ भूत, ३ यक्ष, ४ राक्षस, ५ किन्नर, ६ किंपुरुष, ७ महोरग, ८ गांधर्व, ९ अणपन्नी, १० पणपन्नि, ११ इसिवाइ, १२ भूयवाइ, १३ कंदिय, १४ महाकंदिय, १५ कोहंडिय, १६ पयंग. दश मुंभकाना नाम–१ अन्नज़ुभका, २ पानM०, ३ वत्थब्रु०, ४ लयणघ्र०, ५ सयण@०, ६ पुप्फर्जे०, ७ फलजूं०,8 ८ पुप्फफलजूं०, ९विज्जुनूं०, १० अवियत्तजूंभका. दश ज्योतिष्कना नाम--चंद्रमा, २ सूर्य, ३ ग्रह, ४ नक्षत्र, २ सुवर्णकु. पण नाम छे. ३ स्तनित कु. ४ लयण गृह, ५ विद्यार्जे०, जंभृकदेवोना जे जे नामो छे ते ते वस्तुओनी हानी वृद्धि सरस के नीरस करनारा :होय छे अने श्राप के :अनुग्रहने पण करनारा छे. ९९ जातिना नामो केटलाक प्राकृत भाषामा अने गुजराती | भाषामा लखेला छे. ६ नव प्रैवेयकना नाम पन्नवणामां हि ठिम हि ठिम इत्यादि नामो छे. - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१३॥ देवनाभेदो ॥१३॥ ५ तारा, ए अढी द्वीपमा छे ते चल छे अने अढी द्वीपथी बहार छे ते स्थिर छे. त्रण किल्विषिकनानाम:-त्रण पलिया, २ ऋणसागरिया, ३ तेरसागरिया. नव लोकांतिकना नाम-१ सारस्वत, २ आदित्य, ३ वह्नि, ४ अरुण, ५ गर्दतोय, ६ तुषित, ७ अव्यायाध, ८ आग्नेय, ९ अरिटाभ. बार देवलोकनानामः-१ सुधर्मदेवलोक, २ इशान दे०, ३ सनत्कुमार दे०,४ माहेंद्र, द० ५ ब्रह्म दे०, ६ लांतक दे०, ७ महाशुक्र दे०, ८ सहसार दे०, ९ आनत दे०, १० प्राणत दे०, ११ आरण दे०, १२ अच्युत देवलोक. नव ग्रैवेयंकना नामः-१ भद्र, २ सुभद्र, ३ सुजात, ४ सुमानस, ५ प्रियदर्शन, ६ सुदर्शन, ७ आमोह, ८ सुप्रतिबद्ध, ९ यशोधर. पांच अनुत्तर विमाननामः-१ विजय, २ वैजयंत, ३ जयंत, ४ अपराजित, ५ सर्वार्थसिद्ध. ए नवाणु जातिना देवना अप० अने पर्याप्ता. एवं एकसोने अठाणु. अडतालीश भेद तीर्यचना कहे छ:-१ पृथिवीकायिक, २ अपका०, ३ तेउका०, ४ वायुका०, ए चार सूक्ष्म ने बादर ए आठना अपर्या० ने पर्या० एवं सोळ, वनस्पतिका ना त्रण भेद सूक्ष्म, प्रत्येक अने साधारण, ए वणना अपर्या० ने पर्या० एवं छ मलीने बावीश भेद एकेंद्रियना बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिंद्रिय एत्रण विकलेंद्रियना अपर्या ने पर्या० ए छ मलीने अठावीश. जलचर, थलचर, उरपरिमर्प, भुजपरिसर्प अने खेचर ए पांच समुच्छिम अने गर्भज, ए दशना अपर्या ने पर्याप्ता. सर्वमली अडतालीश भेद तिर्यंचना. चौदभेद नारकना कहे छे:-सात नरकना नाम कहे छेः-१ घमा, २ वंशा, ३ शिला, ४ अंजना, ५] १ तथा २ नोट १२मां पेजमां हे त्यांथी जोइ लेवी. ३ नरकमां उत्पन्न थाय ते नारक' कहेवाय आधाराधेय संबंधी नारकना भेद कहेवाथी नरकना भेद समजवा, 'नरक' आधार छे अने नारक [जीव] आधेय छे. 'नारकी' शब्द अशुद्ध छे. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१४॥ RECAREERRORIS: | रिष्टा, ६ मघा, ७ माघवती. तेना सात गोत्र कहे छे:-१ रत्नप्रभा, शर्करा प्र०, ३ वालु प्र०, ४ पंक प्र०5 ५ धूम प्र०, ६ तमाम०, ७ महातम प्रभा. ए सातना अपर्या० ने पर्याप्ता एवं चौद. सर्व मलीने पांचसोने त्रेसठ अजीवतत्व भेद भेद जीवतत्वना कह्या. इति जीव तत्त्व समाप्त. हवे अजीव तत्त्वना भेद कहे छ:-धर्मास्तिकायनो स्कंध, देश अने प्रदेश. अधर्मास्तिकायनो स्कंध, देश ॥१४॥ अने प्रदेश. आकाशास्तिकायना स्कंध, देश अने प्रदेश अने अद्धासमय; ए दश भेद अरुपी अजीवना कह्या. रुपी अजीवना चार भेद कहे छे:-पुद्गलास्तिकायनो स्कंध, देश, प्रदेश अने परमाणु; ए चार मलीने चौद भेद अजीवना छे. हवे विस्तारथी पांचसो साठ भेद कहे छः-प्रथम त्रीश भेद अरुपी अजीवना कहे छः-१ धर्मास्तिकाय १ द्रव्यथी एक. २ क्षेत्रथी आखा लोक प्रमाणे, ३ कालथी अनादि अनंत, ४ भावथी वर्ण, गंध, रस ने स्पर्श रहित-अमूर्त,५ गुणथी चलण सहाय. अधर्मा०१ द्रव्यथी एक,२ क्षेत्रथी आखा लोक प्रमाणे,३ कालथी अनादि अनंत, ४ भावथी वर्ण, गंध, रस ने स्पर्श रहित-अमृत, ५ गुणधी स्थिर सहाय. आकाशा० १ द्रव्यथी एक.. क्षेत्रथी लोकालोक प्रमाणे ३ कालथी अनादि अनंत, ४ भावथी वर्ण, गंध, रस ने स्पर्श रहित-अमूर्त,५ गुणथी अवगाहनादान. काल १ द्रव्यथी अनंत,२क्षेत्रथी अढी द्वीप प्रमाणे,३ कालथी अनादि अनंत,४ भावथी वर्ण,गंध, रस ने स्पर्श रहित-अमूर्त,५ गुणथी वर्तना लक्षण.ए वीश अने दश पूर्व कथा.हवे पांचसो त्रीश भेद रुपी अजीवनः | कहे छे:- पांच वर्ण-१ काळो, २ नीलो, ३ रातो ४ पीळो ने धोळो. एकेक वर्णमां वीश भेद होय ते कहे है: Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य पुण्यतत्व ॥१२॥ ॥१५॥ २गंध, ५ रस,५संटाण अने ८ स्पर्श. एवं यीशने पांच वर्णधी गुणतां एकशो थाय. हवे वे गंध-सुरभिगंध ने दुरभिगंध. एकेका गंधमां ब्रवीश भेद होय, ते कहे छे:-५ वर्ण, ५ रस,५ संठाण अने आठ स्पर्श. एवं ब्रेवीश ने बे गंधथी गुणतां ४६ थाय. हवे पांच रस-१ तीखो, २ कडवो, ३ कसायेलो, ४ खाटो, ने ५ मीठो. एकेका | रसमां वीश भेद होय ते ५ वर्ण, २ गंध, ५ संठाण अने ८ स्पर्श. एवं बीशने पांच रमथी गुणतां एकसो थाय. हवे पांच संठाण-१ परिमंडल सं०२ वृत्त सं०, ३ त्र्यंश सं०,४ चउरंश सं०५ आयत संठाण.एकेका संठाणमां वीश भेद होय ते ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, अने ८ स्पर्श. एवं वीश ने पांच संठाणथी गुणतां एकसो थाय. हवे आठ स्पर्श-, कर्कश, २ सुंहालो, ३ भारी, ४ हलको, ५ टाढो, ६ उनो, ७ लखो, ८ चीकणो. एकेका स्पर्शमां त्रेवीश भेद होय-पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस, पांच संठाण,छ स्पर्श. ए त्रेवीश होय, कारण? कर्कशमां कर्कश ने सुंहालो ए वे वर्जवा; एम बेबे स्पर्श दरेकमां वर्जवा. ए त्रेवीशने आठ स्पर्शथी गुणतां १८४ थाय. ते सर्व | मलीने पांचसो साठ भेद अजीव तत्वना जाणवा. इति अजीव तत्त्व समाप्त. हवे पुण्य तत्त्व कहे छे:-नव प्रकारे पुण्य उपजे (थाय) ते कहे छे-१ अन्न पुन्ने २पाण पु०,३ लयण पु०, । मृदु २, गुरू ३, लघु ४, शीत ५, उष्ण ६, लुक्ष , स्निग्ध, ए नाम शुध्ध छे, २ पुग्यना नवकरणोमा कार्यनो उपचार करवाथी पुन्यना पण नव प्रकार कहेल छे. अन्नादिनु दान करवाथी-आपवाथी पुन्य थाय छे. दुःखी दीन अने अनाथ वगेरेने अनुकंपा बुद्धिए आप. | वाथी पुन्य थाय छ, ३ लयण-गृह, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१६॥ ४ सयण पु०, ५ वत्थ पु०, ६ मन पु०, ७, वयण पुं०, ८ कायपु०, ९ नमुक्कार पुन्ने, तेना शुभ फल ४२ प्रकारे भोगबाय ते कहे छे:- १ सातावेदनीय, २ उच्च गोत्र, ३ मनुष्य-गति, ४ मनुष्यानुपूर्वी, ५ देवगति, ६ देवानुपूर्वी, ७ पंचेन्द्रियजाति, ८ औदारिक शरीर,९ वैक्रिय श०,१० आहारक श०११ तेजस श०, १२ कार्मण श०, १३ औदा०ना अंगोपांग, १४ वैक्रे०ना अंगो० १५ आहारकना अंगो० १६ वज्रऋषभनाराचसंघयण, १७ समचउरंस संठाण, १८ शुभवर्ग, १९ शुभ गंध, २० शुभरस, २१ शुभस्पर्श, २२ अगुरू लघु नाम, २३ पराघात नाम, २४ उच्छ्वास नाम, २५ आतापनाम, २६ उद्योत नाम, २७ शुभविहायोगति, २८ निर्माणनाम, २९ त्रसनाम, ३० बादरनाम, ३१ पर्याप्तनाम, ३२ प्रत्येकनाम ३३ स्थिरनाम, ३४ शुभनाम, ३५ सौभाग्य नाम, ३६ सुस्वरनाम, ३७ आदेयनाम, ३८ यशोकीर्त्ति नाम, ३९ देवनं आयुष्य, ४० मनुष्यनुं आयुष्य, ४१ तिर्यचनुं आयुष्य, ४२ तीर्थंकर नाम. ए बेतालीश भेद पुन्यना जाणवा. इति पुन्य तत्त्व समाप्त. हवे पाप तत्व कहे छे:-अढार प्रकारे पाप उत्पन्न थाय ते कहे छे-१ प्राणातिपात, २ मृषावाद, ३ अदत्तादान, ४ मैथुन, ५ परिग्रह, ६ क्रोध, ७ मान, ८ माया, ९ लोभ, १० राग, ११ द्वेष, १२ कलह, १३ अभ्याख्यान, १४ पैशुन्य, १५ परपरिवाद, १६ रति- अरति, १७ मायामृषावाद, १८ मिथ्या दर्शनशल्य. तेना अशुभ फल ८२ प्रकारे भोगवाय तेना नाम कहे छेः-१ मति ज्ञानावरणीय, २ श्रुत ज्ञानावरणीय, ३ अवधि ज्ञानावरणीय, २ शुभ चालवानी गति: इंसके हाथीनी चाले चाल ते. पापतच्च ॥१६॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१७॥ पापतत्त्व भेद ॥१७॥ ४ मनःपर्यायज्ञाना०,५ केवलज्ञाना०, ६ दानांतराय,७ लाभांतराय, ८ भोगतिराय,९ उपभोगांतराय,१० बीयातर,११ चक्षुदर्शना०,१२ अचक्षुदर्शना०,१३ अवधिदर्शना०,१४ केवलदर्शना०,१५ निद्रा, निद्रानिद्रा,१७ प्रचला, १८ प्रचलाप्रचला, १९ थिणद्धिनिद्रा, २० नीचगोत्र, २१ असातावेदनी, २२ मिथ्यात्वमोहनीय, २३ स्थावरनाम, २४ सूक्ष्मनाम, २५ अपर्याप्त नाम, २६ साधारण नाम, २७ अस्थिर नाम, २८ अशुभ नाम, २९ दौर्भाग्य नाम, ३० दुस्वर नाम, ३१ अनादेय नाम, ३२ अयशोकीर्ति नाम, ३३ नरक गति नाम, ३४ नरकानुपूर्वी, ३५ नरकायुष्य, ३६ अनंतानुबंधी क्रोध, ३७ अ०मान, ३८ अ० माया,३९ अ० लोभ, ४० अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध ४१ अप्र० मान, ४२ अप्र० माया, ४३ अप्र० लोभ, ४४ प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, ४५प्र० मान, ४६५० माया, |४७ प्र० लोभ, ४८ संज्वलननो क्रोध, ४०सं० मान, ५० सं० माया, ५१ सं० लोभ, ५२ हास्य, ५३ रति, ५४ अरति, ५५ भय, ५६ शोक, ५७ दुगंच्छा , ५८ स्त्री वेद, ५९ पुरुष वेद, ६० नपुंसक वेद, ६१ तिर्यंच गति, ६२ तिर्यंचानुपूर्वी, ६३ एकेंद्रिय जाति, ६४ बेइंद्रिय जाति, ६५ तेइंद्रिय जाति, ६६ चउरिंद्रिय जाति, ६७ अशुभ चालवानी जाति, ६८ उपघात नाम, ६९ अशुभ वर्ण, ७० अशुभ गंध, ७१ अशुभ रस, ७२ अशुभ स्पर्श, ७३ तिर्यचनी गति अने अनुपूर्वी ए वन्नेनी उ० स्थितिनो बंध अशुभ अध्यवसायथी थाय डे अने तियंचनु उ. आयुष्यबंध, शुभ अध्यवसा. यथी थाय हे माटे तेने पुण्य प्रतिमा गणेल छे. नरकायुप्य सिवाय त्रण गतिनी उ० स्थिति, विशुद्ध अध्यवसायथी बंधाय छे. गति अने अनुपूर्वी |ए ने नाम कर्मनी प्रकृति के अने आयुष्य आयुष्क कर्मनी प्रकृति है. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१८॥ रुषभना राच सं० ७४ नाराच सं०, ७५ अर्धनाराच सं, ७६ किलिका सं०, ७७ छेवड्ड सं०, ७८ निग्गोह परिमंडल संठाण, ७९ सादिसं, ८० वामन सं०, ८१ कुब्ज सं०, ८२ हुंड संठाण, ए ८२ भेद पापतत्त्वना जाणवा. इति पाप तत्त्व समाप्त. हवे आश्रव तत्त्वना सामान्य प्रकारे वीश भेद कहे छेः-१ मिध्यात्व ते आश्रव, २ अव्रत ते आ०, ३ प्रमाद ते आ०, ४ कषाय ते आ० ५ अशुभयोग ते आ०, ६ प्राणातिपात ते आ०७ मृषावाद ते आ० ८ अदत्ताद न ते आ० ९ मैथुन ते आ० १० परिग्रह ते आ० ११ श्रोत्रेंद्रिय-असंवरे न आ०, १२ चक्षु इंद्रिय असं० ते अ० १३ घ्राणेंद्रिय - असं० ते आ०, १४ रसनेंद्रिय असं० ते आ०, १५ स्परीनेंद्रिय असं० ते आ०, १६ मनअसं० ते आ०, १७ वचन-असं० ते आ०, १८ काय असं० ते आ०, १९ भंडोप करण- उपधि, जेम तेम लीए मूके ते आ० २० सुचि कुसग्ग असं० ते आ०, हवे विस्तारथी ४२ भेद आश्रवना कहे छे:-प्राणातिपातादि पांच आश्रव, पांच इंद्रियनो असंवर ए दश, चार कषाय अने ऋण अशुभयोग ए सत्तर अने पंचीश क्रिया१ कायिकी क्रिया, २ अधिकरणकी, ३ पाउसिया, ४ परितावणिया, ५ पाणाइवाइया, ६ आरंभिया, ७ परिग्गहिया, ८ मायावत्तिया, ९ अपञ्चाक्खाणावत्तिया, १० मिच्छादंसणवत्तिया, ११ दिठ्ठिया, १२ पुडिया, १३ १ सोय वगेरे शस्त्र साचवी न राखवाथी आश्रव थाय छे. २ क्रियानो करनार जीव होवाथी आश्रवने नय शैलीथी जीव कहीए भने क्रिया जन्य कर्म, पुद्गल होवाथी अजीव पण कहीए. आश्रवना कारण भेदभी आश्रवना भेदो थाय छे. आश्रवतत्त्वमेद ॥१८॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य संवरतत्त्व इरियाबहिया किरिया लवत्तिया, २१ अणापउगी, हथिया, १७ आणवणिया, १० ॥१९॥ ॥१९॥ MASA SASA पाडुचिया, १४ सामंतोवणिया, १५ नेसत्थिया, १६ सहत्थिया, १७ आणवणिया, १८ विदारणिया, १९ अणाभोगिया. २० अण वखवत्तिया, २१ अणापउगी, २२ सामुदाणी, २३ पेज्जवत्तिया, २४ दोसवत्तिया, २५, इरियावहिया किरिया. ए पच्चीश अने प्रथमना सत्तर मेळवतां४२ भेद आश्रव तत्वना जाणवा. इति आश्रव तत्त्व समाप्त. हवे सामान्य प्रकारे संवरना पीश भेद कहे छ:-१ समकित ते संवर, २ व्रत-पच्चक्खाण ते सं०, ३ अप्रमाद ते सं०.४ अकषाय ते सं०,५ शुभ योग ते सं०, ६ जीव-दया ते सं०,७ सत्य वचन ते सं०,८ अदत्तत्यागते सं०,९शीयल ते सं०, १० अपरिग्रह ते सं०, पांच इंद्रिय अने त्रण अशुभ योगर्नु संवरवू ते सं० एवं १८, १९ भंडोपगरण अने उपधि. यसमाए लीए मूके ते सं० २० सुचि कुसग्ग न करे ते सं० हवे विशेष भेद ५७ कहे छे:-पांच समिति अने व्रण गुप्ति ए आठ प्रवचन माताने पालवी अने बावीश परिषहने जीतवा, तेना नाम:-१ क्षुधानो परिषह, २ तृषानो प०, ३ टाढनो प०,४ तापनो ५०, दंसमशकनो प०, ६ अचेलनो प०, ७ अरतिनो प०, ८ स्त्रीनो प०,९चर्यानो ५०, १० बेसवानो प०, ११ शय्यानो, १२ आक्रोशनो प०, १३ वधनो प०, १४ याचनानो प०, १५ अलाभनो प०,१६ रोगनो प०, १७ तृणस्पर्शनो प०,१८ मलनो प०, १९ , व्यवहार नयथी शुभ योग संवर कहेवाय , निश्चय नयथी ते आश्रव छे. २ सोय वगेरे शनने संभारी राखवा-हिंसाना निमित्त न | थाय तो संबर नीपजे. ३ चालवानो. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२०॥ सत्कार - पुरस्कारनो प०, २० प्रज्ञानो प०, २१ अज्ञाननो प०, २२ दर्शन परिषह एवं ३० अने दश यति धर्मने आरधवो, तना नाम: -१ खंति, २ मुति, ३ अजवे, ४ मद्दवे, ५ लाचैवे, ६ सच्चै, ७ संजमे, ८ तवे, ९ चियाए, १० बंभचरे, एवं चालीश. अने बार भावना भाववी. तेना नामः-- अनित्य भावना, २ अशरण भा० ३ संसार भा०, ४ एकत्व भा०, ५ अन्यत्व भा०, ६ अशुचि भा०, ७ आश्रव भा०, ८ संवर भा०, ९ निर्जरा भा०, १० लोक भा०, १० बोधि दुर्लभ भा०, १२ धर्म दुर्लभ भावना, एवं बावन. अने पांच चारित्र आदरवा तेना नामःमामायिक चारित्र, २ छेदोपस्थापनीय चा०, ३ परिहार विशुद्ध चा०, ४ सूक्ष्म संपराय चा०, ५ यथाख्यात चारित्र, एवं ५७ भेद संवरतत्त्वना जाणवा. इति संवर तत्त्व समाप्त. वेन तत्त्व बार प्रकार कहे छे:- १ अनशन, २ उणोदरिका, ३ वृत्तिसंक्षेप, ४ रसपरित्याग, ५ काय क्लेश, ६ संलीनता, ए छ बाह्य तप कह्या. छ अभ्यंतर तप कहे छे:- १ प्रायश्चित्त, २ विनय ३ वैयावच्च, ४ सझाय, ५ ध्यान, ६ कायोत्सर्ग. ए बार प्रकारना तपथी निर्जरा थाय छे. इति निर्जरा तत्त्व समाप्त. हवे बंध तत्त्वना चार भेद कहे छे:--१ प्रकृतिबंध, २ स्थितिबंध. ३ अनुभाव, ४ प्रदेशबंध, प्रकृतिबंध ते १ क्षमा २ निर्लोभता. ३ सरलता. ४ निरभिमानता - कोमलता. ५ लघुता. ६ सत्य. ७ त्याग- अकिंचनता. ८ अध्यवसाय भेदथी संवरना असंख्य भेद थाय. कारण भेदने लइने सत्तावन भेद संवरना थाय छे, ए व्यवहार नयथी. निश्रय नयथी परभावनो त्याग ते संवर. ९] प्रकृतिबंध, अने प्रदेशबंध योगथी थाय छे अने स्थितिबंध ने अनुभावबंध कषायथी थाय छे. अनुभावने अनुभागगंध अथवा रसबध पण कहेवाय छे. निर्जरातव 112011 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२१॥ | मोक्षतत्व ॥२१॥ कर्मनो स्वभाव अथवा परिणाम, जे कर्मनी जेटली स्थिति होय छे ते स्थितिबंध, कर्मनो जे तीव्रमंदादि रस ते अनुभावबंध अने कर्मपुद्गलना दल ते प्रदेशबंध. आ चार प्रकारना बंधन स्वरूप मोदकना दृष्टांतथी कहे छे. जेम कोइ मोदक, घणा प्रकारना द्रव्यना संयोगवडे बनावेल ते (लाड)मा वायुने पित्तने के कफने हरबानो स्वभाव होय छे, तेम कर्मप्रकृतिमा कोइनो ज्ञानने आबरण करवानो, कोइनो दर्शनने आवरण करवानो स्वभाव होय छे, वली तेज मोदक, एक पक्ष, मास के वे मास सुधी रहे, तेम कोइ कर्मप्रकृति वीश त्रीश के सित्तेर कोडाकोडी सुधी रहे ते स्थितिबंध, ते मोदक अल्प के तीब्र, कडवो के मीठो होय तेम कर्मप्रकृति पण मंद के तीव्र, शुभ के अशुभ रसवाली होय ते अनुभावबंध, तेज मोदक कोइ अल्पदलवाल के बहुदलवालु होय, तेम कोइ पण कर्मप्रकृति अल्पदल के बहुदलवाली होय ते प्रदेशबंध कहेवाय छे.ए चार प्रकारनो कर्मबंध जाणवो.इति बंधतत्व समाप्त. | हवे मोक्षतत्त्व कहे छे:-सर्व कर्मथी मुक्त थइने सिद्ध पदने प्राप्त करवू, ते सिद्धना पन्नर भेद छे:-१ तीर्थ सिद्ध, २ अतीर्थ सि०, ३ तीर्थंकर सि०, ४ अतीर्थंकर सि०,५ गृहस्थलिंग सि०, ६ अन्यलिंग सि०,७ स्व. लिंग सि०, ८ स्त्रिलिंग सि०,१ पुरुष लिंग सि०,१० नपुंसक लिंग सि०, ११ स्वयंवुद्ध सि०, १२ प्रत्येकबुद्ध सि०, १३ बुद्धयोधित सि०,१४ एक सिद्ध, १५ अनेक सिद्ध. जीव चार कारणे मोक्ष जाय-ज्ञान, दर्शन, चारित्र BAMS , कषायनी तरतमता कपायना अध्यवसायथी होय छे, एकेक कषाय-स्थान के अध्यवसाय-स्थानक असंख्य होय छे. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२२॥ अने तपवडे. हवे मोक्षतत्व उपर नव द्वार उतारे छः-१ सत्पद-प्ररूपणा ते मोक्षगति पूर्व काले हती, हमणा मोक्षतत्त्व छे अने आगामिकाले पण हशे; ते छती 'अस्ति' छे पण आकाशना फूलनीपरे 'नास्ति' नथी.२ द्रव्य प्रमाण-ते सिद्ध अनंत छे, ते पंचमे अनंते छे. अभव्यजीवथी अनंतगुण अधिक छे, वनस्पतिनाजीव वर्जीने त्रेवीश दंड- ॥२२॥ कथी सिद्धना जीव अनंत गुण अधिक छे. ३ क्षेत्रद्वार-ते सिद्धशिला प्रमाण, सिद्धशिला ४५ लाखयोजननी || लांबी-पहोळी छे अने त्रिगुणी झाझेरी परिधि छे.तेना एक गाउना छठे भागे-त्रणसेंतेंत्रीश धनुष्य अने बत्रीश अंगुल उंचपणे लोकांते रह्या छे.४ स्पर्शनाद्वार-ते सिद्धक्षेत्रथी कांइक सिद्धनी स्पर्शना अधिक छे.५ कालद्वार-ते एक सिद्ध आश्रयी सादिअनंत अने सर्व सिद्ध आश्रयी अनादिअनंत छे,६ अंतरद्वार-ते फरीने सिद्धने संसारमा अवतरवू नथी अथवा ज्यां एक सिद्ध छे त्यां अनेक सिद्ध छे अने अनेक सिद्ध छे त्यां एक सिद्ध छे. एटले सिद्ध सिद्धमा अंतर नथी; ज्योतिमां ज्योति समाइ गयेल छे.७ भागद्वार-ते सघला जीवना अनंतमे भागे सिद्धना जीव छे, लोकना असंख्यातमे भागे छे. ८ भावद्वार-ते सिद्धमां क्षायकभावे केवलज्ञान, केवलदर्शन | अने क्षायकसमकित छे अने परिणामिक भावे जीवपणुं जाणवू. ९ अल्प बहुत्वद्वार-ते सर्वथी थोडा नपुंसक । जे एक पद होय ते शुद्ध पद कहेवाय, मोक्ष एक पद छे माटे 'सत्' छे. शश-शृंगादि वे पदनु निर्धार न होय-असत्-पण होय. २ ज्यारे (कोइ | पग समये) केवली प्रभुने पूछवामां आवे त्यारे एकज जवाब मळे के 'सर्व सिद्धना जीव' एक निगोदना जीवोथी अनंतमे भागे छे. ३ सिद्ध पण जीव छे, कारण? अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत अव्याबाध सुख अने अनंत वीर्य, ए चार भाववडे सदा जीवे छेमाटे सिद्धमा जीवपणु का हे. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ सिद्ध, तेथी स्त्री सिद्ध संख्यातगुणा, तेथी पुरुष सिद्ध संख्यात गुणा छे. एक समयमां नपुंसक उत्कृष्ट १० सिद्ध सिद्धांत- तथाय, स्त्री २० सिद्ध थाय अने पुरुष १०८ सिद्ध थाय. हवे मार्गणा कहे छ:-१ अस पणे, २ बादर पणे, ३ संज्ञि रहस्य पंचेंद्रियपणे, ४ वज्ररुषभनाराच सं० पणे, ५ शुक्लध्यान पणे, ६ मनुष्य गति पणे,७क्षायक समकितवालो, ॥२३॥ ८ यथाख्यात चारित्रवालो, ९ पंडितवीर्यवान्, १० केवलज्ञानी ११ केवलदर्शनी, १२ भव्य सिद्धिक, १३ परम शुक्ललेशी, १४ चरम शरीरी, ए चौद बोलनो धणी होय ते मोक्षे जाय. जघन्य बे हाथनी अवगाहनावाळो अने | उ० पांचसे धनुष्यनी अव० वाळो, जघन्य नव वर्षनो अने उ० पूर्व क्रोडना आयुष्यवाळो; ते पण कर्म भूमिनो होय. अने त्रीजा चोथा आरानो जन्मेलो होय ते मोक्षे जाय. इति नवतत्त्व समाप्त. अथ दंडक लिख्यते-शरीरोगाहण संघ,-यण संठाण कसाय तह सन्नाओ, लेसिदिय समुग्धाओ, सन्नीवेदेय पजत्ती,१ दिट्ठी दंसण नाणे, जोगुवओगे तहा किमाहारे; उववायठिइ समुहाए, चवण गई आगई चेव.२] मार्गणानो जे विचार करेल . ते मूल मार्गणा १४ छ:-१ गति मार्गणा, २ इन्द्रियमा० ३ कायना. ४ योग मा० ५ वेद मार्गणा० ६ कषायमा० . ज्ञान मा०८ संयममा०९ दर्शनमा० १० लेश्यामा०१७ भव्यमा० १२ समकामा० १३ संज्ञीमा०१४ आहार मार्गणा. तेनी उत्तर मार्गणा ६२ थाय छे. हवे १४ मूल मार्गणामां दशमार्गणामांथी जीव मोक्ष जाय छे. ते आ प्रमाणे:-१ नर गति, २ पंचेन्द्रिय, ३ चप्स, | ४ भव्य, ५ संजी, ६ यथाख्यात चारित्र, शायकस मकित, ८ अणाहार, ९ केवलज्ञान, १० केवल दर्शन, ए:दश मार्गणा सिवाय बाकींनी चार मूल मार्गणा वेदादि अने बावन उत्तरमार्गणामांथी जीव मोक्षे न जाय, एम नवतधप्रकरणमां कहेलुं छे. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२४॥ सूत्रनी आ बे गाथा कही तेनो अर्थ कहे छे:- शरीर केतां शरीर पांच ते औदारिक, वैक्रेय, आहारक, तैजस अने कार्मण. उगाहणा केतां अवगाहना ते औदारिक श० नी जघन्य अंगुलमा असंख्यातमा भागनी अने उत्कृष्टि एक हजार योजननी झाझेरी, कमलना डोडानी अपेक्षाए. वैक्रेय श० नी ज० अंगु० असं० अने ऊ० पांचसो धनुष्यनी. उत्तर वैक्रेय श० नी ज० अंगु० संख्यातमा भागनी अने उ० लाख योजननी झाझेरी. आहारक श० नी ज० मुंडा हाथनी अने उ० एक हाथनी. तैजस ने कार्मण श० नी० जे० अगु० असंख्या० अने उ० पोताना शरीर प्रमाणे अथवा चौद राजलोक प्रमाणे जाणवी. संघयण केतां संघयण ( शरीरनी रचना) छ. वज्ररुषभनाराच सं०, रुपभनाराच सं० नाराच सं० अर्द्धनाराच सं० किलिका सं० अने छेवहु संघयण. संठाण, केतां संस्थान ( शरीरना आकार ) छ. समचउरंस संठाण, निग्गोह परिमंडल सं०, सादि सं०, वामन सं०, कुब्ज सं०, अने हुंड संठाण. कसाय के० कषाय चार. क्रोध, मान, माया, अने लोभ तह के० तेमज सन्नाओ के० संज्ञा चार. आहार संज्ञा, भय सं०, मैथुन सं०, अने परिग्रह संज्ञा. लेसा के० लेश्या छ. कृष्ण लेश्या, १ आ गाथा जीवामिगमसूत्रनी टीकामां छे, अमूलरुषिजीवाली प्रतमां मूलमां छे. २ अवगहना शरोरनी अपेक्षाए छे. ३ श्रीदेवीना कमलनी होय. ४ केवल समुद्घातनी अपेक्षा ए. ५ मोहनीय भने वेदनीय कर्मना उदयथी 'संज्ञा' होय छे. ६ योग जन्य लेश्या छे. 'जोग परिणाम लेसा' अन्वयव्यतिरेक वडे योग अने लेश्यानो संबंध छे. योग होय तो लेश्या होय अने योगनो अभाव होय तो लेइयानो अभाव होय लेश्यानो विशेष स्वरूप 'लेश्याना थोकडा' थी जोबुं. दंडक ॥२४॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है सिद्धांत दंडक रहस्य ॥२५॥ ॥२५॥ नीलले०, कापोतले०, तेजोले० पदमले०, शुक्ल लेश्या. इंदिय के० इंद्रिय पांच. श्रोत्रंद्रिय, चक्षु इंद्रिय, घ्राणेंद्रिय, रसनेंद्रिय अने स्पर्शनेंद्रिय. समुग्घाए के० समुद्घात सात. वेदनी समुद्घात, कषायम०, मारणांतिकस०, वैक्रेयस०, तैजसस०, आहारकस०, अने केवल समुद्घात. सन्नी के० संज्ञी-असंज्ञी, मन होय ते संज्ञी अने मन नहोय ते असंज्ञी. वेदेय के० वली वेद त्रण, स्त्रीवेद, पुरुष वेद अने नपुंसक वेद. पजत्ती के० पर्याप्ति छ आहार| पर्याप्ति, शरीरप०, इंद्रियप०, श्वासोच्छ्वासप०, भाषाप०, अने मनपर्याप्ति. दिट्टी के दृष्टि त्रण. समकितदृष्टि, मिथ्यात्वदृष्टि,अने मिश्रदृष्टि, दंसण के० दर्शन चार.चक्षुदर्शन अचक्षुद०,अवधिद०,अने केवलदर्शन. नाणेके०, ज्ञानपांच अने त्रण अज्ञान.मतिज्ञान, श्रुतज्ञा०.अवधिज्ञा०, मनःपर्यायज्ञा०,अने केवलज्ञान,मतिअज्ञान,श्रुतअ०, विभंगअज्ञान. जोग के० योगपन्नर, चार मनना, चार वचनना अने सात कायाना. सत्यमनोयोग. असत्यमनोयोग, मिश्रमनोयोग अने व्यवहारमनोयोग.सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, मिश्रवचनयोग अने व्यवहारवचनयोग. औदारिक, औदा-मिश्र, वैकेय, वैकेयमिश्र, आहारक, आहा०-मिश्र अने कार्मणयोग. उवओगे के उपयोग बार. पांच ज्ञान, त्रण अज्ञान अने चार दर्शन. तहा किमाहारे के० तेमज आहार. द्रव्यथी अनंत प्रदेशी पुद्गलो, क्षेत्रथी असंख्यान प्रदेशावगाढ पुद्गलो, कालथी जयन्य मध्यम अने उत्कृष्ट स्थितिवाला पुद् मन अने वचन योगना जे चार चार भेद कहेल छे, ते व्यवहारनयथी अने निश्चयनयथी प्रथमगा जे वे वे भेद छे ते जाणवा; एम | पनवणा सूत्रथी जणाय हे. व्यवहार वचनयोगने असत्या मृषा नामथी जणावेल के. - -- - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२६॥ गलो अने भावथी वर्ण, गंध, रस ने स्पर्शवाला पुद्गलोनो आहार करे. ते पण फरसेला पुद्गलो- अनंतराव - गाढ पुद्गलोनो आहार करे. अने वली स्वविषयानुपूर्वीए-उर्ध्व आदि त्रण अने पूर्वादि छ दिशामांथी आहार करे. ते आहार त्रण प्रकारनो छे ओज, रोम अने कवल. अथवा सचित्त, अचित्तने मिश्र उववायके० आवीने उपजे ते आगल कहेवासे. ठिइ के० स्थिति ज० अंतर्मुहूर्त्त अने उ० ३३ सागरोपमनी. समुहाए के० मारणांतिक समुद्घात सहित मरण, ते बे प्रकारनुं छे; समोहया अने असमोहया. इलिकानी गति प्रमाणे जे ( समुद्घात सहित ) मरण ते समोहया मरण अने समुद्घात रहित, बंदुकना भडाकानी परे जीवना प्रदेश सामटा नीकळे ते असमोहया मरण. चवण के० चवीने जेटला दंडकमां जीव जाय ते आगल कहेवासे. गई. आगई के० गति ने आगति. जेमां जावुं ते गति, ते पांच छे; नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति अने मोक्षगति. जेमांथी आवकुं ते आगति चार- नरकनी आगति, तिर्यचनी आ०, मनुष्यनी आ०, देवनी आगति. चेव के० निश्चय, ए बे गाथानो अर्थ कह्यो हवे चोवीश दंडकना नाम कहे छे पहेलो नारकनो दंडक, सात नरक नाम: - घमा, वंशा, शिला, अंजना, रिट्ठा, मघा, माघवती. हवे गोत्र कहे छे : - रत्नप्रभा, शर्करा - प्रभा, वालुकाप्र०, पंकप्र०, धूमप्र०, तमःप्र०, तमः तमः प्रभा० ए सात नरकनो एक दंडक हवे दश भवनपतिना दश दंडकः--असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार एवं ११ दंडक हवे पांच स्थावरना पांच दंडकना नामः १ 'समोहया ने असमोहया' शब्द शुद्ध जणाय छे जुवो पद्मवणासूत्रनी टीका. दंडक ॥२६॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२७॥ 4 १ इन्द्रस्थावर काय, २ ब्रह्मस्था०, ३ शिल्पस्था०, ४ सम्मतिस्था०, ५ प्राज्यापत्यस्था०, ६ जंगमस्थावरकाय. हवे तेना गोत्र कहे छे. पृथवीकायिक यावत् श्रसकायिक. एवं १६ दंडक. हवे त्रण विकलेंद्रियना त्रण दंडकना नाम कहे छे:- वे इंद्रिय, तेइंद्रियने चउरिंद्रिय एवं १९ दंडक हवे वीशमो तिर्यंच पंचेंद्रियनो दंडक तेना पांच भेद कहे छे: -- जलचर, स्थलचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प अने खेचर. जे जलमां चाले तेने जलचर कहीएं, तेना पांच भेद मच्छ, कच्छप, गाहा, मगर अने सुसुमार प्रमुख. जे पृथवीपर चाले तेने स्थलचर कहीए, तेना चार भेद - एगखुरा, दुखुरा, गंडीपया अने सणपया. एगखुरा ते एकखुरीवाला - घोडा प्रमुख. दुखुरा ते बे खरीवालागाय भैंस प्रमुख, गंडीपया ते सुंहालापग-सोनीनी एरण जेबा पग जेना होय ते-हाथी, गेंडा प्रमुख सणपया ते नखवाला पग जेना होय ते वाघ, सिंह, चित्रा कुतरा अने बिलाडा प्रमुख. उरपरिसर्प ते हैयाभर चाले ते सर्पनी जाति तेना बे भेद, एक फण मांडे अने, एक फण न मांडे. भुजपरिसर्प ते भुजावडे चाले, तेना अनेक भेद नोलिया, काकिंडा, गोह, उंदर अने खीसकोली प्रमुख खेचर ते आकाशमां चाले, ते पक्षीनी जाति तेना चार भेद-चर्मपक्षी, रोमपक्षी, विततपक्षी अने समुद्गपक्षी. चर्मपक्षी ते चामडानी पांखवाळा छापा, वागुल प्रमुख रोमपक्षी ते रोमरायनी पांखवाळा सुडा, चकला, पारेवा प्रमुख एबे जातिना पक्षिओ, अढीद्वीपनी अंदर अने बाहेर छे. वितत पक्षी ते जेनी पांख सदा पहोळी रहे छे अनें समुद्ग पक्षी ते जेनी पांख सदा डाय१ 'गंडी' शब्दनो अर्थ पक्षवणा सूत्रमी वृत्तिमां 'सोनीनी पुरण' करेल छे भने उत्तराध्ययननीं वृत्तिमां 'कर्णिका' अर्थ करेल छे; अर्थात् तेना जेवा पग के. दंडक ॥२७॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२८॥ डानी परे बीडेली रहे छे. ए वे जातिना पक्षीओ, अढी द्वीपनी बाहेर छे. ए पांचे तियंच पंचेंद्रिय समूच्छिम अने गर्भज जाणवा. एवं वीश दंडक हवे एकवीशमो मनुष्य पंचेंद्रियनो दंडक कहे छे:-पन्नर कर्मभूमि, त्रीश अकर्मभूमि अने छपन्न अंतरद्वीप, एवं १०१ क्षेत्रना गर्भज मनुष्यना अपर्याप्ताने पर्याप्ता; एवं २०२ अने एकशोने एक क्षेत्रना संमूच्छिम मनुष्यना अपर्याप्ता. ए सर्व मलीने ३०३ भेद. ए एकवीशमो दंडक हवे बावीशमो व्यंतरनो दंडक कहे छे:-ते सोळ जातिना छे तेना नाम १ पिशाच, यावत् १६ कोहंडिक. ए बावीशमो दंडक. हवे त्रेवीसमो ज्योतिष्कनो दंडक कहे छे-चंद्रमा आदि पांच अढी द्वीपमां चर छे अने अने अढीद्वीपनी बाहेर स्थिर छे. बे चंद्र अने बे सूर्य, जंबूद्वीपमां छे. चार चंद्रने चार सूर्य, लवणसमुद्रमां छे. बार चंद्रने बार सूर्य, घातकीखंडद्वीपमां छे. बेंतालीश चंद्रने बैतालीश सूर्य, कालोदधि समुद्रमां छे, बउंतेर चंद्रने बउंतेर सूर्य, पुष्करार्द्धद्वीपमां छे. सर्व मली १३२ चंद्रने १३२ सूर्य, परिवार सहित चर छे. हवे परिवार कहे छेः -ज्यां एक चंद्रने एक सूर्य होय त्यां ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र अने छासठहजार नवसें पंचोतेरको डाक्रोड तारा छे. एम सर्व चंद्र-सूर्यनो परिवार जाणवो. असंख्यात चंद्र अने सूर्य, परिवार सहित मनुष्य क्षेत्रथी बाहेर असंख्यात द्वीप- समुद्रमां स्थिर छे. ए २३मो दंडक हवे २४मो वैमानिकनो दंडक कहे छे. तेना २६ भेदः - १२ देवलोक, ९ ग्रैवेयक अने ५ अनुत्तरविमान सुधर्मादि बार देवलोक, भद्रादि नव ग्रैवेयक अने विजयादि पांच अनुत्तरविमान. ए २४ दंडक. अंब वपरायेल छे परंतु 'वाणव्यंतर' शब्द बरोबर जणातो नथी. २ बार देव लोक वगेरे १ 'व्यंतर' शब्दने बदले 'वानमंत' शब्द शास्त्रमां देवोना नाम नवतश्वमां लखेला हे माटे अहिं लखेल नथी. दंडक ॥२८॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२९॥ MASCACCESSACS आदि पन्नर परमाधामी, असुरकुमारमा भळे छे, दश ज़ुभकदेवो, व्यंतरमा भळे छे. व्रण किल्विषिको, देवलोक अंतर निवामी छे, माटे वैमानिकमां भळे छे. नैवलोकांतिक, ब्रह्मलोकवासी छे माटे उत्तम वैमानिकमां भळे छे. ए चोवीश दंडकना नाम कह्या. हवे सातक्रोड बहुंतेर लाख, भवनपतिना भवन छे. चोरासी लाख नरकावासा छे. असंख्याता व्यंतरना नगरो छे. असंख्याता ज्योतिष्कना विमानो छे अने असंख्याता द्वीपो छे. चोरासीलाख | सताणुहजार ने त्रेवीश, वैमानिकना विमानो छे. संख्यातावासो मनुष्यना छे. शेष नव दंडकना असंख्याता असंख्याता वासो छे. तेनुं वर्णन अन्यशास्त्रथी जाणवू. हवे सिद्ध शिलाना बार नामो कहे छः-१ इसीतिवा, २ इसिप्पभारातिवा, ३ तणुतिवा, ४ तणु तणुतिवा, ५ सिद्धीतिवा, ६ सिद्धालयेतिवा, ७ मुत्तीतिवा, ८ मुत्तालयेतिवा, ९ लोयग्गेतिवा, १० लोगथुभियेतिवा, ११ लोयपडिबोहेतिवा, १२ सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहेतिवा, ए मोक्षना बार नाम कह्या. ए नाम द्वार किंचित्मात्र समाप्त. । हवे २४ दंडक उपर २४ द्वार उतारे छे:-पहेलो नारकनो दंडक, तेमां शरीर व्रण वैक्रेय, तैजस ने कार्मण. १ अवगाहना, भवधारणीय शरीरनी ज० अंगुलना असंख्यातमा भागनी अने उ० पांचसो धनुष्यनी; जो उत्तरवैकेय, करे तो ज० अंगु० संख्यातमा भागनी अने उ. एकहजार योजननी. पहेली नरके भवधा अव० ज० १ ए देवो व्यंतर जातिना छे अने वैश्रमण लोकपालना ताबामा होय छे. २ लोकांतिक देवो, सम्यदृष्टि अने अल्प संसारी होय हे वली ते एकावतारी अथवा सात-आठ भव करनारा छे. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥३०॥ अंगु० संख्या० ने उ० पोणाआठ धनुष्यनी ने छ अंगुलनी अने उत्तर वै० करे तो ज० अंगु० संख्या० ने उ० साडापन्नर धनुष्य ने बार अंगुलनी. बीजी नरके भव० अव० ज० अंगु० असंख्या, ने उ० साडापन्नर धनुष्य ने बार अंगुलनी, उत्तर वै० करे तो ज० अंगु० संख्या० ने उ० सवाएकत्रीश धनुष्यनी. त्रीजी नरके भव० अव० ज० अंगु० असं० ने उ० सवाएकत्रीश धनुष्यनी अने उत्तर वै० करे तो ज० अंगु० संखा० ने उ० साडाबासठ धनुष्यनी. चोथी नरके भव० ज० अंगु० असं० ने उ० साडाबासठ धनुष्यनी अने उत्तर वै० करे तो ज० अंगु० संखा० ने उ० सवासो धनुष्यनी. पांचमी नरके भव० ज० अंगु० असं० ने उ० सवासो धनुप्यनी अने उत्तर वै० करे तो ज० अंगु० संखा० नें उ० अढीसो धनुष्यनी. छठ्ठी नरके भव० ज० अंगु० अंसं० ने उ० अढीसो धनुष्यनी. अने उत्तर वै० करें तो ज० अंगु० संख्या ने उ० पांचसो धनुष्यनी. सातमी नरके भव० ज० अंगु० असं० ने उ० पांचसो धनुष्यनी अने उत्तर वै० करे तो ज० अंगु० संखा० ने उ० एक हजार धनुष्यनी, २ नारक ने संघयण नथी. ३ संठाण एक हुंड. ४ कषाय चार, पण नारक ने क्रोध घणो. ५ संज्ञा चार, पण नारकने भय संज्ञा घणी. ६ नारकमां समुच्चयथी पहेली त्रण लेश्या. पहेली ने बीजी नरकमां एक कापोत लेश्या, त्रीजी नरके वे लेश्या, कापोत घणी ने नील थोडी. चोथी नरके एक नील लेश्या, पांचमी नरके वे लेश्या, नीलले घणी ने कृष्णले० थोडी. छठ्ठी नरके एक कृष्णलेसा. सातमी नरके महाकृष्णलेश्या. ७ इंद्रिय पांच. ८ समुद्घात चार. वेदनीय, कषाय, मारणांतिक अने वैक्रिय समुद्घात. ९ पहेली नरके संज्ञी - असंज्ञी बे होय, दंडक ॥३०॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य दंडक ॥३२॥ ॥३१॥ ACCCCCX बीजीथी सातमी सुधी एकला संज्ञी छे. १० वेद एक नपुंसक. ११ पर्याप्ति पांच आहार पर्याप्ति, शरीरप०, इंद्रिय |प०, श्वासोच्छवास प०, अने भाषा-मनपर्याप्ति भेळी बांधे छे.१२ दृष्टि त्रण, समकित १०,मिथ्या दृ०,ने मिश्रदृष्टि, १३ दर्शन त्रण, चक्षुदर्शन, अचक्षुद०, अवधिदर्शन १४ ज्ञान व्रण, मतिज्ञान, श्रुतज्ञा०, अवधि ज्ञान, अज्ञान व्रण, मति अज्ञान, श्रुत अ०, विभंग ज्ञान. १५ योग इग्यार, चार मनना, चार वचनना अने त्रण कायाना, ते वैकेय, वै०नो मिश्र अने कार्मणकाय योग.१६ उपयोग नव-त्रण ज्ञान, त्रण अज्ञान ने त्रण दर्शन. १७ तेमज आहार-नारकने छ दिशानो होय, ते बे प्रकारनो ओज आहार ने रोम आ० ते पण अशुभ ने अचित्त होय. १८ उववाय ते आवीने उपजे ते कहे छ:-पहेली नरकमां गर्भज मनुष्य अने गर्भज तिर्यंच के ममूच्छिम ए बे दंडकमांथी उपजे. बीजीथी सातमी सुधीमां गर्भज तिर्यंच ने गर्भज मनुष्य उपजे. १९ स्थितिपहेली नरके ज० दश हजार वर्षनी अने उ० एक सागरोपमनी. बीजी नरके ज० एक सा० ने उ. व्रण सानी. त्रीजी नरके ज० त्रण सा० ने उ० सात सानी. चोथी नरके ज. सात सा० ने उ० दश सा०, पांचमी नरके ज० दश सा०, ने उ० सत्तर सा, छडी नरके ज० सत्तर सा० ने उ० बावीश सा०, सातमी नरके ज० बावीश |सा ने उ० तेंत्रीश सागरोपमनी २० समोहया ने असमोहया मरण ये छे. २१ चवण ते चवीने पहेली नरकथी १ व्याघात न होवाथी छ दिशामाथी नरकना जीवो, आहार ग्रहण करे छे. ज्यांसुधी शरीरपर्याप्ति पूरण न करी होय त्यांसुधी ओज आहार अने शारीर पर्याप्ति पूरण कर्या बाद रोम आहार होय, २ संख्याता वर्षवाला अने पर्याप्ता मनुस्य वगेरे समजवा. CHOCOLOCATEG Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥३२॥ छठ्ठी नरक सुधीना जीवो पर्याप्त गर्भज मनुष्य अने तिर्यंचमां जाय. २२ गति ने आगति - पहेलीथी छट्ठी नरक सुधीना जीवो, मनुष्य ने तिर्यंचनी गतिमां जाय अने एमां आवे पण ए बे गतिमांथी सातमीनरकना जीवो, एक तिर्यंचनी गतिमां जाय अने आवे मनुष्य ने तिर्यंचगतिमांथी, २३-२४. प्राण दश होय ते पांच इंद्रिय-प्राण, त्रर्ण बल, श्वासोच्छ्वास अने आयुष्य इति प्रथम दंडक समाप्त. हवे दश भवनपतिना दश दंडक तेमां शरीर त्रण वैक्रेय, तेजस ने कार्मण. तेनी अवगाहना ज० अंगु० असं० भागनी ने उ० सात हाथनी अने उत्तर वै०नी ज०अंगु० संख्या ०ने उ० एक लाख योजननी. संघयण नथी. संठाण एक समचउरंस. कषाय चार पण लोभ घणो, संज्ञाचार पण परिग्रहसंज्ञा घणी. लेश्या चार कृष्णादि पहेली. इंद्रिय पांच समुद्घात पांच. वेदनी आदि संज्ञी - असंज्ञी वे छे. वेद वे स्त्रीवेद ने पुरुषवेद. पर्याप्ति पांच, भाषामनप० भेळी बांधे दृष्ठि त्रण. दर्शन त्रण प्रथमना. ज्ञान त्रण प्रथमना. अज्ञान त्रण. योग इग्यार-चार मनना, चार वचनना अने त्रण कायाना ते वैक्रेय, वै०नो मिश्र ने कार्मणकाय योग. उपयोग नव-त्रणज्ञान, त्रण अज्ञान ने त्रण दर्शन. तेमज आहार छए दिशानो ले, ते बे प्रकारनो ओज ने रोम; ते पण शुभ ने अचित्त. | उववाय ते आवीनें भवनपतिमां मनुष्यने तिर्यंच ए वे दंडकना उपजे स्थिति दक्षिण दिशाना असुरकुमारनी ज० दशहजार वर्षनी ने उ० एक सागरनी, तेनी देवीनी ज० दशह० वर्षनी ने उ० त्रण पल्योपमनी, तेना नव १ मन, वचनने काय बल. दंडक ॥३२॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥३३॥ निकायदेवनी ज० दशह० वर्षनी ने उ० दोड पल्यनी, तेनी देवीनी ज० दशह० वर्षनी ने उ० पोणा पल्यनी, हवे उत्तरादिशाना असुरकु०नी ज० दशह०नी ने उ० एक सागर झाझेरी. तेनी देवीनी ज दशह० ने उ० साडाचार पल्यनी. तेना नवनिकायना देवनी ज० दशह ने उ० देशेउणा बे पल्यनी. तेनी देवीनी ज० दशह० ने उ० देशेउणा एक पल्यनी. समोहया–अममोहया बे मरण छे. चवण ते चवीने भवनपति, पृथ्वी, पाणी, वनस्पति, मनुष्य अने तिर्यंच ए पांच दंडकमां जाय. गति-आगति ते मनुष्य ने तिर्यंच ए बे गतिमां जाय अने भवन पतिमां एज बे गतिमांथी आवे. प्राण दश होय. इति भवनपतिना दश दंडक समाप्त. हवे पांच स्थावरना पांच दंडक, तेमां पृथ्वी, पाणी, तेउ अनें वनस्पतिकायिकमां शरीर ऋण औदारिक, तैजस ने कार्मण. वायुकायिक ने शरीर चार ते वैक्रेय वध्युं. अवगाहना प्रथमना चार थावरकायनी ज०ने उ० अंगुलना असंख्यातमा भागनी अने वनस्पतिकायिकनी ज० अंगु० असं० ने उ० एक हजार योजननी झाझरी, कमल प्रमुखनी. संघयण एक छेबहु. संठाण एक हुंड. पांचे स्थावरकायना संठाण जुदा जुदा कहे छे: - पृथवीनुं मंठाण, मसुरनी दाळ अने चंद्रमाने आकारे होय. अप्कायनुं सं० पाणीना परपोटाने आकारे. तेउकायनुं १ असंख्यात वर्षंवाला मनुष्य ने तिर्यंच पण भवनपतिमां उपजे, तेमज समुच्छिम तिर्यंच उपजे, परंतु समुच्छिम मनुष्य न उपजे. बली सूक्ष्मं पृथ्वी आदि भने साधारण वनस्पतिमां भवनपति न उपजे २ प्रत्येक वनस्पति आश्रयी जाणवी सूक्ष्म वनस्पतिकायिकनी ज० ने उ० अंगुलना असंख्यातमा भागनी अवगाहना होय. 46464: +-+% दंडक ॥३३॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायतुं अनबनरन (क सिद्धांतरहस्य ॥३४॥ 24 दंडक ॥३४॥ सं० सोयना भाराने आकारे. वायुकायर्नु सं० धजा-पताकाने आकारे. वनस्पतिकायन सं० नानाप्रकार,. कषाय चार. संज्ञा चार. लेश्या पृथवीका अप्का० अने वनस्पतिका मां अपर्याप्ता वेलाए चार पहेली अने पर्याप्ता | वेलाए पांचे स्थावरकायमा लेश्या त्रण पहेली. इंद्रिय एक स्पर्शन ( काया )नी. समुद्घात-पृथवीका० अप्का. तेउका. अने वनस्पतिका ने त्रण वेदनी, कषाय ने मरणांतिक. वायुका ने चार एक वैकेय समुद्घातवधी. पांच स्थावर, असंज्ञी छे. वेद एक नपुंसक. पर्याप्ति चार आहार पर्याप्ति, शरीर प० इंद्रिय प० ने श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति. दृष्टि एक मिथ्यात्वनी. दर्शन एक अचक्षुदर्शन. ज्ञान नथी. अज्ञान बे मति अ. श्रुत अ० योगपृथवी का०, अपूका० तेउका. अने वनस्पतिका नेत्रण औदारिक, औदानो मिश्र ने कार्मणकाय योग अने वायुका ने पांच वैक्रेय अने वैनो मिश्र, ए बे वध्या. उपयोग त्रण बे अज्ञान ने एक दर्शन. तेमज आहार| व्याघात आश्रयी जघन्य त्रण दिशानो, मध्यम चार पांच दिशानो अने निर्व्याघात आश्रयी छए दिशानो आहार ले, ते ओज ने रोम ए बे प्रकारनो ते पण सचित्त, अचित्त ने मिश्र आहार ले. उववाय ते आवीने उपजे पृथवीका, अपका. अने वनस्पतिका मां एक नारकनो दंडक छोडीने त्रेवीश दंडकना उपजे. तेउका० ने वायुका मां पांच स्थावर, त्रण विकलेंद्रिय, तिर्यच पंचेंद्रिय अने मनुष्य; ए दशदंडकना उपजे. स्थिति पृथवीकायिकनी ज० अंतर्मुहूर्तनी अने उ० बावीशहजार वर्षनी. अप्का नी ज० अंत ने उ. सातहजार वर्षनी. तेउकानी ज. अंत ने उ० ऋण अहोरात्रनी. वायुकानी ज• अंत ने उ० ऋणहजार वर्षनी. वनस्पतिका. ** Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥३५॥ नी ज० अंत० ने उ० दशहजार वर्षनी. समोहया ने असमोहया बे मरण होय. चवण ते चवीने पृथ्वीका ०, अपका ने वनस्पतिकायिक, ते पांच स्थावर, ऋण विकलेंद्रिय, तिर्गंच पंचेंद्रिय अने मनुष्य ए दश दंडकमां जाय. तेउका० ने वायुका० ते मनुष्य वर्जिने नव दंडकमां जाय, गति-आगति ते पृथ्वीका०, अपका० ने वनस्पतिकायिक, मनुष्य ने तिर्यंच ए वे गतिमां जाय अने तेमां आवे ऋण गतिना-मनुष्य, तिर्यत्र अने देवगतिना. तेउका० ने वायुका०, ते एक तिर्यंचनी गतिमां जाय अने तेमां आवे बे गतिना-मनुष्य ने तिर्यंच गतिना. प्राण चार-इंद्रिये प्राण, कायबल, श्वासोच्छ्वास ने आयुष्य इति पांच स्थावरनो दंडक समाप्त. हवे ऋण विकलेंद्रियना ऋण दंडक कहे छे:-बे इंद्रिय, तेइंद्रिय ने चउरिंद्रियमां शरीर त्रण - औदा०, तै० ने कार्मण. अवगाहना, वे इंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिंद्रियनी ज० अंगु० असं०ने उ०बार योजननी त्रण गाउनी अने चार गाउनी. संघयण एक छेवछु. संठाण एक हुंड. कषाय चार. संज्ञा चार. लेश्या व्रण पहेली -इंद्रिय, बे इंद्रिय ने बे स्पर्शनेंद्रिय अने रसनेंद्रिय. तेइंद्रिय ने त्रण, एक नासिकाइंद्रिय वधी. चउरिंद्रियने चार. एक चक्षु इंद्रिय वधी. समुद्घात, त्रण- वेदनी, कषाय ने मरणांतिक त्रणे असंज्ञी छे. वेद नपुंसक, पर्याप्ति पांच. एक मनःपर्याप्त नहि दृष्टि बे समकित ने मिथ्यात्वदृष्टि. दर्शन बे चक्षुद० ने अचक्षुदर्शन. ज्ञान बे- मतिज्ञान ने श्रुतज्ञान. अज्ञान बे-मति अ० ने श्रुत अ०, योग चार. व्यवहारवचन, औदा०, औदान्नो मिश्र ने कार्मणका योग. १ स्पर्शनेंद्रिय दंडक ॥३५॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % सिद्धांत दंडक रहस्य 82-% ॥३६॥ ॥३६॥ %* उपयोग बेइंद्रिय तेइंद्रिय ने पांच-वे ज्ञान, बे अज्ञान ने एक अचक्षुदर्शन. चउरिंद्रिय ने छ उपयोग एक चक्षुदर्शन वध्यु. तेमज आहार-छ दिशानो ले, ते ओज, रोम ने कवल आहार ले, ते पण सचित्त अचित्त ने मिश्र आहार ले, उववाय ते आवीने उपजे विकलेंद्रियमां पांच स्थावर, त्रण विकलेंद्रिय, तिर्यंच पंचेंद्रिय अने मनुष्य ए दश दंडकना उपजे. स्थिति, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय ने चउरिंद्रियनी ज• अंत ने उ० चार वर्षनी, उगणपचास दिवसनी अने छ मासनी. समोहया-असमोहया वे मरण होय. चवण ते चवीने विकलेंद्रिय, पांच स्था० त्रण विक०, तिर्यंच पं० अने मनुष्य ए दश दंडकमां जाय. गति-आगति ते विकलेंद्रिय, तिर्यंच ने मनुष्य ए ये गतिमां जाय. एमां आवे पण ए बे गतिना. प्राण बे इंद्रियने छ बे इंद्रियना बे प्राण, वचनबल, कायबल, श्वासोच्छ्वास ने आयुष्य, प्राण तेइंद्रिय ने सात प्राण-नासिका वधी. चउरिंद्रिय ने आठ प्राण-चक्षु वधी. इति त्रण विकलेंद्रियनो दंडक समाप्त. हवे वीशमो तिर्यंचपंचेंद्रियनो दंडक कहे छे:-पांच तिर्यंच समुच्छिम ने शरीर त्रण औदा, तै० ने कार्मण शरीर. तिर्य० पंचें गर्भज ने शरीर चार वैक्रेय वध्युं जलचर समुच्छिम अने गर्भजनी अवगाहना ज० अंगु० असं० ने उ० एक हजार योजननी. स्थलचर समुच्छिमनी ज० अंगु० असं० ने उ. प्रत्येक गाउनी, गर्भजनी स्पर्शन-रसनेंद्रिय. २ उपर कहेली जलचरनी अवगाहना स्वयंभूग्मण समुदना मच्छोनी होय. लवणमा पाँचसोनी, कालोदधिमा सातसो योजननी होय. काकीना समुद्रमा ओळी अवगाहन। होय छे. ३ चतुष्पद-चार पगवाला, ** * ** Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥३७॥ ज० अंगु० असं० ने उ० छ गाउनी. उरपरिसर्प समु० नी ज० अंगु० असं० ने उ० प्रत्येक योजननी; गर्भजनी ज० अंगु० असं० ने उ० एक हजार योजननी. भुजपरपरिसर्प समु० नी ज० अंगु० असं० ने उ० प्रत्येक धनुप्यनी, गर्भजनी ज० अंगु० असं० ने उ० प्रत्येक गाउनी. खेचरनी समु० ने गर्भजनी ज० अंगु० असं० ने उ० प्रत्येक धनुष्यनी, उत्तर वैक्रेय करे तो ज० अंगु० संख्या० ने उ० नवसो योजननी. संघयण, समु० पांचेने छेवहु अने गर्भज पांचने छ होय. संठाण पांच समुच्छिमने हुंड अने पांच गर्भजने छ होय. कषाय चार. पण माया घणी. संज्ञा चार पण आहार संज्ञा घणी. लेश्या समु० में व्रण पहेली अने गर्भजने छ लेश्या. इंद्रिय पांच. समुद्घात, समु० ने ऋण वेदनी, कषाय ने मरणांतिक; गर्भजने पांच वैक्रेय ने तैजस समु० वधी. समु०, असंज्ञी अने गर्भजसंज्ञी होय. वेद, समु० ने एक नपुंसक अने गर्भजने ऋण वेद. पर्याप्ति, समु० ने पांच. गर्भजने छ. दृष्टि, समु० ने ये समकित दृ० ने मिथ्या दृष्टि अने गर्भज ने ऋण दृष्टि. दर्शन, समु० ने बे चक्षुद०, अचक्षुद० अने गर्भजने त्रण दर्शन प्रथम. ज्ञान, समु० ने बे तथा अज्ञान बे; गर्भजने ऋण ज्ञान ने त्रण अज्ञान. योग समु० ने चार व्यवहार वचन, औदा० औ० नो मिश्र ने कार्मणकाययोग. गर्भजने तेर, आहारकना बे नहि. उपयोग, समु०ने छ बे ज्ञान, बे अज्ञान ने बे दर्शन; गर्भजने नव. त्रण ज्ञान त्रण अज्ञान ने ऋण दर्शन. तेमज | आहार ज० ने उ० छ दिशानो ले, ते त्रण प्रकारनो ओज, रोम ने कवल; ते पण सचित्त, अचित्त ने मिश्र आहार ले. उववाय ते आवीने समु०मां पांच स्थावर, ऋण विकलेंद्रिय, तिर्यंच पंचेंद्रिय ने मनुष्य ए दश दंडकना. अने दंडक ॥३७॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य दंडक ॥३८॥ ॥३८॥ 2-1 गर्भजमां चोवीस दंडकना उपजे. स्थिति, जलचर समु. ने गर्भजनी ज. अंतर० ने उ० पूर्व क्रोड वर्षनी. स्थलचर समुनी ज. अंतर ने उ. चोरासी हजार वर्षनी अने गर्भजनी ज. अंतर० ने उ० ऋण पल्यनी. उरपरिसर्प समुनी ज० अंतर ने उ. वेपन ह० वर्षनी अने गर्भजनी ज. अंतर ने उ. पूर्व क्रोड वर्षनी. भुजपरिसर्प समुनी ज. अंतर०ने उ० बेंतालीश ह० वर्षनी अने गर्भजनी ज. अंतर ने उ. पूर्व क्रोड वर्षनी. खेचर समु. नी ज० अंतर० ने उ० बहुंतेर हजार वर्षनी अने गर्भजनी ज. अंतर० ने उ० पल्योपमना असंख्यातमा भागनी. समोहया ने असमोहया वे मरण होय. चवण ते चवीने समुच्छिम यावीश दंडकमां जाय; ज्योतिष्क अने वैमानिकमां न जाय अने गर्भज चोवीश दंडकमां जाय. गति-आगति ते समु. चार गतिमा जाय. समु० मां मनुष्य ने तिर्यंच ए बे गतिना आवे. गर्भज, चार गतिमां जाय अने तेमा चार गतिमांथी आवे. प्राण, समु० ने | नव मन प्राण नहि अने गर्भजने दश प्राण. इति वीशमो तिर्यंच पंचेंद्रियनो दंडक समाप्त. हवे एकवीशमो मनुष्यनो दंडक कहे छे:-समुच्छिम मनुष्य ने शरीर त्रण, औदा. तेजस ने कार्मण. युग|लियाने पण तेज व्रण शरीर अने कर्मभूमिना मनुष्यने शरीर पांचे. अवगाहना, समुन्नी जउ अंगुलना असंख्यातमा भागनी. गर्भज मनुष्यनी भरत-ऐरावत क्षेत्रमा आराना प्रमाणे जाणवी. पहेलो आरो बेसतांत्रण गाउनी अने उतरतांबे गाउनी. बीजो आरो बेसतांबे गाउनी अने उतरतां एक गाउनी. बीजो आरो बेमतां एकी साथे ( युगवत् ) चार पारीर होय, परंतु शक्ति रूपे पांच होय, . . गतिना आवे. गडकमा जाय. गति-आगAN दंडकमां जाय; ज्योति 2- - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-*-* दंडक सिद्धांतरहस्य ॥३९॥ शा R एक गाउनी अने उतरतां पांचसो धनुष्यनी. चोथो आरो बेसतां पांचसो धनुष्यनी ने उतरतां मात हाथनी. पांचमो आरो बेसतां सात हाथनी ने उतरतां एक हाथनी. छट्ठो आरो बेसतां एक हाथनी ने उतरतां मुंडा हाथनी ए अवसर्पिणी काल आश्रयी अने उत्सर्पिणी काल आश्रयी एथी विपरीत जाणवी. पांच महाविदेहमा ज. अंगु० असं० अने उ० पांचसो धनुष्यनी, उत्तर वैकेय करे तो ज. अंगु० संख्या० ने उ. एक लाख योजननी झाझेरी. हैमवत-हैरण्यवतमां ज० अंगु० असं० ने उ. एक गाउनी. हरिवर्ष-रम्पकवर्षमा ज० पूर्ववत् अने उ० |बे गाउनी. देवकुरु-उत्तरकुरुमां ज० पूर्ववत् ने उ. व्रण गाउनी. छपन्न अंतर द्वीपमा ज. पूर्ववत् ने उ. आठसो धनुष्यनी. संघयण, समुच्छिमने छेवक. युगलियाने वज्ररुषभनाराच सं० अने कर्मभूमिना गर्भज मनुष्यने छ संघयण. संठाण, ममु० ने हुंड, युगलियाने समचउरंस सं० अने कर्मभूमिना ग० मनुष्यने छ संठाण. कषाय चार पण मनुष्यने मान घणो. संज्ञा चार पण मैथुन संज्ञा घणो. लेश्या, ममु ने त्रण पहेली, युगलियाने चार अने कर्मभू. ग. मनुष्य ने छ लेश्या. इंद्रिय पांच, समुद्घात, समु० ने व्रण वे० क० ने मारणांतिक, युगलियाने पण व्रण, कर्मभू० ग. मनुष्य ने मात ममुद्घात. ममु. असंज्ञी अने गर्भज संज्ञी. | वेद, समु० ने नपुंसक, युगलियाने बे स्त्री ने पुरुष अने कर्म भू० ग. मनुष्य ने त्रण स्त्री, पुरुष ने नपुंमक. पर्याप्ति, समु० ने चार, भाषा ने मन नहिं. गर्भज ने छ पर्याप्ति. दृष्टि, ममु ने एक मिथ्या दृ० अने गर्भज ने त्रण दृष्टि. दर्शन, समु० ने अने युगलियाने बेचक्षुद० अचक्षुद० अने कर्मभू० ग० मनुष्यने चार दर्शन. ज्ञान, ASWATER Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंडक सिद्धांतरहस्य ॥४०॥ ॥४०॥ समुन्ने नथी. अज्ञान चे मतिअ-श्रुत अ०, युगलियाने बे ज्ञान, ने बे अज्ञान अने कर्मभू० मनुष्यने पांच ज्ञान ने |त्रण अज्ञान. योग समु. नेत्रण औदा०, औदानो मिश्र ने कार्मणका०, युगलियाने इग्यार-चार मनना, चार वचनना ने त्रण कायाना औदा० औदानो मिश्र ने कार्मणका० अने कर्मभूमिना मनुष्योने पन्नर योग. उप| योग, समुन्ने चार बे अज्ञान ने बे दर्शन. युगलियाने छ बे ज्ञान बे अज्ञान ने बे दर्शन. कर्मभू० मनुष्यने बार उपयोग. तेमज आहार-ज. ने उ. छ दिशानो ले, ते पण त्रण प्रकारनो ओज, रोम ने कवल. ते सचित्त, अचित्त ने मिश्र आहार ले. उववाय ते समु० मां पृथवी, पाणी, वनस्पति, व्रण विकलेंद्रिय, तिर्यंच पंचेंद्रिय |ने मनुष्य ए आठ दंडकना आवीने उपजे. युगलियामां तिर्यंच पंचेंद्रिय अने मनुष्य ए बे दंडकना उपजे अने कर्मभू० मनुष्यमां बावीश दंडकना उपजे, तेउवायु वर्जिने. स्थिति, समुनी ज• ने उ. अंतर० ने गर्भज मनुप्यनी आराना प्रमाणे जाणवी. पहेलो आरो बेसतांत्रण पल्योपमनी, उत्तरतांबे पल्यनी. बीजो आरो बेसतांबे | पल्यनी ने उतरतां एक पल्यनी. बीजो आरो बेसतां एक पल्यनी, उतरतां क्रोडपूर्वनी. चोथो आरो बेसतां क्रोड पूर्वनी, उतरतां सो वर्ष झाझेरानी. पांचमो आरो बेसतां सो वर्ष झाझरानी, उतरतां वीश वर्षनी. छट्ठो आरो बेसतां वीश वर्षनी, उतरतां सोळ वर्षनी. ए अवसर्पिणी कालआश्रयी अने उत्सर्पिणी कालआश्रयी विपरीत जाणवी. हैमवत ने हैरण्यवतमा एक पल्यनी, हरिवर्ष ने रम्यक वर्षमां बे पल्यनी, देवकुरु-उत्तर कुरुमांत्रण पल्यनी. ए प्रायिक बचन सो वर्षथी विशेष आयुष्यनो संभव है. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंडक सिद्धांतरहस्य ॥४ ॥ ॥४१॥ छपन्न अंतरद्वीपमा पल्योपमना असंख्यातमा भागनी अने पांच महाविदेहमा क्रोडपूर्वनी. समोहया ने असमोहया बे मरण होय. चवण ते समु० चवीने पांच स्थावर, त्रण विकलेंद्रिय, तिर्यंच पंचेंद्रिय ने मनुष्य ए दश दंडकमां जाय. छपन्न अंतरद्वीपना दशभवनपति ने व्यंतर ए इग्यार दंडकमां जाय. त्रीश अकर्मभूमिना दश भव०, व्यंतर, ज्योतिष्क ने वैमानिक ए तेर दंडकमां जाय. त्रीश कर्म भू० मनुष्य चोवीशदंडकमां जाय. गति आगति ते समुच्छिम मनुष्य ने तिर्यच, मनुष्य ने तिर्यंचनी गतिमां जाय अने तेमां आवे पण बे गतिना. युगलिया, एक देवगतिमा जाय अने तेमां आवे मनुष्यने तिर्यंचना, कर्मभू० मनुष्य, पांच गतिमां जाय अने तेमां आवे चार गतिना.प्राण, समुन्ने आठ, भाषा ने मन नहिं. गर्भजने दशप्राण.ए मनुष्यनो एकवीशमो दंडक समाप्त, हवे घावीशमो व्यंतरनो दंडक कहे छ:-तेमां शरीर त्रण वैकेय, तै० ने कार्मण, अवगाहना ज० अंगु० असं० ने उ. सात हाथनी. उत्तरवै० करे तो ज. अंगु० संख्या० ने उ० लाख योजननी. संघयण नथी. संठाण, समचउरंस. कषाय चार पण लोभ घणो. संज्ञा चार. पण परिग्रह संज्ञा घणी. लेश्या चार पहेली. इंद्रिय पांच. समुद्घात पांच, आहारक ने केवल समु. नहिं. संज्ञी-असंज्ञी वे छे, बेद बे स्त्रीने पुरुष वेद. पर्याप्ति पांच, भाषामन पर्या. भेळी बांधे. दृष्टि व्रण. दर्शन त्रण. ज्ञान त्रण. अज्ञान वण. योग इग्यार, चार मना, चार वना त्रण कायाना-वैकेय, वैनो मिश्र ने कार्मणकाय योग. उपयोग नव त्रण ज्ञान, व्रण अज्ञान ने त्रण दर्शन. । साथे पूरण करे. ACCCCCCCCCCCCC Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंडक सिद्धांतरहस्य ॥४२॥ ॥४२॥ NAGAR तेमज आहार-ज. ने उ० छ दिशानो आहार ले, ते बे प्रकारनो-रोम ने ओज, ते पण शुभ ने अचित्त ले. उववाय ते व्यंतरमा तिर्यंच अने मनुष्य ए बे दंडकना उपजे. स्थिति व्यंतरनी ज० दश ह० वर्षनी अने उ० एक पल्यनी. तेहनी देवीनी ज० दश ह० वर्षनी ने उ० अर्द्ध पल्यनी. समोहया-असमोहया बे मरण होय. चवण ते व्यंतर, चवीने पृथवी, पाणी, वनस्पति, तिर्यंच अने मनुष्य ए पांच दंडकमां जाय. गति-आगति ते व्यंतर, मनु| प्य ने तिर्यचनी गतिमां जाय.अने तेमां आवे पण बे गतिना. प्राण दश. इति यावीशमो व्यंतरनो दंडक समाप्त. हवे ब्रेवीशमो ज्योतिष्कनो दंडक कहे छ:-तेमां शरीर, अवगाहना, संघयण, संठाण, कषाय, संज्ञा, लेश्या, इंद्रिय, समुद्घात, एटला द्वारो व्यंतर प्रमाणे जाणवा. संज्ञी (द्वारमा) एकला संज्ञी छे. वेद, पर्याप्ति, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग, तेमज आहार, उववाय, ए द्वारो पण व्यंतरवत् जाणवा. स्थिति चंद्रमाना देवनी ज. पा पल्यनी ने उ० एक पल्यने एक लाख वर्षनी, तेनी देवीनी ज० पा पल्यनी ने उ० अर्द्ध पल्यने पचाश हजार वर्षनी, सूर्यना देवनी ज. पा पल्यनी ने उ. एक पल्य ने एक हल्वर्षनी, तेनी देवीनी ज. पा पल्यनी ने उ० अर्द्ध पल्य ने पांचसो वर्षनी. ग्रहना देवनी ज. पा पल्यनी ने उ. एक पल्यनी, तेनी देवीनी ज. पापल्य ने उ० अर्द्ध पल्यनी. नक्षत्रना देवनी ज. पा पल्यनी ने उ० अर्द्ध पल्यनी, तेनी देवीनी ज. पा . असंज्ञी तियंच, मरीने भवनपति अने व्यतरमा उपजे छे, तेथी मेमां अपर्याप्ता अवस्था ए 'असंज्ञी' होय; परंतु ज्योतिष्कमा असंज्ञी उपनता नथी. माटे ज्योतिष्क संज्ञी होय. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥४३॥ पल्य ने उ० पा पल्य झाझेरी ताराना देवनी ज० पल्यनो आठमो भाग अने उ० पा पल्यनी, तेनी देवीनी ज० पल्यनो आठमो भाग अने उ० पा पल्यनो आठमो भाग झाझेरी. समोहया - असमोहया बे मरण होय. चवण ते ज्योतिष्क चवीने पृथ्वी, पाणी, वनस्पति, तिर्यच पंचेंद्रिय अने मनुष्य ए पांच दंडकमां जाय. गतिआगति ते ज्योतिष्क बे गतिमां जाय अने तेमां आवे पण बे गतिना प्राण दश इति त्रेवीशमो ज्योति कनो दंडक समाप्त. हवे चोवीसमो वैमानिकनो दंडक कहे छे:--तेमां शरीर त्रण वै०तै०ने कार्मण शरीर०, अवगाहना ज०पहेला देवलोकधी यावत् पांचमा अनुत्तर विमान सुधी अंगुलना असंख्यातमा भागनी अने उ० १-२ देवलोके सात हाथनी. ३-४ दे० छ हाथनी. ५-६ दे० पांच हाथनी ७-८ दे० चार हाथनी. ९-१०-११-१२ दे० त्रण हाथनी. नव ग्रैवेयकमां बे हाथनी. चार अनुत्तर विमानमां एक हाथनी अने सर्वार्थ सिद्धमां मुंडा हाथनी. उत्तर वै० करे तो ज० अंगु० संख्या० ने उ० एक लाख योजननी. संघयण नथी. संठाण, समचउरंस०, कषाय-चार पण लोभ घणो संज्ञा चार पण परिग्रह संज्ञा घणी. लेश्या १-२ देवलोके एक तेजोलेश्या ३-४-५ दे० पद्म लेश्या. ६ट्ठा दे०थी यावत् नव ग्रैवेयक सुधी शुक्ल लेश्या अने पांच अनुत्तरविमानमां परम शुक्ल लेश्या. इंद्रिय पांच. समुद्घात-बार देवलोकमां पांच, आहारक ने केवल समु० नहिं. नव ग्रैवेयक ने पांच अनुत्तर विमानमां समु० सर्वार्थ सिद्ध वि० मां मुंडा हाथनी अवगाहना छे. एवो विशेष पाठ जोवामां भावेल नथी. दंडक ॥४३॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंडक सिद्धांतरहस्य ॥४४॥ ॥४४॥ त्रण पहेली. वैमानिक संज्ञी छे. वेद १-२ देव०मां बे स्त्री ने पुरुष वेद. वीजा देव०थी यावत् सर्वार्थ सिद्ध विमान सुधी एक पुरुषवेद. पर्याप्ति पांच, व्यंतरवत्. दृष्टि पहेला देवथी यावत् नवौवेयक सुधी त्रण अने पांच अनुत्तर विमानमा एक सम्यक् दृष्टि. दर्शन त्रण. ज्ञान पहेला देव०थी यावत् नव ग्रै सुधी त्रण ज्ञान ने त्रण अज्ञान अने पांच अनुत्तर वि०मांत्रण ज्ञान, अज्ञान नथी. योग इग्यार व्यंतरवत्. उपयोग, नव ग्रै० सुधी नव अने पांच अनुत्तर वि०मा छ व्रण ज्ञान, त्रण दर्शन. तेमज आहार-छ दिशानो ले, ते वे प्रकारनो ओज ने रोम; ते पण शुभ ने अचित ले. उववाय ते पहेला देव०थी यावत् आठमा दे०मा तिर्यंच पंचेंद्रिय ने मनुष्य ए बे दंडकना उपजे. नवमा दे०थी यावत् सर्वार्थ सिद्धमा एक मनुष्य दंडकनो उपजे. स्थिति-पहेला देना देवनी ज. एक पल्यनी ने उ० बे सागरनी. तेनी परिग्रहित देवीनी ज. एक पल्यनी ने उ० सात पल्यनी. अपरिग्रहित देवीनी ज० एक पल्यनी ने उ० पचास पल्यनी. बीजा देना देवनी ज. एक पल्यनी झाझेरी ने उ० बे सागरनी झाझेरी. तेनी परिग्रहित देवीनी एक पल्य झा ने उ० नव पल्यनी. अपरि० देवीनी ज० एक पल्य झा ने उ. पंचावन पल्यनी. बीजे दे० ज० बे सागरनी ने उ० सात सागरनी. (बीजा देव०थी उपर देवी नथी तेडावीजाय) चोथे दे.ज.बे सागरनी झा ने उ० सात सागर झाझेरी. पांचमे दे० ज० सात सा० ने उ० दश सा०, छडे दे० ज० दश सा० ने उ० चौद सा०, सातमे दे० ज० चौद सा ने उ. सत्तर सा०, आठमे दे०ज. सत्तर सूत्र वगेरेमा बीजा वेव०मा बे सागरनी स्थिति कहेल छे, 'झाझेरी' कही नथी. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥४५॥ सा० ने उ० अढार सा०, एम अनुक्रमे एकेके सागर वधारतां नवमाग्रैवेयकमा ज० त्रीश सा० ने उ० एकत्रीश सागरनी. चार अनुत्तर वि०मां ज० एकत्रीस सा० ने उ० तेंत्रीस सा० अने सर्वार्थसिद्धमां ज० ने उ० तंत्रीससागरोपमनी. समोहया असमोहया वे मरण होय. चवण ते १-२ देव्ना देव, चवीने पृथवी, पाणी, वनस्पति, तिर्यंच पंचें० अने मनुष्य ए पांच दंडकमां उपजे श्रीजाथी आठमा देख्ना देव, तिर्यच पंच० ने मनुष्य ए बे दंडकमां उपजे नवमांथी सर्वार्थ सिद्ध विना देव, एक मनुष्यना दंडकमां उपजे गति-आगति- पहेलाथी आठमा देवना देव, मनुष्य अने तिर्यच ए वे गतिमां जाय अने एमां आपे पण बे गतिना. नवमांथी सर्वार्थसिद्ध विना देव, एक मनुष्यनी गतिमां जाय अने एमां आवे पण मनुष्यगतिमांथी. प्राण दश होय. इति चोवी शमो वैमानिकनो दंडक समाप्त. हवे सिद्धनो द्वार कहे छे:- सिद्धने शरीर नथी. अवगाहना सिद्धनी ज० एक हाथ ने आठ अंगुलनी म०, चार हाथने सोळ अंगुलनी अने उ० त्रणसो तंत्रीस धनुष्य ने बत्रीस अंगुलनी. संघयण नथी, संठाण नथी. कषाय नथी. संज्ञा नथी. लेश्या नथी. इंद्रिय नथी. समुद्घात नथी. संज्ञी - असंज्ञीपणु नथी. वेद नथी. पर्याप्त १ बार देवलोकथी उपर उत्तरवैक्रेय करवानुं नथी. ९मां दे०थी ९मां मै०मां ज० उ० १८-१९-१९-२०-२०-२१-२१-२२-२२-२३ २३-२४-२४-२५-२५-२६-२६-२७-२७-२८- २८-२९-२९-३०-३०-३१. २ अमूर्त जीवना प्रदेशना घननी अवगाहना पूर्व (चरिम) शरीरना विभाग न्यून होय. दंडक ॥४५॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥४६॥ नथी. दृष्टि एक समकितदृष्टि. दर्शन एक केवल दर्शन. ज्ञान एक केवल ज्ञान अज्ञान नथी. उपयोग वे के० ज्ञा० ने के० दर्शन. आहार नथी. उबवाय ते एक मनुष्यना दंडकमांथी उपजे. स्थिति ते सादि-अपर्यवसित छे. समोहया-असमोहया मरण नथी. चवण ते सिद्धाने चवयुं नथी. गति पण नथी. आगति एक मनुष्यनी छे. इंद्रियादि द्रव्य प्राण सिद्धने नथी. भाव प्राण चार- अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र (अव्याबाध सुख) अने अनंत वीर्य छे. इति सिद्धनो द्वार समाप्त. इति लघुदंडक समाप्त. आगति-गति विचार कहे छे: - पहेली नरके आगति, पचीश भेदनी ते पन्नर कर्मभूमिना मनुष्य, पांच मंज्ञी तिर्यच अने पांच असंज्ञी तिर्यच. ए पचीशना पर्याप्तानी. गति चालीश भेदनी ते पन्नर कर्मभू० मनुष्य अने पांच संज्ञी तिर्यंच, ए वीशना अपर्याप्ता ने पर्याप्तानी. बीजी नरके आगति, वीश भेदनी ते पचीशमांधी पांच असंज्ञी तिर्यचना पर्याप्ता वर्जवा. गति, चालीश भेदनी पूर्ववत् त्रीजी नरके आगति, उगणीश भेदनी, ते पूर्वोक्त वीरामांथी एक भुजपरिसर्पनी वर्जवी; गति, चालीश भेदनी पूर्ववत्. चोथी नरके आगति, अढार भेदनी ते पूर्वोक्त उगणीशमांथी खेचरनी वर्जवी; गति चालीश भेदनी पूर्ववत् पांचमी नरके आगति, सत्तर भेदनीते पूर्वोक्त अढारमांधी थलचरनी वर्जबी; गति चालीश भेदनी पूर्ववत्. छठ्ठी नरके आगति, सोळ भेदनी, ते पूर्वोक्त सत्तरमांधी उरपरिसर्पनी वर्जवी; गति वालीश भेदनी पूर्ववत्. सातमी नरके आगति, सोळ भेदनी १ बने उपयोग समयांतर है. दंडक ॥४६॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥४७॥ ते पश्नर कर्मभू० मनुष्य अने जलचर (मच्छ) ए सोळना पर्याप्तानी अने गति, दश भेदनी ते पांच मंज्ञी तिर्यंचना अपर्याप्ता ने पर्याप्तानी. दश भवनपति, सोळ वानमंतर ए छवीश जातिना देवमां आगति, एकशो इग्यार भेदनी ते एकशोने एक क्षेत्रना संज्ञी मनुष्य, पांच संज्ञी तिर्यच अने पांच असंज्ञी तिर्यंच; ए एकशो इग्यार भेदना पर्याप्तानी. गति छैतालीश भेदनी ते पूर्वोक्त चालीश भेद अने पृथ्वी, पाणी ने वनस्पति एत्रणना अपर्याप्ता ने पर्याप्ता ए छ मलीने ४६ भेदनी. पन्नर परंमाधामीमां आगति, वीश भेदनी ते पन्नर कर्मन्ना मनुष्य अने पांच संज्ञी तिर्यंचना पर्याप्तानी, गति, छैतालीश भेदनी पूर्ववत्. दश जृंभकामां आगति पचाश मे नी त्रीश अकर्मभूमि. पन्नर कर्मभू० मनुष्य अने पांच संज्ञी तिर्यंचना पर्याप्तानी. गती ४६ भेदनी पूर्ववत् ज्योतिष्क अने पहेला देवलोकमां आगति ५० भेदनी ने गति ४६ भेदनी ते कुंभकावत् बीजा देवर्मा आगति, चालीश भेदनी ते पूर्वोक्त पचाशमांथी पांच हैमवत ने पांच हैरण्यवतनी वर्जवी. गति, ४६ भेदनी पूर्ववत्. पहेला किल्वि षिकमां आगति, वीश भेदनी ते पश्नर कर्मभू० मनुष्य अने पांच संज्ञी तिर्यंच ए वीशना पर्याप्तानी. गति ४६ १ सातमी नरके १६ भेदनी स्त्री वर्जवी. २ अहिं पृथ्वी आदि त्रणे, करण अपर्याप्ता समजवा, कारण ? लब्धि अपर्याप्तानां देवो उत्पन्न थता नथी. ३ परमाधामीमां युगलियानुं उत्पन्न थवं संभवतुं नथी, कारण ? ते सरल स्वभावी अने अल्प कपायी होवाथी परमाधामीमां उत्पन्न न थाय. तेमज असंज्ञी पण तथाविध क्रूर अध्यवसाययाळा होता नथी माटे ते पण त्यां उत्पन्न न थइ शके. ४ जृंभकानुं आयुष्य एक पक्ष्योपमनुं होवाथी, तेमां अंतरद्वीपवाला अने असंज्ञी, उत्पन्न थता नथी; जृंभक देवो शिछा लोकमां बसनारा होय . गतिआगति विचार ॥४७॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥४८॥ भेदनी पूर्ववत् श्रीजा देवलोकथी आठमा देव० सुधी अने बे किल्विषिक ए आठमां आगति पूर्वोक्त वीश भेदनी ने गति चालीश भेदनी ते वीशना अपर्याप्ता ने पर्याप्तानी. नव लोकांतिक देवमां आगति, वीश भेदनी पूर्ववत्. गति त्रीश भेदनी ते पन्नर कर्म० मनुष्यना अपर्याप्ता ने पर्याप्तानी. नवमा दे०धी सर्वार्थ सिद्ध विमानना देवमां आगति, पन्नरभेदनी ते पन्नर कर्म० मनुष्यना पर्याप्तानी. गति त्रीश भेदनी पूर्ववत् पृथवी, पाणी अने वनस्प तिमां आगति, २४३ भेदनी ते १०१ समूच्छिम मनुष्यना अपर्याप्ता अने पन्नर कर्म • मनुष्यना अपर्याने पर्याप्ता. ए १३९ अने ४८ भेद तिर्यचना ऐ १७९नी लट तथा ६४ भेद देवना ते दश भवनपति पन्नर परमाधामी, सोळ व्यंतर दश जृंभका दश ज्योतिष्क बे देवलोक अने एक किल्विषिक, ए चोसठना पर्याप्ता सर्व मलीने २४३ भेदनी. गति १७९ भेदनी ते १०१ समृ० मनुष्यना अप० अने १५ कर्म० मनुष्यना अप० ने पर्याप्ता. ए १३१ ने ४८ भेद तिर्यचना. तेउ वायुमां आगति, १७९ भेदनी पूर्ववत् गति, तिर्यचना ४८ भेदनी. त्रण विकलेंद्रियमां आगति अने गति १७९ भेदनी पूर्ववत्. असंज्ञी तिर्यचमां आगति १७९ भेदनी पूर्ववत्. गति ३४५ भेदनी, ते छपन्न अंतरद्वीपना मनुष्य, दश भवनपति अने सोळ व्यंतर ए छवीश जातिना देव तथा पहेली नरक ए ८३ भेदना अपर्या० ने पर्याप्ता. एवं १६६ अने पूर्वोक्त १७९ भेद मेळवतां ३४५ भेदनी. संज्ञी तिर्यंचमां आगति २५८ भेदनी १७९ भेदने 'लट'नी संज्ञा जुनी आवृत्तिमां आपेल छे, परंतु तेवी संज्ञा शास्त्रमां जणाती नथी; व्यापार प्रसंगे 'लाट'घणी वस्तुनो जथो ए अर्थमां बोलाय है; अहिं पण 'काट' शब्द संभवे छे. गतिआगति विचार ॥४८॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते पर्याप्त ९९ जातिना देवमांथी नव लोकांतिक, उपरना चार देवलोक, नवग्रैवेयक अने पांच अनुत्तरविमान सिद्धांत- ए७ भेद छोडीने शेष ७२ जातिना देव अने पूर्वोक्त १७९ मेळवतां २५१ तेमज सात नरकना पर्याप्ता एवं रहस्य गतिआगति २०.८. हवे गति पांचेंनी जूदी जदी कहे डे:-जलचरनी गति ५२९ भेदनी ते जीवना ५६३ भेदमांथी उपरना ॥४९॥ ॥४९॥ चार देवलोक, नव ग्रैधेयक अने पांच अनुत्तर विमान ए १८ना अपने पर्याप्ता ए ३६ भेद छोडीने शेष ५२७नी. | उरःपरिसर्पनी गति ५२३ भेदनी ते ५२७मांथी छठ्ठी ने सातमी नरकना अप० ने पर्याप्तानी चार वर्जवी. स्थलचरनी गति ५२१ भदनी ते ५२३मांधी पांचमी नरकना अप० ने पर्याप्तानी वर्जवी. खेचरनी गति ५१९ भेदनी ते ५२१माथी चोथी नरकना अप० ने पर्याप्तानी वर्जवी. भुजपरिमर्पमा ५१७ भेदनी ते ५.९मांथी त्रीजी नर कना अप० ने पर्याप्तानी वर्जवी. सम्छिरु मनुष्यमा आगति १७१ भेदनी ते पूर्वोक्त १७९मांधी सूक्ष्म-बादर र होतेउ ने बायुकारना अपने पीता ए आठनी वर्जवी. गति १७९ भेदनी. संज्ञीमनुष्यमा आगति २७६ भेदनी ते पूर्वोक्त १७१ भेद, ९९ जातिमा देवना पर्याप्ता अने नरकना पर्याप्ताए २७६. गति ५६३ भेदनी. त्रीश हा अकर्मभू० मनुष्यमा आगति बीश भेदनी, ते १५ कर्मभू मनुष्य अने ५ मंज्ञी तिर्यचना पर्याप्तानी. गति दी: जूदी कहे छ:- देवकुरु, ५ उत्तरकुरु, ५ हरिवर्ष अने५ रम्यक वर्ष ए वीशनी गतिभेदनी ते १० भवन| पति, १६ व्यंतर, १० जुंभका, १० ज्योतिष्क अने १-२ देवलोक ए ४८ जातिना देवना अप० ने पर्याप्तानी. ५ हैमवत ने ५ हैरण्यवतनी गति ९४ भेदनी ते पूर्वोक्त ९६ भेदमांधी वीजा देवगा अपने पर्याप्तानी वर्जवी.. Pancr as Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * सिद्धांतरहस्य ॥५०॥ * छपन्न अंतरद्वीपमा आगति २५ भेदनी ते १५ कर्मभू० मनुष्य, ५ संज्ञी तिर्यच अने ५ असंज्ञी तिर्यचना पर्या-3I प्तानी. गति ५२ भेदनी ते दश भवनपति, सोळ व्यंतर ए २६ना अप० ने पर्याप्तानी. ए चोवीश दंडक आश्रयी गतिआगति आगति गति जाणवी. हवे तीर्थकर देवमां आगति ३८ भेदनी ते बार देव० नव लोकांतिक, नव अवेयक, पांच अनुत्तर वि० अने 31 ॥२०॥ त्रण नरक पहेली ए ३८ भेदना पर्याप्तानी. गति एक मोक्षनी. चक्रवर्तीमा आगति ८२ भेदनी ते पर्याप्त ९९ | जातिना देवमां १५ परमाधामीने त्रण किल्विषिक ए १८ जातिना देव छोडीने शेष ८१ अने पहेली नरक ए ८२ना । पर्याप्तानी. गति ८४ भेदनी ते १२ देव०, ९ लोकांतिक, ९ ग्रैवेयक, ५ अनुत्तर वि० ए ३५ जातिना देव अने सात नरक ए ४२ना अप० ने पर्याप्ता. बलदेवा आगति ८३ भेदनी ते पूर्वोक्त ८२ भेद अने बीजी नरक ए ८३ भेदना पर्याप्तानी. गति ७० भेदनी ते १२ देव०, ९ लोकां०, ९ अवेयक अने ५ अनुत्तर वि० ए ३५ना अपर्या. ने पर्याप्तानी. वासुदेवमां आगति २३ भेदनी ते १२ देव०,९ ग्रैवे० ए २१ जातिना देव अने पहेली बे नरक ए | २३ना पर्याप्तानी. गति १४ भेदनी ७ नरकना अप० ने पर्याप्तानी. केवलीमां आगति १०८ भेदनी ते पर्याप्त | ९९ जातिता देवमांथी १५ परमाधामीने ३ किल्विषिक ए १८ छोडीने शेष ८१ जातिना देव, १५ कर्मभू. मनुष्य,५संज्ञी तिर्यंच, पहेली चार नरक, पृथवी, पाणी अने वनस्पति. ए १०८ना पर्याप्तानी. गति एक मोक्षनी. साधुमां आगति २७५ भेदनी ते पूर्वोक्त १७९ भेदमांथी तेउ-वायुका ना ८ भेद छोडी ने शेष १७१, ने ९९ * * * * * * Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥५१॥ जातिना देव अने पांच नरक ए २७५ भेदनी. गति ७० भेदनी ते १२ देव०, ९ लोकां०, ९ ग्रैवे० अने ५ अनुउत्तर वि० ए ३५ जातिना देवना अपर्या० ने पर्याप्तानी. श्रावकमां आगति २७६ भेदनी ते पूर्वोक्त २७५ अने छठ्ठी नरक, ए २७६ भेदनी गति ४२ भेदनी ते १२ देव० ने ९ लोकांतिक, ए २१ जातिना देवना अप० ने पर्याप्तानी. समदृष्टिमां आगति ३६३ भेदनी ते ९९ जातिना देवना पर्याप्ता १०१ संज्ञी मनुष्यना पर्याप्ता, १०१ समुच्छिम मनुष्यना अपर्याप्ता १५ कर्मभू० मनुष्यना अपर्याप्ता, तिर्यचना ४८ भेदमांथी ते वायुकान्ना ८ छोडीने शेष ४० अने सात नरकना पर्याप्ता, ए सर्व मलीने ३६३ भेदनी. गति ४३० भेदनी ते ९९ जातिना देव, १०१ संज्ञी मनुष्य. ५ संज्ञी तिर्यंच अने ६ नरक ए २११ना अप० ने पर्याप्ता एवं ४२२ अने ३ विकलेंद्रिय, ५ असंज्ञी तिर्यंच ए आठना अपर्याप्ता ए सर्व मलीने ४३० भेदनी. मिथ्यात्वीमां आगति ३३६ भेदनी ते पूर्वोक्त ३३३ भेदमांथी ५ अनुत्तर वि० छोडीने शेष ३५८ तेमां तेउ - वायुकान्ना ८ उमेरतां एवं ३६६ भेदनी. गति ५३५ भेदनी ते ५६३मांथी ९ लोकांतिक ने ५ अनुत्तर वि० ए १४ना अपर्या० ने पर्याप्ता, ए २८ भेद छीडीने शेष ५३५नी. स्त्री वेद ने पुरुष वेदमां आगति ३७१ भेदनी ते पूर्वोक्त ३६६ भेदमां ५ अनुत्तर वि० उमेरवा. गति पुरुष वेदनी ५६३ भेदनी अने स्त्री वेदनी ५६१ भेदनी ते सातमी नरकना अप० ने पर्याप्तानी वर्जवी. नपुंसक वेदमां आगति २८५ भेदनी ते ९९ जातिना देवना पर्याप्ता, पूर्वोक्त-लट १७९ भेद अने ७ नरकना पर्याप्ता, ए सर्व मली २८५ भेदनी. १ श्रीमान् देवचंद्रजी महाराज ( खरतरगगच्छीय ) कृत" विचारसार " ग्रन्थमा चोथे गुणठाणे जीवना भेद ३२३ कट्टेल छे. २ नारक, देव अने युगलिया, अपर्याप्त अवस्थामां मृत्यु न पाने, माटे आगतिमां नारक, देवने युगलिकना अपर्याप्ताना भेदो गणना नहि. गतिआगति ॥५१॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥५२॥ गति ५६३ भेदनी. इति आगति-गति विचार समाप्त. गुणस्थानद्वार लिख्यते - नाम लेक्खण गुण ठिई, किरिआ सत्ताबंध वेदेय; उदय उदीरणा चेव, निजरा भाव कारणं च १ परिसह मग्गण आया, य जीव भेयाय जोग उबओगा; लेस्सा चरण सम्मत्तं, अप्पाबहुत्तं गुणठाणे. २ बे गाथानो अर्थ कहे छे:- १ नामद्वार, २ लक्षणद्वार, ३ स्थितिद्वार, ४ क्रियाद्वार, ५ सत्ताद्वार, ६ बंधद्वार, ७ वेदद्वार, ८ उदयद्वार, ९ उदीरणाद्वार, १० निर्जराद्वार, ११ भावद्वार, १२ कारणद्वार, १३ परीषहद्वार, १४ मार्गणाद्वार. १५ आत्मद्वार, १६ जीवभेदद्वार, १७ योगद्वार, १८ उपयोगद्वार, १९ लेश्याद्वार, २० चारित्रद्वार, २१ समकितद्वार, २२ अल्पबहुत्वद्वार, ए प्रमाणे बावीश द्वार कह्या. हवे १ नाम द्वार छे:- १ मिथ्यात्व गुणस्थान, २ सास्वादन गु०, ३ मिश्रगु०, ४ अविरतिसम्यकदृष्टि गु० ५ देशविरति गु०, ६ प्रमत्त संयत गु०, ७ अप्रमत्त संयत गु०, ८ नियट्टिबादर गु०, ९ अनियट्टिबादर गु०, १० सूक्ष्म पराय गु०, ११ उपशांतमोहगु०, १२ क्षीणमोहगु०, १३ सयोगिकेवली गु०, १४ अयोगिकेवली गुणस्थान. २ लक्षणद्वार - पहेला मिथ्यात्व गुणस्थानना लक्षण कहे छे:- श्रीवीतरागना प्रवचनथी ओछु अधीकुं के विपरीत सहबुं - प्ररुपवुं ते मिथ्यात्व कहीए. जेम कोइ कहे के 'जीव' अंगुठा मात्र छे. ते ओछी प्रप्ररूणा, कोइ १ आ ने गाया कया शास्त्रमां छे ते जणायुं नथी, छतां यथामति शुद्ध लखेल छे. गुणस्थानतो विचार, विचारसार प्रकरण प्रवचनसारोद्वार arranta अने कर्मग्रन्थ वगैरे शास्त्राने अनुसारे लखेल है. २२ द्वार ॥५२॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥५३॥ जीवखरूप ॥५३॥ कहे के-'जीव' सर्व लोक (ब्रह्मांडमात्र)मां व्यापी रहेलो छे ते अधिक प्ररूपणा. वळी कोइ कहे के- 'जीव' पंचचभूतथी जूदो नथी, पंचभूतना संयोगथी उत्पन्न थाय छे अने तेना वियोगथी जीव नाश पामे छे; ते विपरीत प्ररूपणा. आ रीते जीवादिक नव पदार्थोनुं विपरीत श्रद्धान ते मिथ्यात्व, अथवा जिन प्रवचनमा श्रद्धा होवा छतां 'जमालीनी' जेम एकज पदने न सद्दहे तेने पण मिथ्यात्वी कहीए. जैन दर्शना 'आत्मा' द्रव्यार्थिक न ये नित्य, अकृत्रिम, अखंड, अविनाशी छे अने पर्यायास्तिकनये जीवना पर्यायो बदलाय छे माटे अनित्य पण कहीए संसारीजीव शरीरमात्र व्यापक छे, परिणामी छे. एवीरीते नय प्रमाणादि पूर्वक स्थाबाद श्रद्धा रहितज होय ते पण मिथ्यात्वीज जाणवो. ते जीव गेडी-दडाना न्याये संसारमा परिभ्रमण करे पण भवनो पार पामे नहिं. हवे बीजा गुणस्थानना लक्षण कहे छे-जेम कोइ पुरुष खीरखांडर्नु भोजन करीने वमन करे तो पण तेने कांइक 'रस'नो स्वाद रहे छे तेम समकीतनुं वमन करतां कांइक समकीतनो अंश रह्यो, तेने सास्वादन गुणस्थान कहीए. अथवा ममकीतरूपी महेलथी पडतां ज्यांसुधी मिथ्यात्वरूपभूमि उपर आवq थयुं नथी, त्यांसुधी सास्वादनगु० कहीए. जीवने सास्वादन ममकीत एक भवमा एकज वखत आवे अने संसारमा परिभ्रमण करतां पांचवार आवे. हवे त्रीजा गुणस्थानना लक्षण कहे छे:-जेम गोळ अने दहींना संयोगथी बे रसनो मिश्र थाय छे तेम मिश्रमो सास्वादन गुणठाणावालाने अनंतानुबंधी करायनो अवश्य उदय १ पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु अने आकाश. २देशथी मिथ्याय छे. थाय हे, तेथी तेनुं पडवू थाय के. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥५४॥ हनीय कर्मना उदयधी जीवनें कंइक मिथ्यात्व-अंश अने कंइक सम्यक्त्व - अंशरूप मिश्रण परिणाम थाय छे. अथवा नालियेर द्वीपमा रहेनार मनुष्यने जेम 'अन्न' उपर राग के द्वेष न होय तेमज जीवने जैन धर्म उपर राग के द्वेष न होय; तेने एक अंतरमुहूर्त्त कालमात्र स्थितिवाळु मिश्र गुणस्थान होय छे, ए गुणठाणे जीव परभवनुं आयु बांधे नहिं अने मरण पण करे नहि. हवे चोथा अविरति समकीतदृष्टि गुणस्थानना लक्षण कहे छे:-जे जीव, जिनेश्वरे प्ररूपेला नवतत्त्वने यथाशक्ति सद्दहे, पण अविरतिना उदयथी एक नवकारशी पञ्चक्खाण करी शके नहिं तेने अविरति समकितदृष्टिगु० कहीए. अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, अने समकीतमोहनीय ए सात प्रकृतिओना उपशमधी उपशम समकीत होय. मिथ्यात्वना दल जे उदयमां आवेल ते क्षय करे अने सत्तामां जे दल छे तेने उपशमावे तेने क्षयोपशमसमकित कहीए. अनें सात प्रकृतिओनो सर्वथा क्षय करे तेने क्षायिक समकीत कहेवाय. हवे पांचमा देशविरति गुणठाणाना लक्षण कहे छे:-जे जीव स्थूलाहिंसादिधी विरमीने अल्प पण 'विरतिपणुं, अंगीकार करे ते देशविरति कहेवाय. ए गुणठाणे अप्रत्याख्यानावरणीय कषायनो उदय होवाथी सर्व विरतीपणुं अंगीकार न करी शके. देशविरतिपणुं एक भवमां पृथक्त्व हजार वखत आवे अने सर्व संसार कालमां असंख्यातवार आवे. हवे छट्ठा प्रमत्त संयत गुणस्थानना लक्षण १ उपशम समकितीने मिथ्यात्वना दल, प्रदेशोदये के विपाकोदये पण न होय, क्षयोपशम समकितीने मिथ्यात्वना दल प्रदेशोदये होय भने बिपाकोदये सम्यक्त्वमोहनीयना दक्ष होय; तेथी क्षयोपसमकीतथी उपशम समकीत शुद्ध छे, अपौद्गलिक छे. गुणठाणा ॥५४॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणठाणा सिद्धांतरहस्य ॥५५॥ ॥५५॥ MASALAM कहे छः-प्रत्याख्यानावरणीय कषायना अभावधी सर्व सावध योगथी सर्वदा विरतिभाव होय छे परंतु योगनी चपलता अने कषायादि प्रमादथी अशुभयोग तथा कृष्णादि लेश्या परिणमे के तेथी 'प्रमत्त संयत' कहेवाय छे. हवे सातमा अप्रमत्त संयत गुणस्थानना लक्षण कहे छ:-जे संयत, पांच प्रकारना प्रमाद-मद, विषय, कषाय, निद्राने विकथा-रहित अने विशुद्ध चारित्रवालो होय ते 'अप्रमत्त संयत कहेवाय' ए गुणठाणे विशुद्ध लेश्या अने अध्यवसायनी निर्मळता होय छे. हवे आठमा अपूर्वकरणगुणठाणाना लक्षण कहे के:-करण ते जीवनो परिणाम विशेष, ते पूर्षे कदी पण आवेल न होय तेवा उत्तम परिणामनी धाराने 'अपूर्वकरणगु०' कहीए वली ए गुणठाणानुं 'नियहि बादर' नाम होवाथी ए गुणठाणाने प्राप्त थयेला जीधोना अध्यवसायस्थानो त्रण कालनी अपेक्षाए असंख्य लोकाकाश प्रमाण होय छे, तेने 'निवृत्ति' कहे छे. उपरना गुणठाणानी अपेक्षाण आठमे गुणठाणे कषाय पण बादर (स्थूल ) होय छे, तेथी निवृत्त बादर पण कहेवाय छे. वली ए गुणठाणे परिणामनी विशेष विशुद्धिने लइने १ स्थितिघात, २ रसधाल, ३ गुणश्रेणि, ४ गुणसंक्रम अने अपुन:स्थिति ए पांच कार्य थाय छे, आ गुणठाणाथी श्रेणिनो प्रारंभ थाय छे. श्रेणिना बे भेद छः-१ उपशम श्रेणि, अने २ क्षपक श्रेणि, उपशम श्रेणिथी क्षपक श्रेणिनी विशुद्धि विशेष होय छे. नवमा अनिवृत्ति बादर गुणठाणाना लक्षण कहे छे १ कृष्णादि लेश्यामां वर्तता जीवोने प्रमत्त संयतादि गुणठाणानी प्राप्ति न थाय पण 'पर्वप्रतिपन्न' ने मंद अध्यवसायवाली अशुभ लेश्या होय छे. लेश्याना अध्यवसाय स्थाननी विचित्रता छे. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥५६॥ आ गुणठाणे चडेला जीवोना अध्यवसाय स्थानोनी निवृत्ति थती नथी. अर्थात् त्रणे कालआश्रयी बधा जीवन अध्यवसायो समान होय छे; तेथी अनिवृत्तिबादर कहेवाय छे. दशमा सूक्ष्मसंपरायगुणठाणाना लक्षण कहे छे: - ए गुणठाणे संज्वलननो लोभ तेना अनेक खंड करी खपाबे छे, शेष सूक्ष्म 'किट्टी ' रूप लोनो उदय होवाथी ते सूक्ष्मसंपराय कहीए. हवे अगीयारमां उपशांतमोहनीय गुणठाणाना लक्षण कहे छे:मोहनी २८ प्रकृतिओने उपशमाववाथी कषाय रहित छे, अर्थात् मत्तामां होवा छतां उदयमां न होवाथी उपशांत वीतराग कहेवाय छे ए गुणठाणाथी जीब अवश्य पडे, जो कालस्थिति पूरण थये पडे तो पश्चानुपूर्वीए पडतां - उतरता छेक प्रमत्त गुणठाणे अटके अने कोइक पांचमे के चोथे आवे; कोइक सास्वादनपणुं पामीने मिथ्यात्वे पण जाय. उपशमश्रेणिए चडेल जीव तेज भवे मोक्ष न जाय, उत्कृष्टथी अर्द्धपुद्गल कांइक न्यून संसारमां परिभ्रमण करे अने आयुष्य पूरण थये छते उपशमश्रेणिमां वर्ततो जीव कोइ एण गुणठाणे काळ करे तो अवश्य अनुत्तरविमानमां जाय. हवे बारमा क्षीणमोहनीय गुणस्थानना लक्षण कहे छेः - सर्वथा मोहनीय कर्मनो सत्तामांथी क्षय करेल छे छतां सत्तामां ज्ञानावरणीयादि कर्म होवाथी ते छद्मस्थ क्षीण मोह वीतराग कहेवाय छे. हवे तेरमा सयोगिकेवलीगुणठाणाना लक्षण कहे छे: - चार घाती कर्मने सर्वथा क्षय करी, अनंत १ उपशमश्रेणि अने क्षपक श्रेणिनुं विशेष स्वरूप 'श्रेणिस्वरूप' विचारथी जाणवुं आठमा गुणठाणाची बारमा गुणठाणानुं स्वरूप अतिशय गहन छे. तो पण बिशेष जाणवानी इच्छावाळाए पंचसंग्रहादिक ग्रंथमां जोबुं. गुणठाणा ॥५६॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत गुणठाणा ॥२७॥ ॥२७॥ HOME - ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र अने अनंत वीर्य ए अनंत चतुष्टय सहित होवा छतां पण भवोपग्राही अघाती। |चार कर्म, बळेल वीज समान रहेल छे, ए गुणठाणे ८५ प्रकृति सत्तामां होय छे. तेमज सशरीरी, सलेशी होवाथी अने योग निमितथी बे समयनी स्थितिवाळो शातावेदनीयनो वंध होय छे. वली ए गुणठाणे ज० अंतर्मुहूर्त अने उ० देशे उणा क्रोड पूर्व सुधी ध्यानांतरिकाए एटले शुक्लध्यानना बीजा बीजा पाया बच्चे होय छे. सयोगीकेवलीने योगनो व्यापार होवाथी सयोगी केवली कहेवाय छे. समयांतर ज्ञान दर्शननो उपयोग होय छे. चौदमा अयोगी केवली गुणठाणाना लक्षण कछ-सयोगी केवली, अंतर्मुहत आयुष्य वाकी रहे त्यारे लेश्यातीत ध्यानमां एकाग्र थवा माटे योगोने कंधे छे तेनो क्रम आ प्रमाणे छे:-प्रथम स्थूल मन वचनना योगने कंधे, पछी स्थलकायाना योगने कंचे, त्यारवाद शुकलथ्याना त्रीजा पाया (सूक्ष्मक्रिय अनिवृत्ति ध्यान)ने प्राप्त करी सूक्ष्म मन, वचनने कंधे छ, पछी सूक्ष्म कायाना योगने कंधे छे. त्यारपछी 'सच्छिन्नक्रिय रूप शुक्लध्याननाल चोथा पायामां तल्लीन रही पंच लघु अक्षर ( अ, इ, उ, ऋ, ल.)ना उच्चार मात्र काल जेटली स्थितिवाएं। शैलेशीकरणरूप' चोदमुं गुणठागुं प्राप्त थाय छे, अने ए गुणठाणाना छेल्लाथी पहेलाना समयमा ७२ प्रकृनिने खपावीने चरम ( छेल्ले) समये १३ प्रकृतिने खपावे. एम सर्व कर्मनी प्रकृतिओनो सर्वथा क्षय करी, सर्व संगथी। मुक्त थइ एक समयमा अन्य आकाश प्रदेशले स्पा विना मुक्तिने पामे. पूर्व प्रयोगथी, धनुष्यमुक्त वाणवत् तथा गति (उर्ध्वगति) परिणामी, अग्निशिखावत् निर्लेप-असंगपणाथी तुंबीवत् अने बंधनमुक्त थबाथी एरंड mmaseDNESeemarwecarnamaaseem - 41- 44----Cert%C46 ORG SEANTREPROPEDIA Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥५८॥ बीजवत् 'अक्रिय' छतां पण गति करी लोकांते पहोचे. अलोकने अडकीने सादी अनंत भांगे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, गुणठाणा पारंगत, निष्ठतार्थ थाय. अशरीरी सिद्धना जीवो, पूर्व (चरम) शरीरथी त्रीजा भागे न्यून जीवप्रदेशना घनवाळा होय. साकारोपयोगे सिद्ध थाय अने ज्ञानदर्शनोपयोग सहित होय. बीजो लक्षणद्वार समाप्त. हवे त्रीजो ॥५८॥ स्थितिद्वार कहे छे:-पहेला गुणठाणनी स्थिति त्रण भांगे छेः-१ अनादि अपर्यवसित (अनंत) जे मिथ्यात्वनो आदि नथी अने अंत पण नथी, ते अभव्यजीवना मिथ्यात्वआश्रयी. २ अनादि सपर्यवसित (सांत), जे मिथ्यात्वनो आदि नथी पण अंत छे,ते जेणे ग्रंथिनो भेद करेल नथी एवा भव्य जीवना मिथ्यात्वआश्रयी.३ सादिसपर्यवसित, जे मिथ्यात्वनी आदि छे अने अंत पण छे, ते समकितने पामीने पतित थइ पुनः मिथ्यात्वने प्राप्त थयेल जीव आश्रयी. तेनी स्थिति ज० अंतर्मुहर्तनी अने उ० देशे उणा अर्द्धपुद्गल परावर्तननी छे. त्यारबाद समकित पामीने || अवश्य मोक्ष जाय. बीजा गुणठाणानी स्थिति ज. एक समयनी उ० छ आवलिकानी. त्रीजा गुण नी स्थिति ज० ने उ० अंतर्मुहर्तनी. चोथा गुण नी स्थिति ज. अंत ने उ०३३ सागरोपम झाझेरी. ते अनुत्तर विमानथी चवी मनुष्यभवमा आबीने ज्यांसुधी विरतिपणुं न पामे त्यांसुधी अधिक स्थिति जाणवी, पछी उपरले गुणठाणे अवश्य चडे. पांचमा अने तेरमा गुणनी स्थिति-ज० अंत ने उ० देशे उणा (नव वर्ष न्यून) पूर्वक्रोडनी. , अंत करो. २ सादी अनंत भागो मिथ्यात्वा होय नहिं. ३ एकबार समकीत पामी पुन: मिथ्यात्वे जाय तो पण मोहनीय कर्मनी बंध एक कोडीथी अधिक करे नहि. ४ पांचा गुणठाणानी ज. देशे उणा आठ वर्षनी. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥५९॥ छट्ठाथी अगीयारमा गुण०नी स्थिति ज० एक समयनी, उ० अंत०नी. बारमा गुण०नी स्थिति ज० ने उ० अंत नी. चौदमा गुणठाणानी स्थिति-अ इ उ ऋ ऌ ए पांच लघु अक्षरना उच्चार काल प्रमाणनी. चोथो क्रियांद्वार कहे छे:- १, २, ३ ए त्रण गुणठाणे इर्यावही वर्जीने क्रिया २४ होय, चोथे गुणठाणे २३ क्रिया होय, इर्यावहीनी अने मिथ्यात्वनी ए वे वर्जीने. पांचमे गुणठाणे क्रिया २२ होय, इरियावहीनी, मिथ्यात्वन अप्रत्याख्याननी एत्रण वजने छट्ठे गुण० १३ क्रिया होय १ काइया २ अहिगणिया, ३ पाउसिया ४ पारितावणिया ५ आरंभिया, ६ मायाबत्तिया ७ दिठिया, ८ पुठिया, ९ वियारणिया १० अणाभोगिया, ११ अणवकखवत्तिया, १२ पेज्जवत्तिया अने १३ दोसवत्तिया. सातमे गुणठाणे आरंभिया सिवाय, १२ क्रिया होय. आठ नवमे गुणठाणे मायावत्तिया सित्राय ११ क्रिया होय. दशमे गुणठाणे दोसवत्तिया सिवाय १० क्रिया १ भगवती सूत्रमां प्रमत्त अप्रमत्त गुणठाणानी स्थिति देशे उगा कोड पूर्वनी कट्टेल छे, तेनो भावार्थ ए छे के ए बन्ने गुणठाणा अंतर्मुहू अंतर्मुहूर्ते बदले छे. प्रमत्त गुन्नुं अंतर्मुहूर्त मोटुं अने अग्रमस गु०नुं अंतर्मुहूर्त नानुं होय छे, माटे सर्व अंतर्मुहूर्त भेळा करतां देशे उणा पूर्व कोड प्रमत्त गु०नो काल मान थाय अने अप्रमत गुणठाणा माटे जे स्थिति कट्टेल छे ते केवलीनी अपेक्षाण जाणवी. प्रमत्त सिवायना सर्व संयतो अग्रमतिज होय के संयमना स्थानी असंख्य लोकाकाश प्रमाणे छे, तेमां संक्लेश स्थानो अने विशुद्ध स्थानो के संक्लेश स्थानमां वर्ततां प्रमत्त गुणस्थान होय अने विशुद्ध स्थानमां वर्ततां अप्रमत्त गु० होय कोइ पण एक स्थानमां अंतर्मुहूर्त उपरांत स्थिति नथी, माटे बने गुब्नो पलटो थाय छे. २ आठमे गुणठाणे जो के माया कपाय छे, परंतु माया किया नथी; कारण ? सूक्ष्म माया होवाथी तेनो संग्रह रागवतिया कियानां होवाथी मायाव त्तिया क्रिया बर्जी छे. गुणठाणा ॥५९॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सिद्धांत *** रहस्य ॥६॥ गुणठाणा ॥६॥ * होय. ११, १२, १३मे गुणठाणे एक इरियावही क्रिया होय चौदमे गुणठाणे एके क्रिया नथी अर्थात् अक्रिय छे.४ पांचमो सत्ताद्वार कहे छे:-पहेला गुणठाणाथी इग्यारमा गुणठाणा सुधी आठ कर्मनी सत्ता. बारमे गुणठाणे मोहनीय वर्जीने सात कर्मनी सत्ता. तेरमे चौदमे गुण वेदनीय, आयुष्य, नाम अने गोत्र ए चार कर्मनी सत्ता. छठ्ठो वंध द्वार कहे छे:-१, २, ४, ५, ६ अने ७मा गुणठाणा सुधी, आठ अथवा सात कर्म बांधे. त्रीजे, आठमे ने नवमे गुण. आयुप्य वर्जीने सात कर्म बांधे. दशमे गुण. आयुष्य ने मोहनीय एबे कर्म सिवाय छ कर्म बांधे. ११, १२ ने १३मे गुण एक सातावेदनीय बांधे. चौदमो गुणस्थान अबंधक छे. सातमो वेदद्वार कहे छः-पहेलाथी नवमा गुणठाणा सुधीत्रण वेद होय. उपरला पांच गुणठाणा अवेदी छे. आठमो उदयद्वार कहे छे:-पहेला गुल्थी दशमा गु०, सुधी आठ कर्मनो उदय छे. इग्यारमे बारमे गु० मोहनीय सिवाय सात कर्मनो उदय छे. तेरमे चौदमे गु०, वेद. आम्ना, ने गो० ए चार कर्मनो उदय छे. नवमो उदीरणा द्वार कहे छः--त्रीजु गु० वर्जीने पहेलाथी सातमा गु०, सुधी सात अथवा आठ कर्मनी उदीरणा करे, ज्यारे आयुप्य कर्मनी उदी न करे त्यारे सातनी उदी. करे. त्रीजे गुण. अवश्य आठ कर्मनी उदी. करे. आठमे ने नवमे गु० वेदनीय ने आयुष्य, ए बे सिवाय छ कर्मनी उदी करे. दशमे गु०६ अथवा ५ कर्मनी उदी० करे, छनी करे तो वेद० ने आ० सिवाय अने पांचनी करे तो मोहनीय सिवाय करे. इग्यारमे गु० वेद०, आ० ने मोहर , सातमे गुणठाणे भायुष्य बंधनो प्रारंभ न करे, छठे गुणठाणे देवायुनो बंध करतो सातमे पूरी करे; एम समजवू. * * * Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिद्धांतरहस्य - - - D MAOISTRI वर्जीने पांचनी करे, बारमे गु० पांचनी अथवा बेनी उदी० करे, पांचनी करे तो पूर्ववत् अने बेनी करे तो नाम ने गोत्र कर्मनी करे. तेरमे गु०, ना० ने गो० एबे कर्मनी उदी. करे. चौदमे गु० उदी० करे नहिं. दशमो निर्जरा गुणठाणा द्वार कहे छे:- पहेलाथी त्रीजा गु० सुधी अकाम निर्जरा छे. चोथाथी सकाम निर्जरा के पांचमाथी बारमा गुरु ॥६ ॥ सुधी बार प्रकारनी निर्जरा छे. तेरमे चौदमे गु० एक शुक्लध्यान रूपनिर्जरा छे. ११मो भावद्वार कहे छे:१ उदय भाव, २ उपशम भाव, ३क्षायकभाव, ४ क्षयोपशमभाव अने ५ पारिणामिकभाव (ए मूल पांच भावना उत्तर भेद ५३ थाय छे.) पहेले, बीजे ने बीजे गु०, ३ भाव उदय, क्षयोपशम ने पारिणामिक. चोथाथी सातमा गु० सुधी, ३ अथवा ४ भाव ते क्षयोपशम लमकितीने ३ भाव पूर्ववत् अने उपशम के क्षायक समकितवालाने चार भाव ते उप० समकितीने उप० भाव वध्यो अने क्षायक समवालाने क्षा० भाववध्यो. आठमे। गु० चार भाव होय ते पूर्वना त्रण भाव अने उप० वालाने उप० भाव अने क्षायकवालाने क्षायक भाव होय. नवमांथी इग्यारमा गुण. सुधी, क्षकश्रेणिवालाने उपशमभाव सिवाय चार भाव होय अने उपशाम श्रेणिवालाने उपशसमकित होय तो चार भाव होय अने जो क्षायकसम कित होय तो पांच भाव होय. बारमे गु० उपशम सिवाय चार भाव होय. तेरमे चौदमे गु० जण भाव होय उदय, क्षायक ने पारिणामिक. सिद्धमांचे भाव होय-क्षायक ने पारिणामिक. बारमो कारणद्वार कहे के कारण ते कर्मबंधना हेतुले पांच मिथ्यात्व १ पांच कारणना उत्तर भेद क्रमशः-५, १२, ५, २५, १५-७२ भेद छे. - - SANSADCASSALARIENYASHEEimamatara - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥६२॥ गुणठाणा | ॥६२॥ २ अविरति, ३ प्रमाद, ४ कषाय अने ५ योग. पहेले गुणठाणे पांच कारण होय. बीजे, श्रीजे, चोथे. गु०मिथ्यात्व सिवाय चार कारण, पांचमे गु०, पण कारण चार (एक त्रसकायनी अविरति टळी छे ११ अविरति रही छे.) छठे गु० ब्रण कारण प्रमाद, कषाय ने योग. सातमा गुल्थी दशमा गु० सुधी वे कारण-कषाय ने योग. इग्यारमाथी तेरमा सुधी एक योग होय. चौदमे गु० कारण कोइ नथीः तेरमो परिषहद्वार कहे छे:-पहेला गु०थी नवमा गु० सुधी २२ परिषह होय. (पण संवररूप तो छहाथीज गणाय ) एक जीव आश्रयी एकी साथे (युगवत्) २० परिषह होय. टाढनो परि० होय त्यां तापनो परि० न होय, अने चालवानो परि० होय. त्यां बेसवानो परि० न होय; तेमज बेसवानो त्यां चालवानो अने तापनो त्यां टाढनो न होय. दशमे इग्यारमे ने बारमे गुरु १४ परिषह होय. मोहनीय कर्मना आठ परिषहनो १ अचेलनो २ अरतिनो, ३ स्त्रीनो, ४ बेसवानो ५ आक्रोशनो, ६ याचनानो अने ७ सत्कार पुरस्कारनो ए सात चारित्र मोहना अने दर्शन मोहनीनो १ दर्शन परिषह, ए आठ न होय. एक समये बार होय, पूर्ववत् विरोधि बे परि० न होय. तेरमे चौदमे गु०, ११ परि० वेदनीय कर्मना होय. ज्ञानबरणीयना बे परी०,प्रज्ञा ने अज्ञान अने अंतराय कर्मनो १ अलाभ ए त्रण परि० न होय. एक समये नव होय पूर्ववत. चौदमो मार्गणाद्वारकहे छः-पहेले गुणठाणे मार्गणा ४ जीजे, चोथे, पांचमे ने सातमे जाय. धीजे गु० मार्गणा १ पडीने पहेले आवे, चडवू नथी, बीजे गु० मार्गणा ४ पडे तो पहेले, आवे ने चडेतो चोथे, , तत्वार्थमा एकी साथे १९ परीषहो कहेल . २ तत्वार्थमा अदर्शन प. कहेल के. ANGRAHASKAR Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥६३॥ पांचमे ने सातमे जाय. चोथे गु० मार्गणा ५ पडे तो पहेले, बीजे, ने श्रीजे, आवे. चडे तो पांचमे ने सातमे जाय. पांचमे गु० मार्गणा ५ पढे तो पहेले, बीजे, श्रीजे ने चोथे आवे. अने चडे तो सातमे जाय. छडे गु० मार्गणा ६ पडे तो पहेले, बीजे, त्रीजे, चोथे, पांचमे आवे अने चढे तो सातमे जाय. सातमे गु० मार्गणा ३ पडे तो छट्ठे चोथे आवे अने चडे तो आठमे जाय. आठमे गु० मार्गणा ३ पडे तो सातमे चोथे आवे अने चडेतो नवमे जाय. नवमे गु० मार्गणा ३ पढे तो आठमें चोथे आवे अने चडे तो दशमे जाय. दशमे गु० मार्गणा ४ पडे तो नवमे चोथे आये अने चडे तो इग्यारमे बारमे जाय. इग्यारमे गु० मार्गणा २ काल करे तो अनुत्तर विमाने जाय. अने पडे तो दशमाथी अनुक्रमे मानमे अटके, अथवा चोथे बीजे अने पहेले पण आवे; चडवं नथी, बारमे गु० मार्गणा १ तेरमे जाय, पडवं नथी. तेरमे गु० मार्गणा १ चौदमे जाय, पडवुं नथी. चौदमे मार्गणा एके नथी | मोक्षे जाय. पंदरमो आत्मद्वार कहे छेः - आत्मा आठ १ द्रव्य आत्मा, २ कषाय आ०, ३ योग आ०, ४ उपयोग आ०, ५ ज्ञान आ०, ६ दर्शन आ०, ७ चारित्र आ० ने ८ वीर्य आत्मा, पहेले, बीजे गु०, ज्ञान आने चारित्र आ० सिवाय छ आत्मा. बीजे ने चोथे गु० चारित्र आ० सिवाय सात आत्मा पांचमे गु० मात आत्मा १ शुद्ध द्रव्यार्थिक नये एकज आरमा छे. यदुक्तं स्थानांगे - "युगे आया" इति वचनात् अशुद्ध द्रव्यार्थिक नये ज्ञानादि शुद्ध पर्याय कषायादि अशुद्ध पर्यायने 'आत्मा' कहीने वर्णवेल छे. कारण ? गुण-गुणिनो कथंचित् अभेद के माटे ज्ञान वगेरेने अने योगादिकने आत्मा कहेल के. २ देशथी चारित्र है, सर्व विरति न होवाथी ७ आत्मा का. गुणठाणा ॥६३॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ववत्. छहाथी दशमा गु० सुधी आठ आत्मा. इग्यारमे बारमे ने तेरमे गु० कषाय आ० सिवाय सात आत्मा. सिद्धांत चौदमे गु० कषाय आ० ने योग आ० सिवाय छ आत्मा. सिद्धमा ज्ञान आ०, दर्शन आ०, द्रव्य आ० ने उप- गुणठाणा रहस्य | योग आ० ए चार आत्मा होय. सोलमो जीवभेदद्वार कहे छे:-पहेले गु० जीवना १४ भेद. बीजे गु० ६ भेद ॥६४॥ ॥१४॥ बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय अने असंज्ञि तिर्यंच पंचेंद्रिय, ए चारना अपर्याप्ता अने संज्ञि पंचेंद्रियना अप-श प्तिा ने पर्याप्ता. त्रीजे गु० एक संज्ञि पंचेंद्रियनो पर्याप्त. चोथे गु० संज्ञिपंचेंद्रियना अप० ने पर्याप्त बे भेद. पांचमांथी चौदमा गु० सुधी एक संज्ञिपंचेंद्रियनो पर्याप्त. सत्तरमो योगद्वार कहे छे:-पहेले, बीजे ने चोथे गुरु आहारक ने आहारकनो मिश्र ए बे सिवाय १३ योग होय. त्रीजे गु० ४ मनना ४ वचनना, १ उदारिक ने १ वैक्रेय, ए दश योग होय. पांचमे गु. आहारकना बे अने कार्मणकाय योग ए ३ सिवाय १२ योग होय. छठे गु० कार्मण योग सिवाय १४ योग. सातमे गु० ४ मनना ४ वचनना १ उदा०, १ वै० ने १ आहारक, ए ११ योग होय. आठमाथी बारमा गु० सुधी ४ मनना ४ वचनना, ने १उदारिकनो ए ९ योग होय. तेरमे गु०, सत्य मनोयोग, व्यवहारमनो०, सत्यवचनयोग, व्यवहारवच. उदारिक, उदानो मिश्र ने कार्मण, ए सात योग होय. चौदमे गु० योग नथी. अढारमो उपयोग द्वार कहे छे:-पहेले गु०, ६ उपयोग ३ अज्ञान ने ३ दर्शन. बीजे चोथे ने पांचमे गु०, ६ उप०, ३ ज्ञान ने ३ दर्शन. छहाथी बारमा गु० सुधी ७ उप०, ४ ज्ञान ने ३ दर्शन. तेरमे, दूचौदमे तथा सिद्धमा २ उप०, केवलज्ञान केवल दर्शन. उगणीशमो लेश्याद्वार कहे छे:-पहेलाथी छट्टा गुसुधी E Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणठाणा सिद्धांतरहस्य ॥६५॥ RAMA ६ लेइया. सातमे गु०, ३ ले० उपरली. आठमाथी बारमा गु० सुधी एक शक्ललेश्या. तेरमे गु०, परमशुक्ल लेश्या. चौदमे लेझ्या नथी. वीशमो चारित्रद्वार कहे छे:-पहेलाथी चोथा गु० सुधी एके चारित्र नथी. पांचमे गु०, देशथी सामायिक चा० के. छहे, मातमे गु०३ चारित्र सामायिक चा०, छेदोवस्थापनीय चा० अने परिहार विशुद्ध चारित्र. आठमे, नवये गु०. वे चा० सामा० ने छेदो० चारित्र, दशमे १ सूक्ष्म संपराय चारित्र. इग्यारमाथी चौदमा गु० सुधी १ यथाख्यात चारित्र. एकवीशमो समकितद्वार कहे छे:-पहेले-बीजे गु० समकित नथी. बीजे गु०, सास्वादन समकित के. चोथाथी सातमा गु० सुधी मम०४ उपशम म०, क्षयोपशमस०, वेद-1 कस०, क्षायकसमकित. आठमे, नवमे, दशभे, इग्यारने गु०, सम०२ उपशम ने क्षायकममकिन. बारमे, तेरमे, ने चौदमे गु०, क्षायकाममकित. यावीशमो अल्पयहुत्वद्वार कहे :-सर्वथी थोडा इग्यारमा गु० वाला, उत्कृप्थी एक समये ५४ होय, तेथी बारमा गुण याला, संख्यानगुणा-एकममये उत्कृष्टथी १०८ होय. तेथी आएमा, नवमा ने दशमा गुरूवाला, विशेषाधिक अने परस्पर तुल्य छे; उत्कृष्टथी १६२ होय. तेथी तेरमा गु०वाला, संख्यातगुणा-पृथक्त्व ऋोड होय. तेथी मातमा गुण्याला, संख्यातगुणा-शतपृथक्त्व क्रोड होय. तेथी छहा गु० वाला, संख्यातगुणा-सहस्र पृथक्त्व कोड होय. तेथी पांचमा गुबाला, असंख्याता होय तिर्यंच श्रावक १ कोइक समये उत्समवाचा घणा होय अने क्षएकवाला थोडा पण होय; परंतु उप-बाला वधारे जो होय तो ५५ होय, 1 अपेक्षाए | अल्प यहुत्य जाणg. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥६६॥ भळवाथी. तेथी बीजा गुण्याला, असंख्यातगुणा. तेथी श्रीजा गु०वाला, असंख्यातगुणा. चार गतिमां विशेष होय. तेथी चोथा गु०वाला, असंख्यातगुणा घणी स्थिति होवाथी. तेथी चौदमा गु०वाला अनंतगुणा, सिद्ध भळवाथी. तेथी पहेला गु०वाला, अनंतगुणा, वनस्पतिना जीवो भळवाथी, इति बावीश द्वार समाप्त. हवे क्षेपक द्वार कहे छे:- १ हेतुद्वार- मिथ्यात्व ५, अविरति १२, कषाय २५ ने योग १५. ए ५७ उत्तर हेतु. पहेले गुणठाणे हेतु ५५ वे आहारकना वर्जवा. बीजे गु० हेतु ५० ते ५५मांथी ५ मिथ्यात्व वजेवा. त्रीजे गु०, हेतु ४३ ते ५०मांथी अनंतानुबंधी - चोकडी, १ उदारिक- मिश्र, १ वैक्रेय मिश्र अने कार्मणकाययोग. ए सात वर्जवा. चोथे गु० हेतु ४६ ते ४३ पूर्वना अने १ उदा० मिश्र, १० मिश्र ने कार्मण० योग ए ऋण वध्या. पांच गु० ४० हेतु ते ४६मांथी अप्रत्याख्याननी चोकडी, सकायनी अविरति ने कार्मण० ए छ वर्जवा. छट्टे गु० हेतु २७ ते ४० मांथी प्रत्याख्याननी चोकडी, ११ अविरति ( ५ स्थावरनी ५ इंद्रियनी अने १ मननी) ए १५ वर्जवाथी शेष २५ अने आहारकना बे वधारवाथी २७ हेतु. सातमे गु० हेतु २४ ते २७मांथी १ उदा० मिश्र, १ बै० मिश्रने १ आहा०मि० ए ३ वर्जवा. आठमे गु० हेतु २२ ते २४मांथी वैक्रेय तथा आहारक ए बे वर्जवा. नवमे गु० हेतु १६ ते २२ माथी हास्यादि छ नोकषाय वर्जवा. दशमेगु० हेतु १० ते १६मांथी त्रण वेद अने संज्वलन क्रोध, मानने माया, ए छ वर्जवा. इग्यारमे बारमे गु० हेतु ९ ते १०मांथी संज्वलननो लोभ वर्जवो. शेष १ छ काय, पांच इंद्रिय ने मन ए १२ अविरति के. गुणठाणा ॥६६॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥६७॥ ३ चार मनना, चार वचनना ने १ कार्मण० ए९ होय. तेरमे गु० हेतु ७ ते १ सत्यमन०, २ व्यवहारम०, सत्यवचन०, ४ व्यवहारव० ५ उदा० ६ उदा० मिश्र ने ७ कार्मण० ए सात होय. चौदमे गु० हेतु नथी. २ दंडकद्वार कहे छेः - पहेलेगु० २४ दंडक. बीजे गु० ५ स्थावर सिवाय १९ दंडक वीजे, चोथे गु०, ३ विकलेंद्रिय सिवाय १६ दंडक पांच गु० संज्ञि तिर्यच ने संज्ञि मनुष्य ए वे दंडक छट्टाथी चौदमा सुधी संज्ञिमनुप्यनो १ दंडक होय. ३ जीव-योनिद्वार कहे छे:- पहेले गु० ८४ लाख जीव योनि. बीजे गु० ३२ लाख ते एकें द्रियनी ५२ लाख योनि वर्जवी. त्रीजे चोथे गु० छ लाख विकलेंद्रियना वर्जीने २६ लाख, पांचमे गु० १८ लाख ते ४ लाख तिर्यंच पंचेंद्रिय ने १४ लाख मनुष्यनी. छट्टाथी चौदमा गु० सुधी १४ लाख मनुष्यनी. ४ अंतरद्वार कहे छे: - पहेले गु० अंतर, ज० अंतर्मुहूर्त्तनुं अने उ० १३२ सागरोपम झाझेरुं, ते ६६ सागरोपम क्षयोपशम सम्यक्त्वमां रही अंतर्मुहूर्त न्रीजे गु० आवीने पाछो ६६ सागर क्षयोपशम सम्यक्त्वे रहीने मिथ्यात्व गुणठाणे आवे. बीजे गु० अंतर, ज० पल्योपमना असंख्यातमा भागनुं, उ० देशे उणा अर्द्धपुद्गल पराव १ एटलो काल क्षयोपशम सम्यक्त्वमां देवभवमां चोधुं गुणठाणु अने मनुष्यभवमां पांचमुं ने छहुं गुणठाणं पण होय. १३२ सागरोपम बाद अवश्य मोक्ष जाय, अथवा मिध्यात्वे आवे. अर्थात् एथी वधारे मिध्यात्वनुं अंतर नथी. २ सास्वादननुं परथोपमना असंख्यातमा भागथी न्यून (ओकुं) आंतरं न थाय. कारण ? सम्यक्त्वमोहनी ने मिश्र मोहनी, ए वे प्रकृतिने उवेली सत्तामांथी काढी ने २६ प्रकृतिनी सत्तावालो थाय; त्यारे तेनी 'उगलना' पल्योपमना असंख्यातमा भागथी न्यून होती नथी. विशेष जिज्ञासुए पंचसंग्रह टीकार्नु अवलोकन कर. द्वारवर्णन ॥६७॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्त्तनु. श्रीजाथी इग्जाव आश्रयी जाण सेने धर्मध्यानाद्वार कहे हे द्वारवर्णन सिद्धांतरहस्य ॥६८॥ ॥६८॥ +CREARRACCORE वर्त्तनुं. त्रीजाथी इग्यारमा गुणसुधी अंतर, ज. अंतब्ने उ० देशे उणा अर्द्धपुन्न. बारमे, तेरमे ने चौदमे गु० अंतर नथी; ते एक जीव आश्रयी जाणवु.५ ध्यानद्वार कहे छे:-पहेले, बीजे ने बीजे गु० ध्यान बे-आरी ने रौद्र. चोथे ने पांचमे गु०त्रण ध्यान-आ०, रौने धर्मध्यान. छठे गु०बे ध्यान-आर्त ने धर्मध्यान. सातमे गु०१ धर्मध्यान. आठमाथी चौदमा गु० सुधी १ शुक्लध्यान. ६ स्पर्शनाद्वार कहे छः-पहेलु गुणस्थान, चौद राजलोक स्पर्श. बीजु गु० नीचे पंडकवनथी ते छट्ठी नरक सुधी अने उपर अधोगाम विजयथी ते नव ग्रैवेयक लगे स्पर्शे. त्रीजु गु० लोकनो असंख्यातमो भाग स्पर्श. चोथु गु० उपर अधोगाम विजयथी बारमा देवलोक लगे स्पर्श. नीचे पंडकवनथी छट्ठी नरक लगे स्पर्श. पांच, गुरु उपर अधोगाम विजयथी यारमा देवलोक लगे स्पर्श. छट्ठा | गु०थी इग्यारमा गु० सुधी उपर अधोगाम विजयथी पांच अनुत्तर विमान लगे स्पर्श. बारमुं गु०, लोकनो असंख्यातमो भाग स्पर्श. तेरमुं गु०, सर्व लोक स्पर्श. चौद, गु०, लोकनो असंख्यातमो भाग स्पर्श. ७ तीर्थकर गोत्रद्वार कहे छे:-चोथो, पांचमो, छट्ठो, सातमो ने आठमो ए पांच गुणठाणे तीर्थकरगोत्र बंधाय, शेष गुण न बंधाय. ८ तीर्थंकर स्पर्शनाद्वार कहे छे:-तीर्थकर देव पहेलो, बीजो, त्रीजो, पांचमो अने इग्यारमो. ए पांच गु० छोडीने शेष ९ गु० स्पर्श.९ शाश्वतद्वार कहे छे:-पहेलो, चोथो, पांचमो, छट्ठो, सातमो अने तेरमो |ए छ गु०, शाश्वता छे शेष ८ गु०, अशाश्वता छ १० कालद्वार कहे के:-त्रीजे, बारमे ने तेरमे ए ३ गुन्मां प छगुणठाणे वर्तता जीयो, हमेशां होय छे; माटे शाश्वता कहेल छे. छ सिवाय आठ गुणठाणे जीवो क्यारे नषण होय मारे अशाश्वता कया. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य CACCOCCACADCALCCI मरण न करे, शेष ११ गु०मां मरण करे. ११ परभविकद्वार कहे छे-१-२ ने ४थु एत्रण गुणठाणा, परभवमा साथे जाय. शेष ११ गु० परभवे साथे आवे नहिं. १२ संघयण द्वार कहे छे:-पहेलाथी सातमा गु० सुधी ६ दबासठबोल विचार संघयण होय. आठमाथी इग्यारमा गु० सुधी पहेला ३ संघयण होय. बारमाथी चौदमा गु० सुधी १ वज्रऋषभनाराच संघयण होय. १२ संहरण द्वार कहे छः-१ आर्याजी, २ अवेदी, ३ परिहार विशुद्ध चारित्रवान् , ४ का॥६९॥ पुलाकलब्धिवाळा, ५ अप्रमत्त साधु. ६ चौद पूर्वधरमुनि अने ७ आहारक शरीरी, ए सातनो अपहरण कोई देव पण करी शके नहिं. इति क्षेपक द्वार समाप्त. श्रीगुणस्थान विचार समाप्त. थअ बासठ बोल-विचारगाथा जीव गइ इंदिय काए, जोगे वेए कसाय लेसाय; सम्मत्त नाण दंसण, संजय उवओग आहारे. १४ भासग परित्त पन्ज,-ते सूहम सन्नी भव चरिमेय; जीव गुणठाण जोगुव,-ओग लेसाय अप्प बहुत्तं २. हवे १ जीवद्वारः-समुच्चय जीवमा जीवना भेद १४, गुणठाणा १४, योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६.॥२ गतिद्वार:-नरकनी गतिमा जीवना भेद ३ ते संझिनो अपर्याप्त ने पर्याप्त अने अपंज्ञिनो अप०, गु०४ पहेला, योग ११ ते ४ मनना गुणस्थाननो विचार, अनेक ग्रंथोनी सहायताधी लखेल छे. जोके “ विचारसारादी "ग्रंथोमां गुणठाणाने विषे योग उपयोगादि, कर्मग्रंथ प्रमाणे लखेल छे. तथापि अने तो सिद्धांताम्नाए लखेल छे, सिद्धांत अने कर्मग्रंथमा विविध-भिन्नता जोवामां आवे छे, ते पण नयनीव्याख्याए । विचारता वास्तबिक भेद जणातो नथी. कर्मग्रंथादि शास्त्रो पण घणा प्राचीन हे पूर्वधी उध्त धयेल छे. परमार्थथी विचारनारने सत्य समजाय छे. २ उपरनी गाथामा २१ द्वार छे तेमा ६२ बोल विचारवाना होइ ने ते बासठियो कहेवाय छे. SOLECDRINTENDURIKARIDDEN Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥७ ॥ बासठबोलविचार ॥७ ॥ Portortortortortorno ४ वचनना, २ वैकेयना ने १ कार्मण०. उप०, ९ ते ३ ज्ञान ३ अज्ञान ने ३ दर्शन. लेश्या ३ पहेली ॥ तिर्यचनी | गतिमां जीव० १४, गु०५ पहेला, योग आहारकना २ वर्जी ने १३, उप०९ पूर्ववत् , लेश्या ६.॥तिर्यंचणीमां जीव० २ ते संज्ञीना अपने पर्याप्त, गुणठाणादि तिर्यचनी गति प्रमाणे. ।। मनुष्यनी गतिमां जीव०३ ते संज्ञीना अप० ने पर्याप्त अने असंज्ञीनो अप०, गु०१४, योग १५, उप०१२, लेश्या ६.॥ मनुष्यणीमां जीव०२ संज्ञीना अपने प०, गु० १४, योग १३ आहारकना २ वर्जीने, उप० १२, ले० ६. देवनी गतिमां जीव० ३ संज्ञी पंचेंना १ अ० ने प०२ अने असंज्ञी पं० अप०, गु०४ पहेला, योग ११ नरक गतिवत्, उप०९ नरकगतिवत् , ले०६. देवीमां जीव०२ संज्ञीना अ० ने प०, गु०४, योग ११, उप०९, ले०४ पहेली ॥ सिद्ध गतिमां जीव० नथी, गु० नथी, योग नथी, उप० २ केवलज्ञान के दर्शन, लेश्या नथी. एओर्नु अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडी मनुष्यणी, २ तेथी मनुष्य असंख्यातगुणा समुश्छिम भळ्या माटे. ३ तेथी नारकी असंख्यातगुणा, ४ तेथी तिर्यंचणी असंख्या०,६ तेथी देव असंख्या०६ तेथी देवी संख्यात गुणी, ७ तेथी सिद्ध अनंगुतणा, ८ तेथी तिर्यंच अनंतगुणा. ३ इंद्रियद्वार:--सइंदियामां जीवना भेद १४, गुणठाणा १२ उपरना बे नहिं, योग १५, उपयोग १० केवलज्ञान केवलदर्शन ए बे नहिं, लेश्या छ ॥ एकेंद्रियमां जीव०४ ते सूक्ष्म ने बादर एकेंना अप०ने पर्याप्ता, गु०१ पहेलु योग ६ ते उदारिकना २ वैक्रेयना २ ने कार्मण, उप० ३ बे अज्ञान ने १ अचक्षु दर्शन, लेश्या ४ पहेली.॥ केवलीने द्रव्येद्रिय होवा छतां पण भावेंद्रियना अभावधी अनिद्रिय कहेल के. भावेंद्रिय, क्षयोपशम भावे होय; केवलीने मायकभाव छे. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत CAR विचार ||७१॥ ॥७२॥ ROADCHIROENot बेइंद्रिय, तेइंद्रिय ने चउरिंद्रियमा जीव. २ पोतपोताना अप० ने पर्याप्ता, गु० २ पहेला, योग ४ ते उदा. २ कार्मणका ने व्यवहार वचन, उप० बेइंद्रिय अने तेइंद्रियने ५ वे ज्ञान, वे अज्ञान ने एक अचक्षुद०, चउरि-5 द्रियने ६ एक चक्षुदर्शन बध्युं, ले० ३ पहेली ।। पंचेंद्रियमां जीव०४ ते असंज्ञी पं० ने संज्ञी पं० ना अपने पर्याप्ता, गु० १२ प्रथमना, योग १५, उप० १० के० ज्ञान ने के० दर्शन नहिं, ले०६॥ अणिंदियामां जीव० १ संज्ञीपंचेनो पर्याप्त, गु० २ छेला, योग ७ ते सत्यमनो०, व्यवहारमनो०, सत्यवचन०, व्यवहारवचन०, उदारिकना २ ने कार्मणकाययोग, उप० २ ते के ज्ञान ने के दर्शन, ले०१ शुक्ल. हवे अल्पबहुत्वः--१ सर्वथी थोडा पंचंद्रिय, २ तेथी चउरिंद्रिय विशेषाधिक, ३ तेथी तेइंद्रिय विशेषाधिक, ४ तेथी येइंद्रिय विशेषा० ५ तेथी अनिद्रिय अनंतगुणा, ६ तेथी एकेंद्रिय अनंतगु०, ७ तेथी सइंद्रिय विशेषाधिक ॥ ४ कायिक द्वार:-सकायिकमां जीव० १४, गु०१४ योग १५, उप० १२, ले०६॥ पृथवीकायिक, अएका ने वन०, ए ३मां जीव० ४, गु०१ पहेलु, योग ३ ते उदा० २ ने कार्मण, उप० ३ ते २ अज्ञान ने १ अचक्षुद०, ले०४ पहेली। तेउ० ने वाउ०मां जीव०४, गु० १, योग तेउ०मा ३ ने वाउ०मां ५ ते वैक्रेयना २ वध्या, उप०३ ते २ अज्ञानने १ अचक्षुद०, ले० ३ पहेली. त्रसका मां जीव० १० चार एकेंद्रियना वा. गु० १४. योग १५, उप० १२, ले०६॥ अकायिका जीवना भेद, गु० योग, अने लेश्या नथी, उप०बे, केवलज्ञान ने के दर्शन. एओर्नु अल्पबहुत्वः-१ सर्वथी थोडा त्रसकायिक २ तेथी तेउ. असंख्यातगुणा, ३ तेथी पृथवी० विशेषाधिक तेथी अप्का विशेषा०, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥७२॥ वासठबोल विचार ॥७२॥ KA-SCA% AGRACK तेथी वाउ. विशेषा०, तेथी अकायिक अनंतगुणा, तेथी सकायिक विशेषाधिक ॥ ५ योगद्वार-सजोगीमां जीव०१४, गु० १३ एक छेलो नहिं. योग १५, उप० १२, ले०६॥ मनयोगीमा जीवनो०१ संज्ञी पंचेंनो पर्याप्त, गु० १३ पूर्ववत् , योग १४ कार्मण नहि. उप० १२, ले०६॥ वचनयोगीमां जीव०५ इंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय, असंज्ञीपंचेंद्रिय, संज्ञीपंचेंद्रिय, ए पांचना पर्याप्ता. गु० १३, योग १४ पूर्ववत् उप० १२, ले०६॥ काययोगीमां जीव० १४ गुण० १३ पूर्ववत् योग १५, उप० १२, ले० ६ ॥ अयोगीमां जीव. १ संज्ञीपं नो पर्याप्त, गु०१ चौदमुं, योग नथी, उप०२ के ज्ञान ने के. दर्शन, ले० नथी. एओर्नु अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा मनयोगी, २ तेथी वचनयोगी असंख्या०, ३ तेथी अयोगी अनंतगुणा, ४ तेथी काययोगी अनंतगुणा, ५ | तेथी सयोगी विशेषाधिक. ॥ ६ वेदद्वार--सवेदीमा जीव० १४, गु०९पहेला, योग १५, उप० १० के. ज्ञान ने के० दर्शन नहिं, ले०६ ॥ स्त्रीवेदी ने पुरुषवेदीमां जीव०२ संज्ञीपं०ना अप० ने पर्याप्त. गु०९ प्रथमना योग स्त्रीवेदमा १३ आहारकना बे नहिं अने पुरुषवेदमा १५, उप०१०, ले०६॥ नपुंसकवेदमां जीव० १४, गु०९, योग १५, उप० १० ले०६॥ अवेदीमा जीव० १ संज्ञीपं नो पर्याप्त, गु० ६ नवमाथी चौदमा सुधी, योग ११ ते मनना,४ वचनना,४ उदा ना २ ने १ कार्मण,उप०९ पांच ज्ञान ने चार दर्शन, ले० १ शुक्ल.एओर्नु अल्पबह| त्व-१ सर्वथी थोडा पुरुषवेदी,२ तेथी स्त्रीवेदी संख्यातगुणा,३ तेथी अवेदी अनंतगुणा,४ तेथी नपुंसकवेदी अनंत, , नवमा गुणठाणानो संख्यातमो भाग बाकी रहे त्यारे भवेदी थाय हे. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥७३॥ विचार ॥७३॥ ५ तेथी सवेदी विशेषाधिक. कषायद्वारः - सकषायीमां जीव० १४, गु०१० प्रथम, योग १५. उप० १० के० ज्ञा०ने के० द० नहिं, ले० ६. || क्रोध, मान ने माया कषायीमां जीव० १४, गु० नव अने लोभकषायमां गु० १० ५ बासठबोलशेष योग वगेरे सकपायीवत् ॥ अकषायीमां जीव० १ सं० पं०नो पर्याप्त, गु० ४ इग्यारमांधी १४मा सुधी, योग ११ ते ४ मनना, ४ वचनना, २ उदा०ना ने १ कार्मण०, उप०९ पांच ज्ञान ने ४ दर्शन, ले०१ शुक्ल. एओनं अल्पबहुत्व- १ सर्वथी थोडा अकषायी, २ तेथी मान कषायी अनंतगुणा, ३ तेथी क्रोध० विशेषाधिक, ४ तेथी माया० विशे०, ५ तेथी लोभ० विशे०, ६ तेथी सकषायी विशेषाधिक. ८ लेश्याद्वार- सलेशीमां जीव०१४, गु० १३, योग १५, उप० १२. ले०६ ॥ कृष्ण, नील ने कापोतलेशीमां जीवना०१४, गु०६ प्रथम, योग १५, उप०१० के० ज्ञा० ने के० ६० नहिं, ले० पोतपोतानी, तेजोलेशीमां जीव० ३ ते बादर एकै०नो अपर्याप्त अने संज्ञीना बे, गु०७ पहेला, योग १५, उप०१० के०ज्ञा० ने के०६० नहि, ले०१ तेजोले०, पद्मलेशीमां जीव०२ संज्ञीना अप० ने प०, गु०७ पहेला, योग १५, उप०१० ३०१ पद्म । शुक्ल लेशीमां जीव०२ संजीना, गु०१३, योग १५, उप०१२. ले०१ शुक्ल. अलेशीमां जीवनो०१ संज्ञीपं०नो पर्याप्त, गु०१ चौदमुं योग नथी, उप०२ के०ज्ञा० ने केन्द्र०, ले० नथी.एओनुं अल्पबहुत्व- १ सर्वथी थोडा शुक्ललेशी. २ तेथी पद्मलेशी संख्यातगुणा, ३ तेथी तेजोलेशी संख्या०, ४ तेथी अलेशी अनंतगुणा, ५ तेथी कापोतलेशी अनंत० ६ तेथी नीललेशी विशेषाधिक, ७ तेथी कृष्णदेशी विशेषा०, ८ तेथी सलेशी विशेषाधिक ॥। ९ सम्यक्त्वद्वारः - समुच्चय सम्यकदृष्टिमां जीव० ६ बेइंद्रिय, तेई०. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य बासठबोल विचार ॥७४॥ ७४॥ उप० चउ०, असं० पंचें ए ४ ना अपर्याप्त अने सं० पं० ना अपने पर्याप्त, गु० १२ पहेलु ने बीजु नहिं, योग १५, उप०९ ते ५ ज्ञान ने ४ दर्शन, ले०६॥ सास्वादन सम्यकदृष्टिमां जीव ६ पूर्ववत् , गु०१ बीजं, योग १३ आहारकना २ नहिं, उप. ६ ज्ञान ३ दर्शन ३, ले०६॥ उपशमसन्मां जीव० २ संज्ञीना, गु०८ ते चोथाथी इग्यारमा सुधी, योग १३ आहारकना २ नहिं, उप० ७ ज्ञान ४ ३ ३ दर्शन, लेश्या ६ ॥ क्षयोपशम तथा वेदक समां जीव. २ संज्ञीना, गु०४ ते चोथाथी सातमा सुधी, योग १५, उप०७ ते ४ ज्ञान में ३ दर्शन, ले०६॥ क्षायक समां जीव०२ संज्ञीना, गु०११ ते चोथाथी चौदमा सुधी, योग १५, उप०९त्रण अज्ञान नहिं, ले०६॥ मिथ्यादृष्टिमां जीव० १४, गु० १ पहेल, योग १३ आहारकना २ नहि, उप०६ ते ३ अज्ञान ने ३ दर्शन, ले० ६ ॥ मिश्र दृष्टिमां जीवनो० १ संज्ञी पंनो पर्याप्त, गु०१ त्रीजु, योग १० ते ४ मनना, ४ वचनना, | १ उदारिक ने १ वैक्रेय. उप०६ अज्ञान ३ ने ३ दर्शन, ले०६ ॥ एओनुं अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा सास्वा|दनसमकिती, २ तेथी उपशमसम संख्यातगुणा, ३ तेथी मिश्र दृ० संख्या०, ४ तेथी क्षयोपशमसम० असंख्या०,५ तेथी क्षायक सम० अनंतगुणा, ६ तेथी समुच्चयसम विशेषाधिक,७ तेथी मिथ्यादृष्टि अनंतगुणा ॥ १. ज्ञानद्वार-समुच्चयज्ञानीमां जीव०६ ते त्रण विकलेंद्रिय, असंज्ञी पं० ए चारना अप० ने संज्ञी पं० अप० वेदक समकितनो काल एक समय छे, वेदकसमकिती जीव संख्याता होय अने क्यारे न पण होय तेथी वेदकने क्षयोपशमा गणीने | जूदो अल्पबहुत्व कहेल नथी. PROAAAAAAACA6AAAAASHICH याप्त, गुरकना २ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासठबोलविचार ॥७॥ ने पर्याप्ता, गु०१२पहेल ने बीजं नहिं, योग १५, उप० ९ अज्ञान ३ नाहिं, ले०६॥ मति श्रुतज्ञानीमा जीव. सिद्धांत ६ पूर्ववत् , गु०१०,ते पहेलं-त्रीजु-तेरभु ने चौदमुं नहिं, योग १५, उप०७ ते ४ ज्ञान ने ३ दर्शन, ले०६॥ रहस्य अवधिज्ञानीमां जीव.२ संज्ञीना, गु० १० योग १५, उप० ७, ले०६॥ मनःपर्यायज्ञानीमां जीव० १ संज्ञी॥७॥ | पं०नो पर्याप्त, गु०७ छठाथी बारमा सुधी, योग १४ कार्मण नहिं. उप० ७, ले० ६॥ केवलज्ञानीमां जीव० १ संज्ञीपं नो पर्याप्त, गु० २ उपरला, योग ७, उप० २, ले०१ परमशुक्ल ॥ अज्ञानीमां जीव० १४, गु० २ पहेलं ने त्रीजु, योग १३ आहारकना बे नहिं, उप० छ ३ अज्ञाने ३ दर्शन, ले०६॥मति-श्रुतअज्ञानीमां जीव० १४ गु० २ पूर्ववत् , योग १३, उप०६, ले०६॥ विभंगज्ञानीमां जीव० २ संज्ञीना, गु० २, योग १३, उप० ६, ले० द६. एओनुं अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा मनःपर्यायज्ञानी, २ तेथी अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा, ३ तेथी मति श्रतज्ञानी विशेषाधिकने मांहोंमांहे तुल्य०४ तेथी विभं असंख्या०,५ तेथी केवल. अनंतगुणा, ६ तेथी समुचयज्ञानी विशेषा०, ७ तेथी मति-श्रुतअज्ञानी. अनंतगु० ने माहोमांहे तुल्य, ८ तेथी अज्ञानी विषाधिक ॥ ११ दर्शनद्वार-चक्षुदर्शनीमा जीव० ६ ते चरिंद्रिय, असंज्ञीपं० ने संज्ञीपं०ना अपने पर्याप्त, गु० १२ उपरना बे नहिं, योग १४ कार्मण. नहिं, उप०१० के० ज्ञा० ने के. द. नहिं, ले०६॥ अचक्षुदर्शनीमां जीव० १४, गु० १२, योग १५, उप० १०, ले०६॥ अवधि दनां जीव०२ संज्ञीना बे, गु० १२ योग १५, उप० १०, ले० १ चउरिद्रियादि प्रणना अपर्याप्तानी गवेषणा न करवाथी प्रण भेद पण कहेल छे. CACASS54315-%EX Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥७६॥ SHAXHAHAHAHAHA ६ ॥ केवलहमा जीव०१ संज्ञी पं०नो पर्याप्त, गु०२ उपरला, योग ७, उप० २, ले०१ परमशुक्ल. एओर्नु अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा अवधिद०, २ तेथी चक्षुद० असंख्या ३ तेथी केवलद. अनंतगुणा, ४ तेथी अचक्षुद. 18 बासठबोलअनंतः॥१२ संयतद्वार-संयतमां जीव०१ संज्ञीपं नो पर्याप्त, गु०९ छट्ठाधी चौदमा सुधी, योग १५, उप. विचार ९ अज्ञान ३ नहिं, ले० ६. सामायिक-छेदोपस्थापनीय संयतमां जीव०१ संज्ञीपं नो पर्याप्त, गु० ४ छहाथी ७६॥ नवमा सुधी, योग १४ कार्मण नहिं, उप०७ चारज्ञानने त्रण दर्शन, ले०६॥ परिहार विशुद्ध सं०मां जीव०१|| गु० २ छ8 ने सातमु, योग ९ ते ४ मनना, ४ बचनना ने १ उदानो, उप०७ ले० ३ उपरली सूक्ष्मसंपराय सं०मां जीव० १, गु०१ दशमुं, योग ९, उप० ७, ले०१ शुक्ल ॥ यथाख्यातसं मां जीव. १, गु० ४ उपरला, योग ११ ते ४ मनना ४ वचनना २ उदारिकना ने १ कार्मण, उप०९ अज्ञान ३ नहिं, ले०१ शुक्ल ॥ संयता संयतमा जीव०१ संज्ञी पं०नो पर्याप्त, गु०१ पांचमुं, योग १२ आहारकना बे ने १ कार्मण. नहिं, उप० छ ३ | ज्ञान ३ दर्शन, ले.६॥ असंयतमांजी. १४, गु०४ पहेला, योग १३ आहारकना बे नहिं, उप०९ ते ३ ज्ञान |३ अज्ञान ने ३ दर्शन, ले० ६नो संयत नो असं० नो संयतासंयतमा उप० २ के. ज्ञाने के दृ० शेष भेद नथी. एओनुं अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा सूक्ष्मसंपरायसं०.२ तेथी परिहार वि० सं० संख्यात०, ३ तेथी यथा| ख्यातसं० संख्या०,४ तेथी छेदोप० सं० संख्या०,५ तेथी सामायिक सं० संख्या०, ६ तेथी संयत विशेषा०, ७ तेथी संयतासंयत असंख्या०, ८ तेथी नो संय० नो असंय० नो संयतासंयत अनंतगुणा.९ तेथी असंयत *% % % Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य 116991 १७ अनंतगुणा. १३ उपयोगद्वार - साकेरोपयोगीमां जीव० १४, गु० १४, योग १५ उप० १२, ले० ६ ॥ अनाकारोपयोगीमां जीव० १४, गु० १३ दशमुं नहिं, योग १५, उप० १२, ले० ६. एनो अल्पबहुत्व - १ सर्वथी थोडा अनाकारोपयोगी, २ तेथी साकारोपयोगी संख्यातगुणा. १४ आहारकद्वार—आहारकमां जीव० १४, गु० १३ छेलो नहिं, योग १५, उप० १२, ले० ६. अणाहारकमां जीव० ८ ते सूक्ष्म एकेंद्रियादि सातना अपर्या० ने एक संज्ञीपं०नो पर्याप्त, गु० ५ पहेलुं, बीजं, चोथुं, तेरमुं ने चौदमुं योग १ कार्मण०, उप० १० मनःपर्यायज्ञान ने चक्षु दर्शन ए वे नहिं, ले० ६. एनुं अल्पबहुत्व- १ सर्वथी थोडा अनाहारिक, २ तेथी आहारिक असंख्यातगुणा. १५ भाषकद्वार - भाषकमां जीव० ५ बेइंद्रिय, तेई० चउ० ने असंज्ञी पं०, ने संज्ञीपं०ना पर्याप्ता, गु० १३ छेल्लो नहिं, योग १४ कार्मण नहिं, उप० १२, ले० ६. अभाषकमां जीव० १० त्रण विकलेंद्रिय अने असंज्ञीपं० ए चारना पर्याप्ता वर्जवा. गु० ५ पहेलु, बीजं, चोथुं, तेरमुं ने चौदमुं योग ५ उदा०ना २ वै०ना २ अने १ कार्मण०, उपयोग १० मनःपर्यायज्ञान ने चक्षुदर्शन ए वे नहिं, ले० ६ एनं अल्पबहुत्व -१ सर्व थोडा भापक, २ तेथी अभाषक अनंतगुणा. १६ परित्तद्वार - परित्तसंसारीमां जीव० १४, गु० १४, योग १५, उप० १२, ले० ६ ॥ १ साकारोपयोग ने अनाकारोपयोग बन्ने साधे न होय " जुगवं दो नरिथ उबओगा " इति वचनात् खरीरीने तो साकारोपयोगीमां ८ उप० ने अनाकारोपयोगीमां ४ उप० होइ शके. साका० ने अना०मां १२ उप० कट्टेल हे ते विचारणीय है. २ अभाषकमां चक्षु द० गणता ११ उप० होइ शके, कोइक आचायों इंद्रिय पर्याप्लिए पर्याप्त ने चक्षुद० मानेल छे. बासठवोलविचार ॥७९॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य वासठबोल विचार ॥८ ॥ ७८ RECRACKERAKSHA अपरित्त सं० मां जीव १४, गु०१ पहेलं, योग १३ आहारकना बे नहिं, उप० ६ अज्ञान ३ ने दर्शन, ले० ६.नो परित्त नो अपरित्तमां उप०२ के. ज्ञा० ने के० द०, शेष भेद नथी. एनुं अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा परित्तसं०, २ तेथी नो प० नो णप. अनंतगुणा, ३ तेथी अपरित्तसं० अनंतगुणा ॥ १७ पर्याप्तडार-पर्याप्तामां जीव. ७, गु० १४, योग १५, उप० १२, ले०६, अपर्याप्तामां जीव०७, गु० ३ पहेलं, बीजं ने चोथु, योग ५ उदाना २ वैक्रना बे ने कार्मण उप० ९ ते ३ ज्ञान, ३ अज्ञान ने ३ दर्शन. ले०६॥ नो पर्याप्त नो अपर्याप्तमां उप०२ के. ज्ञाने के० द०, शेष भेद नथी. एनुं अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा नो पर्या० नो अपर्या०, २ तेथी अपप्ति अनंतगुणा, ३ तेथी पर्याप्त संख्यातगुणा. ॥ १८ सूक्ष्मद्वार-सूक्ष्ममा जीव०२ भेद सूक्ष्म एकेंना अप० ने पर्याप्त, गु०१ पहेलं, योग ३ उदा० ना बे१ कार्मण, उप०३ बे अज्ञान ने एक अचक्षुदर्शन, ले० ३ पहेली. बादरमा जीव० १२ सूक्ष्मना २ वर्जवा, गु० १४, योग १५, उप० १२, ले० ६॥ नो सूक्ष्म नो बादरमा उप०२ के. ज्ञाने के.द०, शेष भेद नथी. एनुं अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा नो सू० नो बा०,२ तेथी बादर अनंतगुणा, ३ तेथी सूक्ष्म असंख्यातगुणा ॥ १९ संज्ञीद्वार-संज्ञीमां जीव. २ संज्ञीना अपने पर्याप्त, गु० १२ परित्तसं• जीवो पांचमे अनंते छे अने नो प. ने नो ने अप• [सिद्ध ना जीवो पण पांचमे अनंते छे; परंतु 'अनंत ना अनेक भेद होवाथी परित्तसं• जीव अनंत होवा छतां पण नो ५० नो अप• अनंतगुणा घटी शके छे. परित्तभर्द्धपुद्गल संसार बाकी जेनो रह्यो होय ते, अथवा प्रत्येक शरीरी. २ तेरमे चौदमे गु० यद्यपि संज्ञी पर्याप्त छ तथापि 'संशी' विशेषण, भाव मन भाश्रयी छे,केवलीने अन्य मन होय छेते Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत || MUSIMMUNE वा पहेला, योग १५, उप० १० के० ज्ञा० ने के. द. नहिं, ले० ६. असंहीमा जीव०१२ संज्ञीना बे नहि, गु० २| पहेला, योग : उदाना २ वैकेना २ कार्मणका ने व्यवहारवचन, उप.६ वे ज्ञान के अज्ञान ने बे दर्शन, ले० बासठबोल४ पहेली ॥ नो संज्ञी नो असंज्ञीमा जीव० १ संज्ञीपंनो पर्याप्त, गु०२ तेरमुं ने चौदमुं, योग ७ उप० २ के. विचार | ज्ञा० ने के० द०, ले. १ शुक्ल. एजें अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा संज्ञी, २ तेथी नो सं० नो असं• अनंतगुणा, ३ ॥७७॥ तेथी असंज्ञी अनंतगुणा ॥२. भव्यद्वार-भव्यमां जीव० १४, गु० १४, योग १५, उप०१२, ले०६ ॥ अभव्यमां जीव०१४, गु०१ पहेलं. योग १३ आहारकना बे नाहिं, उप०६त्रण अज्ञान ३ दर्शन, ले०६॥ नो भव्य नो अभव्यमा उप० २ के.ज्ञा ने के० द०, शेष भेद नथी. एy अल्पबहत्व-१ सर्वथी थोडा अभव्य, २ तेथी नो भ० नो अभ० अनंतगुणा. ३ तेथी भव्य अनंतगुणा ॥ २१ चरिमद्वार-चरिममा जीव. १४, गु० १४, योग १५, उप० १२, ले० ६. अचरिममां जीव० १४, गु०१ पहेलं. योग १३ आहारकना चे नहिं, उप०८ ते १-केव लज्ञान, ३ अज्ञान ने ४ दर्शन. ले. ६. एर्नु अल्पबहुत्व-१ सर्वथी थोडा अचरिम, २ तेथी चरिम अनंतगुणा ॥18 २१ द्वार समाप्त. योग जन्य छे. भाव मन, बायोपश मिक छे, तेथी केवलीने भाव मन न होय. चोथे अनंते छे, २ पांचमे अनंते छे. ३ आठमे अनंते छे. जेनो छेल्लो भव होय ते. ५ अभव्य, तथा सिद्ध, अचरममा सिद्धने गणवार्नु कारण सिद्धनो हवे छेल्लो भव थवानो नथी केमके सिद्ध ने भव छेज नहि. ए न्याये सिद्ध पण अचरिम कहेवाय, अभव्यने अचरिम पटले जेनो छेल्लो भव थवानो नथी. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥७८॥ 60 ० हवे क्षेपकद्वार कहे छे:- वाटे बहता जीवमां जीव० ७ ते सूक्ष्म एकेंद्रियादिक सातना अपर्याप्ता. गु० ३ पहेलुं. धीजुं ने श्रीजुं, योग १ कार्मण०नो, उप० ८ ते ३ ज्ञान ३ अज्ञान, अचक्षुद० ने अवधिद० ए बे दर्शन, ० ६ ॥ युगलियामां जीव० २ संझीना, गु० ४ पहेलुं, बीजं, त्रीजुं ने चोथुं, योग ११ ते चार मनना ४ बचनना, २ उदा०ना, १ कार्मण०, उप० ६ ये ज्ञान, वे अज्ञान ने वे दर्शन, ले० ४ पहेली | असंज्ञी तिर्यंच पंचें०मां जीव० २, गु० २, योग ४ ते वैक्रेयना २ कार्मण० ने व्यवहार वचन, उप०, ६ वे ज्ञा० ये अज्ञा० ने बे द०, ३ पहेली || समुच्छिम मनुष्यमां जीवनो० १ असंज्ञीपं नो अपर्याप्त, गु० १ पहेलुं, योग ३ उदा०ना २ ने १ कार्मण०, उप० ३ बे अज्ञान ने एक अचक्षुद०, ले० ३ एनुं अल्पबहुत्व - १ सर्वथी थोडा युगलिया, २ तेथी समू० मनुष्य असंख्यात० ३ तेथी असंज्ञी पंचे० तिर्यंच असंख्यातगुणा. उदारिकशरीरमां जीव० १४, गु० १४, योग १५, उप० १२, ले० ६ ॥ बैक्रेय श०म० जीव० ४ ते २ संज्ञीना, १ असंज्ञीतिर्यंच पंचेन्नो अपर्याप्त ने १ वायुकान्नो पर्याप्त, गु० ७ पहेला, योग १२ ते २ आहारकना १ कार्मण० नहि, उप० १० के० ज्ञा० ने के० द० नहिं, ले०६ ॥ आहारक श०मां जीव० १ सं० पं० नो पर्याप्त, गु० २ छड्डुं ने सातमुं, योग १२, २ - यना ने १ कार्मण० नहिं. तेजस ने कार्मण श०मां जीव० १४, गु०१४, योग १५, उप०१२, ले०६. अल्पबहुत्व १ प्रथमनी छपायेली प्रतमां 'शरीरी' शब्द के परंतु ते प्रमाणे अल्पबहुत्व घटीशकतुं नथी. कारण ? शरीर असंख्यात छे अने शरीरी [शरीरवाला जीवो] अनंत छे. निगोदमां अनंत जीवोनुं शरीर [ उदारिक ] एकज होय छे भने तैजस ने कार्मण शरीर, दरेक जीवना भिन्न होय छे. बासठबोलविचार ॥७८॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥८१॥ १ सर्वथी थोडा आहारकशरीर, २ तेथी वैक्रेय श० असंख्यात०, ३ तेथी उदारिक श० असंख्या०, ४ तेथी तैजस - कार्मण श० अनंतगुणा ने परस्पर तुल्य इति बासठियो समाप्त. छ आरानो विचार - दश कोडाकोडी सागरोपमना छ आरा जाणवा. तेर्मा पहेलो आरो चार कोडाकोडी | सागरनो सुषम सुपम नामे अत्यंत सुखमय जाणवो. ए आराने विषे ३ गाउनुं देहमान अने ३ पल्यनुं आयुष्य. २५६ पांसली होय, धरतीनी सरसाइ शाकर सरखी जाणवी. अट्टम भक्ते आहारनी इच्छा उपजेतुवर प्रमाणे आहार करे. उतरते आरे २ गाउनुं देहमान ने २ पत्यनुं आयुष्य १२८ पांसली होय. धरतीनी सरसाइ खांड सरखी जाणवी. वज्रऋषभनाराच संघयण, समचउरंस संठाण अने स्त्रीपुरुषमां रूप-सौभाग्य घणुं होय. दश प्रकारना कल्पवृक्ष, मनोवंच्छित सुख आपे छे. ते कहे छे:- तेसिं मतंग भिंगा, तुडियंगा जोड़ दीव चित्तंगा; चित्तरसा मणिगंगा, गेहागारा अणियंगा य ॥ १ ॥ पाणं भायण पिच्छण, रविपह दीवपह कुसुम माहारो; भूषण गिह वत्थासण, कप्पदुम्मा दशविहादिति ॥ २ ॥ आ बे गाथामां १० कल्पवृक्षना नाम अने तेथी मळती सुख आपनारी वस्तुना नाम कहे छे:- तेसिं कहेतां ते युगलियाओने मतंग के० मतांग ना पवणामां पण शरीरनुं अल्पबहुत्व कहेल हे शरीरीनुं कहेल नथी. १ आहारक शरीरनो विरह ज० १ समयनो ने उ० छ मासनो पक्षवणा-वृत्तिमां कहेल छे. आहारक शरीर ज० १-२-३ अने उ० पृथकूत्व सहस्र होय छे. २ ए वे आर्या छंद छे, ते 'क्षेत्र समास' ग्रन्थमां छे. ३ 'अणिय यरका' पण पाठ जोवामां आवेल छे पण ते पाठ योग्य संभवतो नथी. छआरानो विचार ॥८१॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छारानो विचार ॥८२॥ कल्पवृक्ष, पाणं कहेतां द्राक्ष, खारक वगेरेना मधुरस जेवा मीठा रस आपे. २ भिंगा क. भृतांग नामे कल्प०, सिद्धांत भायण क० कंचन के रत्नमय थाळी वाटका बगेरे आपे. ३ तुडियंगा क. टितांगे कल्प०, पिच्छाण क०४९ रहस्य जातिना वाजिंत्र आपे-बत्रीस बद्ध नाटक देखाडे. ४ जोइ क० ज्योतिरंग कल्प०, रविपह क० रात्रिने विष ॥८२॥ ४ पण सूर्यनी जेम प्रकाश आपे. ५ दीव क. दीपांग कल्प०, दीवपह क. घरने विषे तेजस्वी दीपको करे. ६ चित्तंगा क. चित्रांग कल्प०, कुसुमं के० पंचवर्णना विविध जातिना सुगंधि फूलो आपे. ७ चित्तरसा क. चित्ररस कल्प०, आहारो का विविध प्रकारना मनोहर भोजन आपे०८ मणियंगा क. मणितांग कल्प०, भूसण क. भूषण-मुगट, कुंडल वगेरे अलंकारो आपे. ९ गेहागारा क. गृहकार कल्प०, गिह क० सूवा-बेसवाना आसनो सहित ऋण भूमिया, पांच भूमिया, सात भूमिया बगेरे आवासो आपे.१० अणियंगा क० अनि तांग कल्प०, वत्था क. रत्नजडाव देवदुष्य वगेरे सुंदर वस्त्रो आपे. ए दश प्रकारना कल्प वृक्षो क्षेत्रस्वभावधी ४. मनोवंच्छित दश प्रकारना सुख आपे. छेवट ज्यारे छ मासनु आयुष्य बाकी रहे त्यारे परभवतुं आयुष्य बांधे दापछी युगलिणी, एक जोडलं प्रसवे अने तेनी प्रतिपालना ४९ दिवस करे. युगल ने युगलिणीनो वियोग क्षणमात्रनो न होय. छेवटे छींक के बगासुं आवे, सुखे मृत्यु पामे; मरीने देवगतिमां जाय. ए आराने विषे वैर । १ तुांग पण नाम छे परंतु जंबूद्वीप पन्नतीनी टीकमा 'त्रुटितांग' नाम कहेल छे. २ युगलियाना शरीरनु 'निहरण' देव करे एतुं जबूद्वीप पन्नतीमां कहेल नथी टीकामां कथं छे पक्षिओ समुद्रमा फेंके. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥८३॥ विरोध के इर्ष्या वगेरे न होय सरल स्वभाव ने अल्पकषायवाळा जीवो होय. हवे पहेलो आरो उतरीने बीजो आरो बेटो त्यारे वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शना पर्यव अनंत हीन थया. ए आरो ऋण कोडाकोडी सागरोपमनो सुषम नामे एक सुग्व जाणवु. ए आराने विषे वे गाउनुं देहमान अने वे पत्यनुं आयुष्य होय. १२८ पांगली होय, भक्ते आहारनी इच्छा उपजे; बोर प्रमाणे आहार करे. धरतीनी सरसाइ खांड सरखी होय अने उतरते आरे एक गाउनुं देना अने एक पल्यनुं आयुष्य होय. ६४ पांसली होय. संघपण वज्रऋषभना०, संठाण समुचउरंस होय. दश प्रकारना कल्पवृक्ष मनोवंच्छित सुख आपे छ मास आयुष्य बाकी रहे त्यारे परभवतुं आयुष्य बांधे. पछी युगलिनी एक जोडलं प्रसवे. ६४ दिवस प्रतिपालना करे. छेवटे मरीने देव थाय. शेष पूर्ववत्. हवे बीजो आरो उतरीने बीजो बेटो. त्यारे वर्णादिकना पर्यव अनंत हीन थया. ए आरो वे कोडाकोडी सागरोपमनो जाणो.ए आरो सुषभ दुपम नामे जाणवो, एमां सुख घणुं ने दुःख थोडं. ए आराने विषे एक गाउनुं देहमान ने एक पल्यनुं आयुष्य होय. ३४ पांसली होय, धरतीनी नरमाइ, गोळ मरची जाणवी. चोथ भक्ते आहारनी इच्छा उपजे, आमला प्रमाणे आहार करें, वज्रक० मं० ने समच० संठा० होय. दशप्रकारना कल्पवृक्ष मनोच्छित सुख आपे छ माम आयुष्य बाकी रहे त्यारे परभवनुं आयुष्य बांधे पछी युगलिणी एक जोडलं प्रसवे, तेथी ७९ दिवसनी प्रतिपालना करे. मरीने देव थाय. उतरते आरे पांचसो धनुष्यनुं देहमान ने क्रोड पूर्वनुं आयुष्य होय. ३२ पांसली, छ संघयण ने छ संठाण होय. पांचे गतिमां जाय. ए आरानो छआरानो विचार ॥८३॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छआरानो विचार ॥८४॥ हापल्योपमनो आठमो भाग बाकी रहे त्यारे कल्पवृक्षनी मंदता थाय. कुलगरोनी उत्पत्ति थाय अने दंडनीति सिद्धांत शरु थाय. छेवटे ८४ लाख पूर्व, त्रण वर्ष ने साडाआठ मास बाकी रह्या त्यारे सर्वार्थ सिद्ध महा विमानथी रहस्य चवी ३३ सागरनुं आयुष्य भोगवीने विनिता नगरीमा नाभिकुलकर पिता, मरुदेवी मातानी कुक्षीने विषे ॥८४॥ ऋषभदेव भगवान् उपना. सवानव मासे जन्म्या, प्रथम स्वप्ने ऋषभ (वृषभ) जोयो तेथी ऋषभनाम दीg, ऋषभदेव भगवाने युगल-धर्म निवारीने असि, मषी ने कृषि वगेरे ७२ कला अनुकंपा निमित्ते (मानव-हित माटे) लोकोने सीखवी. २० लाख पूर्व सुधी कुमारपदे रह्या. ६३ लाख पूर्व लगें राज्य भोगव्यु. पछी भरतने विनितानु राज्य अने बीजा पुत्रोने अन्यदेशोनुं राज्य आपी चारहजार पुरुष साथे संयम लीधो. एकलाख पूर्वलगे संयम पाल्यो एकहजार वर्ष छद्मस्थपणे रह्या. बाकीनो काल केवलपणे विचरी, अंतिम समये अष्टापद पर्वत उपरे पद्मासने बेसी; दश हजार साधु साथे प्रभुनिर्वाण पाम्या. हवे प्रभुना पांच कल्याणक कहे छे :उत्तराषाढा नक्षत्रमा सर्वार्थसिद्ध महाविमानथी. चव्या, ए प्रथम कल्याणक. उत्त० नक्षत्रमा जन्म्या, ए बीजें खरी रीते 'इक्ष्वाकु भूमि' नाम जोइए, कारण ? 'विनिता'नी स्थापना तो इन्द्रे ऋषभदेवप्रभु माटे करेल छे. जन्मवखते विनिता नगरीनी स्थापनाज थयेल नहिं. शास्त्रोमा 'इक्ष्वाकु भूमि' नाम जोवाय छे, २ दशहजार साधु साथे एक नक्षत्रमा सिद्ध थया, बाकी एक समये १०८ सिद्ध थयेल छे. ३ कल्याणक पांचज कहेवाय, 'राज्याभिषेक' कल्याणक कहेवा नहिं 'जंबदीप पसती'मा नक्षवनी समानता ए राज्याभिषेकनं वर्णन कर्य हे त्यां 'कल्याणिक' शब्द कहेल नथी. कल्याणक-प्रसंगे जीवोने शांति, देवोन आगमन अने महोत्सव थाय ते कल्याणिक कहेवाय. Pro%ASAR F454545454545454 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत ॥८५॥ जन्मक. (उत्तराषाढामां राज्य बेठा) उत्त० नक्षत्रमा संयम लीधो, ए त्रीजु क०, उत्त० नक्षत्रमा केवलज्ञान पाम्या, ए चोधुं क०, अभिजीत न०मां मोक्षे गया, ए पांचमुं कल्याणक०, हवे त्रीजो आरो उतरीने चोथो छआरानो आरो बेठो, त्यारे वर्णादिकना अनंत पर्यवहीन थया. ए आरानो काल एक कोडाकोडी सागरो० मा ४२ विचार हजार वर्ष ओछो जाणवो. ए आरो दुषम सुषम नामे छे, दुःख घणु ने सुख थोडं होय. ए आराने विषे|| ॥८५॥ पांचसो धनुष्यनु देहमान ने क्रोड पूर्वन आयुष्य. उतरते आरे सात हाथर्नु देहमान ने सो वर्ष झाझे आयुष्य जाणवू. ए आरे ३२ पासली होय, उतरतां १६ पांसली. ए आरे आहारनी इच्छा दररोज उपजे, त्यारे पुरुषो | माटे ३२ कवल अने खी माटे २८ केवल धरतीनी सरसाइ, घणी सारी जाणवी. उतरते आरे थोडी सारी. ए आराने विषे संघयण छ संठाण छ होय. ए आराना छेवटे ७५ वर्षने ८॥ माम बाकी रह्या. त्यारे दशमा प्राणत देवलोकथी चवी बीश सागरोपमर्नु आयुप्य भोगवीने माहणकुंड ग्रामने विषे ऋषभदत्त ब्राह्मणने घरे देवानंदाजीनी कुंखे महावीरस्वामी उपना. त्यां प्रभु ८२ रात्रि रह्या, ८३मी रात्रिना अंतराले शकेंद्रनुं आसन कंप्यु:131 त्यारे उपयोग मूकीने जोयुं तो प्रभुने भिक्खागकुलेउपना दीठा. ए अच्छेरूं थयं, अनंतकाले एवा अच्छेरा थाय एम जाण्यु, पछी हरण गमेषी देवने आज्ञा करी; तमे श्रीमहावीरस्वामीने देवानंदाजीनागर्भमांधी संहरण करीने क्षत्रियकुंड ग्रामने विष सिद्धार्थ राजाने घेर, त्रिशला देवीनी कुंखे संक्रमावो अने त्रिशलादेवीनी कुंवमां पुत्री , नपुंसक माटे २४ कवल. आ णे माटे जे संख्या कवळनी कहेल छे ते प्रायिक छे. सामान्य नियम छे परंतु सिद्धांत नथी. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥८६॥ पणे जे गर्भ छे तेने देवानंदाजीनी कुंखे संक्रमावो. त्यारे हरणगमेषी देव 'तहत्त' प्रमाण करी आनंदथी शिघ्र त्यां आवी प्रभुने वंदन नमस्कार करीने क' के: - "हे स्वामिन्! रुडं जाणजो हुं आपनो संहरणकरूं छु;" एम कही देवानंदाजीमाताने अवस्वापिनी निद्रा आपी गर्भनुं संहरण करीने त्रिशलाजीनी कुंखमां संक्रमण कर्यु. त्यां प्रभु एकंदर सवानव मासे जन्स्या. त्रीश वर्ष घरमा रह्या, पछी एकाकीपणे संयम लीधो. साडाबार वर्ष ने एक पखवाडिया सुधी छमस्थ रही उग्र तप करी अने देव, मनुष्य ने तिर्यच कृत घोर परीषह - उपसर्ग ने सहन करीने प्रभु केवलज्ञान ने केवलदर्शन पाम्या कांइक न्यून ग्रीश वर्ष केवल पर्याय अने १२॥ वर्ष ने एक पक्ष छद्मस्थ संयम पर्याय एम ४२ वर्ष संगम पाली, ७२ वर्षनुं आयुष्य पूरण करीने चोथा आराना ३ वर्ष |८|| माम बाकी रह्या त्यारे कार्तिक वदि अमावास्या ( दीवाळी )नी रात्रिए स्वामी मोक्षे गया. ते प्रभुना छ कल्याणक थपा ते १ च्यवन क०, २ गर्भसंहरण क०, ३ जन्म क०, ४ दीक्षा क०, ५ केवलज्ञान क० ए पांच कल्या० ' उत्तराफाल्गुनी ' नक्षत्रमां थया अने 'स्वाति ' नक्षत्रमां निर्वाण पाम्या ए आराने विषे गति पांच होय. महावीरस्वामी मोक्ष गया ते रात्रिए गौतमस्वामीने केवलज्ञान उपनुं. ते १२ वर्ष केवलपर्याय पालीने निर्वाण पधार्या, त्यारे सुधर्मास्वामीने केवलज्ञान उपनुं. ते ८ वर्ष केवल पर्याय पालीने निर्वाण पाम्या. त्यारे १ महावीरप्रभुना छ कल्याणक विचारणीय छे. कल्याणक पांच योग्य छे. गर्भसंहरणमां मतभेद छे, प्राचीन प्रथोमां ए वस्तुने स्थान नथी मल्युं. श्री जिनवल्लभसूरीश्वरथी छ कल्याकनो प्रवाद ( कथन ) छे. छआरानो विचार ॥८६॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥८७॥ जंबूस्वामीने केवलज्ञान उपनुं ते ४४ वर्ष सुधी केवल पर्याय पालीने निर्वाण पाम्या, वीरप्रभु मोक्षे गया पछी ६४ वर्ष सुधी भरतक्षेमां केवल ज्ञान अने मोक्षगमन र चोथा आरानो जन्मेलो पांचमां आरामां मोक्षे जाय, पण पांचमां आरानो जन्मेलो मोक्षे न जाय. जंबूस्वामी मोक्ष गया पछी १० वस्तुओ (बोल) विच्छेद गइ. १ परम अवधिज्ञान, २ मनःपर्याय ज्ञान, ३ केवलज्ञान, ४ त्रण चारित्र ( परिहारवि०, सूक्ष्म सं० ने यथाख्या तचा० ), ५ पुलाक लब्धि, ६ आहारक शरीर, ७ जिनकल्पी साधु, ८ उपशम श्रेणि, ९ क्षपक श्रेणि अने १० मोक्षगमन. ए चोथो आरो उतरीने पांचमो आरो बेठो, त्यारे वर्णादिकना अनंत पर्याय हीन थया. ए आरो दुषभ नामे - एकलं दुःख जाणवु. ए आरो २१ हजार वर्षनो जाणवो. ए आराने विषे ७ हाथनुं देहमान अने एकसो वर्ष झाझे आयुष्य जाणवु अने उतरते आरे एक हाथनुं देहमान ने वीश वर्षनुं आयुष्य ए आराने विषे छ संघयण ने संठाण, उतरते आरे छेव ने हुंडर्स जाणवु. ए आराने विषे १६ पसली उतरते आरे ८ पांसली होय. दररोज आहारनी इच्छा उपजे; त्यारे शरीर प्रमाणे आहार करे. धरतीनी सरसाइ १ जंपूीपपन्नतीनी टीकामां १३० वर्षनुं आयुष्य कहेलुं छे. कोइक देश के मनुष्य आश्रयी विशेष आयुष्य होय ते पण संभावित है, आकाले वधारेमा वधारे ( २५० ) वर्षनुं आयुष्य संभवी शके छे. कारण ? श्री आर्यरक्षितसूरीश्वरे इंद्रनुं हाथ जोइ अडीसो वर्ष उपरांत आयुष्य जोयुं त्यारे तेन जायं के आ भरतक्षेत्रनो नथी. आ उपरथी उपरनी हकीकत संभवी शके छे. ' तचकेवलिगम्यं. ' २ स्थूलीभद्र पछी बज्रऋपभनाराचसं० विच्छेद गयुं अने आर्यरक्षित सूरिथी चोधुंसं० विच्छेद गयुं एम ग्रन्थान्तरमां लेख छे. त्यारे वर्तमानमां के संघयण जणाय . छआरानो विचार ॥८७॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य PERICART छरानो विचार ॥८८॥ I૮૮ कांइक सारी ते उतरते आरे कुंभारना नीभाडानी छार जेवी जाणवी. हवे पांचमा आराना लक्षण (भाव) कहे छः-१ मोटा नगरो ते गामडा सरखा थाशे, २ गामडा ते मसाण सरखा थाशे, ३ भलाकुलना संतानो दासदासी पणुं करसे. ४ प्रधान वगेरे लालचु थाशे, ५ राजा यमदंड सरखा थाशे, ६ भलाकुलनी स्त्रीओ लाज मर्यादारहित थाशे, ७ उत्तम कुलनी स्त्रीओ वेश्या समान थाशे, ८ पुत्रो पोताने छांदे चालशे, ९शिष्यो गुरुना अपवाद बोलशे, १० दुर्जन लोक सुखी थाशे, ११ सज्जनलोक दुःखी थासे, १२ दुर्भिक्ष-दुष्काल घणा पडशे, १३ उंदर, सर्प वगेरेनी दाढ घणी वधसे, १४ ब्राह्मणो अर्थना लोभी थासे, १५ हिंसा धर्मना प्ररूपक घणा थासे, १६ एक धर्मना घणा भेदो थाशे, १७ मिथ्यात्वी देवो घणा पूजासे, १८ मिथ्यात्वी लोक घणा थासे, १९ मनुष्योने देवदर्शन दुर्लभ थाशे, २० विद्याधरोनी विद्यानो प्रभाव ओछा थासे, २१ गोरस-द्ध, दहीं वगेरेमां सरसाइ घटशे, २२ बळद प्रमुखना बल ने आयुष्य अल्प थशे, २३ श्रावकनी ११ पडिमा अने साधुनी १२ पडिमा विच्छेद जासे, २४ साधु-साध्वीओने मास कल्प तथा चातुर्मास करवा योग्य क्षेत्रो थोडां रहेशे, २५ गुरु शिष्योने भणावशे नहिं, २६ शिष्य अविनीत-कलहकारी थाशे, २७ अधर्मि, झघडाकारी कुमाणसो घणा थाशे, २८ आचार्यों आप आपणा गच्छनी परंपरा-समाचारी जूदी जूदी प्रवर्तावसे, २९ मूढ जनने मोहित करी मिथ्यात्वपाशमां पाडशे, उत्सूत्र-भाषण करशे, स्वप्रशंसा अने परनिंदामां राचसे, ३० सरल-भद्रक ने प्रमाणिक माणसो थोडा थाशे, ३१ अन्याय, अधर्म अने कुव्यसनमा घणा राचशे, ३२ आर्यराजाओ अल्पऋद्धि AC+C+ %A Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हवाला थोडा थासे अने अनार्यराजाओ वह ऋद्धिवाळा घणा थासे, ए ३२ लक्षणो जाणवा. ए आराने विषे सिद्धांत- वटे सर्व धातुओ लगभग विच्छेद जासे, लोढानी धातु रहेशे, चामडानी महोरो चालशे, सवाशेर कांसु जेना छ आरानो रहस्य घरमा रहेशे ते धनवंत केहेवाशे, एक उपवाम पण मासखमण सरखो थाशे, ज्ञान तथा सूत्रो विच्छेद जासे, विचार ॥८९॥ 5 दशवकालिक सूत्रना ४ अध्ययन रहेशे. तेने आधारे ५ जीव एकावतारी थाशे, तेना नाम-१ दुप्पसह साधु,81८९॥ है|२ फल्गु श्री साध्वी, नागिल श्रावक ने ४ सत्य श्रीश्राविका. आषाढ सुदि १५ ने दिवसे शकेन्द्रनुं आसन कंपशे त्यारे उपयोग मूकीने जोश; तेथी जाणशे के आवती काले पांचमो आरो उतरीने छट्टो आरो बेसशे. त्यारे शकेंद्र त्यां आवीने ते चारेने कहेश के काले छट्टो आरो बेसो, माटे आलबी-पडिकमीने निःशल्य थाओ. ते मांभळीने चार जणा मर्य जीवोने ग्वमावीने-आलोचना करीने अनशन करशे, त्यारे संवर्तक वाय वासे. तेथी पर्वत, गढ, कुवा,-बाप ने मरोवर वगेरे सर्व विसराल थाशे. १ वैतान्यपर्वत, २ गंगा नदी, ३ सिंधु नदी, ४ ऋषभकट अने ५ लवणस०नी ग्वाडी. ए पांच सिवाय बाकीना सर्व स्थानो बेटी पढो. त्यारे ते ४ जीव समाधिभावे काल करीने स्वर्गमां जासे, एकावतारी थाश, स्यारे ४ बोलविच्छेद जाशे. पहेले पोरे जैनधर्म विच्छेद था. बीजे पोरे ३६३ पावडी-मिथ्या विओनो धर्म विच्छेद जासे, बीजे पोरें राजनीति विच्छेद जासे CALCedies- naamananews १ केटलाक लक्षण दर्तमानमा देखाय छे, केरलाक भविष्यमा धो. २ कोइक स्थले दशवकालिक रहेशे एम कहेल छे. कल्पद्रुमकलिकामा ५ अध्ययन पण कहेल छे. ३ दुप्पसहसूरिनु २० वर्षनुं आयुष्य अने वार वर्षे दीक्षा लीधेल छे. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥९०॥ अने चोथे पोरे बादर अग्निविच्छेद जाशे. ए आरे बेसतां गति पांच अने उतरतां गति चार जाणवी. हवे पांचमो आरो उत्तरीने छट्टो आरो बेससे त्यारे वर्णादिकना अनंत पर्याय हीन थशे. ए आरो २१ हजार वर्षनो जाणवो. एआरो पमपम नामे ते अत्यंत दुःखमां दुःख जाणवु. ए आरे १ हाथनुं देहमान ने २० वर्षनुं आयुष्य; उतरते आरे मूंडा हाथनुं देहमान अने १६ वर्षनुं आयुष्य थशे. ए आराने विषे १ छेवठु संघ० ने १ हुंड संठाण जाणवुं, ए आरे ८ पांसली अने उतरते आरे ४ पांसली जाणवी. ए आराने विषे छ वर्षनी स्त्रीओ गर्भ धारण करसे ते काळा, कुदर्शनीय, रोगी, रीसाल अने घणा केश ने नखवाला घणा बालको प्रसवशे; कृतरीनी परे परीवार भेळो फेरवशे. ए आराने विषे वैताढ्यना बे पडखे गंगा ने सिंधु नदीना तट ( कांठा) चार चार छे. ते एकेक तटमां नव नव बिल छे, एकंदर गणतां ७२ बिल थाय. तेमां बीजमात्र मनुष्यो अने तिर्यंचो रहेशे. गंगा-सिंधुनो ६२॥ योजननो पोहोट छे, तेमां गाडानी धुरीबूडे एटलं उंड पाणी रहेशे; तेमां | मच्छ वगेरे घणा थशे. ७२ बिलना मनुष्यो सांझे ने प्रभाते मच्छादिकने काढीने वेळुमां भारसे, सूर्य घणो तपशे अने दाढ घणी पडशे तेथी ते सीझवाइ जशे; तेनो आहार करशे. ते मच्छाविकना हाडका वगेरेने तिर्यंचो चाटीने रहेशे. माणसनी तुंबडीमां पाणी लावीने पीशे, वली ते निर्लज्ज, वस्त्र रहित, कठोर भाषी, पिता पुत्री स्त्री माता अने बहेन वगेरेना विवेक रहित मनुष्यो, तिर्यंचोना जेवा थाशे तथा नवकार रहित, समकित रहित अने व्रत - पञ्चक्खाण रहित जे जीव, हशे ते आ आरामां अवतरशे. आवी रीते दुःखमय एकवीश छआरानो विचार ॥९०॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥९१॥ हजार वर्ष प्रमाण ए आरो जाणवो. एवा छट्टा आराना भाव जाणीने जे जीवजीन धर्मनी आराधना करशे, ते जीव परमसुख पामशे. इति छ आरा समाप्त. १ सर्वथी थोडा गर्भज मनुष्य मनुष्यणी संख्यातगुणी ३ बादर तेउका० पर्याप्त असं० ४ अनुत्तर विमानना देव असं० ५ उपरना ३ ग्रैवेयकना देवो सं० ६ मध्यमत्रिकना देवो सं० ७ नीचलीत्रिकना देवो सं० ८ बारमा देवलोकना देवो सं० ९ इग्यारमां देव०ना देवो सं० १ महादंडकनो एक द्वार छे. अठा बोलनो अल्पबहुत्व -- १० दशमा देव०ना देव सं० १९ नवमा देव० देवो सं० १२ सातमी नरकना नारको असं० १३ छट्टी नरकना नारको असं० १४ आठमा देवना देवो असं० १५ सातमा देवना देवो असं० १६ पांचमी नरकना नारको असं० १७ छट्टा देव०ना देवो असं० १८ चोथी नरकना नारको असं० १९ पांचमा देव०ना देवो असं० २० त्रीजी नरकना नारको असं० २१ चोथा देव०ना देवो असं० २२ श्रीजा देव०ना देवो असं० २३ बीजी नरकना नारको असं० २४ समूच्छिम मनुष्यो असं० २५ बीजा देव०ना देवो असं० २६ बीजा देव०नी देवीओ सं० २७ पहेला देवना देवो सं० अठाणुबोलनोअल्प बहुत्व ॥९१॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥९२॥ २८ पहेला देव०नी देवीओ सं० २९ भवनपतिना देवो असं० ३० भवन०नी देवीओ सं० ३१ पहेली नरकना नारको असं० ३२ खेचर - पुरुषो असं० ३३ खेचरनी स्त्रीओ सं० ३४ स्थलचर- पुरुषो सं० ३५ स्थलचरनी स्त्रीओ सं० ३६ जलचर- पुरुषो सं० ३७ जलचरनी स्त्रीओ सं० ३८ व्यंतर देवो सं० ३९ व्यंतरनी देवीओ सं० ४० ज्योतिषी देवो सं० ४१ ज्योतिषीनी देवीओ सं० ४२ खेचर नपुंसको सं० ४३ स्थलचर नपुंसको सं० ४४ जलचर नपुंसको सं० ४५ पर्याप्त चउरिंद्रियो सं० ४६ पर्याप्त पंचेंद्रियो विशेषाधिक ४७ पर्याप्त बे इंद्रियो विशेषा० ४८ पर्याप्त तेइंद्रियो विशेषा० ४९ अपर्याप्त पंचेंद्रियो असं० ५० अपर्याप्त चउरिंद्रियो विशेषा० ५१ अपर्याप्त इंद्रियो विशेषा० ५२ अपर्याप्त बेइंद्रियो विशेषा० ५३ पर्याप्त प्रत्येकवनस्पतिका०अ० ५४ पर्याप्तबादर निगोदो अ० ५५ पर्याप्तबा० पृथ्वीकायिको असं० ५६ पर्याप्तया० अकायिको असं० | ५७ पर्याप्तबा० वायुकायिकोअसं० ५८ अपर्याप्तबा०ते कायिको असं० ५९ अप० प्रत्येक वनस्पतिका०अ० ६० अप०या०निगोदो अ० ६१ अप० बा० पृथ्वीकायिको अ० ६२ अप० बादर अष्का० असं० ६३ अप० बादर वायुका० असं० । ३४ सूक्ष्म अप० तेउका० असं० ६५ सूक्ष्म अप०पृथ्वीका०विशेपा० ६६ सूक्ष्म अप अप्का० विशेषा० ६७ सूक्ष्म अप० वायुका ० वि० ६८ सूक्ष्म पर्याप्त तेउका० संख्या ० ६९ सूक्ष्म पर्याप्त पृथ्वीका० वि० 246464 अठाणुबोकनोअल्प बहुत्व ॥९२॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥९३॥ अठाणुबोलनोअल्पबहुत्व ॥९३॥ CA-15CRACK ७० सूक्ष्मपर्या० अप्कायिको वि० । ८० बादर अपर्याप्ता विशेषा० । ९० एकेंद्रिय जीवो विशेषा० ७१ सूक्ष्मपर्या० वायुकायिको वि० ८१ समुच्चय बादर जीवो विशेषा०, ९१ तिर्यंचो विशेषा० ७२ सूक्ष्मअप निगोदनाशरीरोअ० ८२ सूक्ष्म अप० वनस्पतिका० अ०/ ९२ मिथ्यादृष्टिओ विशेषा ७३ पर्या सूक्ष्मनिगोदनाशरीरोसं०] ८३ सूक्ष्म अपर्याप्ता विशेषा० ९३ अविरतिओ विशेषा. ७४ अभव्यो अनंतगुणा ८४ सूक्ष्मपर्या बनस्पतिका० सं० | ९४ सकषायी जीवो विशेषा. ७५ पडिवाइ सम्यग्दृष्टिजीवो अ० | ८५ सूक्ष्मपर्याप्ता विशेषा० । ९५ छमस्थ जीवो विशेषा ७६ सिद्धना जीवो अनंत ८६ समुचय सूक्ष्मजीवो विशेषा० | ९६ सयोगि जीवो विशेषा० ७७ बादर पर्या वनस्पतिका० अ० ८७ भव्यसिद्धिको विशेषा० वनस्पातका० अ०८७ भव्यसिद्धिको विशेषा० ।९७ संसारि जीवो विशेषा० ७८ बादर पर्याप्ता विशेषा. ८८ निगोदिया जीवो विशेषा० । ९८ सर्व जीवो विशेषाधिक ७९ या० अपर्या० वनस्पतिका०अ० ८९ वनस्पतिका ना जीवो वि० ॐॐॐॐRA इति ९८ बोलन अल्पवहुत्व समाप्त. १ नंबर ७७थी ५८ सुधी बावीश बोल छे, ते आठमे अनंते छे. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काद सिद्धांतरहस्य ॥९ ॥ कर्मप्रकृति विचार ॥१४॥ अथ कर्मप्रकृति विचार-१ ज्ञानावरणीय कर्म, ते आंखना पाटा समान. २ दर्शनावरणीय कर्म, ते राजाना पोलीया समान. ३ वेदनीयकर्म, ते मधुथी खरडेल खड्ग समान, ४ मोहनीय कर्म, ते मदीरा समान.५ आयुष्य कर्म, ते हेड समान, ६ नाम कर्म, ते चितारा समान. ७ गोत्र कर्म, ते कुंभारना चाकडा समान. ८ अंतराय कर्म, ते राजाना भंडारी समान. आठ कर्मे शु कयु छे ते कहे छे:-ज्ञानावरणीय कर्मे, अनंतज्ञान गुण ढाक्यो छे. दर्शनावरणीय कर्मे, अनंत दर्शन गुण ढांक्यो छे, वेदनीय कर्मे, अनंत अव्यायाध आत्मिक सुख * ढांक्युं छे. मोहनीय कर्मे, क्षायिक समकितगुण ढांक्यो छे. आयुष्य कमें, अक्षयस्थिति गुण ढाक्यो छे. नाम | कर्मे, अमूर्त्तगुण ढांक्यो छे. गोत्र कर्मे, अगुरुलघुगुण ढाक्यो छे. अंतराय कर्मे अनंत आत्मिक शक्ति ढांकी छे. ज्ञानावरणीयादिकर्म कया कया कारणे बंधाय छे ते कहे छ:-ज्ञानावरणीय कर्म छ कारणे बंधाय छे. १ ज्ञान तथा ज्ञानिना अवर्णवाद बोलवाथी.२ ज्ञानिनो उपकार ओलववाथी. ३ ज्ञान, ज्ञानना उपकरणो अने ज्ञानिनी आशातना करवाथी. ४ ज्ञाननी अंतराय पाडवाथी. ५ ज्ञान तथा ज्ञानि उपर द्वेष करवाथी, अने ६ ज्ञानि साथे खोटा झगडा विसंवाद करवाथी. तेना फल (विपाक) पांच तथा दश प्रकारे भोगवे. १ मति ज्ञानावरणीय, २ श्रुतज्ञानाव०, ३ अवधिज्ञानाव०, ४ मनः पर्यायज्ञानाव०, ५ केवलज्ञानाव०, ए पांच ते मतिज्ञानादि पांच गुण प्रगट थवा न आपे. दश प्रकारे भोगवे ते १ श्रोत्रावरण, २ श्रोत्रविज्ञानावरण. ३ नेत्रावरण, ४ नेत्रविज्ञाना १ श्रोवियना क्षयोपशमन जे आवरण ते श्रोत्रावरण अने श्रोत्रंद्रियना उपयोगर्नु आवरण, ते श्रोत्र विज्ञानावरण. निवृत्ति ने उपकरणरूप Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥९५|| वरण, ५ घाणावरण, ६ घाणविज्ञानावरण, ७ रसावरण, ८ रसविज्ञानावरण, स्पर्शावरण, १० स्पर्शविज्ञा|नावरण, ए दश प्रकारे भोगवे. कर्मनी स्थिति कहे छः-ज्ञानावरणीय कर्मनी ज० स्थिति अंतर्मुहर्त अने उ. जीश कोडाकोडी सागरोपमनी. अबाधाकाल ज० अंतर्मु ने उ० ३ हजार वर्षनो. हवे दर्शनावरणीय कर्म छ प्रकारे बंधाय-१ दर्शनना प्रत्यनीकपणाथी, २ दर्शननानिन्हवपणाथी, ३ दर्शननी आशातनाथी, ४ दर्शनना कर्मप्रकृति विचार ॥९ ॥ HTRACHAR द्रव्येद्रिय, ते नाम कर्म जन्य छे. नेत्र वगेरेमा पण एमज समजबु, १ ज्ञानावरणीयनी ज० स्थिति अंतर्मुनी ले ते दशमे गुणठाणे होय, बीजे स्थले न होय, आठमा : गुणठाणा सुधी संज्ञी पंचेंद्रियने अंत:कोडाकोडी सागरोपमधी ओछो स्थितिबंध न होय. एकेंद्रियने एक सागरना सातिया प्रण भागनो स्थितिबंध होय. घेइंद्रियने तेथी पञ्चीश गुणोबंध होय, तेइंद्रियने पचास गुणो, चौरिट्रियने सो गुणो अने असंज्ञी पंचेंद्रियने हजार गुणो बंध होय, २ जे कर्मनी जेटला सागरनी स्थिति होय तेटला सो वर्ष अबाधाकाल कहेवाय, तेटला काल सुधी कर्म उदय न आवे त्यांसुधी कर्मपुद्गलोनी रचना-उदयकाल योग्य गोठवण करे अबाधाकाल बाद अवश्य विपाकोदयके प्रदेशोदये कर्म आये. आयुष्य कर्म माटे आ प्रमाणे छे:ज्यारे जीव परभवचं आयुष्य बांधे, खारे वर्तमान भवनो जेटलौ काल बाकी होय; तेटलो काल अबाधा काल जाणवो, चवीने जीप जे गतिमा जाय त्या प्रथम समये अवश्य विपाकोदयेज आवे, प्रदेशोदये न आवे. छेवटमा अपवर्तनाकरण वडे अपवर्तन करनार अने सोपक्रमी आयुष्यवाला, प्रदेशोदयथी आयुष्य भोगवे छे; तेने आयुष्य बूढे एम कहेवाय छे. आ विषय माटे 'तत्त्वार्थ सूत्र'ना बीजा अध्यायना छेल्ला सूत्रनुं विवरण, तेमज पंचम कर्मग्रंथ अने पनवणार्नु अवलोकन करवू. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१६॥ प्रदेषथी,५ दर्शनना अंतरायथी,६ दर्शनना विसंवादना योगधी. नव प्रकारे भोगवाय-१ चक्षुदर्शनावरणीय, २13 अचक्षुदर्शनाव०, 3 अवधिदर्शनाव०, ४ केवलदर्शनाव०,५निद्रा,६ निद्रानिद्रा, ७ प्रचला, ८ प्रचला, प्रचला ९ कर्मप्रकृति थीणद्धिनिद्रा. दर्शनावरणीय कर्मनी स्थिति ज. अंतर्मु० ने उ० त्रीश कोडाकोडी सागरनी. अव्याबाधाकाल विचार ज० अ० ने उ.३ हजार वर्ष. वेदनीयकर्मना बे भेद-१ साता वेदनीय, २ असाता वेदनीय. साता वेदनीय कर्म ॥१६॥ दश प्रकारे बंधाय-१ प्राणीओनी अनुकंपाथी, २ भूतोनी अनुकंपाथी, ३ सत्त्वोनी अनुकंपाथी, ४ जीवोनी अनुकंपाथी,५ घणा प्राणीओ यावत् जीवोने दुःख न देवाथी, ६ शोक न उपजाववाथी, ७ खेद न उपजाववाथी, ८ वेदना ( पीडा ) न करवाथी, ९ परिताप नहिं उपजाववाथी, १० प्राण रहित न करवाथी. ए १० प्रकारे बंधाय अने ८ प्रकारे भोगवाय-१ मनोज्ञ शब्दो, २ मनोज्ञ रूपो, ३ मनोज्ञ गंधो, ४ मनोज्ञ रसो, ५ मनोज्ञ स्पर्शों. ६ | मननुं सुखपणुं, ७ वचननुं सुखपणुं, ८ काय ( शरीर )न सुखपणुं. सातावेदनीय कर्मनी स्थिति अकषायिक ने ज० वे समयनी, सकषायिकने बारे मुहुर्तनी अने उ० १५ कोडाकोडी सागरनी. अबाधाकाल, दोढ हजार वर्षनो, असातावेदनीय कर्म बार प्रकारे बंधाय-१ बीजा (जीव )ने दुःख देवाथी, २ थीजाने शोक उपजावाथी, ३ बीजाने खेद उपजाववाथी, ४ बीजाने पीडा करवाथी, ५ बीजाने परितापना उपजाववाथी, ६ बीजाने प्राणरहित करवाथी, ७ घणा प्राणि, भूत, जीव अने सत्त्वोने दुःख उपजा०, ८ शोक उपजा०९ खेद १ बार मुहुर्तनी ज. स्थिति दशमे गुणठाणे होय. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥९७॥ उपजा०, १० पीडा उपजा०, ११ परितापना उपजा०, १२ प्राण रहित करवाथी. ए १२ प्रकारे बांधे तेना फल ८ प्रकारे भोगवाय-१ अमनोज्ञ शब्दो, २ अम० रुपो, ३ अम० गंधो, ४ अम० रसो, ५ अम० स्पशों, ६ मन कर्मप्रकृति नु दुःखपणु, ७ वचननु दुःखपणु, ८ कायर्नु दुःखपणु. असातावेदनीय कर्मनी स्थिति ज० एक पल्योपमना सात विचार भाग करीए तेवा त्रण भाग तेमां एक पल्यना असंख्यातमा भागे हीन अने उ. त्रीश कोडाकोडी सागरनी ॥९७|| अबाधाकाल त्रणह० वर्षनो. मोहनीयकम प्रकारे बंधाय-१ तीन कोष बडे, २ तीव्र मानवडे, ३ ती मायावडे, ४ तीन लोभवडे, ५ तीव्र दर्शनमोहनीयवडे, ६ तीव्र चारित्रमोहनीयवडे. अने २८ प्रकारे भोगवाय-३ दर्शनमोहनीयनी १ समकित मोह०, २ मिथ्यात्वमोह०, ३ मिश्रमोहनीय. २५ चारित्रमोहनीयनी मां १६४ कषाय मोहनी अने ९ नोकषाय मोहनी ले कहे छेः-१ अनंतानुबंधी क्रोध ते पर्वतनी राइ (फाट) समान, २ अनंतानुबंधी मान ते पत्थरना स्तंभ समान, ३ अनंतानुबंधी माया ते वांशनी गांठ मनान, ४ अनंतानुबंधी लोभ ते कृमिज (किरमिज)ना रंग समान. ए चारनी स्थिति जावजीवनी, घात समकितनी करे अने नरकग । असाताचे नो बंध, हट्टा गु० सुधी होय; पचंद्रियने त्या अंत: कोडाफोडीथी ओलो बंध न होय. ज. यंध (परवाना सानिया व्रण भाग) होय अने उ. एकेंद्वियने होय तेथी न्यून पल्योपमना असंख्यातमा भागे नेथी न्यून होय, अने क्योय पण न होय. २ अहिजे कपायोनी स्थिति जाबजीव वगेरेनी कही छे, ते प्रायिक समजबी. कारण ? प्रसन्नचंद्रराजापने क्रोध अंतर्मुहको हतो, छतां अनंतानुबंधी हतो. अन्यथा सातमी नरकना दलिया भेळा न थाय. तेमज बाहुबलीने मान एक वर्ष रहेल छतां ते संज्वलन- हतुं. वस्तुतः कपायनो आधार, अध्यवसाय उपर छे. TAOCEJE T ASTEOF Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥९८॥ A%4%AC- कर्मप्रकृति विचार ॥९८॥ तिनो बंध थाय. १ अप्रत्याख्यानी क्रोध ते तलावना खोट (फाट) समान, २ अप्रत्या. मान ते हाडकाना स्तंभ | समान, ३ अप्रत्या० माया ते घेटाना शींगडा समान, ४ अप्रत्या० लोभ ते नगरनी खाळ समान. ए चारनी स्थिति एक वर्षनी. घात देशविरतिनी करे अने तिर्यंचनी गतिनो बंध थाय. १ प्रत्याख्यानी क्रोध ते वेळुनी लींटी समान, २ प्रत्या० मान ते लाकडाना स्तंभ समान, ३ प्रत्या० माया ते गौमुत्रिका समान, ४ प्रत्या. लोभ ते गाडाना खंजन समान. ए चारनी स्थिति चारमासनी, घात सर्व विरतिनी करे अने मनुष्यगतिनो | बंध थाय.१ संज्वलननो क्रोध ते जल-रेखा समान, संज्व. मान ते नेतरनी लता समान, संज्वनी माया ते वांसनी छाल समान, संज्वानो लोभ ते हलदरना रंग समान. ए चारनी स्थिति एक पक्षनी. घात यथाख्यातचारित्रनी करे अने देवगतिनो बंध थाय. ए १६ कषाय. नव नो कषाय कहे छे:-१ हास्य, २ रति, ३ अरति, ४ भय, ५ शोक, ६ दुगंच्छा, ७ स्त्रीवेद, ८ पुरुषवेद ने ९ नपुंसकवेद. एवं २८ प्रकृति. मोहनीयकर्मनी स्थिति अंतर्मु. ने उ०७० कोडाकोडी सागरनी. अबाधाकाल ७ हजारवर्षनो. आयुष्य कर्म १६ प्रकारे बंधाय तेमां नारकनुं आयुष्य चार प्रकारे बंधाय-१ महारंभ करवाथी, २ महापरिग्रहथी, ३ मांसाहार करवाथी, ४ पंचें मोहकर्मनी ज• अंतर्मुनी नवमे गुणठाणे संज्वलनना लोभनी होय. संज्व० मायानी । पक्षनी, संज्व० माननी । मासनी, संज्व० क्रोधनी २ मासनी, पुरुषवेदनी ८ वर्षनी होय. शेष प्रकृतिनी अंतःकोडाकोडीथी न्यून न होय. २ मोहनी उ० स्थिति ७० कोडाकोडीनी केवल 'मिथ्यात्व'नी होय, बाकीनी प्रकृतिनी न होय, कषायनी ४० कोडाकोडी सागरनी वगेरे मिन्न मिन कहेल छे, जुवो पन्नवणा अने पंचम कर्मग्रंथ. ASS Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥९९॥ SAI विचार - --- RANE - द्रिय जीवोनो वध करवाथी. तिर्यचनुं आयुष्य चार प्रकारे बंधाय-१ माया करवाथी, अतिगूढ कपट करवाथी, ३ असत्य बोलवाथी,४ खोटा तोला-मापराववाथी. मनुष्यनु आयुष्य चार प्रकारे बंधाय-१ स्वाभाविक भद्रक-INIकर्मप्रकति पणाथी, स्वाभाविक विनीतपणाथी, ३ अनुकंपापणाथी, ४ अमत्सरपणाथी. देवन आयुप्य चार प्रकारे बंधायभामराग संयमथी, २ देशविरतिपणाधी, ३ बालतपथी, ४ अकामनिर्जराथी. ए १३ प्रकारे बांधे अने चार प्रकारे ॥१९॥ भोगवे ते कहे छे:-नारक-देवतुं आयुष्य ज० अंतर्मुहर्त अधिक दशहजार वर्षतुं अने उ० पूर्व कोडीनो श्रीजो भाग अधिक ३३ सागरनु. मनुष्य-तिर्यचर्नु आयुष्य ज. अंतर्मु ने उ० पूर्व कोडीनो चीजो भाग अधिक: | पल्यनु. नान कर्मना वे भेद-१ शुभनाम २ अशुभनाम कर्म. तेमां शुभनामकर्म चार प्रकारे धंधाय-१ कायादानी सरलताशी, २ भाषानी सरलताथी, ३ भाव(अध्यवसाय)नी सरलताथी, ४ अधिसंबादल योगथी (प्रास्त त्रण योगनी ऐक्यताथी), ए चार प्रकारे बांधे अने चौद प्रकारे भोगवे-१ इष्ट शब्द, २ इष्ट रूप, ३ इष्ट गंध, ४ इष्ट रस, ५ इष्ट स्पर्श, ६ इष्ट गति, ७ इष्ट स्थिति, ८ इष्ट लादण्य, १ इष्ट यशः कीति, १० इ उत्थान, कर्मबल, वीर्य, पुरुषकार ने पराक्रम, ११ इष्ट स्वरपणुं, १२ कान्त स्वरपणुं, १३ मिय स्वरपणु, १४ जनोज स्वरपणुं. नारक-देवर्नु ज. आयुः बांधनार तिथंच के मनुष्य, अंतर्मुहूर्त शेष आयुः रहे त्यारे परमभवन आयुः गांधे. तेउलो काला अधिक जाणयो, तेमज कोइ क्रोडपूना आयुष्यवालो मनुष्य के तीयंच, देव नारकर्नु उ. आयुष्य; पोताना भवना आयुष्यजा श्रीजे भागे यांचे तो तेटलोकाल, आयुष्य कर्मना अबाधाकाल जाणवो. EMURAas - RAMERA --- २१ eensaan Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृति विचार ॥१०॥ अशुभ नाम कर्म चारप्रकारे बंधाय-कायानी वक्रताथी, २ भाषानी वक्रताथी, ३ भावनी वक्रताथी, ४ विसिद्धांत संवादनपणाथी. चौद प्रकारे भोगवे-१ अनिष्ट शब्द, २ अनिष्टरूप, ३ अ० गंध, ४ अ० रस, ५ अ० स्पर्श, ६ रहस्य अ० गति, ७ अ० स्थिति, ८ अ० लावण्य, ९ अ० यशः कीर्ति, १० अ० उत्थान कर्मबल वीर्यपुरुषकार पराक्रम, ॥१०॥ ११ हीनस्वरपणुं, १२ दीनस्वरपणु, १३ अनिष्टस्वरपणुं, १४ अकांत स्वरपणुं. नामकर्मनी ९३ प्रकृति कहे छे: प्रथम चौद पिंड प्रकृति-१ गति, २ जाति, ३ शरीर, ४ अंगोपांग, ५ बंधन, ६ संघातन, ७ संघयण, ८ संठाण |९ वर्ण, १० गंध, ११ रस, १२ स्पर्श, १३ अनुपूर्वी, १४ विहायोगति. ए १४ पिंड प्रकृति थइ तेनी उत्तर प्रकृति 18|६५ कहे छ:-१ नरक-गति, २ तिर्यंच-गति, ३ मनुष्य-गति, ४ देवगति, ५ एकेंद्रिय जाति, ६ बेइंद्रिय जाति, ७ तेइंद्रिय जाति, ८ चरिंद्रिय जाति, ९ पंचेंद्रिय जाति, १० औदारिक शरीर, ११ वैक्रयश०, १२ आहारकश०, १३ तैजसश०, १४ कार्मणश०, १५ औदारिक-अंगोपांग, १६ वैक्रय-अंगो, १७ आहारक-अंगो, |१८ औदारिक बंधन, १९ वैऋ० बं०, २० आहा० ब०, २१ तेज०, बं०, २२ कार्म०, बं०, २३ उदा० संघातन, |२४ वैक्र० सं०, २५ आहा० सं०, २६ तैज० सं०, २७ कार्म० सं०, २८ वज्रऋषभनाराच संघयण, २९ ऋषभना. |सं०, ३० नाराच सं० ३१ अर्धना० सं०३२ किलिका सं०, ३३ छेवटु सं०, ३४ समचउरंस संठाण, ३५ निगोहपरिमंडल सं०, ३६ सादि सं०, ३७ वामन सं०, ३८ कुब्ज सं०, ३९ हुंड सं०, ४० कालोवर्ण, ४१ नीलोव०, ४२ रातोव०, ४३ पीळोव०, ४४ धोळोव०, ४५ सुरभिगंध, ४६ दुरभिगंध, ४७ तीखो रस, ४८ कडवो रस, ४९ OCIEOCOCOCALCARE NEHARASHTRA Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ सिद्धांत रहस्य ॥१०॥ कर्मप्रकृति विचार ॥१०॥ SACRACHAcare 21 कषायलो र०, ५० खाटो र०,५१ मीठो र०, ५२ खरखरो स्पर्श, ५३ सुहालो स्प०,५४ भारी (गुरु) स्प०, ५५ हळवो स्प०, ५६ टाढो स्प०, ५७ उन्हो स्प०, ५८ स्निग्ध (चोपडेल ) स्प०, ५९ लुखो स्प०, ६. नरकानुपूर्वी, ६१ तिर्यंचानुपूर्वी ६२ मनुष्यानुपूर्वी ६३ देवानुपूर्वी, ६४ शुभ विहायोगति, ६५ अशुभवि० गति, ६६ पराघा४ातनामकर्म, ६७ उच्छ्वासनाम,६८ अगुरुलघुनाम, ६९ आतपनाम, ७० उद्योतनाम, ७१ उपघातनाम, ७२ तीर्थ | करनाम, ७३ निर्माणनाम, (६६थी ७३ सुधी ८ प्रत्येक प्रकृति छे ) ७४ मनाम, ७५ बादरनाम, ७६ पर्याप्त नाम, ७७ प्रत्येकनाम, ७८ स्थिरनाम, ७. शुभनाम, ८० सौभाग्यनाम, ८१ सुम्वरनाम, ८२ आदेयनाम, ८३ ४ यशोकीर्तिनाम, ८४ स्थावरनाम, ८५ सूक्ष्मनाम, ८६ अपर्याप्तनाम, ८७ साधारण नाम, ८८ अस्थिरनाम, ८९ अशुभनाम. ९० दौर्भाग्यनाम, ९१ दुःस्वरनाम, ९२ अनादेयनाम, ९३ अयशोकीर्तिनाम, तेमां १० प्रकृतिबंध ननी मेळवतां १०३ प्रकृति थाय. अथवा नामकर्मनी सामान्यथी ४२ प्रकृति पण थाय छे:-१४ पिंडप्रकृति, ८ 5. प्रत्येक प्र०, त्रसदशक अने स्थावर दशक एवं ४२. नामकर्मनी स्थिति ज०८ मुहर्तनी, उ. २० कोडाकोडी द्र सागरनी. अबाधाकाल ज. अंतर्मु ने उ० २ हजार वर्षनो० गोत्रकर्मना बे भेद-१ उंच गोत्र, २ नीच गोत्र उंच गोत्र आठ प्रकारे बंधाय-१ जातिमद न करवाथी, २ कुलमद न करवाथी, ३ बलमद न करवाथी, ४ रूपभीमद न करवाथी,५ तपमद न करवाथी ६ श्रुतमद न करवाथी, ७ लाभमद न करवाथी, ८ ऐश्वर्यमद न करयाथी. १ ७४थी ८३ सुधी 'सदशक' कहेवाय अने ८४थी ९३ सुधी 'स्थावरदशक' कहेवाय . २ नामकर्मनी ज0 स्थिति दशमे गुणटाणे बंधाय. ॐॐॐ*- 61--%A11 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4k सिद्धांतरहस्य ॥१०२॥ कर्मप्रकृति विचार १०॥ तेना फल ८ प्रकारे भोगवाय-१ जाति विशिष्टता, २ कुलविशिष्टता, ३ ३ बलविशिष्टता, ४ रुपविशिष्टता, ५ सपविशिष्टता, ६ श्रुतविशिष्टता, ७ लाभविशिष्टता, ८ ऐश्वर्यविशिष्टता. नीच गोत्र पण ८ प्रकारे बंधाय-१ जातिमद वगेरे आठ मद करवाथी. तेना फल ८ प्रकारे भोगवाय-१ जातिविहीनता यावत् ८ ऐश्वर्य विहीनता, गोत्रकर्मनी स्थिति ज०८ मुहर्तनी, उ०२० कोडाकोडी सागरनी. अबाधाकाल ज. अंतर्मु ने उ० २ हजार वर्षनो. अंतराय कर्म पांच प्रकरे बंधाय-१ दाननो अतराय करवाथी, २ लाभनो अंतराय करवाथी, ३ भोगनो अंतराय करवाथी, ४ उपभोगनो अंतराय करवाथी, वीर्यनो अंतराय करवाथी. तेना फल ५ प्रकारे भोगवाय१ दानांतराय, २ लाभांतराय, ३ भोगांतराय, ४ उपभोगांतराय, ५ वीर्यांतराय, अंतरायकर्मनी स्थिति ज. अंतर्मु०, ने उ० ३० कोडाकोडी सागरनी. अबाधाकाल ३ हजार वर्षनो. ज्ञानावरणीयादि ८ कर्मना बांधवाना कारणो ८५ कहेले छे अने ९३ अथवा १०८ प्रकारे भोगवे ते पूर्वे कहेल छे. बंधमां १२० प्रकृति होय-ज्ञानावरणीयनी ५, दर्शनावरणीयनी ९, वेदनीधनी २, मोहनीयनी २६, (समकितमोहनीय मिश्रमोहनीय ए २ नहिं ) आयुष्यनी ४, नामनी ६७, (ते ९३माथी वर्णादिना १६ भेद, ५ बंधन ने ५ संघातन ए २६ वर्जवा). गोत्रनी २, अंतरायनी ५. एवं एकसोवीश. उदयमा १२२, ते १२० पूर्वे कहेली ते अने समकितमो० ने मिश्रमो० ए बधी. । प्रथमनी छापेली प्रतोमा ८५ बांधवानी प्रकृति अने ९३ भोगग्यानी प्रकृति बगेरे कहेल के परंतु त्या बांधवाना कारणो ८५ हे अने तेना फल १३ प्रकारे भोगवाय छे एम जाणवं. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१०३॥ १४८ सत्तामां ते नामकर्मनी ९३ प्रकृति गणवाधी अने १०३ गणतां १५८ प्रकृति सत्तामां होय. मूल आठ कर्मनी सामान्यथी उत्तर प्रकृति ३१ पण थाय छे-ज्ञानावरणीयनी ५, दर्शनावरणीयनी ९, वेदनीयनी २, मोहनीयनी २ आयुष्यनी ४, नामनी २, गोत्रनी २, अंतरायनी ५, एवं एकत्रीश. हवे १४८ उत्तर प्रकृतिनी स्थिति कहे छेःज्ञनावरणीयनी ५ प्रकृतिनी ज० स्थिति अंतर्मुहूर्तनी, उ० ३० कोडाकोडी सागरोपमनी. दर्शनाव० ४ प्रकृतिनी । ज० अंतमु० ने उ० ३० कोडा०, निद्रापंचकनी ज० स्थिति, एक सागरना ७ भाग करीए सेवा ३ भाग ३ (पल्या असंख्यातमा भागे हीन) अने उ० ३० कोडा०, सातावेदनीयनीय ज० स्थिति अकषायिक ने बे समयनी, सकपाकिने चार मुहर्तनी. उ० १५ कोडा०, असातावेदनी ज० ने उ० स्थिति, निद्रा पंचकनी प्रमाणे जाणवी. समकित मोहनीयनी ज० स्थिति अंतर्गु० ने उ० ६६ सागर झाझेरी. मिथ्यात्वमोहनीयनी ज० स्थिति पल्पना असंख्यातमी भागे न्यून एक सागरोपमनी, उ० ७० कोडाकोडी मा०नी. मिश्रमो०नी ज० ने उ० अंतर्मु०मी. पहला बार कषायनी ज० सातिया चार भाग : अने उ०४० सागरनी. संज्वलनना क्रोधनी ज० २ माननी, माननी १ मासनी, मायानी १ पक्षनी अने लोभनी अंतमु०नी, उ० ४० कोडा० सागरनी, स्त्रीवेदनी ज० स्थिति सातिया दो भाग ३५ पल्यना असंखा० भाग न्यून अने उ०१५ कोडाकोडी सा०नी, पुरुष वेदनी ज० ८ वर्षनी, अहिं १५८ उत्तर प्रकृतिओनी ज० उ० स्थिति श्रीपन्नवणासूत्र ने अनुसारे लखेल है जोके ते लंबाणधी त्यां खाये छेः कर्मग्रंथां संक्षेप शैलीधी सुगम्य लखायेल है. 46% %% %%%% कर्म प्रकृति विचार ॥१०३॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१०४॥ कर्मप्रकृति विचार ॥१०४॥ OPERAR MSANSAR उ० १० कोडाकोडी सानी, नपुंसकवेदनी ज. सातीया २ भाग पल्यना असंख्या. भाग न्यन अने उ०२० कोडाकोडी सानी, हास्य-रतिनी ज. सातिया-१ भाग पल्यना असंख्या न्यून अने उ०१०कोडा सा नी, शोक-अरति-भय ने दुर्गच्छा ए चारनी ज० उ० स्थि० नपुंसकवेद प्रमाणे. तिर्यंचगतिनी स्थिति पण नपुंसकवेद * प्रमाणे, नरकगतिनी ज० सातिया बेहजार भाग अने उ०२० कोडा सा नी. मनुष्यगतिनी स्थिति स्त्रीवेद: प्रमाणे. देवगतिनी स्थिति जसातिया एकहजार भाग-पल्यनो असंखा भाग न्यून अने उ०१०कोडा सा नी, एर्केद्रिय जातिनी ज. सातिया बे भाग अने उ.२० कोडाकोडी सागरनी, बेइंद्रियनी ज. पांत्रिसिया नव भाग अने उ०१८ कोडा० सानी, तेइंद्रिय अने चउरिंद्रिय माटे एमज जाणवू, पंचद्रियनी स्थिति नपुंसकवेद प्रमाणे. औदारिक शरीरनी पण एमज जाणवी, वैक्रयशनी नरकगति प्रमाणे, आहारकशनी जम्ने उ०अंतः कोडा० सानी, तैजस कार्मण शनी नपुंसक वेद प्रमाणे, औदाना अंगोपांग वैकेंना अंगो० अने आहाना अंगो नी ज०० स्थिति औदारिकादिक ३ शरीरनी प्रमाणे, ५ बंधन ने ५ संघातननी पण पोतपोताना शरीर प्रमाणे, वज्रऋषभनाराच संनी ज. सातिया १ भाग अने उ०१०कोडा सा नी. ऋषभमाराच सं० ज. पांत्रिसिया ६ भाग अने उ०१२ कोडा० सानी, नाराच सं० ज. पांत्रिसिया ७ भाग अने उ०१४ कोडा० सा. देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रय शरीर अने वैक्रयनो उपांग ए छ प्रकृतिः एकेंद्रिय अने विकलेंद्रिय न बांधे पण भसंशी पंचेंद्रिय बांधे तेनो बंध हजार गुणो होय माटे : सातिया इ. भाग सागरो० बांचे Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१०५॥ CHECA कर्मप्रकृति विचार ॥१०५॥ नी, अर्द्धनाराच सं० ज. पांत्रिसिया ८ भाग अने उ०१६ कोडाकोडी सानी, किलिका सं० ज. पांत्रिसिया ९भाग अने उ० १८ कोडाकोडी सानी, छेवटु सं. ज. सातिया २ भाग अने उ०२० कोडाडी सानी, संघयणनी जेम संठाणनी ज० उ० स्थिति जाणवी. सुंहालो, हलको, स्निग्ध ने उष्ण ए ४ स्पर्श, सुरभिगंध, श्वेत वर्ण अने मधुररस ए ७नी ज. सातिया १ भाग अने उ०१० कोडा० मा० नी, पीळो वर्ण ने ग्वाटो रसनी ज. अव्याविशिया ५ भाग अने उ० १२॥ कोडा० सा० नी, रातो वर्ण ने कषायेल रसनी ज. अठ्याधिशिया ६ भाग अने उ०१५ कोडा० सा० नी, नील वर्ण ने कडवा रस ने दुरभिगंधनी ज. अठ्याविशिया ७ भाग अने उ०१७॥ कोडा० मानी, कालोवर्ण ने तिग्वा रसनी ज. सातिया २ भाग अने उ०२० कोडा० सानी, गुरु, कर्कश, रुक्ष ने शील ए४ स्पर्शनी स्थिति कालावर्ण प्रमाणे. अगुरुलघु नाम, उपघात नाम, पराघात नाम ३नी पण एमज जाणवी. नरकानुपूर्वीनी स्थिति नरकगतिनी जेम जाणवी. तिर्यंचानुपूर्वीनी नियंचगति प्रमाणे. ४. मनुष्यानुपूर्वीनी मनुष्यगतिनी जेम. देवानुपूर्वीनी देवगति प्रमाणे, उच्छ्वास नाम आतप नामनी तिथंचगतिनी जेम. उद्योतनाम ते शुभ विहायोगति नामनी ज. सातिया १ भाग अने उ० १० कोडा० सानी, अशुभ विहायोगति नामनी तिर्यंचगति प्रमाणे. मनाम ने स्थावरनामनी पण एमज. सूक्ष्मनामनी ज० पांत्रिसिया भाग अने उ० १८ कोडा० सा-नी, बादर नाम ने पर्याप्त नामनी तिर्यचगतिनी जेम. अपर्याप्त नाम ने माधातारण नामनी सूक्ष्म नामनी जेम. प्रत्येक शरीर नामनी तिर्यंचगतिनी जेम. स्थिर नाम, शुभ नाम, सौभाग्य -44-45. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BACH सिद्धांत रहस्य ॥१०६॥ धर्मध्यान विचार ॥१०६॥ नाम, सुस्वर नाम अने आदेय नाम ए ५नी ज. सातिया १ भाग अने उ. १० कोडा. सानी, स्थिरनाम, अशुभ नाम, दौर्भाग्य नाम, दुःस्वर नाम अने अनादेय नाम ए ५नी ज० सातिया २ भाग अने उ०२०कोडा. सानी, यशोकीर्तिनी ज०८ मुहूर्त अने उ०१० कोडासानी, अयशोकीर्तिनी ने निर्माण नामनी तिर्यचगतिनी जेम, तीर्थकर नामनी ज० ने उ. अंतः कोडा० सानी उच्च गोत्रनी ज०८ मुहर्त अने उ०१० कोडा० सानी, नीच गोत्रनी तिर्यचगति प्रमाणे. ४ आयुष्यनी स्थिति प्रथम कहेल छे. ५ अंतरायनी ज० अंतर्मु० अने उ.३० कोडा सा नी. जिन नामनो उ० बंध चोथे गुणठाणे देवायुः अने आहारक द्विकनो उ० बंध सातमे गु०, शेष प्रकृतिनो उ० यंध पहेले गु० होय. पुरुषवेद अने संज्वनी चोकडीनो ज. बंध नवमे गु०, तीर्थकर नाम अने आहारक द्विकनो ज. बंध आठमे गु०, ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, अंतरायनी ५, उचगोत्र यशोकीर्ति, सातावेदनीय ए १७नो ज. बंध दशमे गुण होय. देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी वैकेयद्विक ए ६ प्रकृतिना ज. बंधक असंज्ञी पंचेंद्रिय होय. शेष प्रकृतिना ज. बंधक बादर एकेंद्रिय पर्याप्त होय. सम्यक्त्वमोहनीय ने मिश्रमोहनीय ए बंधमां न होय पण उदयमां होय माटे जे बन्नेनी स्थिति कहेल छे ते उदयनी अपेक्षाए. कर्मप्रकृति समाप्त. अथ धर्मध्यान विचार-से किं तं धम्मे झाणे? धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पन्नते तं जहा १ आणाषिजए, २ अवायविजए, ३ विवाग विजए, ४ संठाणविजए. धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता 32-315 74 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान सिद्धांत रहस्य ॥१०७॥ विचार ॥१०७।। - KAISE Karmamarutanaamer तंजहा १ आणारुइ, २ निसग्गरुइ, ३ सुत्तरुइ, ४ उवएसरुइ. धम्मस्मणं झाणस चत्तारि आलंबणा पन्नत्ता तं जहा १ वायणा, २ पुच्छणा, ३ परियट्ठणा, ४ अणुप्पेहा. धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुप्पे हापन्नत्ता तं जहा १ एगच्चाणुप्पेहा, २ अणिचाणुप्पेहा, ३ अमरणाणुप्पेहा, ४ संसाराणुप्पेहा. ए सूत्र पाठनो अर्थ कहे छे:अंतर्मुहर्तकालमात्र एक वस्तुमा चित्तनी स्थिरता ते ध्यान. धर्मध्याननाचार भेद. १ आज्ञाविजय (विचय) कहेतां वीतरागदेवनी आजानो विचार करबो ते आज्ञाविचय. समकितपूर्वक श्रावकना १२ व्रत ११ पडिमा, पांच महाव्रत, १२ भिक्षुनी पडिमा, शुभध्यान, शुभयोग, ज्ञानदर्शनचारित्र अने छ कायनी रक्षा वगेरेमां वीतरागदेवनी आजा आराधवा माटे समय मात्र पण प्रमाद न करवो अने चतुर्विध तीर्थना गुण कीर्तन करवा. २ अवायविजए कहेतां जीवने दुःख जेनाथी उत्पन्न थाय छे तेनो विचार करवो ते अपाय थिचय. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभयोग, अढार पापस्थानक अने छ कायनी हिंसा बगेरे. अपाय (तुम्वना कारणो जाणीने तेनो त्याग करवानो विचार करबो. ३ विवागविजए कहेतां शुभाशुभ कर्मना उदययी जीव, जे सुख-दुःग्वनो अनुभव करे छे, तेनो विचार करवो ते विपाक विचय. ज्ञानावरणादि कर्मठे स्वरुप चिनववं कर्मना स्वरूपने ममजीने समभाव धारण करवू कोई उपर रागद्वेष न करवो. ४ मंठाणविजए कहेतां लोकन स्वरूप चिंतन ते संस्थान विचय. आ लोक चौद राज्य प्रमाण अने सुप्रतिष्ठकने आकार के मां द्रव्यो छे. कांब्याापदेश आशा-करवा योग्य अर्थ ( प्रयोजन वा तत्व )नो उपदेश ते आज्ञा, A RENDENSrimanapURESTHA ammer Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१०८॥ धर्मध्यान विचार ॥१०८॥ अधोलोकमां नारको तथा भुवनपतिओ छे. तिरछालोकमां वानमंतरो, मनुष्यो, तिर्यंचो, ज्योतिष्क देवो छे अने असंख्याता द्वीप समुद्रो छे. संख्याता ( ८४ लाख ) नरकावासो अने भवनपतिना (७ क्रोड ७२ लाख) भवनो छे असंख्याताव्यंतरना नगरो अने ज्योतिष्कना विमानो छे. अढीद्वीपमा तीर्थंकरो ज. २० ने उ. १७० होय, केवल ज्ञानिओ पृथक्त्व क्रोड अने साधुओ पृथक्त्व सहस्र क्रोड होय. तेमने वंदन नमन करुं तथा स्तुति गुणग्राम करूं. वळी असंख्याता श्रावक श्राविका तिरछा लोकमां छे तेना गुणग्राम करूं. तिरछालोकथी असंख्यात कोडाकोडी योजन उपरे उर्ध्व लोक छे. तेमां १२ देवलोक,९ ग्रैवेयक अने ५ अनुत्तर विमान छे. तेमां चोर्यासीलाख सताणुहजार त्रेवीश विमानो छे. सर्वार्थसिद्ध महाविमानथी १२ योजन उपर ४५ लाखयोजन प्रमाण सिद्धशिला छे, त्यां सिद्ध परमात्माओ बिराजे छे; तेमने वंदन करूं यावत् पर्युपासना करूं. अधोलोक किंचित् न्यून सात राज प्रमाण छे, अढारसो योजन प्रमाण तिरछो लोक छे अने उवलोक किंचित् अधिक सात राज प्रमाण छे ए त्रणे लोकमां सर्व स्थानके आजीव अनंतवार उत्पन्न थयो. एक वालाग्र मात्र पण भूमि स्पां विना मूकी नथी. एम समजीने श्रुत धर्म अने चारित्रधर्मनीआराधना करीए तो अजर-अमर-पद पामीए. हवे धर्मध्यानना चार लक्षणो कहे छः-१ आणारुइ कहेतां वीतरागनी आज्ञा प्रत्ये अतिशय शुभ राग भक्ति अने श्रद्धा, न उपजे ते आज्ञा रुचि. २२ निसग्गरुइ कहेतां सहज स्वभावे (जातिस्मरणादिवडे) उपदेश सिवाय श्रुन-चारित्र धर्मर्नु यथार्थ श्रद्धान थg, ते निसर्ग रुचि. ३ सुत्तरुइ कहेतां सूत्र (निग्रंथ प्रवचन) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - S ----- धर्मध्यान विचार ॥१०९॥ amana - रानी अभिलाषा ते सूत्र मचि. सूत्रना बे भेद १ अंग प्रविष्ट अने अंग याद्य. तेमां अंगप्रविष्ट ते १२ अंग-(१ सिद्धांत आचारांग यावत् १२ दृष्टिवाद.) अंगवाद्यना बे भेद १ आवश्यक अने २ आवश्यक व्यतिरिक्त. आवश्यकते रहस्य सामायिकादि छ अध्ययनरुप उत्कालिक. आवश्यक व्यतिरिक्त ते उत्तराध्ययन प्रमुखकालिक अने दशवैका॥१०९॥ कालिक वगेरे उत्कालिक सूत्र-सांभलवा-भणवानी रुचि ते सूत्र चि. ४ उवएसकइ कहेतां गीतार्थ मुनि प्रमुहै। दना उपदेश-श्रवणथी जे श्रद्धान, थाय ते उपदेश मचि. १ अज्ञानथी बांधेल कम, ज्ञानथी क्षय थाय. २ मि. थ्यावधी बांधेल कर्म, समाकितथी क्षय थाय.३ अबिरतिथी बांधेल कर्म, विरतिथी क्षय थाय.४ प्रमादथी बांधेल कर्म, अप्रमादथी क्षय थाय. ५ कपायथी बांधल कर्म, अकषायथी क्षय क्षाय. ६ अशुभ योगथी संचित करेल कर्म, शुभ योगथी क्षय थाय. ७ पांच इंद्रिय बगेरे आश्रवथी संचित कर्म, संवरथी क्षय थाय. इत्यादिक उपदेश ऋषणनी जे इच्छा ते उपदेश कचि अथवा अचगाढरूचि-(विस्ताररूचि )-पण कहीए. हवे धर्मध्यावना ४ आलंबन कहे छेः-१ बायणा कहेतां गीतार्थगुरु प्रमुख पासे स्त्र अने अर्थनी याचना लेवी ते वाचना २ Fपुच्छणा कहेतां अपूर्व अर्थ-मेळयवा माटे, सूत्र ने अर्थनो संदेह निवारवा वास्ते, जिनशासनने शोभाववाने अर्थे, अथवा परनी परीक्षा करवा माटे, यथा योग्य विनय सहित गुर्वाथिकने पूछg ते पृच्छना. ३ परियट्टणा कहेतां पूर्व जे सत्रने अर्थ भणेला छे तेने अस्खलित (भूली न जवाय तेम) करवा माटे शुद्ध उपयोग सहित वारंवार सूत्र ने अर्थनो स्वाध्याय करवो ते परिवर्तला. ४ अणुप्पेहा कहेनां जीवादिक तत्त्व, रहस्य समजधा ----- r enestermsezMDESCREEPREE 3,3- M, vị C3- . comedy मान Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥११०॥ माटे सूत्रने अर्थनुं चिंतन ( अनुभव ) करवुं ते अनुपेक्षा. ते चार प्रकारे छे - १ एगञ्चाणुप्पेहा कहेतां एकत्वानुप्रेक्षा. निश्चयनये असंख्यात प्रदेशी, अमूर्त्त, सदा सउपयोगी, चैतन्य लक्षण एवो मारो आत्मा छे, तेम सर्व आत्माओ निश्चयनये तेवाज छे. ज्ञान-दर्शन मारुं स्वरूप छे, ते सिवाय पुद्गलिक भावो ते बाह्य-उपाधिरूप छे; ए माराथी हवे व्यवहारनये आ आत्मा अनादिकालनो जड ( अचैतन्य ) वर्णादिवाळा पुद्गलनो संयोगी थयो थको स्थावर-त्रसना विविधरूप पामीने जीव नाटकियानी परे चोर्यासीलाख जीवायोनिमां विविध वेष धारण करेल छे. त्रपणे रहेतो ज० अंतमु० अने उ० बे हजार सागर झाझरा काल सुधी रहे अने स्थावरपणे रहे तो ज० अंतमु०ने उ० अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी लगे रहे. क्षेत्रथी अंगुलना असंख्यातमा भाग मात्र आकाशप्रदेश राशि प्रमाण असंख्याता पुद्गल परावर्तन काललगे रह्यो वली स्त्रीवेद पुरुषवेद अने नपुंसक वेदपणे जीव, पुद्गलना संयोगधी नाच्यो. तेमां पण स्त्रीवेदे - देवीपणे, भवनपतिथी इशान देवलोक सुधी इंद्रनी इंद्राणीपणे तथा स्वरूपवती अप्सरापणे ज० १० हजार वर्ष अने उ० ५५ पल्यनी स्थिति ए अनंतवार आ जीव उपनो. पुरुषवेदे - देवपणे भवन पतिथी यावत् नव चैवेयक सुधी महर्द्धिक देवपणे अनंतबार उपनो. महाशक्तिवंत इंद्र, लोकपाल प्रमुखपद पामी ज० १० ह० वर्ष अने उ० ३१ सागर पर्यंत मनोवंच्छित सुख भोगव्या. शक्रेंद्रे एक भवमां सात पल्यनी आयुष्यवाळी २२ क्रोडो क्रोड, ८५ लाख क्रोड, ७१ हजार क्रोड, ४२८ क्रोड, एटली देवीओ भोगवी तो पण ते तृप्त न थयो. स्त्रीवेद-पुरुषवेदे - मनुष्यपणे देवकुरु ने उत्तरकुरुमां युगलिया धर्मध्यान विचार ॥११०॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणे उपनो, त्यां मनोवंच्छित १० प्रकारना कल्पवृक्ष संबंधी सुखो त्रण पल्य सुधी भोगव्या; ज्यां स्त्री-पुरुषनो: सिद्धांतक्षणमात्र वियोग पण पडे नहिं एम युगलिकपणे अनंतवार उपनो. वली कर्मभूमि मध्ये मनुष्यभवमां पुरुष धर्मध्यान रहस्य RI विचार वेदे चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, अने मंडलिक राजा थयो अने स्त्रीवेदे स्त्रीरत्न आदि नारीणे उत्पन्न भयो, ॥१११॥ क्रोडपूर्वादिकना आयुष्यपर्यंत सुम्पविलग्या तो पण तृप्ति न थइ, एमज उत्तम धनिक शेठ-साहुकारने घरे ॥१११॥ ला अनंतवार नो. बली दुर्भागी अने दरिद्र कुलमा अतिशय दुःख भोगव्या. जलचरादि तिर्यच संशि पंचेंद्रिय मध्ये अनेक र उपनो. गर्भज मनुष्य अने तिर्यंचमांत्रण वेद होय. सात नरक पांच एकेंद्रिय, त्रण विकलेंद्रिय अने अपंजी पंचंद्रियमा एक नपुंसकवेद होय. देवमां बे (स्त्रीपुरुष) वेद होय हवे ३ वेदनी स्थिति कहे छ १ स्त्रीवेदनी स्थिति अंतर्नु ने उ. पृथपत्व कोड एवं अधिक ११० पल्योपमनी. पुरुषवेदनी ज० अंतमु० ने Nउ० पृथक्त्व मो सागरनी. नपुंसकवेदनी ज. अंतर्मुने उ० अनंतकाल चक्रनी. पुद्गल (परभाव )ना संयोगपी एम विचित्र अवस्था धारण करी, ए सर्व अवस्था अशुद्ध व्यवहारनये जाणवी. शुद्ध व्यवहारमये शुद्ध देव, गुरु अने धर्मनी पथार्थ ओलग्वाण करी रखत्रयनु आराधन करवाथी, शुद्ध निश्चयनये जे आत्मानु स्वरूप, शक्तिरूपे छे ते व्यक्तिरूपे प्रगट थाय. कारण ? पुगल तो 'सडण पडण किदूसण स्वभाववाळो अने रूपी (मृत) छे. हं अविनाशी-अरूपी अमृत छु. कोइपण द्रव्य कोइ द्रव्यमां निश्चय नये मळे नाहिं, माटे 'एगोह' हुँ एकज छ; एम एकत्व भावनुं चिंतन करवू ते एकत्वानुप्रेक्षा. २ अणिचाणुप्पेहा कहेनां आत्मा द्रव्यार्थिकनये नित्य छे ACCORDAROGRECEBO4 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ सिद्धांत रहस्य ॥११२॥ पदवी विचार ॥११२॥ अने पर्यायार्थिकनये देव मनुष्यादि पर्यायरूपे अनित्य छे; तथापि मूलस्वरूपथी आत्मा क्यारे पण पलटे नहिं. है देवादिपर्यायो कर्मना संबधी छे, माटे अनित्य छे. त्यारे पुद्गलादि जे परभाव अनित्य छे तेथी मुक्त थवानुं चिंतवq ते अनित्यानुप्रेक्षा. ३ असरणानुप्पेहा कहेतां आ जीवने संसार चक्रमा परिभ्रमण करवामां, अन्य (कोइपण ) रक्षण करवा समर्थ नथी. माता, पिता, पुत्र बंधु के स्त्री वगेरे अने मिथ्यात्वि देव, गुरु के मिथ्या धर्म पण रक्षण करवा समर्थ नथी. परंतु केवल शुद्ध समकित सहित वीतराग धर्मज. आ भव के परभवमां जीवने एक शरण छे. ४ संसाराणुप्पेहा कहेतां चार गति रूप संसारमा चोवीश दंडक चोर्यासी लाख जीवायोनिमां-अनादिकालथी जीव, राग-द्वेष ने वश थइ परिभ्रमण करे छे. संसारना मूल कारणभूत मिथ्यात्वादि पांच कारणो छे अने संसारथी मूकावनार समकित, अविरति, अप्रमाद, अकषाय अने योग निरोधनुं स्वरूप चिंतववू ते संसारानुप्रेक्षा. एम धर्मध्याननुं स्वरूप समजीने ध्याइएं-आचरणमां मूकीएं तो परमानंदरूप मोक्षy सुख पामीएं. इति धर्मध्यान विचार समास. अथ श्री पदवीविचार-७ एकेंद्रिय रत्न, ७ पंचेंद्रिय रत्न अने ९ मोटी पदवी. ए २३ पदवी. तेमां ७ एकेंद्रिय रत्नना नाम कहे छे-१ चक्ररत्न, २ छत्ररत्न, ३ चरमरत्न, ४ दंडरत्न, ५ खड्गरत्न, ६ मणिरत्न अने ७ कांगणीरत्न. हवे ७ पंचेंद्रियरत्न,ना नाम-१ सेनापतिरत्न, २ गाथापतिरत्न, ३ वार्द्धिकरत्न, ४ पुरोहितरत्न, ५ स्त्रीरत्न,६ अश्वरत्न, ने ७ गजरत्न. हवे नव मोटी पदवीना नाम-१ अरिहंतनी पदवी, २ चक्रवर्तीनी०,३ बल - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥११३॥ देवनी०, ४ वासुदेवनीं०, ५ केवलीनी०, ६ साधुनी०, ७ श्रावकनी०, ८ समकितदृष्टिनी अने ९ मंडलिकराजानी. एवं वीश पदवी कही. हवे १४ रत्नो जे काम करे ते कहे छे-१ चक्ररत्न छ खंड साधतां मार्ग बतावे. २ छत्र रत्न ४८ कोश सुधी छाया करे. ३ चर्मरत्न नदी प्रमुखधी पार उतारे. ४ दंडरत्न गुफाना बारणा उघाडे. ५ असि ( खड्ग ) रत्न शत्रने हणे. ६ मणिरत्न उद्योत करे. ७ कांगणी रत्न ४९ मांडला आलेखे अने तोलामाप वधारे. ८ सेनापति देश-साधे. ९ गाथापति धान्य तथा रसवती नीपजावे. १० वार्द्धिक आवास (घर) नीपजावे. ११ पुरोहित घा साजा करे, शांति कर्म करे अने विघ्न डाले. १२ स्त्रीरत्न भोग साधन माटे काम आवे. १३ १४ अश्वरत्न- गजरत्न ए बन्ने चडवाने काम आवे. हवे १४ रत्नना उत्पत्ति स्थानो कहे छे-चक्र, छत्र, असि अने दंडरत्न ए ४ आयुधशालामां उपजे. चर्म, मणि ने कांगणीरत्न ए ऋण लक्ष्मीना भंडारमां उपजे, सेनापति, गाथापति, पुरोहित ने बार्दिक ए ४ पोताना नगरमां उपजे. स्त्रीरत्न विद्याधरनी श्रेणिमां उपजे, अश्व ने गज, वैताढवना मूलमां उपजे हवे १४ रत्ननुं मान कहे छे― चक्र, छत्र ने दंडरत्न ए ३ एक वामना ( चार हाथना ) छे. चर्मरत्न बे हाथनुं छे. असिरत्न ५० अंगुलनं लांबु, १६ अंगुलनुं पहोकुं अने अर्द्ध अंगुल | जाहुं छे. मणिरत्न ४ अंगुलनुं लांबु ने २ अंगुलनुं पहोकुं छे. कांगणीरत्न ४ अंगुलनुं छे. सेनापति, गाथापति, पुरोहित अने वाकिरत्न ए ४नी अवगाहना चक्रवर्ती प्रमाणे होय . स्त्रीरत्न, चक्रवर्तीथी ४ अंगुल नीची १ कांशणीरत्न भने खड्गरत्ननुं माप, प्रथमनी छापेली प्रतमां फरक छे अहिं 'संग्रहणी'ने अनुसारे लखेलुं छे. पदवी विचार ॥११३॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥११४॥ होय. अश्वरत्न १०८ अंगुलनं लांबु, ८० अंगुलनं उंधुं अने ९९ अंगुल मध्य परिधिवालुं छे. गजरत्न, चक्रवतौथी बमणुं उंचुं होय. हवे नरक वगेरेमांधी चवीने जीव केटली पदवी पामे ते कहे छे-पहेली नरकनो नीकल्यो (जीव ) १३ पदवी पामे ते २३मांथी ७ एकेंद्रियरत्ननी वर्जवी. बीजी नरकमांथी नी० १५ पदवी पामे ते १६ मांथी १ चक्रवर्तीनी वर्जवी. त्रीजी नरकमांथी नी० १३ प० पामे ते १५मांथी बलदेव ने वासुदेवनी वर्जवी. चोथी नरकमांथी नी० १२ प० पामे ते १३मांथी १ तीर्थंकरनी वर्जवी. पांचमी नरकथी नी० ११ प० पामे ते १२मांथी १ केवलीनी वर्जवी. छट्ठी नरकथी नी० १० १० पामे ते ११मांथी १ साधुनी वर्जवी. सातमी नरकधी नी० ३ पदवी पामे अश्व, गज अने समकितदृष्टिनी. भवनपति, व्यंतर अने ज्योतिष्कथी नी० २१ प० पामे ते २३मांथी अरिहंतने वासुदेवनी २ वर्जवी. पृथ्वी, पाणी, वनस्पति, गर्भजमनुष्य अने तिर्यंच (संख्यातवर्षायुष्य वाला), एटलामांथी नी० १९ प० पामे ते २३मांथी तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेवने वासुदेव, ए ४ वर्जवी. वे इंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय, समुर्छिम मनुष्य ने तिर्यंच, एमांथी नी० १८ प० पामे ते १९मांधी १ केवलीनी वर्जवी. तेज, वायुनो नी० ९, प० पामे, ते ७ एकेंद्रिय रत्न, अश्व ने गजरत्ननी. १५ परमाधामीने १ किल्विषिकनो नी० १८ प० पामे, ते २३मांथी ४ उत्तम पुरुष अने केवलीनी ए ५ वर्जवी. २ किल्विषिकनानी. ११ प० पामे ते १८मांथी ७ एकेंद्रियरत्ननी वर्जवी. पहेला - बीजा देवलोकनो नी० २३ प० पामे. त्रीजाथी आठमा देव०ना नी० १६ प० पामे, ७ एकेंद्रियरत्ननी वर्जवी. नवमा देव०थी नव ग्रैवेयक सुधीनो नी० १४५० पामे, ते १६मांथी पदवी विचार ॥११४॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥११५॥ अश्व ने गजरत्ननी वर्जवी. ९ लोकांतिक ने ५ अनुत्तरविमाननो नी० ८, प० पामे ते २३मांथी १४ रत्नने १ वासुदेवनी वर्जवी. संज्ञां १५, प० लाभे ते २३मांथी ७ एकेंद्रियरत्नने १ केवलीनी वर्जवी. असंज्ञीमां ८, प० लाभे ते ७ एकेंद्रियरत्न ने १ समकिननी. तीर्थंकर ने चक्रवतीमा ६ प० लाभे ते १ तीर्थंकरनी, २ केवलीनी, ३ चक्रवर्तीनी ४ साधुनी, ५ समकीतनी, ६ मंडलीकराजानी. वासुदेवमां ३ प० लाभे १ वासुदेवनी, २ मंडलिकराजानी, ३ ममकितनी बलदेवम ५ प० लाभे १ मंडलिकनी, २ बलदेवनी, ३ केवलीनी, ४ साधुनी ५ समकितनी. मनुष्यनां १३ प० लाभे ते २३मांथी ७ एकेंद्रियरत्ननी अश्वने गजरत्ननी अने १ स्त्रीरत्ननी ए१० वर्जची. मनुष्यणीमा ५ प० लाभे १ केवलीनी, २ साधवीनी, ३ श्राविकानी, ४ समकितनी, ५ स्त्रीरत्ननी. इति पदवी विचार समाप्त. अथ श्री सिझणाद्वार -- १ पहेली नरकना नीकल्या (जीवो) एकससथे १० सीझे २ बीजी नरकना नी० एकस० १० सीझे ३ त्रीजानरकनानी० एक० १० सीझे ४ चोथी नरकनानी० एक० ४ सीधे ५ भवनपतिनानी० एक० १० सीझे ६ भवनपतिनी देवीनानी० एक ५ सीझे ১৮%%%%%%% % % 46 सिझणाद्वार ॥११५॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N FAC सिद्धांतरहस्य ॥११६॥ सिझणाद्वार ॥११६॥ HAR ७८ पृथवी-पाणीनानी० एक०४ सीझे ९ वनस्पतिनानी एक. ६ सीझे १० गर्भजपंचेंद्रिय तिर्यंचनानी. एक० १०. ११ तिर्यचणीनानी. एक-१० सीझे १२ गर्भजमनुष्यनानी० एक. १० सीझे १३ मनुष्यणीनानी० एक०२० सीझे १४ व्यंतरनानी० एक० १० १५ व्यंतरीमानी० एक०५ १६ ज्योतिष्कनानी० एक० १० १७ ज्योतिष्कनी देवीनानी. एक० २० १८ वैमानिक देवनानी० एक० १०८ १९ वैमानिकनी देवीनानी० एक.२० २० स्वलिंगे एक स० १०८ २१ अन्यलिंगे एक. स. १० २२ गृहस्थलिंगे एक. ४ २३ स्त्रीलिंगे एक. २० २४ पुरुषलिंगे एक० १०८ २५ नपुंसकलिंगे एक १० २६ उर्ध्वलोके एक०४ २७ अधोलोके एक. २० २८ तिरछालोके एक० १०८ २९ उत्कृष्ट अवगाहनावाला एक० २ ३० मध्यम अवगाहनावाला एक० १०८ ३१ जघन्य अवगाहनावाला एक०४ ३२ समुद्रमां एक. २ ३३ नदी वगेरे शेष जलमां एक०३ ३४ तीर्थमां एक०१०८ ३५ अतीर्थमां एक०१० ASAHASHISHASKAR Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥११७॥ ३६ तीर्थंकर एक० २० ३७ अतीर्थंकर एक० २०८ ३८ स्वयंबुद्ध एक० ४ ३९. प्रत्येकबुद्ध एक० १० ४० बुद्धबोधित एक० १०८ ४१ एकसिद्ध एक० १ ४२ अनेकसिद्ध एक० १०८ ४३ प्रत्येक विजये एक० २० ४४-४५-४६ भद्रशाल, नंदनने सोमनसवनमां ए०४ | ४७ पंडकवनमां एक० २ ४८ अकर्मभूमिमां एक० १०८ ४९ कर्मभूमिमां एक० १० संहरण भाश्रयी समजवु ५०-५१ ५१ पहेले, बीजे अने छडे आरे १० ५३ पांचमे आरे २० ५४-५५ त्रीजे चोथे आरे १०८ ५६ - ५७ अवसर्पिणी ने उत्सर्पिणीमां १०८ ५८ नोअवसर्पिणी नोउत्सर्पिणीमां १०८ ५० एकथी मांडी ३२ सुधी सीझे तो ८ समय सुधी, पछी अवश्य अंतर पडे. ६०-३३थी मांडी ४८ सुधी, ७ समय लागट सीझे ६१-४९थी मांडी ६० सुधी, ६. समयलगे सीधे ६२-६१थी मांडी ७२ सुधी, ५ समय लगी सीझे ६३-७३ थी मांडी ८४ सुधी, ४ समयलगी सीझे ६४-८५थी मांडी ९६ सुधी, ३ समयलगी सीझे २ अवसर्पिणीकालना पांचमा आरा आश्रयी जाणधुं, ॥११७॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरह विचार ॥११८॥ १६५-९७थी १०२ सुधी, २ समयलगी सीझे । पिछी अवश्य विरह पडे. सिद्धांत- ६६-१०३थी १०८ सुधी, १ समय सुधी सीझे इति सीझणा द्वार समाप्त. रहस्य अथ विरहविचार-समुच्चय नरकगतिनो विरहकाल ज०१ समयनो अने उ०१२ मुहर्तनो पहेली नर॥११८॥ कथी यावत् ७मी नरकमां ज.१ समयनो अने उ. अनुक्रमे २४ मुहर्तनो ७ दिवसनो, १५ दिवसनो, १ दमासनो, २ मासनो, ४ मासनो, ६ मासनो उपजवानो तेमज चववानो विरह जाणवो. दश भवनपतिनो ज. १ समयनो, उ०२४ मुहूर्तनो, पांच एकेंद्रियनो (उपजवा के चववानो) विरह नथी. व्रण विकलेंद्रियमां (प्रत्येकनो) ज०१ समयनो, उ. अंतर्मुहर्तनो समुच्छिम पंचेंद्रियनो ज. एक समयनो उ० २४ मुहूर्तनो. गर्भजमनुप्यनो ज०१ समयनो, उ०१२ मुहर्तनो. व्यंतर, ज्योतिष्क अने पहेला-बीजा देवलोकनो ज०१ समयनो, उ. २४ मुहूर्तनो. त्रीजे देवलोके ज०१ समयनो. उ०९ दिवस ( अहोरात्र ) अने २० मुहूर्तनो. चोथे देव० ज०१ समयनो, उ० १२ दिवस अने १० मुहूर्तनो. पांचमे देव० ज०१ समयनो, उ०२२।। दिवसनो. छठे देव० ज०१ समयनो, उ० ४५ दिवसनो. सातमे देव० ज० १ समयनो, उ०८० दिवसनो. आठमे देव. ज०१० नो, उ० १०० दिनो, नवमे दशमे देव० ज०१ सनो, उ० संख्याता मासनो. इग्यारमे-बारमे देव० ज० १ सानो, सीझणाना सर्व द्वारो पन्नवणादि सूत्रमा जणाता नथी. लोकप्रकाशमां चोथा आरामा १०८ बाकीना आरामां 10 सीसे अवसर्पिणमा | भने उस्स० कालमां ब्रीजा धारामां १०८ अने शेष आरामा १० सीझे आ चोवीशमां श्रीजा भारामां १०८ सिद्ध थया ते माश्चर्य [अरो] के. CAMERCISEASEARS HEARSHASH Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥ ११९ ॥ उ० संख्याता वर्षनो. ९ ग्रैवेयकमां हेडली त्रिके ज० १ स०नो, उ० संख्याता सेंकडो वर्षनो मध्यम त्रिके ज० १ स०नो, उ० संख्याता हजार वर्षनो. उपरली. त्रिके ज० १ स०नो, उ० संख्याता लाख वर्षनो. चार अनुत्त रमां ज० १ स०नो, उ० पल्यना असंख्यातमा भागनो. सर्वार्थमिद्धमां ज० १ स०नो, उ० पल्यना संख्यातमा भागनो. ए विरहकाल उपपात अने चवननो जाणवो. सिद्धमां ज० १ स०नो, उ०६ मासनो. ए उपपातनो विरह छे. चार गतिमां पंचेंद्रिय आश्रयी विरहज. १ स०नो, उ०१२ मुहर्तनो. सर्व इंद्रस्थानके ज० १ स०नो, उ० ६ मासनो, इति विरह विचार समाप्त. अथ चतुर्विंशति जिन अंतर [आंतरा] कहे छे - १८ कोडाकोडी सागरोपमने अंतरे पहेला श्री ऋषभदेव ( तीर्थंकर) विनितानगरीने विषे थया नाभिराजा पिता अने मारुदेवीमाताना पुत्र हेमवर्ण अने वृषभनुं लंछन छे. ५०० धनुष्यनुं देहमान अने ८४ लाख पूर्वनुं आयुष्य भोगव्यं तेमां २० लाख पूर्व कुंवरपणे रहीने ६३ लाख पूर्व राज्य पाल्युं अने १ लाख पूर्व प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीघा पछी १ हजार वर्षे प्रभुने केवलज्ञान उपनुं. त्यारपछी साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविकारुप चतुर्विध संघ (तीर्थ) स्थापी अने द्वादशांगी-गणि पेटी आपी ने महीमंडलमां विचरतां त्रीजा आराना ३ वर्ष अने साडाआठ मास बाकी रह्या त्यारे महावदि तेरस ने दिने १० हजार साधुओ संघाते अष्टापद पर्वत उपरे प्रभुमोक्षे पधार्यां. पहेला श्रीआदिनाथ तीर्थंकर निर्वाण अंतरआंतरा कहे छे ॥११९॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N JHI सिद्धांतरहस्य ॥१२०॥ ४ अंतरआंतरा कहे छे ॥१२॥ + M | पाम्या, पछी ५० लाख कोडी सागरोपमने अंतरे बीजा अजीतनाथ भगवान् अयोध्यानगरीने विषे पया. जीतशत्रु राजा अने विजयादेवीमाताना पुत्र. हेमवर्ण अमे हस्तिनुं लंछन छे. साडाचारसे धनुष्यनुं देहमान अने ७२ लाख पूर्वचं आयुष्य. भोगव्यु. तेमां १८ लाख पूर्व कुंवरपणे रहीने १३ लाख पूर्व राज्य पाल्युं अने १ लाख पूर्वनी प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी १२ वर्षे केवलज्ञान उपमुं. साधु द्वादशांगी. (पूर्ववत्) महीमंडलमा विच| रतां छेवटे १ हजार साधु संघाते सम्मेतशिखर पर्वत उपरे प्रभुनिर्वाण पाम्यां. अजीतनाथ तीर्थकर मोक्ष | गया पछी ३० लाख कोडी सागरने अंतरे, साबत्थीनगरीने विषेत्रीजा संभवनाथ तीर्थकर धया, जीतारिपिता अने सेनादेवीमाताना पुत्र, हेमवर्ण अने अश्वनुं लंछन छे. चारसे धनुष्य देहमान अने ६० लाख पूर्वनु आयुप्य भोगव्यु. तेमा १५ लाख पूर्व कुंवरपणे रहीने ४४ लाख पूर्व राज्य पाल्युं अने १ लाखपूर्व प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी १४ वर्षे केवलज्ञान उपर्नु साधु० द्वादशांगी (पूर्ववत् ) १ हजार साधु संघाते प्रभु सम्मेतशिखर उपरे निर्वाण पाम्या. त्रीजा संभवनाथ तीर्थकर मोक्ष गया पछी १० लाख कोडी सागरने अंतरे S . १ थया' ते जम्म्या एम संभवतु नथी, जो एम मानीए तो ऋषभदेव अने महावीरस्वामीन अंतरर्नु मेळ धतुं नधी; माटे 'थया' एटले सिद्ध थया. एम प्रवचनसारोदार अने कल्पसूत्रमा कहेलुं छे. 'समुपन्ने' शब्दनो अर्थ सिद्ध थया एम कहेल छे. २ ५३ लाख ने । पूर्वांग अधिक | | राज्य पालबार्नु आवश्यक मूल भाप्यमा कहेलु हे. तेमज ब्रीजा, चोथा, पांचमा, छठा, सातमा, आठमा ने नवमा तीर्थकरोए ४-८-१२-१६-२०२४ ने २८ पूर्वांग, अधिक राज्य पाल्यु छे. 'पूर्वाग' ते ८५ लाख वर्ष प्रमाण जाणवू, 4-059 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 २४ जिननां अंतरआंतरा कहे छे | ॥१२॥ - 4 चोथा अभिनंदन तीर्थकर विनिता नगरीने विषे थया. संवरपिता अने सिद्धार्थी देवी माताना पुत्र, हेमवर्ण सिद्धांत- अने वानर, लंछन छे. साडात्रणसें धनुष्यनुं देहमान अने ५० लाख पूर्वनें आयुष्य भोगव्यु. तेमां साडाबार रहस्य * लाख पूर्व कुंवरपणे रहीने साडाछत्रीशलाख पूर्व राज्य पाल्युं अने १लाख पूर्व प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी ॥१२॥ १८ वर्षे केवलज्ञान उपमुं. साधु द्वादशांगी (पूर्ववत् )१ हजार साधु संम्मेतशि० ( पूर्वत् ) चोथा अभिनंदन ट्र तीर्थकर मोक्ष गया पछी १ लाख कोडी सा० ने अंतरे पांचमा सुमतिनाथ तीर्थकर कुशलपुरी नगरीने विषे ★थया. मेघरथ पिता अने सुमंगलादेवी माताना पुत्र. हेमवर्ण अने क्रोच (पक्षी)नुं लंछन . ३५० धनुष्यनुं मा देहमान अने ४० लाख पूर्वन आयुष्य भोगव्यु. तेमा १० लाख पूर्व कुंवरपणे रहीने २९ लाग्य पूर्व राज्य पाल्यु अने १ लाख पूर्व प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी २० वर्षे केवलज्ञान उपमुं. सा. द्वाद० ( पूर्ववत् ) १ हजार साधु सं० सम्मेतशि० निर्वाण पाम्या. पांचमा सुमतिनाथ तीर्थंकर मोक्ष गया पछी ५० हजार कोडी सा. ने अंतरे छट्ठा पद्मप्रभ तीर्थंकर कौशांबी न० ने विषे थया. श्री धरपिता अने सुसीमादेवीना पुत्र, राते वर्णे अने पद्मकमलनु लंछन छे. २५० धनुष्यनुं देहमान अने ३० लाग्य पूर्वन आयुध्य भोगव्यु. तेमा माडासात लाग्व पूर्व कुंवरपणे रहीने साडाएकवीश लाख पूर्व राज्य पाल्युं अने १ लाव पूर्व प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी ६ मासे के ज्ञान उपमुं. सा. द्वाद० ( पूर्ववत् ) ३०८ साधु सं. मम्मेतशि० (पूर्ववत् ) छठा पद्मप्रभ १ प्रवचनसारोद्धारमा 'तिनिअटसया' आ पाठ छे, अर्थमा ३०८ लखेल छे कोइक आ वायों ८०३ पण कहे छे. बन्ने मतनु टिपण आव 1 ANSAR -42-44-47 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१२२॥ तीर्थंकर मोक्ष गया पछी सातमा सुपार्श्व तीर्थंकर वाणारसी नगरीने विषे थया. प्रतिष्टपिता अने पृथवी देवीमाताना पुत्र. हेमवर्ण अने साथियानुं लंछन छे. २०० धनुष्यनुं देहमान अने २० लाख पूर्वनुं आयुष्य भोगव्युं. तेम ५ लाख पूर्व कुंवरपणे रहीने १४ लाख पूर्व राज्य पाल्युं. अने १ लाख पूर्व प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीघा पछी ९ मासे के० ज्ञान उपनुं. साधु० द्वाद० (पूर्ववत् ) ५०० साधु सं० सम्मेतशि० ( पूर्ववत् ) सातमा सुपार्श्व तीर्थंकर मोक्षे गया पछी नवसें कोडी सा० ने अंतरे श्री चंद्रप्रभ तीर्थंकर, चंद्रपुरी नगरीने विषे थया. महासेन पिता अने लक्ष्मणादेवी माताना पुत्र. उज्वल वर्ण अने चंद्रमानुं लंछन छे. १५० धनुष्यनुं देहमान अने १० लाख पूर्वनुं आयुष्य भोगयुं, तेमां अढीलाख पूर्व कुंवरपणे रहीने माडा छ लाख पूर्व राज्य पाल्युं अने १ लाख पूर्व प्रव्रज्या पाळी. प्रव्रज्या लीधा पछी ३ मासे के० ज्ञान उपनुं साधु० द्वाद० ( पूर्ववत् ) १ हजार साधु सं० सम्मेतशि० ( पूर्ववत् ). चंद्रप्रभ तीर्थंकर मोक्ष गया पछी ९० कोडी सा० ने अंतरे नवमा सुविधि नाथ तीर्थकर काकंदी नगरी ने विषे थया. उज्वलवर्ण अने मगरनुं लंछन छे. १०० धनुष्यनुं देहमान अने २ लाख पूर्वनुं आयुष्य भोगव्युं. तेमां अर्द्ध लाख पूर्व कुंवर पणे रहीने अर्द्ध लाख पूर्व राज्य पाल्युं अने १ लाख पूर्व प्रव्रज्या पाळी. प्रव्रज्या लीधा पछी ४ मासे के० ज्ञान उपनुं. साधु० द्वाद० ( पूर्ववत् ) १ हजार साधुसं० सम्मेतशि० (पूर्ववत् ) श्री सुविधिनाथ तीर्थंकर मोक्षे गया पछी दशमा शीतलनाथ तीर्थंकर भदिलपुर नगरने विषे दृढरथ श्यक टिपणमां छे. थोकडानी छापेली प्रतमां ७३ कहेल छे. १ आवश्यक भाध्यमां ३ मास कट्टेल छे. C+ २४ जिननां अंतरआंतरा कहे छे ॥१२२॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥ १२३ ॥ *4-44 पिता अने नंदा देवीना पुत्र हेमवर्ण अने श्री वत्सनुं लंछन छे. ९० धनुष्यनुं देहमान अने १ लाख पूर्वनुं आयुष्य भोगव्यं. तेमां पालाख पूर्व कुंवरपणे रहीने अर्द्धलाख पूर्व राज्य पाल्युं अने पा लाख पूर्व प्रव्रज्या पाली प्रव्रज्या | लीघा पछी मासे के०ज्ञान उपनुं. साधु द्वाद० (पूर्ववत्) १ हजार साधु सं० सम्मेतशिखर पर्वत० (पूर्ववत् ) शीतल नाथ तीर्थंकर मोक्ष गया पछी एकसो सागर अने ६६ लाख २६ हजार वर्ष न्यून १ कोडी सा० ने अंतरे इग्या मां श्री श्रेयांसनाथ तीर्थंकर, सिंहपुर नगरमा थया. विष्णु पिता अने विष्णु देवीमाताना पुत्र. हेमवर्ण अने गेंडानुं लंछन छे. ८० धनुष्यनुं देहमान अने ८४ लाख वर्षनुं आयुष्य भोगव्यं तेनां २१ लाख वर्ष कुंवरपणे रहीने ४२ लाख वर्ष राज्य पाल्युं अने २१ लाख वर्ष प्रव्रज्या पाली, प्रव्रज्या लीघा पछी २ मासे के० ज्ञान उपनुं. साधु० द्वाद० ( पूर्ववत् ) १हजार माधुसं० सम्मेतशि० ( पूर्ववत् ) श्रेयांस नाथ तीर्थंकर मोक्ष गया। पछी ५४ सागरने अंतरे बारमा वासुपूज्य तीर्थंकर, चंपापुरी नगरीमां थया. वसुपिता अने जयादेवी माताना पुत्र. रातेवर्णे अने महिषनुं लंछन छे, ७० धनुष्यनुं देहमान अने ७२ लाख वर्ष आयुष्य भोगव्युं. तेमां १८ लाख वर्ष कुंवरपणे रहीने ५४ लाख वर्ष प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या दीक्षा पछी १ मासे के० ज्ञान उपनं, माधु० द्वाद० ( पूर्ववत् ? छसो साधुसं० चंपापुरीमां (पूर्ववत् ) वासुपूज्य तीर्थंकर मोक्ष गया पछी ३० सा० ने अनरे तेरमा श्री विमलनाथ तीर्थंकर, कंपिलपुर नगरमा थया. कृतवर्म पिता अने श्यामादेवी माताना पुत्र, हेमवर्ण अने वराह (सुवर) नुं लंछन छे. ६० धनुष्यनुं देहमान अने ३० लाख वर्षतुं आयुष्य भोगच्युं तेमां १५ लाख वर्ष | এএ1.6 २४ जिननां अंतरआंतरा कहे छे ॥ १२३॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥ १२४॥ कुंवरपणे रहीने ३० लाख वर्ष राज्य पाल्युं अने १५ लाख वर्ष प्रव्रज्या पाळी. प्रव्रज्या लीधा पछी, २ मासे के० ज्ञान उपनुं. साधु० द्वाद० ( पूर्ववत ) छ हजार साधु सं० सम्मेतशि० ( पूर्ववत् ) विमलनाथ तीर्थंकर मोक्ष गया पछी, ९ सा०ने अंतरे चौदमा अनंतनाथ तीर्थकर अयोध्या नगरीमा धया सिंहसेन पिता अने सुयशा देखी माताना पुत्र हेमवर्ण अने सिंचाणानुं लंछन छे. ५० धनुष्यनुं देहमान अने ३० लाख वर्षनुं आयुष्य भोगत्र्यं. |तेमां ७ || लाख वर्ष कुंवरपणे रहीने १५ लाख वर्ष राज्य पाल्युं अने साडासात लाख वर्ष प्रव्रज्या पाळी. प्रत्रज्या लीधा पछी ३ वर्षे के० ज्ञान उपनुं. साधु० द्वाद० ( पूर्ववत् ) ७ हजार साधु सं० सम्मेनशि० ( पूर्ववत् ) अनंतनाथ मोक्ष गया पछी ४ सा०ने अंतरे पन्नरमा धर्मनाथ तीर्थंकर, रत्नपुरी नगरीमां थया. भानुपिता अने सुव्रता देवी माताना पुत्र हेमवर्ण अने वज्रनुं लंछन छे. ४५ धनुष्यनुं देहमान अने १० लाख वर्षनुं आयुष्य भोगत्र्यं. तेमां अढीलाख वर्ष कुंवरपणे रहीने ५ लाख वर्ष राज्य पाल्युं अने अढीलाख वर्ष प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी २ वर्षे के० ज्ञान उपनुं. साधु० द्वाद० ( पूर्ववत् ) १०८ माधु सं० सम्मेतशि० ( पूर्ववत् ) धर्मनाथ तीर्थंकर मोक्षे गया पछी पोणा पल्य उणा ३ सा०ने अंतरे सोळमा श्री शांतिनाथ तीर्थंकर, हस्तिनापुर नगरमां थया विश्वसेन पिता अने अचिरामाताना पुत्र, हेमवर्ण अने मृगनुं लंछन छे. ४० धनुष्यनुं देहमान अने १ लाख वर्षनुं आयुष्य भोगव्युं, तेमां २५ हजार वर्ष कुंवरपणे रह्या. २५ ह० वर्ष मंडलिकराजापणे | रही २५ ह० वर्ष चक्रवर्तीनी पदवी भोगवी अने २५ ह० वर्ष प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी १ वर्षे के० २४ जिननां अंतरआंतरा कहे छे ॥ १२४॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१२५॥ 1-64-% | ज्ञान उपनु, साधु० द्वाद० ( पूर्ववत् ) ९०० साधु सं० सम्मेतशि० ( पूर्ववत् ) शांतिनाथ तीर्थंकर मोक्ष गया पछी अर्द्ध पल्यने अंतरे सत्तरमा कुंथुनाथ तीर्थंकर, गजपुर नगरमां थया. सरपिता अने श्री देवीमाताना पुत्र. हेम वर्ण अने यकरा (अज) नुं लंछन छे. ३५ धनुष्यनुं देहमान अने ९५ हजार वर्षनुं आयुष्य भोगव्युं. तेमां पोणा चोवीस हजार वर्ष कुंवरपणे रह्या, पोणा चोवीशह० मंडलिक पणे रहीने पोणा चोवीशह० चक्रवर्तीनी पदवी भोगवी अने पोणाचोवीश ह० प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी १६ वर्षे के० ज्ञान उपकुं. साधु० द्वाद० (पूर्ववत्) १ हजार साधु० सम्मेतशि० (पूर्ववत्) कुंथुनाथ तीर्थंकर मोक्षे गया पछी १ हजार क्रोड वर्ष उणा पा पल्पने अंतरे, अढारमा अरनाथ तीर्थंकर, नागपुरी नगरीमां थया. सुदर्शन पिता अने देवी राणी माताना पुत्र. हेमवर्ण अने नंदावर्त्त माथियानुं लंछन छे. ३० धनुष्यनुं देहमान अने ८४ हजारवर्षनुं आयुष्य भोगव्युं. तेमां २१ हजार वर्ष कुंवरपणे रह्या, २१ ह० वर्ष मंडलिकराजापणे रहीने २१ ह० वर्ष चक्रवर्तीनी पदवी भोगी अने २१ ह० वर्ष प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी ३ वर्षे के० ज्ञान उपतु साधु० द्वाद० (पूर्ववत्) १ हजार साधु सं० सम्मेतशि० ( पूर्ववत् ) श्री अरनाथ तीर्थकर मोक्ष गया पछी १ हजार कोडवर्धने अंतरे उगणीशमा महिनाथ तीर्थंकर, मिथिला नगरीमां थया. कुंभपिता अने प्रभावती देवीना पुत्र. नीलवर्णे अने कुंभ लंडन छे. २५ धनुष्य देहमान अने ५५ हजार वर्षं आयुष्य भोगव्युं. तेनां १०० वर्ष कुंवरपणे रहने ५४ हजार ९ सो वर्ष प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीघा पछी १ अहोरात्रे के० ज्ञान उपनुं. साधु० द्वाद० ( पूर्ववत् ) ५०० साधु सं० २४ जिननां अंतरअंतरा कहे छे ।। १२५ ।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मेतशि० (पूर्ववत् ) मल्लिनाथ तीर्थकर मोक्षे गया पछी ५४ लाख वर्षने अंतरे वीशमा मुनिसुव्रत तीर्थकर, सिद्धांत- राजगृही नगरीमा थया, सुमित्र पिता अने पद्मावती देवीना पुत्र श्यामवर्ण अने काचबानु लंछन छे. २० धनु ४२४ जिननां रहस्य प्यनुं देहमान अने ३० हजार वर्षनुं आयुष्य भोगव्यु. तेमां ७॥ हजार वर्ष कुंवरपणे रहीने १५ ह० वर्ष राज्य अंतरआंतरा ॥१२६॥ पाल्युं अने | ह. वर्ष प्रत्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी ११ मासे के. ज्ञान उपन. साधु. द्वाद० (पूर्ववत् ) कहे छ १ हजार साधु सं० सम्मेतशि० ( पूर्ववत् ) मुनिसुव्रत तीर्थकर मोक्ष गया पछी ६ लाख वर्षने अंतरे एकवीशमा ॥१२६॥ |श्रीनमिनाथ तीर्थंकर मिथिला नगरीमा थया. विजय पिता वप्रादेवी माताना पुत्र. हेमवर्ण अने नीलोत्पल (कमल )नुं लंछन छे. १५ धनुष्यन देहमान अने १० हजार वर्षतुं आयुष्य भोगव्यु. तेमा अढीहजार वर्ष कुंवर सपणे रहीने ५ ह० वर्ष राज्य पाल्युं अने अढी ह० वर्ष प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी ९ मासे के. ज्ञान &ा उपन. साधु द्वाद० (पूर्ववत् ) १ हजार साधु मं० सम्मेतशि. (पूर्ववत् ) श्री नमिनाथ तीर्थकर मोक्ष गया पछी ५ लाख वर्षने अंतरे बावीशमा नेमीनाथ तीर्थकर सौरिपुर नगरमां थया. समुद्रविजय पिता अने शिवा| देवी माताना पुत्र. श्यामवर्ण अने शंखनुं लंछन छे. १० धनुष्यनुं देहमान अने १ हजार वर्ष, आयुष्य भोगव्यु तेमा ३०० वर्ष कुंवरपणे रहीने ७०० वर्ष प्रव्रज्या पाली. प्रव्रज्या लीधा पछी ५४ दिवसे के ज्ञान उपर्नु साधु द्वाद० (पूर्ववत् ) ५३ माधु सं० श्री गिरनार उपर निर्वाण पाम्या. श्री नेमिनाथ तीर्थकर मोक्ष गयापछी पोणा चोर्यासी हजार वर्षने अंतरे वेवीशमा श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर, वाणारसी नगरीमा थया. अश्वसेना पिता Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +4 % A सिद्धांतरहस्य ॥१२७|| ---+ २४ जिननां अंतरआंतरा कहे छे ॥१२७॥ 4 4%- अने वामादेवीमाताना पुत्र. नीलवर्ण अने सर्पन लंछन छे.. हाथर्नु देहमान अने १०० वर्षनुं आयुष्य भोगव्यु, तेमा ३० वर्ष कुंवरपणे रहीने ७० वर्ष प्रव्रज्या पाली, प्रव्रज्या लीधा पछी ८४ दिवसे के. ज्ञान उपमुं. साधु. द्वाद० ( पूर्ववत् ) ३३ साधु सं० प्रभु मम्मेतशिखर पर्वत उपर निर्वाण पाम्या, श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर मोक्ष गया. पछी अढीसो वर्षने अंतरे चोवीशमा श्री वर्द्धमानस्वामी तीर्थकर क्षत्रियकुंड ग्राम नगरमां थया. सिद्धाथपिता अने त्रिशलादेवी मानाना पुत्र. हेमवर्ण अने सिंहन लंछन छे. ७ हाथन देहमान अने ७२ वर्षन आयुष्य भोगव्यु. तेमां ३० धर्म कुंवरपणे रहीने ४२ वर्ष प्रव्रज्या पाली, प्रव्रज्या लीधा पछी १२॥ वर्ष ने १५ दिवसे के. ज्ञान उपन. साधु याद० ( पूर्ववत् ) कार्तिक वदि अमावास्यानी रात्रिए चोथा आराना व्रण वर्ष ने साडाआठ मास बाकी रह्या त्यारे बे दिवमर्नु अनशन करी एकाकी पणे पावापुरी नगरीमा प्रभु निर्वाण पाम्पा. पहेला श्री ऋषभदेव स्वामी अने चोवीशमा श्ची वर्द्धमान स्वामी बच्चे ४२ हजार वर्ष उणा १ कोडा कोडी सागरोग्मनु अंतर जाणवू. इति चोवीश जिनांतर समाप्त. श्रीपांच देवनो विचार-१ नामद्वार, २ गुणद्वार, ३ उपपातहार, ४ स्थितिद्वार, ५ ऋद्धितथा विक्रुवणाद्वार, ६ च्यवनद्वार, ७ संचिठणादार, ८ अंतरद्वार, अने ९ अल्पबहुत्वद्वार.ए ९ द्वार पांच देव उपर उतारे छे.१ नाम: हार-१ भव्य द्रव्यदेव, २ नरदेव, ३ धर्मदेव, ४ देवाधिदेव अने भावदेव.२ गुणद्वार-मनुष्य अने तिर्यच पंचें -% 2424-04-41.7 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१२८॥ ॐ443 द्रिय, जे देवगतिमां उपजवानी योग्यतावाला छेतेने भव्य द्रव्यदेव कहीए. जेने १४ रत्न, ९निधान होय 8 अने षट्खंडनो अधिपति चक्रवर्ती होय तेने नरदेव कहीए. जे साधुना २७ गुण सहित होय तेने धर्मदेव कहीए. २४ जिननां जे १८ दोष रहित अने १२ गुण सहित होय तेने देवाधिदेव कहीए. १८ दोषना नाम कहे छे-१ अज्ञान, २ क्रोध, अंतरआंतरा | ३ मद, ४ मान, ५ माया, ६ लोभ, ७ रति, ८ अरति, ९ निद्रा, १० शोक, १ असत्य, १२ चोरी, १३ मात्सर्य, |कहे छे १४ भय, १५ प्राणिवध, १६ प्रेम, १७ क्रीडा प्रसंग अने १८ हास्य, ए १८ दोष रहित होय. हवे १२ गुण कहे छे. ॥१२८॥ १ भगवान् ज्यां ज्यां उभे बेसे अने समवसरे त्यां त्यां (मूल स्कंध, शाखा वगेरे ) बोल सहित, प्रभुथी १२ गुणो उंचो अशोक वृक्ष छाया करे. २ भगवान् ज्या ज्यां समवसरे त्यां त्यां ढींचण प्रमाण पंच वर्ण फूलोनी वृष्टि थाय. ३ दिव्यदनि (योजन प्रमाण विस्तारवाळी वाणी) सर्वना मननां संदेहने हरवावाली होय.४ चोवीश जोड चामरो विंझाय. ५ स्फटिक रत्नमय, पादपीठ सहित सिंहासन उपर प्रभु बिराजे. ६ भामंडल, अंबोडाने ठेकाणे तेजोमय होय. ७ आकाशमां दुंदुभि प्रमुख अनेक वाजां वाजे. ८ भगवान्नी उपर त्रण छत्र उपरा उपरे होय. ९ अनंतज्ञानातिशय, १० अनंत पूजातिशय, ( परमपूज्यपणु), ११ अनंत वचनातिशय अने १२ अनंत अपायापगम अतिशय (निर्दोषपणुं). ए १२ गुण सहित होय, अने ३४ अतिशय तथा ३५ वचनातिशय 'जेणे देवायुः बांधेल छे तेमज भव्य द्रव्य' देव कहेबाय ए योग्य नथी, तेम मानवाथी भव्य द्रव्य देवनी उ० स्थिति ३ पल्योपमनी कही 2 ते घटी शकशे नहिं. २ १८ दोष प्रकारांतरथी पण शाखोमा कहेल के. AAAAABEPEO Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥ १२९ ॥ LOGIS आदि अनंत गुणसहित जे होय ते देवाधिदेव कहेवाय भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक ए चार जातिना देवो, जे देवगति नामकर्मने वेदे छे तेने भावदेव कहीए. ३ उपपात कहे छे–१ भव्य द्रव्य देवमां असंख्यात वर्षना आयुष्यवाला युगलिया ( मनुष्य अने तिर्यंचो ), अने सर्वार्थसिद्धना देवो शिवाय, शेष सर्वस्थानना जीवो उपजे २ नरदेवमा चारजातिना देवो अने पहेली नरक, ए पांच स्थानना उपजे. ३ धर्मदेमां छट्टीने सातमी नरकना जीवो, तेउका० ने वायुका० अने युगलिया - [मनुष्य-तिर्यंच] सिवाय, शेष सर्वस्थानना जीवो उपजे ४ देवाधिदेवमां पहेली, बीजी अने न्रीजी नरकसुधीना [नारक] अने किल्विधिक देव सिवाय वैमानिक देवो उपजे ५ भावदेवमां तिर्यंच पंचेंद्रिय अने संज्ञि मनुष्य, ए वे स्थानना उपजे. ४ स्थितिद्वार - १ भव्य द्रव्य देवनी स्थिति ज० अंतर्मुहुर्त अने उ० ३ पल्यनी. २ नरदेवनी ज० ७०० वर्षनी अने उ० ८४ लाख पूर्वनी. ३ धर्मदेवनी ज० अंतः अने उ० देशेडणी [८ वर्षन्यून] क्रोड पूर्वनी. देवाधिदेवनी ज० ७२ वर्ष अने उ० ८४ लाग्न पूर्वनी. ५ भावदेवनी ज० १० हजार वर्ष अने उ० ३३ सागरोपमनी. ५ ऋद्धि तथा विकुर्वणा कहे छे:--१ भव्य द्रव्यदेव [जेने वैक्रेयलब्धि होय ते] एक यावत् अनेक रूप पण विकुर्वे. २ नरदेवने वैक्रेप लब्धि अवश्य होय ते पण एक यावत् अनेक रूप करे. ३ धर्मदेव [ जेने वैक्रेय लब्धि होय ते ] एक यावत् अनेक रूप करे. ४ देवाधिदेवनी शक्ति अनंत छे पण उत्सुकाना अभावी विकुर्वणा करे नहिं. ५ भावदेवने वै० लब्धि अवश्य होय ते ज० १ २ ३ नेउ० संख्याता रूप विकुर्वे, शक्ति तो असंख्यात रुप कर पांच देवनो विचार ॥१२९॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य पांच देखनो विचार ॥१३०॥ ॥१३०॥ |वानी छे पण करे नहि. ६ चवण द्वार कहे छ:-१ भव्यद्रव्य देव, चवीने देव थाय. २ नरदेव- (चक्रवर्तिपदमां) चवीने नरके जाय. ३ धर्मदेव, चवीने वैमानिक देव थाय के मोक्ष जाय.४ देवाधिदेव, मोक्षमा जाय. ५ भावदेव, धादर पृथवीकायिक, अप्का०, वनस्पतिका०, गर्भज मनुष्य अने पंचेन्द्रिय तियच ए पांचमां जाय. ७ संचिठ णाद्वार कहे छे:-संचिठणा, स्थितिद्वार प्रमाणे छे, पण फरक एटलोज के धर्मदेवनी संचिठणा, ज०* १ समय | अने उ० देशेउणी पूर्वक्रोडनी छे. ८ अंतरद्वार+ कहे छे:-१ भव्यद्रव्यदेवनुं अंतर,-ज०१० हजारवर्षने अंतर्मुहूर्त अधिक अने उ. अनंतकालनु. २ नरदेवनुं अंतर, ज०१ सागर झाझे अने उ० देशेउणा, अर्द्धपुद्गल परावर्तन. . नरदेव [चक्रवर्ती], धर्मदेव थाय [दीक्षा लेतो] स्वर्गमा पण जाय. भगवती-टीका. ज. १ समय अशुभ परिणामने प्राप्त थइने पुनः एक समय शुभभावे रही मरण पामे; ते आश्रयी स्थिति अने संचिठणामां फेर एटलोज के स्थिति ते तेटला काल सामान्यथी रहे, ए काल आश्रयी अने संचिठणा ते भाव आश्रयी अर्थात तेटला कालसुधी ते भावमा रहेवू एम संमवे छे. + कोइ १० १० वर्षना आयुष्यवालो देव, चवीने शुभ पृथब्यादिकमां अंतर्मुहूर्त आयुष्य भोगवी भव्य द्रव्यदेवमा उपजे ते आश्रयी अंतर्मुहूर्त अधिक कहेल छे. उ० अंतर, वनस्पतिमा उत्पन्न थवा आश्रयी. कोइक चक्री [ विषयवासनावाळो ] मरीने १ सागरने आयुष्ये नरकमां उत्पन्न थइने त्यांची पुनः नरदेव थाय, ते ज्यांसुधी चक्ररत्न | उत्पन्न न थाय यांसुधीनो अधिककाल चाणवो.. समकीती सिवाय चक्रवर्तिपणानी प्राप्ति न थाय माटे उ. अद्ध पुछ परावर्तथी अधिक अंतर न होय. धर्मदेव [साधु, सौधर्मकल्पमा पृथक्त्व पल्योपमना आयुष्ये उत्पन्न थइ, पुनः नरभव पामी आठ वर्षे चारित्र स्वीकारे ते आश्रयी जाण, आठ वर्षनो समावेश पृथक्त्व पल्यमां थाय छे. उ. अंतर माटे पूर्वनी परे जाणवु, कोइक देव [भावदेव चवीने अंतर्मुहूर्तना आयुष्यवाला तियंचपणे उत्पा थइने पुनः देवमा उपजे ते आश्रयी ज. अंतर का अने उ. अंतर पूर्ववत्. *SA-ATRIK Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tha विचार १३१॥ - ३ धर्मदेवन अंतर, ज. पृथक्त्व पल्यनु अने उ० अर्द्धपुद्गल परावर्तनुं. ४ देवाधिदेवन अंतर नथी. ५ भावदेवन सिद्धांत अंतर, ज० अंतर्मु० अने उ० अनंतकालनु. ९ अल्पाबहुत्व द्वार कहे छ:-१ सर्वथी थोडा नरदेव. २ तेथी रहस्य देवाधिदेव संख्यातगुणा. ३ तेथी धर्मदेव.संख्यातगुणा.४ तेथी भव्य द्रव्य देव असंख्यातगुणा.५ तेथी भावदेव | ॥१३॥ असंख्यातगुणा. इति पांच देवविचार समाप्त. अथ दिसाणुवाय [ दिगानुपात] विचार१ समुच्चय जीवो, सर्वथी थोडा पश्चिम दिशामां छे, कारण ? त्यां गौतमद्वीप अने चंद्र-सूर्यना द्वीपो महोबाथी पाणी थोडंछे; तेथी नीलफुल पण थोडी छे माटे जीवो थोडा छे. २ तेथी पूर्व दिशामा विशेषाधिक छे, कारण ? त्यां गौतमद्वीप नथी.३ तेथी दक्षिण दिशामा विशेषाधिक छे, कारण ? त्यां चंद्र-सूर्यनाद्वीपो नथी. ४ तेथी उत्तर दिशामा विशेषाधिक छे, कारण ? त्या असंख्यातमे द्वीपे संख्यात कोटी योजन प्रमाण मानसरोबर छे, त्यां पाणी घणुं होबाथी नीलफुल पण घणी छे. ५ पृथवीकायिक जीवो, सर्वधी थोडा दक्षिण दिशामां छे. कारण ? भवनपतिना भवनो ४ को डने ६ लाख, दक्षिण दिशामांछे अने नरकाबासा पण घणा होवाधी घणा भागमां पोलाण छ, माटे पृथवी थोडी छे. तेथी उत्तर दिशामा विशेषा० छे, कारण ? त्यां क्रोडने ६६ लाख भवनपतिना भवनो छे अने नरकावासा पण थोडा छे, तेथी पूर्व दिशामा विशेषा० छे, कारण ? त्यां चंद्र-सूर्यना हीपो होवाथी पृथवी घणी छे. तेथी पश्चिम दिशामा विशेषा.छे कारण ? त्यां -- - amavawwanimaaman - 34-k Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१३२॥ गौतम द्वीप होवाथी पृथ्वी घणी छे. ६ अष्का०, वनस्पतिका०, त्रसका०, बेइन्द्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय अने तिर्यंच पंचेंद्रिय, ए सात प्रकारना जीवो, समुच्चयजीवोनी माफक जाणवा. ७ तेडकाथिक, मनुष्य अने सिद्धना जीवो, सवधी थोडा दक्षिणने उत्तर दिशामां छे अने परस्पर तुल्य छे. कारण ? क्षेत्रो* नाना छे. तेथी पूर्व दिशामा संख्यातगुणा छे, क्षेत्रो मोटा होवाथी. तेथी पश्चिम दिशामां विशेषा० छे, त्यां अधोगाम विजय होवाथी. ८ वायुकायिक, सर्वथो थोडा पूर्व दिशामां छे, कारण ? भूमि घणी घन [ नक्कर ] छे. तेथी पश्चिम दिशामां विशेषा० छे, कारण ? त्यां अधोगामविजय होवाथी पोलाण छे. तेथी उत्तर दिशामां विशेषा० छे, कारण ? त्यां भवनो अने नरकावासो छे. तेथी दक्षिण दिशामां विशेषा० छे, त्यां उत्तर दिशा करतां विशेष भवनो अने नरकावासो छे. ९ समुच्चय नरकना जीवो सर्वथी थोडा पूर्व, पश्चिम अने उत्तर दिशामा छे, कारण? त्यां पुष्पावकीर्ण नरकावासो छे अने प्रायः ते संख्याता योजनना विस्तारवाला छे. तेथी दक्षिण दिशामां असं| ख्यात गुणा छे, कारण? त्यां कृष्णपाक्षिक* जीवो घणा उत्पन्न थाय छे. हवे प्रत्येक नरकना जीवो माटे कहे छेसातमी नरकना दक्षिण दिशाना जीवोथी छट्ठी नरकना पूर्व, पश्चिम, अने उत्तर दिशाना जीवो असंख्यात x भरत अने ऐरावत आश्रयी जाणवु, वली समश्रेणिए सिद्ध थोडा थाय के ते पण अमुक काले थाय छे अने १८ कोडाकोडी सागर सुधी सिद्ध गति पण बंध रहे छे, अर्थात् तेटला कालमां कोइ सिद्ध भरत - ऐरावतमां थता नथी. * अर्द्ध पुगल परावर्तथी वधारे काक संसार बाकी होय ते कृष्ण पाक्षिक कहेवाय अने तेथी न्युनकाल होय ते शुपाक्षिक. दिगानुपात विचार ॥१३२॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१३३॥ CC) C गुणा छे, तेथी छठी नरकना दक्षिण दिशाना जीवो असंख्याता छे. एवीरीते क्रमशः पहेली नरक सुधी जाणवू. १० भवननपति देवो, पूर्व ने पश्चिम दिशां थोडा छे, कारण त्यां थोडां भवनो छे, तेथी उत्तर दिशामां असं. दिगानुपात स्यातगुणा छे, त्यां घणा भवनो छे अने पोतानुं स्थान छे, तेथी दक्षिण दिशामां असंख्यात गुणा छे, त्यां पण विचार भवनो विशेष छे. ११ व्यंतरदेवो, सर्वथी थोडा पूर्व दिशामां छे, त्यां भूमि घणी कठण होवाथी. तेथी पश्चिम-18 ॥१३॥ दिशामां विशेषाधिक छे, त्यां अधो लौकिक ग्रामोमां पोलाणनो भाग होवाथी व्यन्तरो त्यां जाय छे. तेथी उन्नर | दिशामां विशेषा छे, कारण? त्यां पोतानुं स्थान छे अने त्यां तेना नगरो पण छे. तेथी दक्षिण दिशामां विशेषान्छे त्यां नगरो वधारे छे.१२ ज्योतिष्क देवो सर्वधी थोडा पूर्व-पश्चिम दिशामां छे, कारण? त्यां चंद्र-सूर्यना उद्यान जेवा द्वीपोमां थोडाज ज्योतिष्को होय छे. तेथी दक्षिण दिशामा विशेषा० छ, त्यां तेना विमानो घणा छे अने | कृष्णपाक्षिक ज्यो० देवो घणा छे, तेथी उत्तरदिशामा विशेषा० छे, कारण ? त्यां मानससरोवर छे त्यां क्रीडा करवानी प्रवृत्तिवाला ज्यो० देवो घणा रहे छे. वली ते सरोवरमां मच्छादि जलचरो छे, ते नजीकमा रहेला ज्यो ना विमानोने देखवाथी तेओने जातिस्मरण थाय छे. तेथी तेओ कंडक व्रतने स्वीकारी अनशनने ग्रहण करीने नियाj करवाथी ज्योतिष्कमां उपजे छे; माटे उत्तर दिशामां घणा छे. १३ पहेला देवलोकथी चोथादेव. सुधीना देवो सर्वथी थोडा पूर्व-पश्चिम दिशामां छे, कारण ? आवलिकाबंध विमानो चारे दिशाए समान छे.. पण पुष्पावकीर्ण विमानो त्यां न होवाथी थोडा छे. तेथी उत्तर दिशामां असंख्यातगुणा छे, कारण ? त्यां - 1549-5-REAL E Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१३॥ HिA- संयत विचार ॥१३४॥ पुष्पावकीर्ण विमानो घणा छे अने असंख्यात योजनना विस्तारवाला होवाथी. तेथी दक्षिण दिशामा विशेषाधिक छे, कारण ? दक्षिण दिशामां कृष्णपाक्षिको घणा उपजे छ माटे. १४ पांचमांथी यावत् आठमा देव० सुधीना देवो, पूर्व-पश्चिम अने उत्तरदिशामां थोडा छे, तेथी दक्षिण दिशामा असंख्यातगुणा छे; कारण ? ते दिशामां घणा कृष्ण पाक्षिक तियचो उत्पन्न थाय छे. नवमाथी यावत् सर्वार्थ सिद्ध विमान सुधीना देवो, प्रायः चारे दिशामां सरखा जाणवा, कारण ? त्यां केवल मनुष्यो उपजे छे. इति दिसाणुवाय समाप्त. अथ संयत विचार कहे छेः- पन्नवणा वेय रागे, कप्पचरित्तर पडिसेवणा नाणे; तित्थे लिंग सरीरे, खित्ते काल गइ संजम निग्गासे ॥१॥ जोगुवओग कसाए, लेसा परिणाम बंध वेदे य; कम्मोदीरण उवसं,पजहन्न सन्नाय आहारे ॥२॥ भव आगरिसे कालं,-तरेय समुग्धाय खित्त फुसणाय; भावे परिमाणे विय, अप्पा बहुयं (ती) संजयाणं ॥३॥ प्रथम त्रण गाथाना शब्दार्थ साथे द्वारो कहे छ:-१ प्रज्ञापनाद्वार, २ वेदद्वार, ३ रागद्वार, ४ कल्पद्वार, ५ चारित्रद्वार, ६ प्रतिसेवनाबार, ७ ज्ञानद्वार, ८ तीर्थद्वार, ९लिंगद्वार, १० शरीरद्वार, ११ क्षेत्रद्वार, १२ कालद्वार १३ गतिद्वार, १५ संयमद्वार, १५ निष्कर्षद्वार, १६ योगद्वार, १७ उपयोगद्वार, १८ कषायद्वार, १९ लेश्याद्वार, २० परिणामद्वार, २१ बंधद्वार, २२ वेदनद्वार, २३ उदीरणाद्वार, २४ उपसंपवार, २५ संज्ञाद्वार, २६ आहारद्वार, २७ भवद्वार, २८ आकर्षद्वार, २९ कालमानद्वार, ३० अंतरद्वार, - 'चरित' शब्दने बदले निरगंथ' शब्द जोड्ये, नियंठामा चरित्त शब्द योग्य छे आ गगथाओ भवगतीजीमा छे. % ERA Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१३५॥ ३१ समुद्घातद्वार, ३२ क्षेत्रद्वार, ३३ स्पर्शनाद्वार, ३४ भावद्वार, ३५ परिमाणद्वार, ३६ अल्पबहुत्वद्वार, हवे १ प्रज्ञापना द्वार कहे छे:- संयतोना ५ प्रकार छे १ सामायिक संयत, २ छेदोपस्थापनीयसं०, ३ परिहारविशुद्धिकसं०,४ सूक्ष्मसंप्ररायसं ०५ यथाख्यात संगत. सामायिकसंयतना वे भेद छे, पहेलं थोडा कालनुं,ते पहेला अने छेला जिनेश्वरना तीर्थमां होय. बीजुं यावत् जीवननुं, ते वाविश जिनेश्वरोना तीर्थमां अने महाविदेहक्षेत्रमां होय. छेदोपस्थापनीयसं० ना वे प्रकार छे -१ सातिचार, २ निरतिचार, अतिचारयुक्त साधुने फरीथी पांच महातनुं आरोपण कर ते सातिचार अने प्रथम दीक्षित साधुने, अथवा पार्श्वनार्थ प्रभुना तीथमांधी श्रीवर्द्धमा स्वामीना तीर्थमां प्रवेश करनार मुनिने महाव्रतनुं आरोपण ते निरतिचार परिहार विशुद्धिकसं०ना वे प्रकार छे:-- १ निर्विशमानक - ( लपकरनार), २ निर्विष्टकायिक - ( वैयावञ्च करनार ). सूक्ष्मसंपराय सं०ना वे प्रकार छे १ संक्लिश्यमानक - ( उपशम श्रेणिधी पडतो), २ विशुध्यमानक - ( उपशम अथवा क्षपकश्रेणिये चडतो). यथाख्यात सं०ना वे प्रकार छे--१ छद्मस्थ अने २ केवली. बीजुं वेदद्वार कहे छे सामायिक अने छेदोपस्थापनीय संगत, सवेदी अने अवेदीपण होय, जो अवेदी होय तो उपशम वेदी अथवा क्षीण वेदी होय अने सवेदी होय तो त्रणे वेदमां होय. परिहारवि० संयत, सवेदी होय; पण अवेदी न होय. सवेदीमां पण पुरुष वेद अने x भगवतीमा 'संयत' शब्द कहेल छे, गुण-गणिनो अभेद होवाथी संयमवान् ते संयत माटे अहिं चारित्रने बदले संयत शब्द लखेल छे. संयत विचार ।। १३५ ।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % संयत विचार ॥१३६॥ पुरुष नपुंसक वेदमां होय. सूक्ष्म सं० ने यथाख्यात ए बे संयत, अवेदी होय, ते उपशम अने क्षीण वेदी होय।। सिद्धांत- इत्रीजु रागद्वार कहे छ:-पहेला चार संयत, सरागी अने यथाख्यात सं० वीतरागी, ते उपशांत रागी अथवा रहस्य क्षीणरागी होय ॥ चोथु कल्पद्वार कहे छ-१ स्थितकल्प, २ अस्थितकल्प, ३ जिनकल्प, ४ स्थविरकल्प अने ५ ॥१३६॥ | कल्पातीत. स्थितकल्पमां पांचे संयतो होय, अस्थित कल्पमा सामायिक सं० सूक्ष्मसंपराय सं• अने यथाख्यात सं० होय, जिनकल्प अने स्थविरकल्पमा प्रथमना त्रण संयतो होय कल्पातीतमां सामयिक, सूक्ष्म सं० अने यथाख्यात संयत होय. पांच, निग्रंथ द्वार कहे छः-१ पुलाक, २ बकुश, ३ प्रतिसेवना, ४ कषाय कुशील ५ निग्रंथ अने ६ स्नातक. हवे पुलाक, बकुश ने प्रतिसेवना एत्रणमां सामा० छेदो० ए बे संयत होय. कषायकुशीलमा प्रथमना चार संयतो होय अने निग्रंथ ने स्नातकमा १ यथाख्यात सं० होय।।छटुं प्रतिसेवनाद्वार कहे छ सामा०ने छेदो० ए बे संयत, पतिसेवी पण होय. जो प्रतिसेवी होय तो मूलगुण अने उत्तरगुणना प्रतिसेवक CE बिरबल C3% + कृतनपुंसक पहेला अने छेला तीर्थकरना मुनिओ, दश प्रकारना कल्पमा स्थित होय, तेओने ते कल्पोर्नु अवश्य पालन कर पड छ, | मारे स्थित कल्प कहेल छे. मध्यम २२ तीर्थकरोना अने महावि देह क्षेत्रना मुनिओने ते १० कल्पोर्नु पालन नीयत नथी माटे तेने अस्थित कल्प कहेल के. चारित्रमा भतिचार ते प्रतिसेवना, ते भाग में संयत, कुशील भावमा वर्तता मूल-उत्तरगुणनी विराधना करे अने बकुश भावमा वर्ततां | मूल उतरगुणनी विराधना करे. तेमा मूल गुणनी विराधना ते अतिचाररूप जाणवी, अनाचाररूप नहिं. 2-% Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१३७॥ होय. परि०, सूक्ष्म० ने यथाख्यात ए ३ संगतो अप्रतिसेवी होय || सातमुं ज्ञानद्वार कहे छे: -- आगला ४ संयतोमां ज्ञान, बे त्रण ने चार होय अने यथाख्यात सं०मां पांच ज्ञाननी भजना छे अज्ञान नथी. सामायिक, छेदोप०, सूक्ष्मसं०ने यथाख्यातसंयतो, ज० आठ प्रवचन माता अने उ०१४ पूर्व भणे, परिहार विशद्धि संयत, ज० नवमा पूर्वनी त्रीजी आचारवस्तु अने उ० देशेउणा १० पूर्व भंगे। आठमुं तीर्थद्वार कहे छे:- तीर्थमां पांचे संयतो होय अने अतीर्थमां सामा०, सूक्ष्म सं०ने यथाख्यात सं०ए ३ होय अने तीर्थंकर ने प्रत्येकबुद्धमां पण ए ३ होय ॥ नव लिंगद्वार कहे छे:- द्रव्यलिंग आश्रयी - स्वलिंगमां पांचे संवतो होय अने अन्यलिंग ने गृहस्थमां परिहार विशुद्धि सं०वर्जीने शेष ४ संयतो होय. भावलिंग आश्रयी - स्वलिंगमां पांचे संयतो होय अने अन्यलिंग के गृहस्थलिंगमां एक पण संयत न होय ॥ दशमुं शरीर द्वार कहे छे:- सामा० ने छेदोप० ए बे संयत ने त्रण, चार के पाँच शरीर होय अने पाळला ३ संयतोने ३ शरीर-औदारिक तैजसने कार्मण होय. ॥ इग्यारमुं क्षेत्रद्वार कहे छे: २ परिहार विशुद्धिक, एटलं ज्ञान [देशेडणा १० पूर्व ] भण्या पछी थइ के छे पछी तेनने भगवानुं होतुं नथी. अर्थात ए भण्या पछीज परिहा० चारित्रने प्राप्त करी शके. सूक्ष्म सं० अने यथाख्या० संयत माटे पण एमज जाणवुं कारण? अल्पकालमा श्रेणिगत थवाथी त्यां भणवानुं नथी. ३ अन्यलिंग अने गृहस्थलिंगमां छेदोपस्थापनीय संयत केम होइ शके ? ए माटे एन समजाय के के कोई लब्धवर मुनि कोइक जैन शासनना शुभ कार्य माटे अन्य लिंग के गृहस्थ लिंग ने धारण करे. जेम श्रेणिकचरित्रमां सुनिए ओधो वगेरे बाळीने अन्य लिंग धारण करेलुं परिहारवि ० संo लब्धि फोरवता नथी. ४ पांच शरीर युगवत् [ साथ ] शक्तिरूप होय, आविर्भावे न होय. संयत विचार ॥१३७॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सिद्धांतरहस्य ॥१३८ %%% संयत विचार ॥१३८॥ %A कर्मभूमिमा जन्म अने सदभाव (छत) आश्रयी पांचे संयतो होय अने अकर्मभूमिमां एक पण न होय. संहरण आश्रयी परिहार वि० सं० वर्जीने शेष ५ संयतो होय ॥ बार, कालद्वार कहे छे:-अवसर्पिणी ने उत्सर्पिणीकालमां पांचे संयतो होय. नो अवसर्पिणी-नो उत्सर्पिणी कालमा छेदोप० ने परिहा. सं० सिवाय शेष ३ संयतो | होय.हवे अवसार्पणी कालमा जन्म आश्रयी पहेला बीजा आरामा कोइ पण संयत नहोय.त्रीजा चोथा आरामा | पांचे संयतो होय. पांचमां आरामा सामा० ने छेदो बे सं० होय. छट्टे आरे एकपण न होय, हवे सावआ श्रयी पहेला बीजा ने छट्ठा आरामां एके नहिं. त्रीजा चोथा ने पांचमा आरामां पांचे होय. संहरण आश्रयी परि | हार०सं० सिवाय शेष ४ होय. उत्सर्पिणीकालमा जन्म आश्रयी पहेले आरे एके नहिं. बीजे बीजे ने चोथे आरे पांचे होय. पांचमे ने छठे आरे एके नहिं. सद्भाव आश्रयी पहेला, बीजा आरामां एके नहिं. त्रीजा, चोथा आरामां पांचे होय,पांचमा, छठ्ठा आरामां एके नाहि.संहरण आश्रयी परिहा सिवाय शेष चार होय. नोउत्स० नो अवसर्पिणीकालमां अकर्मभूमि मध्ये एके नहिं अने पांच महाविदेहमा सामा० सूक्ष्म संम्ने यथाख्यात ए ३ संयतो होय. संहरण आश्रयी ए सर्व क्षेत्रमा परिहार० सिवाय शेष ४ संयतो होय ॥ तेर, गतिद्वार कहे छे:पांचे संयतो, नरक, तिर्यंच ने मनुष्य ए ३ गतिमां न जाय; देवगतिमां पण वैमानिक देवमां जाय. ते कहे छः सामा०, छेदोप० एबे संयत, ज० प्रथम देवलोके अने उ० अनुत्तरविमाने जाय. परिहा० संयत, ज. पहेले ४ देव० अने उ० आठमा देव० सुधी जाय. सूक्ष्म सं० जाने उ. अनुत्तरविमाने जाय. यथाख्यात सं०, जम्ने उ० 5% A5 A5% A1- 9 501 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१३९ %%% अनुत्तरवि०मां जाय अने केटलाक मोक्ष पण जाय. १ इंद्रनी पदवी, २ सामानिकनी, ३ त्रायत्रिंशकनी०, ४ लोकपालनी०, अने ५ अहमिंद्रनी पदवी ए ५मांथी आराधक केटली पदवी पामे? ते कहे छे:- सामा० ने छेदोप० ए वे सं०, पांचे पदवी पामे. परिहा० सं०, अहमिंद्र सिवाय शेष चार पदवी पामे. सूक्ष्म ने यथा० संयत, एक अहमिंद्रनी पदवी पामे. विराधक आश्रयी पांचे संयतो, ज०भवनपतिमां अने उ०सौधर्म देव०मां उपजे, पदवी एके न पामे. हवे केटली स्थितिए उत्पन्न थाय ते कहे छे:- सामा० ने छेदो० संयतनी ज० वे पल्य अने उ० ३३ सागरनी स्थिति छे. परिहारवि०नी ज० वे पल्य अने उ०१८ माग०नी, सूक्ष्मसं० ने यथाख्यातनी ज०ने उ० ३३ सागनी || चौदमुं संगमस्थान द्वार कहे छे:- सामा०, छेदोप० अने परिहा० ए ३ना असंख्याता संगमस्थानो छे, सूक्ष्म संन्ना असंख्याता संयमस्थानो छे अने ते अंतर्मुहूर्तनी स्थिति जेटला छे, यथाख्यातनुं एक संगमस्थानक छे. हवे एओनुं अल्पबहुत्व कहे छे:- सर्वथी घोडा यथाख्यातना संगमस्थान छे, तेथी सूक्ष्म संन्ना असंख्यातगुणा | तेथी परिहान्ना असंख्या०छे, तेथी सामायिक ने छेदोपन्ना असंख्यातगुणा अने परस्पर तुल्य छे। पन्नरमुं निष्कर्ष (पर्यव) द्वार कहे छे:- प्रत्येक संयतोना अनंत चारित्र पर्यवो जाणवा. सामा० संयत, सामा०छेदोप०अने परिहा० ए ३ साधे छ स्थान पतित अने उपरला (वे सूक्ष्म० ने यथा० ) थी अनंतगुण हीन छे, छेदोप० संयत, पहेला ३ साथै अनंत भाग हीन, २ असंख्यात भा० १ यथाख्यात संयत [ उपशम श्रेणिवालो हीन, ३ संख्यात भा० हीन, ४ संख्यात गुण अधिक पडे हे ते विराधक जाणवो. २ छ स्थान पतित ते ५ असंख्यात गुण अ०, भने ६ अनंत गुण अधिक. %%**%*भन संयत विचार ॥ १३९॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयत सिद्धांतरहस्य ॥१४॥ RAN विचार ॥१४०॥ छ स्थानपतित छे. अने उपरला बेथी अनंतगुण हीन छे. परिहा०सं०नुं पण एमज छे. सूक्ष्म सं० संयत, पहेला ३थी अनंतगुण अधिक छे. सूक्ष्म संप० साथे तुल्य, जो अधिक होय तो अनंतगुण अधिक होय अने हीन होय तो अनंतगुण हीन होय. यथाख्यात साथे अनंत गुण हीन छे. यथाख्यात संयत, सामायिकादि४ संयतोथी अनं. नगुण अधिक छे, स्वस्थानमां (यथा० साथे) तुल्य छे. एओन अल्पबहुत्व:-+सामा० ने छेदोप० ए बेना जघन्य पर्यवो थोडा छे, तेथी परिहाना ज० पर्य० अनंतगुणा छे, तेथी परिहाना उ०पर्य० अनंतगुणा छे, तेथी सामा० ने छेदोपना उ०पर्य० अनंतगुणा अने माहोमाहे तुल्य छे, तेथी सूक्ष्म सं०ना ज० पर्य० अनं०, तेथी मूक्ष्म संना उ० पर्य० अनं० छे, तेथी यथाख्यातना अजघन्य अनुत्कृष्ट पर्यवो अनंतगुणा छ । सोलमुं योगद्वार कहे छे:पहेला ४ संयतो सयोगी छे अने यथाख्यात सं०, सयोगी अने अयोगी पण छे. सत्तरमुं उपयोगद्वार कहे छे:सामा०, छेदोप०, परिहा. अने यथा० ए ४ संयतो साकारोपयोगी अने अनाकारोपयोगी छे, सूक्ष्मसं० संयत, साकारोपयोगी छे ।। अढारमुं कषायद्वार कहे छे:-पहेला ४ संयतो सकषायी अने यथा० संयत, अकषायी छे. पहेला ३ संयतोमा संज्वलननो क्रोध, मान, माया, लोभ, ए ४ होय. सूक्ष्मसं० संयतमां संज्वलननो लोभ होय १ परिहार विशुद्धक संयत, विशिष्ट [ खास अमुक ] तप-क्रियावडे विशुद्ध भाववालो होवाथी तेना ज. पर्यवो पण सामा० छेदो०ना ज. पर्यवोथी अनतगुण अधिक हे अने परिहाविशुद्ध संना उ० पर्यवोथी सामा०ने छेदोप० संयतोना उ. पर्यवो अनंतगुण अधिक कझा तेनुकारण * के परिहा.वालो छठे के सातमे गुणठाणे होय अने सामा०ने छेदो० संयत, नवमागुणठाणा सुधी होय माटे अनंतगुण अधिक छे. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य संयत विचार ॥१४॥ ॥१४॥ अने यथाख्यात सं०, उपशांत कषायी अने क्षीणकषायी होय.॥ उगणीशमुं लेश्याद्वार कहे छे:-पहेला ४ संयतो सलेश्यी छे, यथाख्यात सं० सलेश्यी अने अलेश्यी पण छे. सामाग्ने छेदोप० संयतमा छ लेश्या होय, परिहार वि० संयतमां पाछलनी ३ लेश्या छे अने सूक्ष्म संन्ने यथा० संयतमा १ शुक्ल लेश्या छ । वीशमुं परिणामद्वार कहे छे:-सामा०, छेदोपल्ने परिहा. ए३ संयतो, चढता परिणामवाला होय, पडता परिणामवाला अने स्थिरपरिणामवाला पण होय, सूक्ष्मसंप० संयंत, चडता परिणामवालो होय, पडता परिणामवालो होय, पण |स्थिर परिणामवालो न होय. यथा० संयत, चडता परिणामवालो होय, स्थिरपरिणामवालो होय, पण पडता परिणामवालो न होय. पहेला ४ संयतोना परिणामनी वृद्धि, ज०१ सममनी अने उ. अंतर्मुहर्तनी अने यथाख्यात सं०ना परिनी वृद्धि, जल्ने उ०१ अंतर्मुहर्तनी. पहेला ४सं ना परिणामनी हीनता, ज.१ समयनीने उ०१ अंतमुं.नी. यथासं नापरिनी हीनता नथी. पहेला ३ संना परिणामनी स्थिरता,ज०१ समयनी ने उ०७ समयनी. सूक्ष्म सं० संयतनापरिनी स्थिरता, नथी. यथाख्यात संभ्ना परिनी स्थिरता, ज०१ समयनी ने उ० देशेउणा क्रोड पूर्वनी. ॥ एकवीशमुं बंधद्वार कहे छ:-पहेला ३ संयतो,७ कर्म अथवा ८ कर्म षांचे. सात बांधे तो आयप्य | सिवाय ७ बांधे. सूक्ष्म सं०संयत, मोहनीय अने आयुष्य सिवाय छ कर्म बांधे. यथा. संयत, एक सातावेदनीय १ सूक्ष्म सं0 वालो श्रेणिए चढ़ता वर्धमान परिणामवालो होय. अने श्रेणिथी पढता हीयमान परिणामबाको अवश्य होय छे; पण अवस्थित [ स्थिर .] परिणामी न होय, ROCKMANDAMAC4% Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत संबत ॥१४२॥ विचार ॥१४२॥ SASRAEBASAHASR पांघे, अथवा अबंधक पण होय।। पावीशमुं वेदन द्वार कहे छ:-पहेला ४ संयतो, आठ कर्मना वेदक होय, यथा-g ख्यात संमोहनीय सिवाय सात कर्मनो वेदक अथवा घनघाती कर्म सिवाय चार कर्मनो वेदक अने एक सातानोवेदक पण होय।। त्रेवीशमु उदीरणी द्वार कहे छे:-प्रथमना ३ संयतो, आठ, सात के छ कर्मनी उदीरणा करे, ७नी करे तो आयुष्य सिवाय, ६नी करे तो वेदनीय ने आयुष्य सिवाय उदीरणा करे. सूक्ष्म संयत, छ अथवा | पांचनी उदी० करे, छनी करे तो वेदनीय ने आयुष्य सिवाय अने पांचनी करे तो बे० आने मोहनीय सिवाय उदी०करे.यथाख्यात सं०,पांचनी अथवा बेनी करे तो कर्मनी उदी०करे, बेतो नामैने गोत्रनी अने अनुदीरक पण होय।।चोवीशमुं उपसंपदद्वार कहे छे:-सामायिक सं०,चडे तो छेदोपल्ने सूक्ष्म सं.पणुं पामे अने पडे तो असंयम के देशविरतिपणुं पामे. छेदोप-संयत, चडे तो सामा०,परिहा. अने सूक्ष्म सं०पणुं पामे अने पडे तो असंयम के | देशविरतिपणुं पामे. परिहा०संयत, चडे तो छेदोप०पणुं पामे अने पडे तो असंयतपणुं पामे. सूक्ष्मसं०संयत, चडे, २ वेदन ते उदयागत, ३ उदयमा नहिं आवेला कर्मने, जीव स्ववीर्षथी खेंचीने उदयमा लावे ते उदीरणा, उदीरणा भने बंध ए बने जीवने आधीन छे अने उदय ने सत्ता ए बने कर्मने आधीन . ४ सातमा गुणठाणाधी वेदनीय अने आयुष्यकर्मनी उदीरणा न होय. ५ उदीरणानुं विशेषस्वरूप, 'कम्मपयडी'मा हे त्यां जोवू. उदीरणा करे नहिं ते. . भगवतीसूत्रमा 'च' के 'पद' ए नधी पण 'त्याग' भने 'स्वी कार' शब्द जोवामां आवे के ते शब्द योग्य जणाय छे. ८ अषभजिनना तीर्थमाथी अजीतनाथना तीर्थमा प्रवेश करतां छेदो० संयत, सामायिकप्रापणु पामे. १ परिवारविधुर पहेला-ठा जिमना पारामा होच, ते तप-क्रिया पूरण करीने पुनः गच्छामा भावे त्यारे दोप०पण होय. पण सामा. 51ॐॐॐ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य १४३॥ संयत विचार ॥१४॥ तो यथाख्यातपणुं पामे अने पडे तो सामा०, छेदोपके असंयमपणुं पामे. यथा० संयत, मोक्षमां जाय, अथवा | सूक्ष्म सं० अने असंयमपणुं पामे. पचीशम संज्ञाद्वार कहे छे:-सामा०, छेदोप०, परिहा. ए ३ संयतो संज्ञा उपयुक्त छे अने नोसंज्ञा उपयुक्त पणछे.सूक्ष्म सं०अने यथाख्यात सं०,नोसंज्ञा उपयुक्त छ।छवीशमु आहारकद्वा|र कहे छे:-प्रथमना चार संयतो, आहारक छे अने यथा० संयत, आहारक ने अनाहारक पण छे. ॥ सत्यावी शमुं भवद्वार कहे छे:-सामा० ने छेदोप० संयत, ज. १ भव करे अने उ०८ भव करे. बाकीना ३ संयतो, ज. १ भव करे अने उ०३ भव करे । अठावीशमुं आकर्ष द्वार कहे छे:-एक भव आश्रयी सामा० ज०१ वार अने उ० पृथक्त्व शत (शो) वार आवे. छेदोप० ज०१ वार अने उ. वीश पृथक्त्ववार आवे. परिहा० ज०१ धार अने उ० ३ वार आवे. सूक्ष्म सं० ज० १ वार अने उ०४ वार आवे. यथाख्यात. ज०१ वार अने उ. २ वार यक चा0 न होय, सामा० चारित्रवालाने परिहा.पणुं होतुंज नथी कारण? परिहा. चारित्रवाला छट्ठा-सातमा गुण• सुधीज होय हे. प्रथमना में चारित्र, नवमा गुण० सुधी होय छे. परिहाने सूक्ष्म सं०नी प्राप्ति यती नथी. परिहारविशुद्धक, मरीने देव थाय माटे पडता ते असंयमपणुं पामे. , ज्ञानोपयोगवाला. २ आकर्ष=चारित्रना परिणाम अथवा पुनर्ग्रहण, एटले जेम गाय पाणी पीतां दचका भरे है, अर्थात् पाणीने मुखथी खेचे के पछी बली स्वल्प समय पछी सेंचे छे; तेम चारित्रना जे परिणाम होय तेने छोडी फरीथी ते परिणामर्नु प्रहण करतुं ते पण आकर्ष कद्देवाय छे, जेम के एक भवमां शत पृथक्त्ववार आवे एम समजवू. ३ एक भवमा उपशमश्रेणि देवार आवे त्यारे चढतां ने पढतां सूक्ष्म सं०४ बार आवे. ४ यथाख्यातपणु, श्रेगिए चढता होय माटे बे वार आवे. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१४४॥ आवे. हवे अनेक भव आश्रयी कहे छे:- सामा० ज० २ वार अने उ० पृथक्त्व हजारवार आवे छेदोप० ज० २ वार अने उ० नवसें उपर अने १ हजारनी अंदर आवे. परिहा० ज० २ वार अने उ० ७ वार आवे. सूक्ष्म सं० ज० २ वार अने उ० ९ वार आवे यथा० ज० २ वार अने उ० ५ वार आवे आवे । उगणत्रीशमुं स्थिततिद्वार कहे छे:- एक जीवआश्रयी सामा०ने छेदोप० संयतनी स्थिति, ज० १ समयनी अने उ० देशेउणी क्रोड पूर्वनी. परिहा० संयतनी स्थिति, ज० १ समयनी अने उ० २९ वर्ष न्यून क्रोड पूर्वनी. सूक्ष्म सं० संयतनी स्थिति ज० १ समयनी अने उ० अंतर्मुहूर्तनी. यथा० संयतनी स्थिति, ज० १ समयनी अने उ० देशेउणा क्रोडपूर्वनी. हवे घणा जीव आश्रयी कहे छे:- सामा० संयतोनी स्थिति, सर्वकालनी. छेदोप संयतोनी स्थिति, ज० २५० वर्षनी अने उ० ५० लाख क्रोडसागरोपमनी. परिहा० संयतोनी स्थिति ज० देशे उणी बसो वर्षनी अने उ० देशे उणी वे क्रोड पूर्वनी. सूक्ष्म सं संयतोनी स्थिति, ज० १ समयनीं अने उ० अंतर्मुहूर्तनी. यथा० संयतोनी स्थिति, सर्वकालंनी ॥ त्रीशमुं अंतरद्वार कहे छे:-एक जीव आश्रयी पांचे संयतोनुं ( प्रत्येकनुं ) अंतर, ज० १ अंतर्मुहूर्त नुं अने उ० देशेउणा अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तकालनं. हवे घणा जीव आश्रयी कहे छे:- सामा० संयतोनुं अंतर नथी. २ घणा भव आश्रयी उप श्रेणि ४ बार आवे ते अपेक्षाये आठवार अने एकवार क्षपक श्रेणिए चढता सूक्ष्म सं० आवे माटे नववार कसुं. घणा भवआश्रयी यथाख्या० ने ऊप० श्रेणि चारवार आवे ते चढतां ४ वार यथास्था० भने क्षपक श्रेणि प्रकवार आये ते अपेक्षाए एकवार यथाख्यात आवे माटे उ० ५ वार कहेल छे. ३ देशेडणी, ते आठ वर्ष भोडी. ते ज० भने उ० स्थिति बनेमां जाणवुं [ भगवती वृद्धि ] संयत विचार ॥१४४॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयत विचार ॥१४५॥ कारण ? महाविदेहमां हमेशां होय. छेदोप० संयतोनु अंतर, ६३ हजार वर्षनु अने उ० १८ कोडाकोटी सागरनुं. सिद्धांत- परिहा. संयतोनुं अंतर, ज० ८४ ह० वर्षतुं अने उ०१८ कोडाकोडी सानु. सूक्ष्म सं० संयतोनुं अंतर, ज.१ रहस्य समयनु अने उ० छ मासमुं. यथा० संयतोनुं अंतर नथी । एकत्रीशमुं समुद्घात द्वार कहे छेः-सामा० ने छेदोप० ॥१४५॥ संयतने केवल समु० सिवाय छ समुद्घात होय. परिहा० संयतने पहेली ३ समु. होय. सूक्ष्म सं० संयतने एके समु० न होय. यथा संयतने १ केवल समु. होय. ॥ बत्रीशमुं क्षेत्रद्वार कहे छः-प्रथमना ४ संयतो, लोकना असंख्यातमा भागमा होय. यथा० संयत, लोकना असंख्यातमे भागे होय, घणा असंख्यात भागोमां होय अने संपूर्ण लोकमां पण होय. तेंत्रीशमुं स्पर्शनाद्वार कहे छ:-ते क्षेत्रद्वारनी जेम जाणवू।चोत्रीसमुंभावहार कहे छे: पहेला ४ संयतो, क्षयोपशभावे होय. यथा० संयत, उपशम अथवा क्षायक भावे होय. ॥ पांत्रीशमुं परिमाण-12 ४द्वार कहे छः-प्रतिपद्यमान-(चालु वर्तमानकालमां संयतपणुं स्वीकार करनार) सामा० संयत, ते कदाच होय अने न पण होय, जो होय तो ज०१-२-३ अने उ० पृथक्त्व हजार होय. छेदोप० ने परिहा. संयत, जो होय तो ज० १-२-३ अने उ० पृथक्त्व सो. सूक्ष्म सं० संयत, जो होय तो ज०१-२-३ अने उ०१६२ (ते १०८ क्षपक अने ५४ उपशामक मलीने) होय. यथा संयत, सूक्ष्म संनी जेम छे. हवे पूर्व प्रतिपन्न-(भूतकालमां स्वीकारेल) ४ ते आश्रयी, ज जो होय तो सामा० संयतो. पृथक्त्व हजार क्रोड अने उ०पृथक्त्व हक्रोड छेदोप०संयतो, ज० ARSACKASSEASON Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत | पृथक्त्व शत क्रोड अने उ. पृ० शतक्रोड. परिहा. संयतो, ज० १-२-३ अने उ०पृ० हजार सक्ष्म सं० संयतो, ज०१-२-३ अने उ० पृ० शत. यथा० संयतो, ज० पृ० क्रोड अने उ०पृ० क्रोड होय॥ छत्रीशमुं अल्पबहुत्वद्वार कहे छेः-सर्वथी थोडा सूक्ष्म सं० संगतो, तेथी परिहा. संयतो, संख्यातगुणा. तेथी यथा. संयतो, संख्या० तेथी छेदोप० संयतो, संख्या तेथी सामा० संयतो संख्यातगुणा. इति संयत (संजया) समाप्त. पद्रव्य विचार ॥१४६॥ ॥१४६॥ अथ षट्नद्रव्य विचार–परिणामि जीव मुत्ता, सप एसा एग खित्त करियाय; निच्चं कारण कत्ता, सव्वगय इयर अप्पवेसे ॥१॥ आ गाथानो शब्दार्थ कहे छे:-पद्व्यमां परिणामी अने अपरिणामी, जीव ने अजीव | मुर्त्त अने अमुर्त, सप्रदेशी ने अप्रदेशी, एक अने अनेक, क्षेत्र अने क्षेत्री, सक्रिय ने अक्रिय, नित्य ने अनित्य, कारण ने अकारण, कर्ता अने अकर्ता, सर्वगत ने असर्वगत, कया कया द्रव्यो छे ? हवे विस्तार रुचि शिष्य, गुरुदेवनें पंचाग नमन करी पूछे छे के हे भगवान ! षद्रव्यमां परिणामि द्रव्य वगेरे केटला द्रव्यो छे?. गुरुमहाराज १ पूर्व प्रतिपन्न छेदोप० संयतो ज० पदे पृथक्त्व शत क्रोड, ते विचारणीय छे. कारण ? आ काले तो बहु अरूप होय. तेमज पांचमा ला आराने विषे पण बहुज अल्प होय, ज० परिमाण तो पहेला तीर्थकरने समये संभवे. पांचमा आराने छडे दश क्षेत्रना मलीने बीश होय. 'सूत्रस्य | विचित्रागतिः' तत्त्वं केवलि गम्यं सामायिक अने यथाश्यात संयतो, ए बने हमेशां होय अने शेष ३ [ छेदो०, परिहा० सूक्ष्म सं० ] क्यारेक होय अने न पण होय. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHARE- ल कहे छे, हे आयुष्मन् सुशिष्य ! सांभळ. निश्चय नयथी षद्रव्यो, पोतपोतानामां परिणमी रह्या छे. गुण-पर्या-18| सिद्धांत यायनी परिणति रुपे छए द्रध्य परिणामी हे अने व्यवहारनयथी. जीव द्रव्य ने पुद्गल द्रव्य ए बन्ने विभाव परि. षद्रव्य रहस्य | णामी छे अने शेष ४ द्रव्य (धर्मास्तिकायादि), विभाव भावनी अपेक्षाए अपरिणामी छे. छ द्रव्यमां एक जीव विचार ॥१४७॥ || द्रव्य ते जीव छे अने पांच द्रव्यो अजीव छे. छ द्रव्यमा एक पुद्गल द्रव्य, मूर्त (रूपी) छे अने पांच द्रव्यो ॥१४७॥ | अमूर्त छ. छ द्रव्यमां धर्मास्तिकायादि पांच द्रव्यो सप्रदेशी छे अने एक काल द्रव्य अप्रदेशी छे; कारण ? एक | सामायिक काल छे. हवे धर्मास्तिकाय ने अर्धास्तिकाय द्रव्य, असंख्यात प्रदेशी छे. आकाशास्तिकाय द्रव्य, (लोकालोक प्रमाण ) अनंत प्रदेशी छे. एक जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेशी छे, तेवा अनंत जीवो छे. पुद्गल द्रव्य, एक परमाणुथी मांडी द्वि प्रदेशी त्रि प्रदेशी यावत् अनंत प्रदेशी छे. छ द्रव्यमां धर्मास्तिकायादि ३ द्रव्यो, एकेक द्रव्य छे अने जीव, पुद्गल अने काल, ए ३ द्रव्यो अनेक छे. कारण? जीवो, पुद्गलो अने समयो अनंत छे माटे. छ द्रव्योमा एक आकाश द्रव्य, क्षेत्र (आधारभूत ) छे अने शेष पांच द्रव्यो, क्षेत्री (आधेय) छे. छ |ए द्रव्यो निश्चयनयथी सक्रिय छे. धर्मास्तिकाय द्र०, चलन-सहायरुप क्रिया करे छे, अधर्मास्ति०द्र०, स्थिर १ कालद्रव्य, वर्तमान कालीन एक समय छे, भूतकाल विनश्वर के अने अनागतकाल अनुत्पन्न के. एटले कालने प्रदेशो [समयो]नो सबंध | नथी. भूतकालना अनंत समयोने कालद्रव्य तरीके उत्तराध्ययनसूत्रमा :विवक्षा कही हे. प्रदेशो समयो सबंध न होवाथी कालद्रव्य औपचारिक छे. २ आधार क्षेत्रमा रहेनार ते आधेय कहेवाय. कर Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१४८॥ पद्रव्य विचार ॥१४८॥ * SHARABASE सहायरुप क्रिया करे छे, आकाशास्ति. द्र०, अवगाह-दानरुपक्रिया करे छे, काल द्र० वर्तनारुप क्रिया करे छे, पुद्गल द्र०, पूरण-गलनरुप क्रिया करे छे अने जीवद्र, उपयोगरूप क्रिया करे छे व्यवहारनयथी जीव अने पुद्गलद्र०, सदासक्रिय छे. निश्चयनयथी छए द्रव्यो, नित्य छे, कारण? मूल द्रव्यनी अपेक्षाए धूव छे. द्रव्यो पोताना स्वरुपने कोहकाले छोडतो नथी पण उत्पाद-व्यय वडे अनित्य छे. हवे व्यवहार नयथी जीव अने पुद्गलद्र, अनित्य छे अने शेष ४ द्रव्यो नित्य छे. जोके उत्पाद, व्यय अने धृवपणे सर्व द्रव्यो परिणमे छे; तथापि धर्मास्ति०, अधर्मास्ति. आकाशास्ति. अने काल, ए ४ द्रव्यो सदा अवस्थित (स्थिर) होवाथी नित्य छे. छ द्रव्योमा एक जीव द्रव्य अकारण छे अने शेष पांच द्रव्यो कारण (साधनरुप ) छे. केम के ए पांचे द्रव्यो जीव द्रव्यने उपभोगमां आवे छे-साधनरुप थाय छे. ते आ प्रमाणे-धर्मास्ति०, जीवने गति करवामां अधर्मास्ति स्थिर रहेवामां अने| आकाशास्ति अवकाश आपवामां सहाय करे छे. तेमज शुभवर्णादि विशिष्ट पुद्गल, जीवने उपभोगमां आवे छे अने काल,बाल यौवनादि अवस्था आपे छे.व ळी अनादि संसारी जीवनी भवस्थिति,परिपक्क थये छते अंतर्मुहूर्त कालमां सर्व कर्मनो क्षय करी मुक्तिमां जाय त्यां सिद्धावस्थामां पण अनंतकाल पर्यंत जीव आत्मिक अव्यावाध अनंत सुख विलसे छे माटे कालद्रव्य पण जीवने उपभोगमां आवे छे. पण एक जीवद्रव्य, कोई अन्य द्रव्योने उपभोगमा आवतो नथी माटे जीवद्रव्य, अकारण छे. छए द्रव्यो निश्चयनयथी का छे, कारण ? सर्व द्रव्यो, Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत पद्व्य विचार रहस्य ॥१४९॥ ॥१४९॥ 公众众众众%%%令%*%*%交 &ापोतपोताना स्वभावना कर्ता छे. व्यवहारनयथी एक जीवद्रव्य कर्ता छे अने शेष पांच द्रव्यो अकर्ता छे. कारण? जीवद्रव्यना असंख्यात प्रदेशोनु चक्र, एक सामटुं फरे छ; अर्थात् बधा प्रदेशो मलीने (एक पिंडरूपे) काम करे छे. शेष पांच जडद्रव्योना प्रदेशोनी प्रवृत्ति, समुहात्मक नथी पण जूदी नदी छे; माटे पांचे द्रव्यो अकर्ता छे. छ द्रव्योमा एक आकाशद्र०, सर्वव्यापी छे-लोकालोक व्यापक छे अने शेष पांच द्रव्यो असर्वगत (लोक मात्र व्यापी छे, जोके छए द्रव्यो एक क्षेत्रमा साथे रहे छे. तो पण कोइ द्रव्य पोताथी भिन्न द्रव्यमा भळी | |जतो नथी; अर्थात् पोतार्नु मूल स्वरूप छोडी ने अन्य द्रव्यरूपे परिणमे नहिं. हवे लक्षणादि भेदथी षद्रव्योन वर्णन करवामां आवे छेः-१ धर्मास्ति द्र०, कोने कहीए ? गतिमान् जीव अने पद्गल ने मीनने नीरनी जेम सहाय करवानो जे स्वभाव ते 'धर्म' प्रदेशो ते 'अस्ति' अने तेनो समुह ते 'काय' तेने 'धमास्तिकाय' कहीए. एमज स्थितिमान जीव-पुद्गलने स्थिर थवामां वृक्षनी छायानी जेम सहाय करनार ते 'अधर्मास्तिकाय. जीवपुद्गलने अवकाश आपवामां भीतमां खीलीनी जेम सहाय करनार ते 'आकाशास्तिकाय.' दीपकनी जेम स्वपर प्रकाशक ज्ञानवान् ते 'जीवास्तिकाय.'परमाणुं अने द्विप्रदेशथी यावत् अनंत प्रदेशात्मक ते 'पुदगलास्तिकाय' " पांच द्रव्यो 'अस्तिकाय' कहेवाय छे अने कालना प्रदेश न होवाथी ते 'अस्तिकाय' न कहेवाय. हवे पद्व्यना गुण-पर्याय कहे छे:-१ धमास्ति ना ४ गुणः-१ अरूपी,२ अचेतन,३ अक्रिय ४ चलन सहाय अने पर्याय पण ४ २ परसंयोगथी विभावनो का छे. ३ अस्ति ने कायनो अर्थ पूर्ववत् जागवो. परमाणुमा पण स्कंधनी योग्यता है. ५ दरक इग्यता चार गुणमा जे छेल्लो गुण छे ते असाधारण [मुख्य गुण छे. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2- १ स्कंध, २ देश, ३ प्रदेश, ४ अगुरुलघु. अधर्माना ४ गुण-१ अरु०, २ अचे० ३ अक्रि०, अने स्थिर सहाय | सिद्धांत- IR अने पर्याय पण ४ पूर्ववत्. आकाशास्ति ना ४ गुण-१ अरु०, २ अचे०, ३ अक्रि०, ५ अवकाशदान. पर्याय ४ पूर्ववत् कालना ४ गुण-१ अरु०, २ अचे०, ३ अक्रि०, ४ वर्तना अने ४ पर्याय-१ अतीत, २ वर्तमान, ३ अना॥१५०॥ गत, ४ अगुरुलघु. पुद्गलास्ति ना ४ गुण-१ रुपी, २ अचैतन्य, सक्रिय, ४ पुरण-गलन अने पर्याय पण ४ ते १ स्कंध, २ देश, ३ प्रदेश, ४ अगुरुलघु, अथवा बीजा पण ४ पयायो छे-१ वर्ण, २ गंध, ३ रस, ४ स्पर्श. जीवना ५ गुण-१ अनंतज्ञान, २ अनंतदर्शन, अनंतसुख ( चारित्र), ४ अनंतवीर्य ( शक्ति ). पर्याय पण ४ ते पदव्य विचार | ॥१५०॥ % % २ कालव्यना पर्यायो, औपचारिक छे, कारण ? निश्चयनयथी पंचास्तिकायनी 'वर्तना तेजकाल अने व्यवहारनयथी समय, आवलिकादिलक्षणकाल छे. ३ वर्णादि चार ए पुनलम्बना गुणो के अने एक गुण कालत्वादिक पयायो के. छतां पण वर्णादिने पर्याय कहेवाचं कारण के पर्यायना बे प्रकार छे, छती पर्याय भने सामर्थ्य पर्याय, छती प० ते गुण अने सामर्थ्यप० ते एक गुणकालवादि. सिद्धांतमां द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक एबे नय कहेल छे; पण गुणार्थिक नय क्याय नथी, माटे संझेप व्याख्याथी गुण-पर्याय अभेद छ भने विस्तृत व्याख्या ए कथंचित् भेद छे. | तेथी सूत्रमा केवल ज्ञानादि गुणोने केवलपर्याय, चारित्रपर्याय कहेवामां आवेल छे. वली सहभावी ते गुण अने क्रमभावी ते पर्याय कहेल के. वर्णादि गुणो, सदा द्रव्यना सहभावी छे अने एक गुणकालत्वादि पर्यायो क्रमभावी छे. ४ जीवना मूल " भाव प्राण अनंतज्ञानादि छे. पण कर्मनी उपाधिथी अनंत ज्ञानने बदले उच्छवास प्राण, दर्शनने बदले इन्द्रियमाण, सुख [चारित्र]ने बदले आयुष्य प्राण अने वीर्यने बदले योगबल प्राण. आ चार नकली प्राण दरेक जीवने होय छे, तेना १० भेद थाय छे; ते १०मांथी मूल ४ द्रव्यप्राण, जीवन बाझ लक्षण छे. जीवनुं विशेष [मुख्य] लक्षण ज्ञान के अने श्वासोच्छवास बाझ मुख्य लक्षण छे. दर्शन, जीवनुं सामान्य रु. के तेम इन्द्रिय जीवनु बाह्य सा • ल. छे. अनंत चारित्र Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % पद्रव्य विचार ॥१५॥ % गंध, ४ सण,२ गंध, रस % % तमदेशी गंध, ६ रस F१ अव्यायाध, २ अनवगाह, ३ अमूर्त्त, ४ अगुरुलघु. हवे पुद्गलनो विशेष विचार कहे छे-एक परमाणुमा १ सिद्धांत- वर्ण, १ गंध, १ रस अने २ स्पर्श होय. बे परमाणु मले त्यारे द्विप्रदेशी स्कंध थाय, तेमा २ वर्ण, २ गंध, २ रस रहस्य अने ४ स्पर्श होय. त्रण परमाणु मले त्यारे त्रिप्रदेशी स्कंध थाय, तेमां३ वर्ण,२ गंध,३ रस अने ४ स्पर्श होय. ॥१५॥ चार परमाणु मलवाथी चतुष्पदेशी स्कंध थाय तेमां ४ वर्ण, २ गंध, ४ रस अने ४ स्पर्श होय. पांच परमाणु |मलवाथी पंच प्रदेशी थाय, तेमां ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस अने ४ स्पर्श होय. एवी रीते एकेक परमाणु वधारतां यावत् संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी अने अनंतप्रदेशी स्कंध थाय. ए अनंत प्रदेशी स्कंधनी वर्गणा, कोइपण जीवने ग्रहण योग्य न थाय. अर्थात् ते वर्गणा ने जीव, ग्रहण न करी शके. त्यारे कइ वर्गणा ग्रहण करवाने योग्य थाय? ते कहे छे-अभव्य जीवथी अनंतगुणा अने सिद्धना अनंतमे भागे परमाणुओ एकठा मळे, त्यारे औदारिक शरीरपणे ग्रहण करवा योग्य वर्गणा थाय. तेथी एकेक परमाणु अधिक अनंत वर्गणा, औदारिक शरीरपणे ग्रहण करवायोग्य छे. जघन्य ग्रहण करवा योग्य वर्गणाथी उत्कृष्ट ग्रहण योग्य वर्गणा, अनंतभाग अधिक जाणवी. पछी ग्रहण न करवा योग्य अनंत वर्गणाओ छे. औदारिक शरीरपणे ग्रहण करवा योग्य जे उत्कृष्ट वर्गणा तेथी सिद्धना अनंतमे भागे अने अभव्यथी अनंतगुणा परमाणुओ, वळी मळे त्यारे ते वर्गणा | [सुख छे. तेम जीवने आयुष्य प्राण बाह्य सुस्वरुप छे, अने जीव अनंत शक्तिमान् छे तेम बाह्यतः योगवीर्यवालो छे, एम जाणवू. २ शीत, उष्ण, स्निग्ध अने रुक्ष ए चार स्पर्शमाथी अविरोधी बे स्पर्श होय बाकीना गुरु-लघु वगेरे न होय. ३ अहिं अनेक भागा थाय छे. % % % % % Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत ॥१५॥ षद्रव्य विचार ॥१५२॥ चक्रेय शरीरपणे ग्रहण करवा योग्य थाय. तेथी अनंतगुणा परमाणुओ मळे त्यारे ते वर्गणा, आहारकशरीरपणे ग्रहण करवा योग्य थाय. तेथी अनंतगुणा परमाणुओ मले त्यारे ते वर्गणा, तेजस शरीरपणे ग्रहण करवा योग्य थाय, पछी भाषा वर्गणा, श्वासोच्छवास वर्गणा मनोवर्गणा अने कार्मणवर्गणा जाणवी. ए प्रत्यक वर्गणा, एकेकथी अनंतगुणी (पूर्वोक्त अभव्यथी अनंनगुण परमाणुनी) छे. तेनी वचमानी अनंत वर्गणाओ, ग्रहण करवा योग्य नथी. सर्व जघन्य ग्रहण करवा योग्य वर्गणाधी एकेक परमाणु अधिक यावत् अनंत भागाधिक अनंत| वर्गणाओ छे. ए आटे वर्गणाओ अनुक्रमे अनंतगुणी अने सूक्ष्मपरमाणुओनी बनेली होवाथी अंगुलना असंख्यातमे भागे हीन हीन अवगाहनावाळी छे. तेमां पहेली ४ वर्गणाओ, बादर गुरुलघु परिणामवाली होवाथी ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस अने ८ स्पर्श, एम २० गुणवाली होय छे अने बाकीनी चार वर्गणाओ सूक्ष्म अगुरुलघु परिणामवाली होवाथी ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस अने ४ स्पर्श, ए १६ गुणवाली होय छे. हवे षद्रव्यर्नु स्वरूप, आठ पक्षथी कहे छे ते आठ पक्षना नाम-१ नित्य, २ अनित्य, ३ एक, ४ अनेक, ५ सत्, ६ अस त् , ७ वक्तव्य अने ८ अवक्तव्य, धर्मास्ति. अने अधर्मास्ति ना ४ गुण अने एक (लोकप्रमाग) स्कंधपर्याय नित्य छ, शेष ३ पर्याय अनित्य छे. आकाशास्ति ना ४ गुण अने एक (लोकालोक प्रमाण) स्कंधपर्याय नित्य छ, शेष ३ पर्याय अनित्य छे. कालना ४ गुण नित्य छे अने४ पर्याय अनित्य छे. पुद्गलाना ४ गुण नित्य छे अने ४ पर्याय अनित्य छे. २ वर्गणानो विचार बहुज गहन छ जिज्ञासु ए विशेषावश्यक ने पंचम कर्ममन्धने अवलोकयु, RA Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१५३॥ जीवास्ति ना ४ गुण, ३ पर्याय नित्य छे अने एक अगुरुलघुप० अनित्य छे. ए रीते नित्य-अनित्य वे पक्ष कथा. हवे एक-अनेक पक्ष कहे छे:-धर्मास्ति अने अधर्मास्ति नो (लोक प्रमाण) स्कंध एकछे अने गुण अनंत छे, पर्याय अनंत है; प्रदेश असंख्यात छे तेथी अनेक पण छे. आकाशास्ति नो (लोकालोक प्रमाण) स्कंध एक छे अने गुण, पर्याय अने प्रदेश अनंत छे; माटे अनेक पण छे. कालद्रव्यनो वर्तनारूप गुण एक छे अने गुण-पर्याय अनंत छे; केमके समयो अनंता छे. अतीत कालना अनंत समयो गया, अनागत कालना अनंत समयो आवशे अने वर्तमान कालनो मात्र एकज समय छे; तेथी अनेक पण छे. पुद्गलान्ना परमाणुओ अनंत छे, एकेक परमाणुमां अनंत गुण- पर्यायो छे तेथी अनेक छे अने सर्व परमाणुओमां पुद्गलपेणुं एकज छे माटे एक छे जीवास्ति० द्रव्य, अनंत छे, गुण- पर्यायो अनंत छे अने एकेक जीवना प्रदेशो असंख्यात छे तेथी अनेक छे अने सर्व जीवोमां जीवपशुं एकज छे माटे एक छे. हवे सत् असत् पक्ष कहे छेः-छए द्रव्यो, स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल अने स्वभावपणे सत् ( छता=अस्तिरुप ) छे अने परद्रव्य-परक्षेत्र परकाल अने परभावपणे असत् (अछता = नास्तिरूप) छे, छए द्रव्यना स्वद्रव्यादिक कहे छे ? धर्मास्ति नो स्वद्रव्य, ते मूलगुण चलण-सहाय वगेरे गुणोनो समुदायरूप. स्वक्षेत्र, ते द्रव्यनुं अवगाहपणु (प्रदेशोनुंमान), ते असंख्यात प्रदेशप्रमाण छे. स्वकाल, ते वर्तना-अगुरु लघुनी षट्गुणहानि वृद्धिरुप छे. स्वभाव, ते पोताना गुण पर्यायनी परिणतिए परिणमनरूप. अधर्मास्ति नो स्वद्रव्य, २ 'पुत्’=पूरण धनुं अने'गल' = घटवं, ए व्युत्पति अर्थ छे: अर्थात् पुद्गलमां 'वध घट' थवारुप धर्म छे. बीजा द्रव्योमां हानि-वृद्धि नथी. षद्रव्य विचार ॥१५३॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R सिद्धांतरहस्य ॥१५४॥ EASERE मूलगुण स्थिर सहायादिगुण-समुदायरुप. आकाशास्ति नो स्वद्रव्य, मुलगुण अवकाशदान प्रमुखगुणसमुदायरुप. कालनो स्वद्रव्य, वर्तनादि गुण-ममुदायरुप. पुद्गलानो स्वद्रव्य, ते मुलगुण पुरण, पद्रव्य गलनादि गुण-समुदायरूप. जीवास्ति नो स्वद्रव्य, ते मूलगुण उपयोग प्रमुखगुण-समुदायरुप. स्वक्षेत्र, विचार ॥१५४॥ ते द्रव्यनुं अवगाहपणुं (प्रदेशमान). ते धर्मास्ति. अने अधर्मास्ति० ए बे द्रव्यनो स्वक्षेत्र, असंख्यात प्रदेश छे अने आकाशास्ति नु स्वक्षेत्र, अनंत प्रदेश छे. कालद्रव्यर्नु स्वक्षेत्र, समय छे. पुद्गल द्रव्यनुं स्वक्षेत्र, एक परमाणु एवा अनंता परमाणुओछे. जीव द्रव्यर्नु स्वक्षेत्र, असंख्यात प्रदेशछे. स्वकाल, ते पोत| पोताना द्रव्यमा अगुरुलघुनो, षद्गुणहानि वृद्धिरुपछे. स्वभाव, ते पोतपोताना गुण-पर्यायनी परिणतिए सर्व द्रव्यो परिणमेछे. एम दरेक द्रव्यमा पोताना स्वद्रव्यादि ४ बोलछे; पण बीजा द्रव्यना ४ बोल नथी. माटे स्वद्रव्यादिकथी सत् अने परद्रव्यादिकथी असत्छे. हवे वक्तव्य अने अवक्तव्य पक्ष कहेछे:-वक्तव्य ते वचनथी * कहेवा योग्य, छए द्रव्योमा अनंतगुण-पर्यायछे अने अवक्तव्य ते वचनथी न कही शकाय, तेवा अनंतगुणपर्यायो छे. जे वक्तव्यछे तेथी अवक्तव्य अनंतगुणा छे; ते सर्व भावो केवलीप्रभुए दीठा, तेने अनंतमें भागे प्ररुप्या अने तेना अनंतमें भागे गणधर महाराजे सूत्ररुपे गुंथ्याछे; तेना असंख्यातमें भागे वर्तमानकालमां आगमो रह्याछे. ए आठ पक्षो कह्या. हवे नित्यानित्य पक्षनी-चउभंगी कहेछे:-जेनी आदि नथी अने अंत पण १ जेटला क्षेत्रमा द्रव्य अवगाही नै रहे ते स्वक्षेत्र, २ सत्-असत् पक्षधी सप्तभगी थाय के. RSS Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ।।१५५ ।। नथी ते 'अनादिअनंत' पहेलो भांगो. जेनी आदि नयी पण अंतछे ते 'अनादिसांत' बीजो भांगो. जेनी आदिछे अने अंत पण ते 'सादिसांत' बीजो भांगो. जेनी आदि छे अने अंत नथी ते 'सादिअनंत' चोथो भांगो छे. धर्मास्ति अधर्मास्ति अने आकाशास्ति० ए ३ द्रव्यना चारगुण तथा स्कंध, अनादि अनंत भांगेछे अने देश, | प्रदेश ने अगुरुलघु, ए ३ सादिसांत भांगे छे. सिद्धना जीवमां जे धर्मास्ति कायादिक गणना प्रदशो रहेला छे; ते प्रदेशोनी अपेक्षाए सादि अनंत भांगे छे. पुद्गल द्रव्यना ४ गुणो, अनादिअनंत छे. जीव- पुद्गलनो संबंध, अभव्यने आश्रयी अनादिअनंत भांगे छे अने भव्य जीवने आश्रयी अनादि सांत भांगेछे. पुद्गलनो स्कंध, सादिसांत भांगेछे. कालना ४ गुण, अनादिअनंत भांगेछे. पर्यायोमां अतीतकाल, अनादिसांत भांगेले. वर्तमानकाल, सादि सांत भांगेछे अने अनागतकाल, सादि अनंत भांगेछे. कालद्रव्यनुं स्वरुप औपचारिक जाणवुं. जीव द्रव्यना ४ गुण, अनादि अनंतछे. अभव्य जीवने कर्मनो संबंध अनादि अनंतछे. भव्य जीवने कर्मनो संबंध, अनादिसांतछे कारण ? कर्म अनादि (प्रवाहरूपथी) छे, तथापि क्यारेक पण कर्मनो अंत आवशे अर्थात् नाश थशे माटे सांत (अंतसहित) छे. नरकादिक गतिना जे भव करवा, ते सादिसांत भांगेछे अने जीवने सिद्धपणु ते अनादिअनंतछे षद्रव्यनुं संक्षिप्त विचार समाप्त. २ पनवणा, उत्तराध्ययनादिसूत्रो अने तत्त्वार्थ सूत्रमां कालने उपचारिक कहेलछे. व्यवहारनयथी कालद्रव्यछे, ते समय आवलिकादिरूप कालसमयक्षेत्र (अढीद्वीप) मां छे. निश्चयनयथी काल, पर्याय द्रव्य द्रव्यमी वर्तनानेज कालद्रव्यनो उपचार करेलछे, केटलाक आचार्यों कालने मुख्यद्रव्य मानेछे भने केटलाक कालने उपचारथी माने के, षद्रव्य विचार ।। १५५।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१५६॥ हवे बहिरादि ३ आत्मानुं स्वरुप कहे छः-१ बहिरात्मा, २ अंतरात्मा अने ३ परमात्मा. बहिरात्मानुं स्वरुपकहे छ जे जीव तन, धन, स्वजन, कर्म प्रमुख सर्व पुद्गलिक परवस्तुने पोतानी माने वळीवहिरादि३ शरीरादिक ते हुं अने स्वजनादिक ते मारा एवी परिणतिए वर्ते, ते बहिरात्मा कहेवाय. दोहरो-पुद्गलशु रातो आत्मानुं रहे, जाणे एह निधान; तस लाभे लोभ्यो रहे, बहिरातम अभिधान ॥१॥ बहिरात्मा, प्रथमगुणस्थानथी यावत् वरुपकहेछ त्रीजा गुणठाणा सुधी होय. अंतरात्मानुं स्वरुपः-दोहरो-पुद्गल खलसंगी परे, सेवे अवसर देख; तनु अशक्तज्यु ॥१५६॥ |लकडी, ज्ञान भेद पद लेख ॥१॥ जे जीव, पुद्गलना सबंधने दुर्जनना संग जेवो माने, पण न छूटके पुद्गलनो संग करे ते पण साक्षी मात्र रहे तेमां आसक्त न थाय. जेम अशक्त माणस, लाचारीथी लाकडी राखे पण मनमां शरमाय. जो हुं सशक्त था तो लाकडीने छोडी दउं, एम सम्यक् ज्ञान वडे विचारीने आत्मा अने पुद्गलने सर्वथा जूदा जाणे, अंतरंग उदासीन परिणमी होय. पापकर्म करतां बहु भय राखे अने स्व आत्माने परमास्मा समान जाणी तेने प्रगट करवानी रुचिवाळो ते अंतरात्मा कहेवाय. ते चोथा गुणस्थानथी बारमा गुणठाणा सुधी होय. परमात्मानु स्वरुपः-दोहरो प्यारो आप स्वरुप में, न्यारो पुद्गल खेल; सो परमात्मा जानीए, नहि जस भवको मेल ॥१॥ आत्मस्वरुपमा मग्न-ज्ञान दर्शनभां अखंड उपयोग होय-अने पुद्गलना प्रपंचथी भिन्न रही घनघाती कर्ममलने दूर करीने अघाती कर्मने दूर करनार ते परमात्मा कहेवाय. ते तेरमा-चौदमा गुणठाणे अने सिद्धां होय. हवे जीवन स्वरुप, अनेक लक्षणोथी कहे छे:-वोहरो-समता रमता उर्खेता, ज्ञायकता सुख Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१५७॥ पद्रव्य विचार ||१५७॥ भास, वेदकता चैतन्यता, ए सब जीव-विलास ॥२॥ आत्मा, 'समता' नामना लक्षण वडे युक्त छे. वर्तमान ममये असंख्यात प्रदेशात्मक जे चैतन्य स्थिति, आत्मानी छे ते भूतकालना अनंत ममयमा हती अने अनंत भविप्यकालमां पण एज़ स्थिति रहेवानी. जेमां वध-घट थवानुं नथी ते 'समता'-समपणुं ते जेनुं लक्षण छ-ते जीव छे. वृक्षादि, पशु, पक्षी अने मनुष्य प्रमुखने विषे जे कांड रमणीयपणुं जणाय छे, अथवा जेना वडे ते सर्व | (वृक्षादि), प्रगट स्फुर्तिवाळा-सुंदरपणा सहित देखाय-छे ते रमणीयपणुं-'रमता' छे लक्षण जेनुं ते जीव पदार्थ हे. कोइपण जाणकार, पोताना अविद्यमानपणे कोइपण वस्तुने जाणे प बनवा योग्य नथी. प्रथम पोतान (आ- त्मानु) विद्यमान (अस्ति) पणुं घटे छे अने कोइपण पदार्थy ग्रहण, के त्यागादि करवामां पोतेज कारण छ. एबो जे सबंधी प्रथम रहेनारो जे पदार्थ ते जीव छ;-तेने गौण करी कोइएण कांड जाणवा मागे तो ते बनवं अशक्य छे. माटे तेज मुख्य होय तो सर्व कार्य शक्य छे. एवो जे प्रगट 'उर्ध्वता' धर्म, ते जेने विषे ले ते जीव छ. अथवा एक ममयमां नमश्रेणीए उर्ध्वगति करी मोक्ष पहोंचे एवो उता धर्म (स्वभाव) वाळो जीव छे. प्रत्यक्ष एवा जड पदार्थो अने चेतन, ते जे लक्षणे करी भिन्न पडे छे ते लक्षण जीवन 'जायकपणु' छ. कोइपण समये ज्ञायक सिवाय 'आ जीव छे आ जड छ,' एम कोइपण अनुभवी शके नहि अने ज्ञायकपणुं जीव विना बीजा कोइपण पदार्थमां संभवी शकेज नहिं. माटे जेमा 'ज्ञायकपणुं छे ते जीव छे. शब्दादि विषयोमा अथवा समाधि आदि जोग सबंधी स्थितिमां सुख संभवे छे-जणाय छे, तेनुं पृथक्रण (भिन्नभिन्न) करी जोतां छेवटे Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१५८।। ते सर्वने विषे सुखनुं कारण एकज जीव पदार्थ संभवे छे; कारण ? जीवना अव्याबाध आत्मिक सुखनो 'भास' त्यांपण थाय छे वस्तुतः शब्दादिमां सुख नथी अने सुख पनुं लक्षण पण नथी. माटे तीर्थंकर देवे 'सुखभास' (सुखनुं स्पष्ट थवुं) ते जीवनुं लक्षण कहेल छे. आ खाटुं छे, आ मधुर छे, हुं आ स्थितिमां छु, हुं सुखी छु, दुःखी छु आ वगेरे जे वेदन (ज्ञान) = अनुभवपणुं, ते जो कोइमां पण होय तो ते केवल आ जीव पदार्थने विषे छे. अर्थात् 'वेदकपणुं' ए जीवनुं लक्षण छे. अनंत अनंत कोटी तेजस्वी दीपक, मणि, चंद्र, सूर्यादिकनी कांति, जेना प्रकाश विना प्रगटवा समर्थ नथी. अर्थात् जे पदार्थना प्रकाशकने विषे चैतन्यपणाथी ते पदार्थों जाण्या जाय छे, ते प्रदार्थो प्रकाश पामे छे; स्पष्ट भासे छे ते जे कोइ छे ते जीव छे. माटे निराबाध प्रकाशमान चैतन्य ते जीवनुं लक्षण छे. ए पूर्वोक्त लक्षणो-विलासो जीवना छे. हवे आठ प्रकारना आत्मानुं स्वरुप कहे छे:- १ द्रव्यात्मा, ते असंख्यात प्रदेशी, जे बहिरात्मभावे परिणम्यो ते बहिरात्मा, अंतरात्म-परिणतिए परिणम्यो ते अंतरात्मा अने परगात्मभावे परिणम्यो ते परमात्मा. २ कषायात्मा, ते निश्चय अने व्यवहार नये बहिरात्माज कहीए. ३ योगात्मा, ते निश्चय नयथी बहिरात्मा अने व्यवहार नये शुद्ध योग ते अंतरात्मा, अशुद्ध योग ते बहिरात्मा. ४. उपयोगात्मामा पहेला चार ज्ञाननो उपयोग ते अंतरात्मा अने केवलज्ञाननो उपयोग ते परमात्मा. त्रण २. ज्ञान- दर्शन भने उपयोगमां शुं विशेषपणुं के ? उत्तर- ज्ञानदर्शन से लब्धि अने उपयोगरुप के उपयोग ते उपयुक्तकाले होय. जेम छद्मस्थनो उपयोग, अंतर्मुहुर्ते परावर्तन पाने छे, पण विरूपे होय छे, ज्ञान, दर्शन बने एक साथ होय छे पण बनेनो उपयोग एक काले न होय; केवलीने पण उपयोग, समयांतर होय छे. षद्रव्य विचार ॥ १५८॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१५९॥ दर्शननो उपयोग ते अशुद्ध परिणतिए बहिरात्मा, अन शुद्ध परिणतिए अंतरात्मा. केवलदर्शननो उपयोग ते परमात्मा. त्रण अज्ञाननो उपयोग ते बहिरात्मा. ५ ज्ञानात्मा अने ६ दर्शन आत्मानुं स्वरुपः-उपयोगात्मा पापद्व्य प्रमाणे जाणवू.७ चारित्रात्मामा सामायिकादि चार चारित्र अने विरतिपणुं. ए पांच क्षायोपशमिक भावे विचार ॥१५९॥ | अंतरात्मा, यथाख्यात चा०, छद्मस्थ-आश्रयी अंतरात्मा अने केवली-आश्रयी परमात्मा.८ वीर्यात्मामां | | बालवीर्यनी परिणतिए (मिथ्यात्वी) बहिरात्मा अने समकीती अंतरात्मा. बालपंडितवीर्य, देश विरतिनी परिणतिए अंतरात्मा. पंडितवीर्य, ते छदमस्थ-आश्रयी अंतरात्मा अने केवली आश्रयी परमात्मा. ए ८ आत्मानुं लेश मात्र स्वरुप कयुषद्रव्यन स्वरुप, विस्ताररुचि जीवोए सातनय, चारनिक्षेप, षट्उपक्रम, नव अनुगम, ओघ निष्पन्न, नाम निष्पन्न अने सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप नियुक्ति सहित अने स्यावाद शैलीए अनंत नयात्मक सिद्धांतथी जाणवा प्रयास करीए तोपण सर्वथा षद्रव्यना स्वरुपर्नु पार न पामीए. तथापि षद्रव्यमां असं. ख्यात प्रदेशी, अनंत केवलज्ञान-केवलदर्शन-चारित्र अने वीर्यरुप अनंत चतुष्टयमय, आत्मानी शुद्ध सत्तानी श्रद्धा (प्रतीति) करीने विचार के हुं योगत्रय रहित छु, राग-द्वेष रहित छु, सत्ताए सचिदानंद स्वरुप छु, | पूर्णानंदमयी छु. हुं सिद्ध समान छु. तेम सर्व जीवो सिद्ध समान छे. एम जे जीव माने-अनुभवे ते जीव शुद्ध || सम्यक्दृष्टि जाणवो अने जे शुद्ध आत्मिक शुद्ध सत्ताने न माने तेनी सघली क्रिया, साध्यशून्य (निष्फल) ३ भास्माना ८ मेद अशुब म्यास्तिकनयथी छे. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्य विचार ॥१६०॥ जाणवी. जो जीव, सत्ताए सिद्ध समान छे तो सत्तामां केवलज्ञान पण छे.जो सत्तामां केवलज्ञान न होय तो, सिद्धांत केवलज्ञानावरणीय प्रकृति कोर्नु आवरण करशे ? वळी नंदी सूत्रमा 'अक्षर'नो अनंतमो भाग (सर्व जीवनो) रहस्य नदा उघाडो (निरावरण) छे, आ वस्तु केम घटी शकशे? वली जो केवलज्ञान मत्तामा न होय तो मत्यादि ४ ॥१६॥ ज्ञान पण संभवे नहिं, कारण ? ते चारे ज्ञान, केवल ज्ञानना अंशो (पेटा विभागरुप) क्षायोपशमिक भावे छे. माटे मूलरूप केवलज्ञानज सत्तामां न होय तो शाखारुप मत्यादिज्ञान पण न होइ शके. "मूलंनास्तिकुतः शाखा?" अरे संसारी भव्य जीवने तो केवलज्ञान, सत्तामा छ, पण अभव्य जीवने पण सत्तामा छे, पण तेनो पलटयानो स्वभाव न होषाथी-निवड आवरण होवाथी अने शुद्ध जमकितनी प्राप्ति कोइकाले न थयाधी तेने केवल प्रगटतुं नथी, भव्यो पण बघाय केवलज्ञान प्रगट करीने मोक्षे जशे नहि पण योग्यता होवाथी भब्ध केहबोल छे सर्व जीवोने 'झान' सत्ताप समान छे. पण आवरणनी तरमता अने क्षयोपशमनी विचित्रताथी ओछुविधतुं ज्ञान धाय छे. माटे शुद्ध श्रद्धा वडे ज्ञान-क्रियाना बलथी केवलज्ञान प्रगटाववा प्रयास करवो. शुद्ध श्रद्धान विना द्रव्य क्रिया ते पुण्य फलने आपनार छे, तेथी जीवन कार्य थाय नहिं. माटे वृत्त्यादि सह आचारंगादि सूत्रो अने तत्वार्थादि ग्रंथोनु अवलोकन करी केवलज्ञानने प्रगट करवा ज्ञान पूर्वक क्रिया रुचिवाळा थर्बु. अनेक जीवो सिद्ध थया, थाय छे अने थशे ते सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन अने सम्यक् चारित्रना प्रभावधी माटे जे जीवने | कल्याण करवू छे ते तो पोताना हाथमा छे. इति पद्रव्य विचार समाप्त. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१६१॥ रुपि-अरुपिना बोल-गाथा-कम्मट्टपावट्ठाणा, मण वय जोगा य कम्मदेहाय; एसा चर चउफासा, घणो. रुपि-अरुपि दहि घणवाय तणुवाया ॥१॥ उरालाइ चउदेहा, पुग्गलस्थिकाये दव्य लेसाय; तह [चेव] कायजोगो, नायव्वा । बोल अट्ठफासाय ॥२॥ धम्माधम्मा गासा, जीव अद्धा पावठाण निव्वत्ती; दिहिति पंचुट्ठाणा, उवओगा भावलेसाय ॥३॥ उग्गह सन्ना बुद्धी, चउ चउ चउ चेव एगसट्ठीय, एएसब्वे भाणिया, अरुविणो इत्थं नायव्वा ॥४॥ हवे आ ९११॥ ॥१६॥ चार गाथानो शब्दार्थ कहे छेः-८ कर्म, १८ पापस्थान, १ मनोयाग, १ वचनयोग अने १ कार्मण शरीर. ए (२२) । चार स्पर्शवाळा छे. एनो भावार्थ कहे छे:-आठ स्पर्शवाला पुद्गलो बादर होवाथी कर्मवर्गणाने योग्य न होय माटे कर्मने चतुःस्पर्शी कह्या. आत्मा जे परिणाम वडे कर्म बांधे ते परिणाम-मिथ्यात्वादिभाव-, चतुः स्पर्शीपुदगल जन्य होवाथी पापस्थानोने चतुःस्पर्शी कहेल छे. मन, वचन अने कार्मण शरीरना पुदगलो सूक्ष्म-इंद्रिय | गोचर नहि-होवाथी चतुःस्पर्शी कहेल छे. घनोदधि, घनवायु, तनुवायु, उदारिकादि ४ शरीर, पुद्गलास्तिकाय, | ६ द्रव्यलेश्या अने काययोग. ए १५ बादर परिणामि होवाथी आठस्पर्शी जाणवा. जोके कृष्णादि द्रव्यलेश्याना | पुदगलो आठस्पर्शी होवा छतां पण सूक्ष्म होवाथी अतिशय ज्ञानी सिवाय कोइ जोइ शके नहि. पूर्वोक्त २९ ने, | १५ मलीने ४४ बोल रुपी जाणवा. हवे अरुपी कहे छः-१ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, २ आ गाथाओ अशुद्ध होवाथी यथामति सुधारेल छे. ३ लेश्यानुं विशेष वर्णन लेश्याना थोकडाथी जाणवू.. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१६२॥ ४ जीवास्तिकाय, ५ काल, अढार पापस्थाननी निवृत्ति, दृष्टिं ३:-समकितदृष्टि, मिथ्यादृष्टि अने मिश्र दृष्टि. १ उत्थान, २ बल, ३ कर्म, ४ वीर्य, अने ५ पुरुषाकार. १२ उपयोग, ६ भावलेश्या, १ अवग्रह, २ इहा, ३ अवाय अने ४ धारणा, आहारादि ४ संज्ञा अने ४ बुद्धि - १ औत्पातिकी, २ वैनयिकी, ३ कार्मिकी, अने ४ पारिणामिकी. ए ३१ बोल अरुपी जाणवा. अथ प्रमाणबोध-विचार. श्रीअनुयोगद्वारसूत्रमध्ये गणधरदेवे भव्य जीवना सुख बोधने माटे त्रण प्रकारना अंगुल अने ऋण प्रकारना पल्योपमनु स्वरुप वर्णवेलुं छे. ते कहे छे:-त्रण प्रकारना अंगुलना नाम-१ आत्मागुल, २ उत्सेधांगुल अने ३ प्रमाणांगुल, हवे आत्मांगुलंनु स्वरुप कहे छे:- भरतादि १५ क्षेत्रमां जे काले जे आरे जे मनुष्य होय ते काले ते आरे ते मनुष्यना पोतपोताना १२ अंगुले तेनुं मुख थाय तेने नव गुणा करतां १०८ अंगुलनो ते पुरुष उंचो होय ते पुरुष, प्रमाणोपेत कहीएं. अथ मानोपेत पुरुष कोने कहीएं ? पुरुष प्रमाणे उंडी जलथी भरेली कूंडी होय तेमां ते पुरुषने बेसाडतां ते कुंडीमांथी एक द्रोण प्रमाण जल बाहेर नीकले तो ते पुरुषने मानोपेत कहीएं. हवे द्रोणनो मान कहे छे:-बे असलीए एक पाली, बे पालीए एक शइ, चार शइए एक कुडव, ४ पापस्थाननी निवृत्ति, जे परिणामो वडे थाय छे ते अध्यवसायो जीवना होइने ते अरुपी छे. ५ मिथ्यात्वना दलिकोनी शुद्धता अशुद्धतादि स्थितिने लइने जीवना परिणाम तेवा थाय छे माटे अरुपी छे. ६ उत्थानादि, आत्मानी शक्तिरुप छे माटे अरुपी छे तेमज उपयोगादिक माटे बुद्धिमान पुरुषे स्वयं समजी लेबुं. प्रमाणबोध विचार ॥१६२॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥ १६३॥ चार कुडवे एक प्रस्थ, चार प्रस्थे एक आढक, चार आढके एक द्रोण थाय. उन्मानोपेत कोने कहीएं ? जे पुरुषने तोलतां अर्धभारनुं वजन थाय तेने उन्मानोपेत पुरुष कहीएं. अर्द्धभारनुं मान कहे छे:-चार कंपनुं एक पल्य, १०५ पल्ये एक तुला अने १० तुलाए अर्द्धभार थाय. ए प्रमाणे प्रमाण, मान अने उन्मानयुक्त होय. वली लक्षण, (रेखादि) व्यंजन (तलमसादि) अने गुण (क्षमादि) सहित होय ते उत्तम पुरुष जाणवो. उत्तम पुरुष १०८ अंगुलनो उंचो होय, मध्यम पुरुष १०४ अगुंलनो उचो होय अने कनिष्ट पुरुष ९६ अगुंलनो उंचो होय. पूर्वोक्त प्रमाणोपेत पुरुषना छ आत्मांगुले एक पाद (पगना मध्य भागनो विस्तार), वे पादे एक वेंत, वे वेंते एक हाथ, बे हाथे एक कुक्षि, बे कुक्षिए एक दंड अथवा धनुष्य, बे हजार धनुष्ये एक गाउ, चार गाउए एक योजन थाय. | जे काले जे आरे जे मनुष्यनु आत्मांगुल होय तेना वडे ते वखतना गाम, नगर, वन, कुवा, तलाव, वाव, गढ, पोळ, कोठा, यान (रथादिक) वगेरे ७३ बोलनो मान मपाय छे. हवे उत्सेंधांगुलनुं मान कहे छे:- अनंत सूक्ष्म परमाणुओनो एक व्यवहारिक परमाणु थाय छे. ते व्यवहारिक परमाणु पण शस्त्रधी छेदाय नहि, अग्निथी बळे नहि, गंगा नदीना प्रवाहमां पण नाश पामे नहि. जेना बे विभाग यह शके नहि तेने तत्त्वज्ञोए माप माटे सहुथी प्रथम ग्रहण करेल छे. तेवा अनंत परमाणुओनी एक उत्लक्षण लक्षणिका धाय, आठ उत्लक्षण श्लक्ष २ आ माप मगधदेशमां प्रचलित हतो, वैदक शास्त्रमां एक 'कर्प'ने एक रुपियाभार गणे छे अने ४ कर्षनुं पश्य, १६ पत्यनुं प्रस्थ, ४ प्रस्थनो एक आढक, ४ आढकनो एक द्रोण एम हालमां गणत्री करवामां आवेल छे. ३ निश्चय नपथी ते स्कंध कहेवाय. प्रमाणबोध विचार ॥ १६३॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१६४॥ णिकानी एक लक्षण लक्षणिका धाय, आठ लक्षणन्नी एक उर्ध्वरेणु धाय, आठ उर्ध्वरेणुनो एक त्रसरेणु धाय, आठः त्रसरेणुनो एक रथेरेणु धाय, आठ रथरेणुनो देवकुरु- उत्तरकुरुना युगलियानो एक केशाग्र धाय, कुरुक्षेना मनुष्यना आठ वाळाग्रवडे हरिवर्ष- रम्यक वर्षना मनुष्यनो एक वाळाग्र धाय, तेवा आठ केशाग्रथी हेमवंत हैरण्यवन क्षेत्रनाम० नो एक केशाग्र धाय, तेवा आठ केशाग्रथी पूर्व-पश्चिम महाविदेह नाम० नो एक केशाग्र थाय, तेवा आठ केशाग्रथी भरत अरावत क्षेत्रनाम० नो एक केशाग्र थाय, तेवा आठ केशाग्रे एक लीख धाय, आठ लीखी एक जुं धाय, आठ जुं थी एक यवमध्य थाय, आठ यवमध्यथी एक उत्सेधांगुल थाय, चोवीश उत्सेधांगुले एक हाथ थाय, चार हाथे एक धनुष्य थाय अने बे हजार धनुष्य वडे एक गाउ धाय, ए उत्सेधांगुलथी चोवीश दंडकना जीवोना शरीरनी अवगाहना (उंचाइ) मपाय छे. हवे प्रमाणांगुलनुं मान कहे छे:-श्री भरतादिक चक्रवर्तीओनुं जे कांगणी रत्न छे तेनुं आठ सोनैयाभार वजन होय, हवे सोनैयानुं माप कहे छे:४ मधुर तृणफलनो एक श्वेत सरसव धाय, १६ सरसवे एक अडद धाय, बे अडदे एक गुंजा धाय, ५ गुंजाए एक मासो धाय अने १६ मासानो एक सोनैयो धाय. एवा आठ सोनैयाभारनुं एक कांगणी रत्न होय. तेनां छ तळां, आठ खूणा, बार हांसो अने सोनीनी एरणने आकारे छे. ते कांगणी रत्ननी एकेकी हांस, एकेक उत्सेधांगुलनी होय छे. ए उत्सेधांगुल, ते श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामीना आत्मांगुलथी अर्ध्यं धाय. श्री महावीर १ स जीवना चालवाथी जे रज उडे ते. २ स्यादि चाळवाथी जे रज उडे ते ३ उल्लेभांगुळधी वीरप्रभू आत्मांगुळ डबक धाय. प्रमाणवोध विचार ॥१६४॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणवोध सिद्धांत रहस्य ॥१६५॥ विचार ॥१६॥ स्वामीना पांचवें आत्मांगुल बडे एक प्रमाणांगुल थाय. पाद, बेंत अने यावत् योजन सुधीन मान पूर्ववत् जाणवू. प्रमाणांगुल बडे पृथवी. पर्वत, विमान, नरकावास, द्वीप, ममुद्र, नरक-भृमि देवलोक, लोक, अने अलोका- दिक २९ बोलनी लंबाइ, पहोळाइ, उंचाइ अने परिधि वगेरेनुं माप थाय छे. ए ३ प्रकारना अंगुल कह्या. ते प्रत्येकना व्रण त्रण भेद छे:-१ श्रेणि ( सुची) अंगुल, २ प्रतर अंगुल अने ३ घन अंगुल. सुची अंगुल ते एक प्रदेश जाडी ने पहोळी अने एक आंगुलनी लांबी एवी एक एक आकाश प्रदेशानी श्रेणि. ते असंख्यात प्रदेशास्मक होवा छतां असत्कल्पनाए त्रण प्रदेश रुप आ: प्रमाणे छे प्रतरांगुल ते सुची अंगुलने मुची अंगुलथी गुणवाथी प्रतरांगुल थाय. ते असत्कल्पनाए समान लंबाइ-पहोळाइवाला नव प्रदेशात्मक आ प्रमाणे छे. घनांगुल-ते प्रतरांगुलने सुची अंगुलथी गुणतां घनांगुल थाय. ते असत्कल्पनाए २७ प्रदेशात्मक थाय, एनी लंबाइ-पहोलाइ जाडाइ समान होय छे. वस्तुतः असंखात कोडाकोडी योजन प्रमाण लांबी, एक आकाश प्रदेशनी पहोळी अने जाडीते श्रेणि. ते श्रेणिने श्रेणिगुणो करतां प्रतर थाय. (अहियां लंबाइ-पहोळाइ सरग्बी होय) प्रातरने श्रेणि गुणो करतां घन थाय. (अहिं लंबाइ वगेरे समान होय) घनीकृत लोकने संख्यात गुणो करतां संख्याता लोक थाय. ते घनीकृत लोकने असंख्यात गुणो करतां असंख्याता लोक थाय अने अनंतगुणो करतां अनंता लोक थाय. ते अनंता लोकना आकाश प्रदेश जेटला, निगोदना एक शरीरमां । यचापि श्री रीरस्यामीना आत्मांगुलथी प्रमाणांगुल बसेंगणुं थाय, तथापि अढीगणी पहोळाइ वडे गुणवाधी पांचसंगणुं थाय, Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१६६॥ जीवो छे ए ऋण प्रकारना अंगुल कह्या. हवे त्रण प्रकारना पल्योपमनुं स्वरूप कहे छे:- १ उद्धार पल्योपम, २ अद्वापल्योपम अने ३ क्षेत्र पल्योपम. एकेक पल्यो०ना बादर अने सूक्ष्म बे भेद छे. प्रथम बादर उद्धार पल्योपम कहे छे:- उत्सेधांगुलने मापे एक योजननो लांबो-पहोळो, डंडो अने ऋण गुणी परिधि जेनी होय तेवो पालो, | देवकुरु ने उत्तर कुरुक्षेत्रना एक दिनथी यावत् सात दिन सुधीना जन्मेला युगलिया, तेना वाळाग्रे करी निवडठांसी ठांसीने भरीएं. जे अग्निथी बळे नहि, प्रचंड वायुथी एक रज मात्र उडे नहि, चक्रवर्तीना सैन्यथी दबाय नहि, गंगा नदीनो प्रवाह चाले तोपण भींजाय के भेदाय नहि. एवी रीते भरेल पालामांधी समये समये वालाग्र काढतां जेटले काले ते पालो खाली थाय तेटला कालने बादर उद्धार पल्योपम कट्टेल छे. ते संख्याता समयोनुं जाणवुं एवा दश कोडाकोडी पल्योपमनुं बादर उद्धार सागरोपम थाय. सूक्ष्म उ० नुं स्वरुप सुगमताथी सम | जवा माटे बादर उ० नी प्ररूपणा करेल छे पण. एनुं कांइ प्रयोजन ( उपयोग थतो ) नथी. हवे सूक्ष्म उद्धार पल्योनुं स्वरुप कहे छेः- पूर्वे कट्टेल एकेक वालाग्रना असंख्यात खंड कल्पवा. ते चक्षुधी न जोइ शकाय एवा सूक्ष्म पुद्गलना असंख्यातमा भाग प्रमाणे होय, निगोदना जीवना शरीरथी असंख्यात गुणा अने बादर पृथ्वी कायिक जीवना शरीर जेवडा खंड होय तेवा वालाग्र बडे पूर्वनी माफक पालो भरीएं, पछी समये समये एकेक | वालाग्र काढतां जेटले काले ते पालो ( जेटला वखतमां ) खाली धाय तेटला कालने सूक्ष्म उद्धार पस्यो० कहीएं; २ अंगुलनुं विशेष स्वरूप जाणवा माटे अंगुल सित्तरी ग्रंथ जोबुं. प्रमाणबोध विचार ॥१६६॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१६७॥ ए असंख्याता समयोनुं जाणवू. एवा दश कोडाकोडी पल्योपमें सूक्ष्म उद्धार सागरोपम थाय. आ पल्यो० ने मानो सागरो थी द्वीप अने समुद्रनुं मान थाय छे. अढी सागरोना अथवा पचीश कोडाकोडी पल्योना जेटला विचार समयो थाय तेटला द्वीप समुद्रो छे. अर्थात् असंख्याता द्वीप-समुद्रो छे. आजंबूद्वीप, एक लाख योजननो लांबो-18|॥१६७॥ पहोळो छे, एम अनुक्रमें बमणा करतां छेल्लो स्वयंभूरमण समुद्र, अर्द्धरज्जु (राज)नो लांबो-पहोळो छे. हवे अद्धापल्योपमनु स्वरुप कहे छे:-पूर्वनी जेम पालो, युगलियाना बाळाग्रथी भरीए अने शो शो वर्षे एकेक वालाग्र | काढतां जेटले काले खाली थाय तेटला कालने बा अद्धा पल्यो. कहीएं, ते संख्यात कोटी वर्षनुं धाय के एवा दश कोडाकोडी पल्योपमें बा० अद्धा सागरोपम थाय. एपण प्ररुपणा मात्र छे एनुं कांइ प्रयोजन नथी. हवे | सूक्ष्म अनुं स्वरूप कहे छे:-पूर्ववत् वालाग्रोना एकेकना असंख्यात खंड करीने पूर्ववत् भरीए तेमांधी सो सो वर्षे एकेक खंड काढतां जेटले काले ते खाली थाय; तेटला कालने सूक्ष्म अद्धा पल्यो० कहे छे. एवा दश कोटीकोटी पल्योपमें सू० अद्धा सागरो. थाय. आ सू० अद्धा पल्यो. अने सागरोल्थी नारक प्रमुग्वना आयुष्यो, कर्मनी स्थिति अने पृथवीकायिक आदि जीवोनी कायस्थिति मपाय छे. हवे क्षेत्र पल्योपमनुं स्वरूप कहे छ:पूर्वोक्त रीतिए भरेल पालाने स्पर्शीने रहेला आकाश प्रदेशोमांथी एकेक प्रदेशनो समये समये आकर्षण करतां जेटले काले ते पालो खाली थाय; तेटला कालने बा० क्षेत्र पल्योपम कहीएं, तेवा दश कोडाकोडी पल्योपमें बा. क्षेत्र सागरोपम थाय. तेमा असंख्याता कालचक्रो जाय छे; ते पण निष्प्रयोजन छे. पूर्वनीपरे भरेल Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१६८॥ पालाने स्पर्शी अने अस्पर्शी रहेला आकाश प्रदेशोमांधी एकेक प्रदेशने समये समये काढतां जेटले वखते, ते | पालो खाली धाय तेटला कालने सूक्ष्म क्षेत्र पल्यो० कहीएं, तेवा दश कोटीकोटी पल्योपमें सू० क्षेत्र सागरोपम थाय आ सू० क्षेत्र पत्योपम अने सागरोपमनो उपयोग, द्रव्य प्रनाग संबंधी विचारणाने प्रसंगे दृष्टिवादमां करवामां आवे छे; अर्थात् एनो दृष्टिंवादमां काम पडे छे. इति प्रमाण बोध समाप्त. श्रीसिद्धांत - मानविचार - १ आचारांग सूत्र, अध्ययन २८, मूल श्लोक संख्या २५००, नियुक्ति-श्लोक ४५० चूर्णी - श्लोक ८३००, टीका - श्लोक १२००० ॥ २ सूयगडांगसूत्र, अध्ययन २३, मूलश्लोक २१००, निर्युक्तिश्लोक २५०, चूर्णी - श्लोक १००००, टीका- श्लोक १२८५० ॥ ठाणांगसूत्र, अध्य० १०, मृ० ३७७०, टीका १५२५० ४ समवायांगसूत्र, मू० १६६७, चूर्णी ४००, टीका ३७७६ ॥ ५ व्याख्यापन्नती ( भगवती ) सूत्र, शतक ४१, मू० १५७५२, चूर्णी ४०००, टीका १८६१६ ॥ ६ ज्ञाता धर्मकथांगसूत्र, अध्य० १९, मू० ५५००, टीका ४२५२ ॥ ७ उपाशक दशांगसूत्र, अध्य० १०, मू० ८१२, टीका ९०० ॥ ८ अंतगडद्दशांगसूत्र, अध्य० ९०, मू० ७९०, टीका ३०० ॥ ९ अनुत्तरोववाइसूत्र, अध्य० ३३, मू० २९२, टीका १०० ॥। १० प्रश्नव्याकरणसूत्र, अध्य० १०, मू० २ सूक्ष्म क्षेत्र पश्योपनना विचारमां बालाना असात खंड करवानी जरूर जणाती नथी. कारण ? अस्पर्शेल आकाश प्रदेश ग्रहण करायेल छे, छतां जूनी उपायेल प्रतोमां खंड करवानुं लखेल छे. ३ पंच संग्रहमां जीवोना प्रमाणनी संख्या नाटे क्षेत्र पस्योपम लीधुं छे. आवश्यकम पण सामायिकना स्वरुपमां श्रुत, समकित देश विरतिना आकर्षमां नुं प्रयोजन बतावेल छे. सिद्धांत मानविचार ॥१६८॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % सिद्धांतरहस्य ॥१६९॥ % सिद्धांत मानविचार % ७००, मलयगिरिलोक ७७८७, ॥१६९॥ % बी १८६०, अन. % १२५०, टीका० ४६०० ॥ ११ विपाकसूत्र, अध्य० २०, मू० १२१६, टीका ९०० ॥ मूलसूत्र सुधर्मास्वामीकृत छे. प्रथमना बे अंगमूत्रनी टीका शीलांकाचार्यकृत छे अने नव अंगनी टीका अभयदेवसूरिकृत छे, नियुक्ति भद्रवाहुस्वामी कृत छे अनेचूर्णी पूर्वाचार्यकृत छे. १२ उपांगसूत्रः-१ उववाइ सूत्र, मू० १२००, टीका ३१२५, अभयदेवसरिकृत छे. २ रायप्रसेणीमूत्र, मू० २०७८, टीका ३७००, मलयगिरिकृत छे. ३ जीवाभिगमसूत्र, मू०४७००, टीका १४०००, मलयगिरिकृत छे. ४ पन्नवणासूत्र, मूलश्यामाचार्यकृत छे. श्लोक ७७८७, अने टीका (लघुवृत्ति) हरिभद्राररिकृत छे, बृहद्वृत्ति १६०००, मलयगिरिकृत छे. ५ जंबूद्वीपपन्नती सूत्र, मू० ४१४६, चूर्णी १८६०, अने टीका १२०००, मलयगिरिकृत छे पण हाल उपलब्ध थती नथी; परंतु हाल शांतिचन्द्रउपाध्याय कृत छे तथा | | उपा० धर्मसागरकृत अने हीरसूरिकृत पण छे. ६ चंद्रपन्नतीसूत्र, मू. २२००, टीका० ९४११, मलयगिरि|कृत छे. बीजी लघुवृत्तिना १००० श्लोक छे. ७ सूर्यपन्नतीसूत्र मू० २३००, लघुवृत्ति १००० अने बृहद्वृत्तिना ९००० श्लाक मलयगिरिकृत छे. ८-१२ निरयावलिकासूत्रना अध्ययन ५ छे १ कप्पिया, २ कप्पवडंसिया, ३ पुफिया, ४ पुष्फचुलिया अने ६ विन्हिदशा. ए पांचना पेटा अध्ययन ५२ छे मू० श्लो. ११०९ छे अने टीका श्री चंद्रसूरिकृत श्लो. ७०० छे. ६ छेदसूत्र कहे छे:-१ व्यवहारसूत्र, मूलअध्य० १० भद्रबाहु स्वामीकृत व्यवहारसूत्रती नियुक्तिनी संख्या मली शकती नथी भाष्यकारे तेनी अंदर स्वीकारेल छे, भाष्यमा अंतर्गत थयेल छे तेथी जूदी संख्या जणाती नथी. %% %令%*%** Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य 11810011 श्लोक ६०० छे, भावना लो० २००० चूर्णीना १०३६१, टीका मलयगिरिकृत ३३६२५० छे २ वृहदुकल्पसूत्र मू० ० ४७३, अध्य० २४, लघुभाष्य ८०००, बृहद्भाष्य १३०००, चूर्णी १४३२५, टीका क्षेमकीर्तिसूरिकृत ४२००० श्लोक छे. ३ निशोधसूत्र, अध्य० २० मू० श्लो० ८१५, लघुभाष्य - ७४००, बृहद्भाष्य१२०००, चूर्णी २८००० श्लोक छे. ४ महा निशीथसूत्र, मूल-लघुवाचना- ३५००, मध्यमवाचना-४२०० अने | बृहद्बाचना - ४५०० श्लोक छे. ५ दशाश्रुतस्कंधसूत्र, मृ० इलो० १८३५, नियुक्ति - १६८, चूर्णी - २२४५, ६ पंच| कल्पसूत्र, मू० इलो० ११३३, अध्य० - १६, भाष्य ३१२५, चूर्णा- २१३० श्लोक छे. जीतकल्प, मू० इलो० १०८, चूर्णी - १००० भाष्य- ३१२४ अने टीका- १२००० इलोक छे. चार मूलसूत्रोनुमान - १ आवश्यकसूत्र, मू० इलो० १२५, नियुक्ति भद्रबाहुस्वामीकृत श्लो० ३१००, चूर्णी १८०००, बृहट्टीका हरिभद्रसूरिकृत इलो० २२०००, लघुवृत्ति तिलकाचार्यकृत १२३२१, अंचलगच्छाचार्यकृत १२०००, भाष्य- ४००० अने मलधारी हेमचंद्रसूरिकृत द्विपण इलो० ४६०० के विशेषावश्यक, ए मूल आवश्यक सूत्रना विशेष भाष्यरूप छे, तेना इलो० ५०००, लघुवृत्ति १४०००, बृहद्वृत्ति - २८००० अने स्वोपज्ञवृत्ति पण छे. २ दशवैकालिकसूत्र, मू० इलो० ७००, श्रीशय्यं २ बृहद्रूपनी मलयगिरिकृत टीका हाल उपलब्ध नथी. ३ विशेषावश्यक सूत्र, अतिशय गंभीर अर्थवालु होवाथी ने महाभाष्यना नामथी ओळलाय हे, तेना रचनार श्री जिनभद्रगणी क्षमा श्रमण हे कोटयाचार्यकृत लघुवृत्ति के अने मलधारीकृत वृहद्वृत्ति डे ४ मूलना रचनारे जे मूलनी टीका ( वृत्ति ) करेल होय ते 'स्वोपज्ञ वृत्ति' कडेवाय छे. सिद्धांत मानविचार 1129011 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवसूरिकृत छे, नियुक्तिना ४५०, चीना ७०००, दीपिका (लघुवृत्ति )ना २६००, तिलकाचार्यकृन टीकाना || सिद्धांत सिद्धांत ७०००, मलयगिरिकृत वृत्तिना ७७००, हरिभद्रसूरिकृतटीकाना ६८१० श्लोक छ. ३ उत्तराध्ययनसूत्र, अध्य०३६ मानविचार रहस्य समू० श्लो० २०००, वादिवैताल शांतिसूरिकृत बृहदृत्तिना १८०००, नियुक्तिना ७००, चूर्णांना ६००० श्लोक छे; ४ ॥१७॥ ॥१७॥ | लक्ष्मीवल्लभकृत टीका वगेरे अनेक टीकाओ छे. ४ पिंडनियुक्ति, मूल-भद्रबाहुस्वामीकृत छे. इलो. ७००, मल| यगिरिकृत टीकाना ७०००, धीराचार्यकृत टीकाना ७९००, लघुवृत्सिना ४००० श्लोक छे. ओघनियुक्ति-कर्ता भद्रबाहुस्वामि. श्लो० १४००, भाष्यना ३००० चूर्णीना ७००० अने द्रोणाचार्यकृत टीकाना ७००० श्लोक छे. बेचूलिकासूत्र छः-१ नंदीसूत्र, श्री देववाचककृत छे, मू० श्लो० ७००, चूना २०००, हरिभद्रसूरिकृत लघुवृतिना २३१२, मलयगिरिकृत बृहबृत्तिना ७७३५. श्री चन्द्रसूरिकृत हिपण ३००० श्लोक छे. २ अनुयोगद्वार, मू० श्लो. १८९९, चूर्णीना ३००५, हरिभद्रसूरिकृत लघुवृत्तिना ३५००, मल्लधारी श्री हेमचंद्राचार्यकृत बृहद्वृत्तिना ६००० श्लोक छे. १० पयन्ना कहे छ:-१ चउशरणपइन्नो-मू० गाथा ६३, २ आउरपञ्चक्वाणपइन्नो-मू० गा० ८४, &३ भत्तपच्चक्खाणपइन्नो मू० गा० १७२, ४ संथारगपइन्नो, म्० गा० १२२, ५ तंदुलवेयालियपइन्नो, म्० गा० ४००, चंद्रावेधक, मू० गा० ३१०, ७ देवेंद्रस्तव, मू० गा० २००, ८ गणिविझापइन्नो, मू० गा० १००, ९ महापच्चक्खा| णपइन्नो, मू० गा०१३४,१०-मरणसमाधिपइन्नो, मू० गा०७२०छे.१नी अवचूरीना इलो० २२५ अनेरनी वृत्तिना९०० श्लोक छे. ए ४५ आगमनी गणनाप्रमाणे १० पइन्ना कहेल छे. बीजा पण पइन्नाओ छ- वीरस्तव पइन्नो, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य सिद्धांत मानविचार | ॥१७२॥ ॥१७२।। गाथा ४३, २ सिद्धिप्राभृत, श्लोक १५०, टीकाना ७५० श्लोक छे, ३ द्वीप सागरपन्नती, श्लो० २५०, टीका२५००, श्लोक छे, ४ ज्योतिष्करंडक, मू०५०० टीका मलयगिरिकृत-२००० श्लोक छे, ५ अंगविद्यापइन्नो, श्लोक ८८००, ६ अजीवकल्प, मू०४५, ७ आराधना पताकामूल-९९३, ८ ऋषिभाषितना ७५० श्लोक छे ९ * गच्छाचार पइन्नो, मू० १३८ श्लोक छे. इत्यादि अनेक छे आवधां अंग सूत्रोमांथी पूर्वाचार्योए उध्धृत करेल छ एटले अंगमां अंतर्गत छे. | हवे नंदीसूत्रमा ७३ सूत्रना नाम कहेल छे ते सूत्रो त्रण प्रकारना छे::-१ कालिक सूत्र, २ उत्कालिक सूत्र अने ३ तव्यतिरिक्त. कालिकसूत्र, पहेले अने छल्ले पहोरे (दिवस के रात्रिए) भणाय के वंचाय, शेष ४ पहो. परमां कालिकसूत्रनी सझाय न थाय. ते कालिकसूचना नाम कहे छे:-१ आचारंगादि ११ अंग, १२ उत्तराध्य यन, १३ दशाश्रुतस्कंध, १४ बृहत्कल्प, १५ व्यवहार, १६ निशीथ, १७ महानिशीथ, १८ ऋषिभाषित, १९ जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति, २० द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, २१ चंद्रप्रज्ञप्ति २२ खुडिया विमाण पविभत्ति (विमानोनुवर्णन करनार लघुशास्त्र), २३ महलियाविमाण पविभत्ति (विमानोनुं वर्णनकर० महोटुं शास्त्र) २४ अंग चूलिया ( अंगसू त्रोनी चूलिका), २५ वग्गचूलिया (अध्ययननो जे समुह ते वर्ग तेनी चूलिका) २६ विवाहचुलिया, २७ अरुणोपपात. (ते अध्ययन भणवाथी अरुणदेवर्नु आवQ थाय ), २८ वरुणोपपात, २९ गरुडोपपात, ३० धरणोपपात. २ एपाचो, प्रभ ग्याकरण सूत्रमाथी उचत धयानु कहेवाब के. जेसलमेरना भकारमा के. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१७३॥ ३१ वैश्रमणोपपात, ३२ वेलंधरोपपात, ३३ देवेंद्रोपपात (२७थी ३३मां वरुण वगेरेनुं आवकुं जाणवुं ), ३४ उत्थानसूत्र (विषमासने बेसी क्रोधयुक्त अप्रसन्न मनथी ए सूत्र भणवाथी ग्रामादिक त्रास पामे-कंपी उठे), ३५ समुत्थान सूत्र ( उत्थानथी विपरीत जाणवुं ), ३६ नागपरिआवणिआ ( नागकुमार देवो त्यां स्थिर धइने साधुने वंदनादि करे ), ३७ निरयावलिका, ३८ कप्पिया, ३९ कप्पवडंसिया, ४० पुष्फिया, ४१ पुप्फचूलिया, ४२ विन्हि - दशाए ४२ सूत्रो कालिक छे. उत्कालिक सूचना नाम कहे छेः-१ दशवैकालिक, २ कल्पाकल्प, ३ चूलकल्पश्रुत, ४ महाकल्पश्रुत, ५ उववाह, ६ रायपसेणी, ७ जीवाभिगम, ८ पन्नवणा, ९ महापन्नवणा, १० पमत्तापमत्त, ११ नंदी, १२ अनुयोगद्वार, १३ देवेंदधव ( देवेंद्रस्तव ), १४ तंदुलवेयालिय, १५ चंदावेधक, १६ सूर्यपन्नती, १७ पोरसीमंडल, १८ मंडल प्रवेश, १९ विद्याचारण विनिश्चय, २० गणिविद्या, २१ ध्यानविभक्ति, २२ मरणविभक्ति, २३ आत्मविशुद्धि २४ वीतरागश्रुत २५ संलेखणासूत्र, २६ बिहार कल्प, २७ चरणविशोधि, २८ आतुरप्रत्याख्यान, २९ महापचक्खाण, ३० दृष्टिवाद, ए ३० सूत्रो उत्कालिक छे, ते चार अकाल तथा ३२ असझायने टालीने आठ पहोर सझाय थाय. हवे तद्व्यतिरिक्त कहे छे-१ आवश्यकसूत्र, ते कालिक उत्का० बन्नेथी जुदुं छे. ए ७३ सूचना नाम कह्या, तेमांथी हाल केटलाक सूत्रो नथी पाक्षिकसूत्रमां ८४ नामो (आगमो कहेल) छे तेमानां केटलाक नामो नंदीसूत्रमां नथी पण ते ठाणांगसूत्रमां छे. परंतु हाल सर्वसिद्धांतो उपलब्ध धता नथी. ४५ आगमो तो हाल सुलभ उपलब्ध छे. पूर्वकालमा ८४ आगमो हता, पण कालदोष वगेरे कारणोश्री घणा आगमो सिद्धांत मानविचार ॥१७३॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत ॥१७४|| बत्रीस असझाय विचार ॥१७४॥ विच्छेद गया छे; तेमज वाचनाभेद अने पाठांतरो पण थयेल के उत्कालिक सूत्रोमांधी केटलाक लभ्य छे अने केटलाक लभ्य नथी. जेटला वर्तमानमा विद्यमान आगमो छे तेनु रहस्य स्याद्वादशैलीए विचारी-अनुभवीने जे जीव पोताना जीवनमां (वर्तनमां) मूकशे ते जीव पोतानुं कल्याण करशे. इति सिद्धांतमान विचार समाप्त. अथ बत्रीश असझाय विचार-ठाणांगसूचना दशमा ठाणामा १० प्रकारनी अंतरिक्ष (आकाशने आश्रयी ) असझाय होय तेना नाम-१ उल्कापात ते तारो खरे (रेखा सहित विविध प्रकाश सहित पडे), अथवा ज्वाला रहित अग्नि आकाशमाथी पडे ते उल्कापात कहेवाय. जो थोडी उल्कापात होय तो अल्पकाल असझाय | होय अने मोटो उल्का होय तो १५ पहोर सुधी अमझाय होय. रात्रिने अंते तारो खरे तो सूर्योदय लगें अस| झाय होय. २ दिसिदाह ते आकाशमां कोइपण दिशामां महान् नगरदाह समान उद्योत जणाय तो असझाय. गर्जना-अकाले गाजे तो अस०,४ विद्युत्-अकाले वीजळी थाय तो अस०,५निर्घात-अकाले कडाका-महान् द्वनि थाय तो अस०, ६ जुयए (युपक)-शुक्लपक्षना बालचंद्रमानो उदय थइने अस्त थाय त्यांसुधी अस०, ७ जक्वालिय-आकाशमां भूतादिकना चाळा थाय त्यांसुधी अस० ८ धूमिका-दीवम उग्या पछी जेटला समय २ असझाय-पांचे प्रकारनी समाय न थाय ते. ३ उल्कापातादि समये ते स्थाने सझाय करवाथी देवता छलना करे. . धूमस ने झाकळ पडवा बखते सूक्ष्मपणाधी अप्काय भावित सर्वत्र थवा पामे छे. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१७५॥ सुधी धूम्र वर्षे तेटलो समय अस०, ९ महिका - झाकळ ज्यां सुधी वर्षे त्यांसुधी अस० १० रजोद्घात - वायु घणो गुंजे अने आकाशमां धूळी चडे दिशा धुंधली थाय ते ज्यांसुधी होय त्यांसुधी असझाय. हवे १० औदारिक शरीर संबंधी असझाय कहे छे:- १ अस्थि ( हाडका ) नी अस०, २ मांसनी अस०, ३ रुधिर (लोही ) नी अस०, ४ अशुचि - सामिप्य ( विष्टादि नजीकमां होय तो ) अस०, ५ स्मशान - सामिप्य ( मसाण नजीकमां होय तो ) अस०, ६ चंद्र ग्रहण (जे रात्रिए थाय ते रात्रि )नी अस० ७ सूर्यग्रहणमां अहो रात्रिनी अस०, ८ पतन ( ते राजा, मोटो अधिकारी अमात्यादिक ) नी अहोरात्री अस० ९ राज - विग्रह ( नगरनी समीपमां ज्यां सुधी युद्ध चाले त्यांसुधी ) नी अस०, १० उपाश्रयमां औदारिक पंचेंद्रियनुं कलेवर ज्यांसुधी पडेलं | होय त्यांसुधी असझाय ते सो हाथनी अंदर होय तो. ए २० असझाय. १ आषाढ सुदि पूर्णिमानी असझाय, २ आषाढ वदि १ नी अस०, ३ आसुँ सुदि पुनमनी अस०, ४ आसु वदि १ नी अस०, ५ कार्तिक सुदि पूर्णि २ ठाणांनी टीकामां-" शोणितं मांसं चर्मास्थि, भवत्यपि चत्वारी, " रुधिर, मांस, चामडुं अने हाडकुं. ए चारनी असझाय क्षेत्रथी ६० हाथनी अंदर होय. कालथी यथा संभवकाल, एतियंच सबंधि कहेल छे. मनुष्य संबंधी एटलुं विशेष छे के १०० हाथ क्षेत्रथी कालथी अहोरात्र काल, आर्तव [ ऋतु ] माटे ३ दिवस, छोकरीना जन्ममां ८ अने छोकराना जन्ममां ७ दिवस कहेल छे. ३ चंद्र-सूर्यग्रहणने अंतरिक्षमां न गणतां औदारिक-असशायमां गुणवानुं कारण तेनां विमानो पृथ्वीकाय होवाथी औदारिक अस० मां गणेड़ छे. ४ ठाणांगसूत्रमां 'इंदमहे ' पाठ के तेनो अर्थ, टीकामां ' आसु' मास करेल छे. प्रवचन सारोद्धारमां पण एमज कहेल छे. केटलाक 'भादरयो' कहे छे, सूत्रमां पुनमनो नाम जणातो नधी बत्रीस असझाय विचार ॥ १७५॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य नियंठा विचार ॥१७६॥ मानी अस०, ६ का वदि १नी अस०, ७ चैत्र सुदि पुनमनी अस०, ८ चै० वदि १नी अस०,९-१२ प्रभातनी बे घडी, मध्यान्हनी बे घडी, संध्याकालनी बे घडी अने मध्यान्हरात्रिनी बे घडी असझाय. ए १२ असझाय, ठाणांगने चोथे ठाणे अने छेद सूत्रमा कहेल छे. ए ३२ असझायमां जो सिद्धांतनुं वांचq भणQ (सझाय) करे तो आशातना लागे देवादिकनो उपद्रव थाय अने तीर्थकरनी आज्ञानो भंग थाय. इति ३२ असझाय समाप्त. श्री नियंठाविचार-पन्नवणा वेय रागे, कप्प चरित्त पडिसेवणानाणे; तित्थे लिंग सरीरे, खिते काले गइ संजम निगासे॥१॥जोगुवओगे कसाए, लेसा परिणाम बंध वेदेय; कम्मो दीरण उवसं, पजण सन्नाय आहारे॥२॥ |भव आगरिसे कालं,-तरेय समुग्धाय खित्त फुसणाय; भावे परिमाणेविय, अप्पा बहुयं (तं ?) नियंठाणं ॥३। ए ३६ द्वारनी गाथाओ कही. पहेलं प्रज्ञापना द्वार-ते निर्ग्रथना छ भेद १ पुलाक, २ बकुस, ३ प्रतिसेवना कुशील, | ४ कषायकुशील, ५ निग्रंथ, अने ६ स्लातक. पुलाक ते सदुसा धान्य सहित पूळा जेवो. बकुस ते सदुस धान्य जेवो. प्रतिसेवणाकु. ते मशल्या धान्य जेवो. कषायकु० ते उपण्या धान्य जेवो. निग्रंथ ते कणकी सहित चोग्वा |'पाडिवए' पाठ छे; टीकामां लखेलु के के जे जे देशमां पड़वा सुधी महोत्सव प्रवर्ते त्यांसुधी अस्वाध्याय, आसुमासमा लौकिक [विजयादशमी | नावगेरे] पर्वामा हिंसानी घणी प्रवृत्ति थाय छे भने क्षुद्रदेवना आगमननो पण संभव छ: माटे आश्विन मासज योग्य जणाय छे. २ भगवतीसूत्रमा नियंठाना पांच भेद छ, कुशीलना बे भेद गणवाथी छ थाय छे; ते उत्तरोत्तर [ एकेकथी ] विशुद्ध विशुद्धतर छे. ३ कणशला सहित चोखा [ चावल ]नो पुळो. SHRA Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंठा सिद्धांतरहस्य ॥१७७॥ विचार मार) करे ते माटे पुल (पात्रादि) झूला दोष लगाडे. २ अना (धान्य ) जेवो. स्नातक ते अखंड चोखा जेवो. हवे पुलाकना बे भेद तेमां १ लंब्धिपुलाक ते चक्रवर्तीनी सेनाने || पण चूरण करवा समर्थ होय. २ प्रतिसेवना पु० ते मूलगुण-उत्तरगुणमां अतिचार लगाडे. बली पुलाकना पांच भेद १ ज्ञानपु०, २ दर्शनपु०, ३ चारित्रपु०४ लिंगपु. अने ५ सूक्ष्मपुलाक. ज्ञानादिकमां अतिचार सेववाथी |चारित्रने पोलो (असार) करे ते माटे पुलाक कहेवाय छे. बकुसना बे भेद-तेमां१ शरीरबकुश ते शरीरनी ॥१७७॥ शुश्रूषा-शोभा करे. २ उपकरणबकुश ते उपकरण (पात्रादि) झळहळता राखे, अधिक संग्रह करे प्रक्षालनादि करे. हवे बकुशना पांच भेद तेमां १ आभोग बकुश ते जाणी जोइने दोष लगाडे. २ अनाभोग बकुश ते अजाणतां दोष लगाडे. ३ संवृत्त ब० ते लोक न जाणे तेम (छानो) दोष लगाडे. ४ असंवृत्त ब. ते प्रगट दोष लगाडे. ५ यथासूक्ष्म ब. ते किंचित् (अल्प) दोष लगाडे. कुशीलना बे भेद-१ प्रतिसेवना कु. अने २ कषाय कुशील. प्रत्येकना पांच भेद-१ ज्ञानप्रतिसे. कुशील, २ दर्शन प्र०, ३ चारित्र प्र०, लिंग प्र०, अने ५ यथासूक्ष्म प्र. कुशील. तेमज ज्ञान कषायकुशील आदि पांच भेद कषायकु ना जाणवा. प्रतिसेवना कु० ते विपरीत आराधना करे, कांइक मूलगुण-उत्तरगुणनी विराधना करे अने कषाय कु० ते संज्वलन कषायना उद २ तथा चोक्तं “संघाइअकज्जमि, चुन्नति चक्कवट्टि सेणंपि."-३ पांच महाव्रत मूल गुण अने दशविध पश्चखाण ते उत्तर गुण. ४ लब्धि पुलाक, संघादिकना कार्य विना लब्धि प्रयुंजनार जाणवो. आ सेवना पु० ते ज्ञानादिमां अतिचार लगाइनार जे होय ते पुलाकनेज ए लब्धि होय छः बीजाने न होय. अर्थात् लब्धिपुलाक ते ज्ञानपुलाक. [पंच निगैथ टीका] ५ पंच निगधी शास्त्रमा लिंगकुछ ने तपकुशील पण कहे छे. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१७८॥ यथी जे कुत्सित (दोषसहित) चारित्रवालो होय अथवा ज्ञानादिक वडे आजीविका करनार होय. निग्रंथ (मोह नियंठा नीय कर्मनी गांठथी छुटेलो) तेना बे भेद-१ उपशांत मोह अने २ क्षीण मोह. तेना वली पांच प्रकार-१ प्रथम विचार समय निग्रंथ, २ अप्रथम समयनि०, ३ चरम समयनि०,४ अचरम समयनि० अने ५ यथा सूक्ष्म निग्रंथ. इग्या ॥१७८॥ | रमा के बारमा गुणठाणाना प्रथम समयमा जे वर्ततो होय ते प्रथम स०नि०, पहेला समय सिवायना शेष | समयमा जे वर्ततो होय ते अप्रथम स०नि०, जे छल्ला समयमां वर्ततो होय ते चरम स०नि०, छेल्ला सिवाय|| शेष समयमा जे वर्ततो होय ते अचरम स०नि० अने जे समयादिकनी विवक्षा रहित ते यथा सूक्ष्म निग्रंथं. स्नातक (जे घाती कर्मरुप मलने प्रक्षालवाथी स्नान करनारनी जेम शुद्ध थयेल तेना पांच भेद १ अशरीरी, २ अशबल (ते निरतिचार चारित्री), ३ अकाश (ते घातीकर्म रहित ), ४ संशुद्ध ( ते ४ अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन धारक अरिहंत-जिनकेवली), ५ अपरिश्रावी (कर्मबंध रहित ). ए पांच भेद, अवस्था १ आ पांच भेदो, सूक्ष्म ऋजुसूत्र-स्थूल ऋजुसूत्र अने व्यवहार नय ए व्रण नयनी अपेक्षाए करेल छे. २ निर्गथा अने तेना उत्तर मेदमा जे तफाबत छे तेनो खुलाशो-मूल निग्रंथ, क्षयोपशम भावे मोहनी गांठथी नीकरेलो छ माटे निग्रंथ अने तेना उत्तर भेदरुप निग्रंथ ते उपशम भावे अने क्षायक भावे मोहनी गांठथी नीकरेला छे. ३ तेरमा अने चौदमा गुणठाणे वर्तनार आस्मानी अवस्थाना भेदने लइने आ पांच भेद स्नातकना कहेल . 'अशरीरी' शब्दथी 'सिद्ध' समजवा नहि. कारण? स्नातकनी स्थिति जे देशे उणीक्रोड पूर्वनी कहीछे ते तेरमा गु० आश्रयी छे. जो सिद्ध गण्या होततो सादि-अनंत स्थिति कहेत. अशरीरी कहेबानो हेतु ए डे केः-चौदमा गु० ना छेल्ला समये अशरीरी छे. कारण ? शरीर Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥ १७९ ॥ भेदधी ( शक्र - पुरंदरादिक शब्दनीं जेम शब्दनयनी व्याख्याथी) छे. बीजुं वेदद्वार - पुलाक ते पुरुषवेदी अने पुरुष नपुंसकवेदी होय, स्त्रीवेदी न होय. बकुश ने प्रतिसेवना कु०, त्रणे वेदवाला होय. कषाय कुशील, त्रणे वेदवाला होय अथवा अंवेदी पण होय तो उपशांतवेदी के क्षीणवेदी होय अने स्नातक, क्षीणवेदी होय, त्रीजुं रागद्वार - पहेला ४ निर्गंधो, सरागी होय. निर्गंध उपशांतरागी के क्षीणरागी होय. स्नातक क्षीणरागी होय. चोथुं कल्पद्वार तेना ५ भेद-१ स्थितकल्प, २ अस्थितकल्प, ३ जिनकल्प, ४ स्थविरकल्प अने ५ कल्पातीत. छए निर्गथो, स्थितकल्प अने अस्थितकल्पमां होय. पुलाक, स्थविरकल्पमांज होय. बकुश अने प्रतिसेवना कु०, जिनकल्प अने स्थविरकल्पमां होय कषायकु०, जिनकल्प - स्थविरकल्प अने कल्पातीतमां होय. निर्बंध अने स्नातक, कल्पातीत कल्पमांज होय. पांचमुं चारित्रद्वार- पुलाक, बकुश अने प्रतिसेवनाकु० ए त्रण, प्रथमना बे चारित्रवाला होय. कषायकु०, यथाख्यात चा० सिवाय पहेला चार चारित्रवाला होय. निर्बंध अने स्नातक, एक छूटवाना समये शरीर छोडयु कहेवाय. क्रीयमाणं कृतं नी जेम आ व्याख्या ऋजुसूत्रने मते छे तेमज शास्त्रमां पण कहेलु छे के "अलोग पहिया सिद्धा, लोगंतेय पइडिया; इअं बोंदिचइताणं, तत्थ गंतुण सिज्झइ. " माटे अशरीरी ते सिद्ध नहि. १ जन्मतः नपुंसक न होय पण कृत नपुंसक अर्थात् पछीथी नपुंसक वेदना उदयवालो जाणवो जन्म नपुंसकने २ नवमा गुणठाणाना संख्यात भाग गया बाद अवेदी थाय छे अने कपाय कुशीलपणुं दशमा गु० सुधी छे. माटे कषाय ३ कषाय कुशीलमां कल्पातीत होवानुं कारण के छद्मस्थ तीर्थंकरो कल्पातीत होय छे. संयमनी प्राप्ति न होय. कु०, वेद रहित पण होय. नियंठा विचार ॥ १७९॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१८॥ नियंडा विचार ॥१८॥ यथाख्यात चारित्रवालाज होय. छटुं प्रतिसेवनाद्वार-पुलाक अने प्रतिसेवना निग्रंथो, मूलगुण अने उत्तरगुणमा दोष लगाडे. बकुश, उत्तरगुणमा दोष लगाडे. कषाय कुशील, निग्रंथ अने स्नातक एत्रण अप्रतिसेवी होय दोष न लगाडे. सातमुं ज्ञान द्वार-पुलाक, बकुश अने प्रतिसेवना एत्रण निग्रंथो, बे ज्ञान अथवा त्रण ज्ञानवाला होय. | कषायकुशील अने निग्रंथ, बे ज्ञान. त्रण ज्ञान के चार ज्ञानवाला पण होय. स्नातक, केवल ज्ञानवालाज होय. पुलाक ने श्रुतज्ञान, जघन्यथी नवमा पूर्वनी त्रीजी आचार वस्तु सुधी अने उत्कुष्टथी संपूर्ण नव पूर्वनु ज्ञान होय. बकुश अने प्रतिसेवना कुल्ने श्रुतज्ञान, ज. अष्टप्रवचन मातानुं ज्ञान अने उ• दश पूर्वनुं ज्ञान होय. कषाय & कु. निग्रंथने ज. अष्ट प्रवचन मातानु ज्ञान अने उ• चौद पूर्वनुं ज्ञान होय. स्नातक, श्रुतातीत छे. आठमु तीर्थ द्वार-पहेला त्रण निग्रंथो, तीर्थमांज होय. शेषत्रण निग्रंथो, तीर्थमा अने अतीर्थमां पण होय. जो अतीर्थमां होय तो तीर्थकर के प्रत्येक बुद्ध होय. नवमुं लिंगद्वार-छए निग्रंथो, द्रव्यलिंग आश्रयी स्वलिंग, अन्यलिंग के २ अनाभोगधी संभव मात्र दोष जाणवो, जाणी जोह जो लगाहे तो चारित्र केम संभवे ? कदाच अतिचार दोष लागे तो तेने प्रायश्चितादि M वडे शुद्धि करे, जो मूलगुणमा अनाचार सेवे तो सर्वथा व्रत भंग थाय. ३ अष्ट प्रवचन मातृकाख्य अध्ययनना ज्ञान सिवाय चारित्रनु पालन न संभवे, माटे एटलुं ज्ञानजघन्यथी पण होवू जोइए. तेमां पण 'मासतुषादि' मुनिओनो अपवाद जाणवो. (पंच निग्रंथ टीका ). ४ केवल ज्ञानमा श्रुतज्ञाननो अंतरभाव होबाथी. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥ १८९॥ गृहस्थ-लिंगमां पण होय. भावलिंग आश्रयी स्वलिंगमांज होय. दशमुं शरीरद्वार-पुलाक, निर्बंध अने स्नातक ए ऋण निग्रथीने औदारिक, तैजम अने कार्मण ए त्रण शरीर होय. बकुश अने प्रतिसेवना कु· ने वैक्रेय सहित चार शरीर पण होय. कषायकुशीलने आहारक सहित पांच शरीर पण होय. इग्यारमुं क्षेत्रद्वार- पुलाक, जन्म अने सद्भाव आश्रयी कर्म भूमिमांज होय. शेष पांच निग्रंथी, जन्म अने सद्भाव आश्रयी कर्म भूमिमां होय पण संहरण आश्रयी अकर्म भूमिमांय होय. पुलाकनुं संहरण देवादिकधी पण धतुं नथी. बारमुं कालद्वारपुलाक, अवसर्पिणी कालमां जन्म आश्रयी श्रीजा-चोथा आरामां होय. सद्भाव आश्रयी श्रीजा, चोथा अने पचिमा आरामां पण होय. जे चोथा आरानो जन्मेलो होय तेज पांचमा आरामां होय. उत्सर्पिणी कालमां जन्म आश्रयी वीजा, त्रीजा अने चोथा आरामां होय. सद्भाव आश्रयी श्रीजा चोथा - आरामां होय. नो अबसर्पिणी नो उत्सर्पिणी कालमां (महा विदेहमां) जन्म अने सद्भाव आश्रयी पण होय. बकुश, प्रतिसेवना अने कषाय कुशील ए त्रग, अवसर्पिणीमां जन्म अने सद्भाव आश्रयी श्रीजा - चोथा - पांचमा आरामां होय. २ पुलाफ सिवाना निग्रंथो, भरतादिवत् गृहस्थादिलिंगमां संभवे. परंतु नवपूर्वधारी जे पुलाक, ते कारणवशात् अन्यलिंग के गृहस्थलिंगमां होय छे. ३ पुलाकने वैक्रेपछि वैक्रेय शरीर केम नहोय ? उत्तर- पुलाक, संघादिना कार्य प्रसंगे लब्धि प्रयुंजतां पुलाक भावने छोडीने अबइय कषाय कुशील भावने पामे छे कारण ? परिणामनी वृद्धि धवाधी. माटे वैक्रेय शरीर न होय. लब्धिनुं सामर्थ्य छतां जो संघादि कार्य माटे लब्धि न प्रयुजे तो संतो द्रोही थवाथी विराधक थाय. [पंच निद्र्धनी टीका ] नियंठा विचार ॥ १८९॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१८२॥ नियंठा विचार ॥१८२॥ उत्सापणी कालमां तथा नोअव. नोउत्स. कालमां पुलाकनी जेम जाणवू निग्रंथ अने लातक, जन्म अने सद्भाव आश्रयी पुलाकनी जेम जाणवू, नो अव० नो उत्सर्पि० मा जन्म अने सदभाव आश्रयी सर्वे निग्रंथो होय. संहरण आश्रयी पुलाक सिवाय शेष निग्रंथो, सर्व कालमां होय. तेरमुंगति-स्थितिद्वार-पहेला चार निग्रंथोनी गति, जघन्यथी सौधर्म देवलोकनी होय. उत्कृष्टथी पुलाकनी आठमा देवलोक सुधी होय. बकुश अने प्रतिसेवना कुछ नी बारमा देवलोक सुधी अने कषाय कु. नी अनुत्तर विमान सुधी होय. निग्रंथनी अजघन्य अने अनुत्कृष्ट अनुत्तर विमाननी होय. स्नातकनी सिद्धिगति होय. पहेला त्रण निग्रंथो, अविराधक भावे १ इंद्रनी, |२ सामानिकनी, ३ त्रायत्रिंशकनी अने ४ लोकपालनी ए चार पदवी पामे. कषाय कु०, अहमिंद्र सहित पांच | पदवी पामे. निग्रंथ, अहभिंद्रनीज पदवी पामे. विराधकपणे पांचे निग्रंथो, ज. भुवनपतिमां अने उ० सौधर्म | देवलोकमां जाय. अविराधकनी स्थिति पहेला चार निग्रंथोनी ज० पृथक्त्व पल्योपमनी अने उ० पुलाकनी १८ | सागरोपमनी, बकुश अने प्रतिसेवना कु. नी २२ सागरनी, कषाय कु. नी३३ सा. नी. निर्ग्रथनी अजधन्यअनुत्कृष्ट ३३ सागरनी. चौदमुं संयम-(स्थान) द्वार-पहेला चार निग्रंथोना अनंत पर्यवयुक्त असंख्याता २ विराधक भावे निग्रंथोनी स्थिति पण भवनपति भने सौधर्म देवलोक प्रमाणे जाणवी ३ चारित्र मोहनीयना क्षयोपशमनी विचित्रताथी होय छे. जेटला कषायना रसबंधना अध्यवसाय स्थानको तेटलाज संयमना स्थानको छे; | तेनो क्षयोपशम के क्षय थवाथी चारित्रती प्राप्ति थाय छे. SUSCRISESRISARASSA Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१८३॥ नियंठा विचार ॥१८॥ संयम-स्थानो छे. निग्रंथ अने स्नातकर्नु एक एक संयम-स्थानक छे. ते निग्रथने उपशमभावे अथवा क्षायकभावे होय अने स्नातकने तो क्षायकभावेज होय तेओर्नु अल्प बहुत्व-सर्वथी थोडा निग्रंथ अने स्नातकना संयम है स्थानक. तेथी पुलाकना असंख्यातगुणा सं० स्था० . तेथी बकुशना असंख्या० सं० स्था० छे तेथी प्रतिसेवना | कु. ना असं० सं० स्था० छे. तेथी कषाय कु. ना असं० सं० स्था० छे. पंदरमुं सन्निकर्षद्वार-(ते परस्पर संयो। जन-सबंध ). स्वस्थानमा अने परस्थानमा पर्यवोने आश्रयीने पुलाक, पुलाक साथे समान होय, अथवा छ स्थानपतित (छठाणवडियो) होय. बकुश अने प्रतिसेवनाथी अनंत गुणहीन होय. कषाय कु. साथे छ स्थानपतित | होय. निग्रंथ अने स्नातकथी अनंत गुणहीन होय. बकुश, पुलाकथी अनंत गुण अधिक होय अने १ बकुश २8 प्रतिसेवना अने ३ कषाय कु० साथे छ स्थान पतित अने उपरना बे निग्रंथोथी अनंतगुण हीन होय. प्रतिसेवना | कु०, पुलाकथी अनंतगुण अधिक होय. बकुश, प्रति से० ने कषाय कु. पत्रण साथे छ स्थान पतित अने उपरना बे निग्रंथोथी अनंत गुण हीन होय. कषाय कु० पेला चार निग्रंथो साथे छ स्थान पतित अने उपरना | बे निग्रंथोथी अनंत गुण हीन होय. निग्रंथ अने स्नातक, पहेला चार निग्रथोथी अनंत गुण अधिक अने | परस्पर तुल्य होय. तेओर्नु अल्प बहुत्व-पुलाक अने कषाय कु. ना जघन्य पर्यवो, सर्वथी थोडा होय. '२ छ स्थान पतित ते 1 अनंत भाग हीन, २ असंख्यात भाग हीन, ३ संख्यात भाग हीन, ४ संख्यात गुण हीन, ५ असंख्यात गुण हीन | अने ६ अनंत गुण हीन, ए पटुगुण हानी. तेमज पटगुण वृद्धि ते , अनंत भाग वृद्धि, वगेरेजाणवी. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत नियंठा विचार ॥१८॥ ॥१८४॥ तेथी पुलाकना उ० पर्यवो, अनंतगुणा. तेथी बकुश अने प्रति से• ना ज० पर्यवो, अनंतगुणा अने परस्पर तुल्य. तेथी बकुशना उ० पर्यवो अनंतगुणा. तेथी प्रति से ना उ० पर्यवो अनंतगुणा तेथी कषाय कु. ना उ० पर्यवो अनंतगुणा. तेथी निग्रंथ अने स्नातकना अजम्ने अनुत्कृष्ट पर्यवो अनंतगुणा अने परस्पर तुल्य छे. सोलमुं योगद्वार-पहेला पांच निग्रथो, सयोगी (त्रणे योगवाला) होय. स्नातक, सयोगी होय तो त्रणे योगवालो होय | अने अयोगी पण होय. सत्तरमुं उपयोगद्वार-छए निग्रंथो, साकारोपयोगी अने अनाकारोपयोगी पण होय. अढारमुं कषायद्वार-पहेला त्रण निग्रंथोने संज्वलनी चोकडी होय कषाय कु. ने संज्व०नी चोकडी पण होय अथवा क्रोध सिवाय त्रण कषाय, मान सिवाय बे कषाय अने माया सिवाय एक संज्व० नो लोभ पण होय. निग्रंथ उपशांत कषायी अथवा क्षीणकषायी होय. स्नातक, क्षीणकषायीज होय. उगणीशमु लेश्याद्वार-पहेला त्रण निग्रंथो, प्रशस्त त्रण लेश्यावाला होय. कषाय कु०, छए लेश्यावाला होय. निग्रंथ, शुक्ल लेझ्यावालो होय.. २ स्नातकने भाव मन होतुं नथी, परंतु ज्यारे अनुत्तर विमानना देवो केवलीने प्रश्न पूछे छे त्यारे काययोग बड़े मनोवर्गणाना पुद्गलोने ग्रहण करी द्रव्य मनपणे परिणमावीने उत्तर आपे छे; तेथी स्नातक त्रग योगवालो होय. ३ चार कषाय, ५ कषायकु० ने अप्रशस्त ३ लेश्या होय छे. कारण ? लेश्याना अध्यवसाय स्थानो असंख्पाता छे अने लेश्या, रमबंधनुं कारण छे; माटे जे पी लेक्षा तेपो रस होय. जेम कोइ लब्धिमान् साधु, संघादिकना प्रयोजने दुष्ट नृपादिकने शिक्षा करवा ज्यारे लब्धि फोरवे त्यारे संघादि उपर प्रशस्तराग होवाथी प्रथम प्रशस्त लेश्या होय के; पछी दुष्ट नृपादि उपर कलुर भाव आववाथी-कषायनी प्रबलताथी-अप्रशस्त-लेश्या परिगमे छे. परंतु तत्काल अप्रशस्त लेश्याथी ते निवृत्त थइ शुभ लेश्यामा परिणमे छे. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य नियंठा विचार ॥१८५॥ ॥१८॥ स्नातक, परम शुक्ल लेश्यावालो होय अने अलेश्यी पण होय. वीशमुं परिणामद्वार-चार निग्रंथोमां बर्द्धमान, हीयमान अने अवस्थित ए व्रणे परिणाम होय. निग्रंथ अने स्नातकमां हीयमान परिणाम न होय. पहेला चार नि० मा वर्द्धमान अने हीयमान परिणाम, ज. एक समय अने उ० अंतर्मुहूर्त होय. अवस्थित परि०, ज० एक समय अने उ० सात समय होय. निग्रंथमां अवस्थित परि०, ज०१ समय अने उ० अंतर्मु० अने वर्द्धमान परि० ज०-उ० अंतर्मु. होय, स्नातकमां वर्द्धमान परि०, ज०-उ० अंतर्मु० अने अवस्थित परि०, ज० अंत. अने उ० देशे उणा (नववर्षन्यून) पूर्वकोडी सुधी होय. एकवीश, बंधद्वार-पुलाक, आयुष्य सिवाय ७ कर्म बांधे. बकुश अने प्रति से०, सात के आठ कर्म यांधे. सात बांधे तो आयुष्य सिवाय. कषायकु०, सात आठ अथवा छ कर्म बांधे. छ बांधे तो आयुष्य ने मोहनीय सिवाय. निग्रंथ, एक सातावेदनीय बांधे. लातक, एक सातावेदनीय बांधे अथवा अबंधक पण होय. बावीश, वेदनद्वार-पहेला चार निग्रंथो, आटे कर्मने वेदे (भोगवे ). निग्रंथ, | मोहनीय सिवाय सात कर्म वेदे. स्नातक, चार अघाति कर्म वेदे. वेवीश, उदीरणद्वार-पुलाक, वेदनीयने आयुष्य सिवाय छ कर्मनी उदीरणा करे. बकुश अने प्रतिसेव०, आठ सात के छ कर्मनी उदी. करे. सातनी जो बधारे बखत अप्रशस्त लेश्या रहे तो प्रमत्त गुणस्थाननो घात करे, अप्रशस्त लेझ्या पण प्रमत गु०मा होय लब्धि-प्रयुजन पण प्रमत्त भावमा होय छे. पुणाकादि संयत लब्धि प्रयुजन समये अवश्य कषाय कु. भावने पामे छे. २ पुलाने आयुष्य-पंधना अध्यवसाय स्थानोनो अभाव होवाथी आयुष्य-बंधनथी. [पंचनिग्रंथी टीका ]. RECORICANSPONGE B ER Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१८॥ करे तो आयुष्य सिवाय अने छनी करे तो वेदनीय ने आयुष्य सिवायनी. कषाय कु., आठ सात छ अने पांच नियंठा कर्मनी पण उदी. करे. पांचनी करे तो वेद०, आयु. अने मोहनीय सिवायनी. निग्रंथ, पांच अथवा बे कर्मनी विचार उदी० करे. बेनीकरे तो नाम अने गोत्रनी. स्नातक, बे कर्मनी करे अथवा अनुदीरंक पण होय. चोवीशमुं उप ॥१८६॥ संपदाद्वार-(पूर्व भावनो त्याग अने अन्य भावनी प्राप्ति ते उपसंपदा)-पुलाक, पुलाक भावनो त्याग करी कषाय कु. पणुं पामे अथवा असंयतपण थाय. बकुश, बकुश भावनो त्याग करी प्रतिसेवना कु०, कषाय कु०, देशविरति अने असंयतपणुं पामे. प्रतिसेवना कु०, प्रतिसे० नो त्याग करी बकुश, कषाय कु०, देशविरती अने असंयतपणुं पामे. कषाय कु०, कषाय कु. नो त्याग करी पुलाक, बकुश, प्रतिसे०, निग्रंथ, देश विरति अने5 असंयतपणुं पामे. निग्रंथ, निग्रंथपणानो त्याग करी असंयतपणुं, कषाय कु. पणुं अने स्नातकपणुं पामे. स्नातक, स्नातक भावनो त्याग करी सिद्धिगति पामे. पच्चीशमु संज्ञाद्वार-पुलाक, निग्रंथ अने स्नातक एत्रण, नो संज्ञो. २ चौदमा गुणठाणे उदोरणा नथी. ३ नि, देश विरतिपणु न पामे कारण ? उपशम अणिथी भव [ आयुष्य ] क्षये जे मरण पामे ते अनुत्तर वि० मा जाय त्या देवपणुं होबाथी असंयतपणुज होय अने काल [गुणठाणाना काल ] क्षये पडे तो दशम गुण. जाय माटे कषाय कु. भाव पामे. क्षपक श्रेणिगत नि०, स्नातकपणु पामे. ४ अहिं 'नो' भन्न देशथी निषेधक छे. कारण? औ इयिक भावे आहारादि चार संज्ञा वडे उपयुक्त नथी पण क्षयोपशम भावे विशिष्टज्ञानादि उपयोगरुप संज्ञावडे उपयुक्त छे; माटे नो शब्द कहेल छे. पुलाकादि नि०, ने ज्ञाननी विशिष्टता होवाथी आहारादिनी इच्छा थती नथी, जो के पुलाकनुं चारित्र मंद होय छे परंतु ज्ञान विशिष्ट होय छे. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१८७॥ पयुक्त होय. शेष ३ निग्रंथो, संज्ञोपयुक्त अने नो संज्ञोपयुक्त पण होय. छबीश, आहारकद्वार-पहेला पांच निग्रंथो, आहारक होय. स्नातक, आहारक अने अनाहारक पण होय. सत्यावीशमुं भवदार-पहेला पांच निग्रंथो, नियंठा विचार | ज० थी एक भव करे, उ० पुलाक, ३ भव करे. बकुश, प्रतिसे०, कषाय कु. पत्रण ८ भव करे. निग्रंथ, ३ भव | ॥१८॥ करे अने स्नातक, तेज भवमा मोक्ष जाय. अठावीशमुं आकर्षद्वार-आकर्ष ते (चारित्रना परिणाम] पुलाकादि सर्व निग्रंथोने ज० थी एक भवमा एकवार आवे अने उ० थी पुलाकने ३ वार. बकुश, प्रतिले० अने कषाय कु. एत्रगने पृथक्त्वशत (नवशो)वार. निग्रंथने बे वार अने स्नातकने एकवार आवे. घणा भव आश्रयी पहेला पांच निग्रंथोने ज० थी बे वार आवे अने उ० थी पुलाकने सातवार. बकुश, प्रतिसेव० अने कषाय कुछने सहस्र | पृथक्त्ववार. निग्रंथने पांचवार आवे अने स्नातकने पुनर्भवज नथी. उगणत्रीश, स्थितिद्वार-पुलाकनी जने* उ० स्थिति, अंतर्मुहर्तनी. बकुश, प्रतिसे. अने कषाय कुछ नी स्थिति ज० एकर्समयनी अने उ. देशे उणी * * *** * २ अहिं 'भव' ते पुलाकादि भावना जाणवा पण देवादिना भव न गणवा. ३ ' सहस्रपृथक्व' शब्दथी नव हजार नहि, पण ७२०. गणवा. कारण? एक भवमा उ• थी ९०० बार आवे छे, तेने आठ भवथी गणतां ७२०० थाय के. ४ चार बखत उपशम श्रेणिमा अने एक वखत क्षपकश्रेणिमा एम पांच बार आवे. ५ जघन्य अंतर्मुहूर्तथी उस्कृष्ट अंतर्मु• मोटुं जाणवू, पुलाक भावने पामी अंतर्मुहूर्त सुधी मृत्यु न पामे ला भने पुलाक भावधी पडे पण नहि. ६ एक समय चारित्रने पामी मरण पामे माटे ज. १ समयनी स्थिति कही छे. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१८८॥ नियंठा विचार ॥१८८॥ पूर्व कोडीनी. निग्रथनी स्थिति ज. एक समयनी अने उ. अंतर्मुनी अने स्नातकनी स्थिति ज. अंतर्मुनी |ने उ० देशे उणी पूर्व कोडीनी. ए एक वचन ( एक जीव ) आश्रयी स्थिति जाणवी. हवे बहु वचन (घणा जीव) आश्रयी स्थिति कहे छे-पुलाको अने निग्रंथोनी ज. एक समयनी ने उ• अंतर्मु. नी. शेष चार निग्रंथोनी स्थिति मर्व कालनी. त्रीशमु अंतरद्वार-पांच निग्रंथोनुं अंतर. (एक वचन आश्रयी) ज. अंतर्मु. नु अने उ० देशेउणु अई पुद्गल परावर्तन होय. स्नातकनुं अंतर नथी. बहुवचन आश्रयी-पुलाकोनु ज. एक समय अने उ० संख्याता वर्षमुं अंतर होय. निग्रंथोनुं ज. एक समय अने उ० छ मासनु होय. शेष चार निग्रंथोन अंतर नथी. सदा महाविदेहमां होय माटे. एकत्रीशमुं समुद्घातद्वार-पुलोंकने समुद्घात त्रण. वेदनीय, कषाय अने मरणांतिक. बकुश अने प्रतिसे ने समु०, वैक्रेय ने तैजस सहित पांच. कषाय कु० ने आहारक सहित समु० छ होय अने निर्ग्रथने समु. नथी. स्नातकने एक केवलि ममुद्घात होय. बत्रीशमुं क्षेत्रद्वार-पहेला पांच निर्ग्रथो, लोकना असंख्यातमा भागे होय. स्नातक, लोकना असंख्यातमा भागने विषे होय, घणा असंख्याता भागने विष २ उपशम गुणठाणे एक समय रहीने मरण पामे माटे. ३ एक पुलाकनी ज. स्थिति अंतर्मु० नी कही तो धणा पुलाकोनी ज. स्थिति एक समय केम घटे ? उत्तर-प्यारे पूर्व प्रतिपन्न कोइक पुलाक, अंतर्मु. ना अंत्य समयमा वर्ततो होय, त्यारे बीजो कोइक जीव पुलाक भावने पामे छे; त्यारे ते बन्ने पुलाकोनो एक समयमा सद्भाव होय माटे घणा पुलाकोनी एक स. नी स्थिति कही छे. ४ जो के पुलाक, पुलाक भावमा मरे नहि, पण मरणांतिक समुद्घात करे छे, कषाय कु. भावने प्राप्त करीने मृत्यु पामे, ५ स्नातक, शरीरस्थ अथवा दंड-कपाट करण काले लोकना असंख्यात भागवर्ती होय. मंधान-करण काले लोकना घगा भागमा होयछे, थोडाज भागना न होय अने ग्यारे आंतरा पुरे त्यारे संपूर्ण लोक व्याषी होय. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEC नियंठा विचार ॥१८९॥ || होय अने संपूर्ण लोकमां पण होय. तेत्रीशमुं स्पर्शनाद्वार-ते क्षेत्रद्वारनी जेम जाणवू, पण आजु-बाजुना प्रदेसिद्धांत | शोने स्पर्शे माटे कांइक अधिक स्पर्शना जाणवी. चोत्रीशमुं भावद्वार-पहेला चार निर्ग्रथो. क्षयोपशम भावे रहस्य होय. निग्रंथ, उपशम अथवा क्षायक भावे होय अने स्नातक, क्षायक भावे होय. पांत्रीशमुं प्रमाणद्वार॥१८९।। प्रतिपद्यमान आश्रयी पुलाको, ज० थी एक वे अथवा त्रण अने उ० शतपृथक्त्व होय. पूर्वप्रतिपन्न आश्रयी पुलाको, ज० एक, बे के त्रण अने उ० सहस्रपृथक्त्व होय. प्रतिपद्यमान आश्रयी बकुशो अने प्रतिसे० कुशीलो ज० १-२-३ अने उ० शतपृथक्त्व होय. पूर्वप्रतिपन्न आ० कोटी शतपृथक्त्व होय. प्रतिपद्यमान आ० कषायकुशीलो, ज० १-२-३ अने उ० सहस्र पृथ होय. पूर्वप्रतिपन्न आ० कोटीसहस्र पृथ० होय. प्रतिपद्यमान-आ. निग्रथो, ज० १-२-३ अने उ० १६२ तेमां ५४ उपशम श्रेणिवाला अने १०८ क्षपकश्रणिवाला होय. पूर्वप्रतिपन्न आ० ज० १-२-३ अने उ० शतपृथ० होय. प्रतिपद्यमान आ० स्नातको, ज०१-२-३ अने उ० १०८ होय. पूर्व प्रतिपन्न आ० कोटी पृथकत्व होय. छत्रीश, अल्प बहुत्ववार-सर्वथी थोडा निग्रथो, तेथी पुलाको, संख्यातगुणा, तेथी स्नातको, संख्यातगुणा, तेथी बकुशो संख्यात गुणा, तेथी प्रतिसे• कुशीलो, संख्यात गुणा, तेथी कषाय “प्रतिपद्यमान" ते पुलाकादि भावने वर्तमानमा पामनारा. २ " पूर्वप्रतिपन्न " ते भूनकालमा ए भावने पामेला, ३ बकुश अने प्रतिसे. | कुशीलो बन्ने 'शतपृथक्त्व ' छे, त्यारे बकुशथो प्रतिसेवना संख्यातगुणा केन संभवे ? उत्तर-बकुशनु शतपृथ०, नानु अने प्रतिसे न मोढे जाणवु. बेथी नव सुधीनी संख्याने पृथक्त्वनी संज्ञा छे. ARA RESSAANSF% Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥ १९०॥ कुशीलो, संख्यातगुणा इति निर्बंध विचार समाप्त. श्री कार्यस्थिति विचार - गाथा - जीव गइ इंदिय काए, जोगे वेये कसाय लेसाय; सम्मत नाण दंसण, संजय उवओग आहारे ॥ १ ॥ भासग परित पज्जन्स, सूहुम सन्नी भवत्थि चरिमेय; एतेसिं तु पयाणं कायठिह होइ नायव्वा ॥ २ ॥ १ जीव, २ गति, ३ इंद्रिय, ४ काय, ५ योग, ६ वेद, ७ कषाय, ८ लेश्या, ९ सम्यकत्व, १० ज्ञान, ११ दर्शन, १२ संयत, १३ उपयोग, १४ आहार, १५ भाषक १६ परित, १७ पर्याप्त १८ सूक्ष्म, १९ संज्ञी, २० भवसिद्धिक, २१ अस्तिकाय, २२ चरम, ए २२ पदोनी कार्यस्थिति जाणवा योग्य छे. १ जीव, जीवस्वरूपें सर्वकाल रहे छे. २ नारक, नारकपणे ज० दश हजार वर्ष अने उ० तेत्रीश सागरोपम रहे. तिर्यंच, तिर्यचस्वरूपे रहे तो ज० अंतर्मु० अने उ० अनंतकाल रहे, ते कालथी अनंती उत्सार्पणी-अवसर्पिणी, क्षेत्रथी अनंता लोकना आकाश प्रदेश समान पुद्गलपरावर्त्त आश्रयी, आवलिकाना असंख्यातमा भाग प्रमाण असंख्यपुद्गलपरावर्त्त रहे. तिर्यंचणी ज० अंतर्मु० अने उ० त्रण पल्यने पूर्वकोटी पृथकत्व अधिक काल रहे. मनुष्य २ भगवतीसूत्र - शतक २५ मां छठे उद्देशे आ नियंठानो अधिकार छे. पंचनिग्रंथी प्रकरणमां पण ए वर्णन छे. विशेष जिज्ञासुए पंच निग्रंथी टीका जोवीं. ३ कायस्थिति एटले पुनःपुनः [ फरी फरी ] ते ते पर्याय बडे उत्पन्न धइने अवस्थित रहेतुं ते. ४ नारक, मरीने फरीथी नारक थता नथी तेमज देवपण ५ तियंचपणे अनंत काल रहे ते वनस्पति आश्रयी समजवु, ६ पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक कहेवानुं कारण ए डे के सात अथवा आठ भव करे, सात भव करे ते संख्याता आयुष्यवाला अने एक युगलिक तिर्यंचणीनो भव करीने देवमां उपजे. काय स्थिति विचार ॥ १९०॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत- रहस्य ॥१९॥ काशिनि विचार ॥१९॥ अने मनुष्यणीनी कायस्थिति, तियचणी प्रमाणे जाणवी. देवनी नारकनी जेम जाणवी. देवीनी ज० दश हजार वर्ष अने उ०५५ पल्यनी. सिद्धनी सादि-अनंत कालनी. नारक, अपर्याप्तपणे रहे तो ज०-उ० अंतर्मु० रहे: एम यावत् अपर्याप्त देवी सुधी पण एमज जाणवी. नारक, पर्याप्तपणे रहे तो ज० अंतर्मु० न्यून दश हजार वर्ष अने उ० अंतर्मु न्यून ३३ सागर रहे. तियच पर्याप्त, ज. अंतर्मु. अने उ० अंतर्मु. न्यून ३ पल्य रहे. तिर्यचणी, मनुष्य अने मनुष्यणी एत्रण पर्याप्तनी स्थिति, तियचपर्याप्तनी परे जाणवी. देव पर्याप्तनी नारक पर्या सनी माफक जाणवी अने देवी पर्याप्तनी ज० अंतर्मु. न्यून दश ह० वर्षनी अने उ० अंतर्मु० न्यून ५५ पल्यनी. |३ सेंद्रिय (इंद्रिय सहित ) जीव बे प्रकारना छे १ अनादि-अनंत ते अभव्य जीवनी अपेक्षाए. अने २ अनादिसांत ते भव्य जीवनी अपेक्षाए. एकेंद्रियनी कायस्थिति, ज. अंतर्मु० अने उ० असंख्यपुदगल परावर्तनी. त्रण विकलेंद्रियनी ज. अंतर्मु. अने उ संख्याता वर्षसहस्रनी. पंचेंद्रियनी ज. अंतर्मु० अने उ० हजार सागरोपम झाझेरी. अनिंदियनी सादि-अनंत कालनी स्थिति. सेंद्रिय अपर्याप्तनी स्थिति, ज०-उ० अंतर्मुहर्त; एम यावत् अपर्याप्त पंचेंद्रिय लगे जाणवी. सेंद्रिय पर्याप्तनी स्थिति, ज. अंतर्मु० अने उ. शंत पृथक्त्व सागरोपम २ अहिं लब्धिरुप भावद्रिय समजवी अन्यथा उक्त स्थिति संभवी शके नहि. 'लब्धि' इंद्रिय, विग्रह गतिमाय होय अने इंद्रिय पर्याप्तने पण होय छे. ३ उत्कृष्ट शतपृथक्त्व (९००) सागरनी जे स्थिति कहेल छे ते लब्धि पर्याप्तनी अपेक्षाए जाणवी. कारण अपर्याप्त काले जो के पर्याप्ति पूरण करेल नथी पण पूरण कर्या बिना मरण न पामे ते 'लब्धि पर्याप्त' कहेवाय अने पर्याप्ति पुरी कर्या वगर मरे ते 'लब्धि अपर्याप्त' कहेवाय अहिं कब्धिपर्याप्तनी विवक्षा छे. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥१९२॥ विचार ॥१९२॥ झाझेरी. एकेंद्रियपर्याप्तनी ज. अंतर्मु० अने उ० संख्याता हजार वर्षनी. बे इंद्रिय पर्याप्तनी ज. अंतर्मु. अने उ० संख्याता वर्षनी. ते इंद्रिय पर्याप्तनी ज० अंतर्मु० अने उ० संख्याता दीवसनी. चउरिंद्रिय पर्या० नी ज. अंतर्मु. अने उ० संख्याता वर्षनी. पंचेंद्रिय पर्या. नी ज. अंतर्मु. अने उ० शतपृथकत्व सागरनी. ४ सकायिकजीव बे प्रकारना छे:- अनादि-अनंत, २ अनादि-सांत. पृथवीकायिकनी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने उ. असंख्यातोकाल-असंख्यात उत्मर्पिणी-अवसर्पिणी, कालथी. क्षेत्रथी असंख्यात लोक प्रमाण, अपकायिक, तेजोका० अने वायुका नी स्थिति पण एमज जाणवी. वनस्पतिकायिकनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ० अनंत कालनी-अनंत कालचक्र ए कालथी, अने क्षेत्रथी अनंत लोक प्रमाण, असंख्यात पुद्गलपरावर्तनी. त्रसकायिकनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ• संख्याता वर्ष सहस्र अधिक बे हजार सागरनी. सकायिक अपर्याप्तथी यावत् त्रसकायिक अपर्याप्तनी स्थिति, ज.-उ० अंतर्मुहूर्तनी. पर्यास पृथवीका० नी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने उ० संख्याता वर्ष सहस्रनी. पर्या० अएका नी पण पृथ्वी प्रमाणे. पर्या० ते उकानी ज. अंतर्मु. अने उ० संख्याता २ उक्त स्थिति जे कहेली छे ने व्यवहार राशि बालाजीवोनी अपेक्षाए छे. जे जीवो सूक्ष्मनिगोदमाथी नीकली बादर निगोदादि भावने प्राप्त करीने पुनः सूक्ष्मनिगोदमां जाय तोपण ते व्यवहार राशिवाला कहेवाय अने जे जीवो, अनंतानंत पुद्गल परावर्त्त थया छतां पण सूक्ष्म निगोदने छोडी बादर निगोदादि पर्यायने पामेला नथी. ते अव्यवहार राशिवाला कहेवाय. जेटला जीवो व्यवहार राशिमांधी मोक्ष जाय तेटलाज जीवो अन्य वहार राशिमाथी नीकलीने व्यवहार राशिमां आवे. विशेष जिज्ञासुए पन्नवणा सूचना अढारमा पदनी टीका जोवी. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥१९३॥ दिवसनी पर्या० वायुका० नी ज० अंतर्मु० अनें उ० संख्याता वर्ष हजारनी. पर्या० वनस्पतिका० नी ज० अंतर्मु० अने उ० संख्याता वर्ष हजारनी. पर्या० त्रसका० नी ज० अंतर्मु० अने उ० सागर शतपृथक्त्व झाझेरी. सूक्ष्मनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ० असंख्यातो काल-कालथी असंख्याता कालचक्रनी. क्षेत्रथी असंख्यात लोकप्रमाण. सूक्ष्मपृथवीका०, अपूका०, तेउका०, वायुका०, वनस्पतिका०, अने सूक्ष्मनिगोदनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ० असंख्याता कालनी, सूक्ष्म अपर्या० पृथ्वीका० थी यावत् सूक्ष्म वनस्पतिका० नी स्थिति, ज० उ० अंतर्मुहूर्तनी सूक्ष्म पर्याप्त पृथ्वी आदि पांचनी पण एमज जाणवी. बादरनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ० असंख्याता कालनी - कालथी असंख्याता कालचक्रनी, क्षेत्रथी अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाण यादर पृथ्वीकायिक आदि चारनी स्थिति, ज० अंतर्मु अने उ० ७० कोडाकोडी सागरनी. बादर वनस्पतिका० नी ज० अंतर्मु० अने उ० असंख्याता कालनी - कालथी असंख्यात कालचक्रनी, क्षेत्रथी अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाणनी. प्रत्येक बा० वनस्पति का० नी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ० ७० कोडाकोडी सागरनी. निगोदनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ० अनंतकालनी. क्षेत्रथी अढीपुद्गल परावर्त्तकालनी. बादर निगोदनी ज० अंतर्मु० अने उ० ७० कोडाकोडी सागरनी. बादरत्रसका नी ज० अंतर्मु० अने उ० संख्याता हजार वर्ष अधिक वे हजार २ अंगुलना असंख्यातमा भाग क्षेत्रमा जेटला आकाश प्रदेशो होय तेने प्रति समये अपहरतां ते प्रदेशो जेटले काले खाली थाय. ते काल अवपाती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण धाय कारण? कालश्री क्षेत्र सूक्ष्म होय छे. कायस्थिति विचार ||॥१९३॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रद्धांत रहस्य ११९४॥ सागरती. यादर अपर्याप्तनी स्थिति, ज.-उ० अंतर्मुहत्तनी. बादर पर्याप्तनी ज. अंतर्मु अने उ. शतपृथक्त्व सागर अधिकनी बा० पर्या० पृथवीका. अने अपकानी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने उ० संख्याता हजार वर्षनी. कायस्थिति या पर्याः तेउका नी ज. अंतर्मु. अने उ० संख्याता दिवसनी. बादर वायुका०, बा. वनस्पतिका-प्रत्येक ॐा विचार & ॥१९४॥ वनस्पतिका पर्याप्तनी ज. अंतर्मु. अने उ• संख्याता वर्ष हजारनी. निगोद पर्याप्त अने बादर निगोद पर्यानी ज. अने उ. अंतर्मुहर्तनी बा. सका. पर्यानी ज. अंतर्मु. अने उ० शतपृथक्त्व सागर अधिकनी. ५ स. योगी बे प्रकारना छः-१ अनादि-अनंत अने २ अनादि-सांत. मनयोगी अने वचनयोगीनी स्थिति, ज. एक ममय अने उ० अंतर्मुनी. काययोगीनी ज० अंतर्मु. अने उ० वनस्पति-कालनी. अयोगीनी सादि-अनंतस्थिति. ६ सवेदीना त्रण प्रकार:-१ अनादि-अनंत, २ अनादि-सांत अने ३ सादि-सांत. तेमां सादि-सांतनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ. अर्द्धपुद्गल-परावर्तकालनी. स्त्री वेदनी स्थितिना पांच आदेश छे, ते कहे छे:पहेला आदेशथी ज० एक समयनी अने उ० एकशो दश पल्य अधिक पूर्व कोटी पृथक्त्ववर्षनी. बीजा आदेशथी ज. एक समयनी अने उ० पूर्वकोटी अधिक १८ पल्यनी. बीजा आदेशथी ज० एकसनी अने उ० पूर्व कोटी पृथक्त्व अधिक चौद पल्यनी. चोथा आदेशथी ज० एकस नी अने उ. पूर्व कोटी पृथक्त्व अधिक एकशो २ सादिसांत ते उपशम श्रेणिने प्राप्त करी अवेदी थाय पुनः सवेदी थइने अंतर्मुहूर्ते उपशम श्रेणि प्राप्त करी अवेदी थाय ए सैद्धांतिकमते अने कामग्रंथिक मतानुसारे अंतर्मु०मा क्षपक श्रेणि प्राप्त करी अवेदी पण थाय. उ० थी तो अर्द्धपुद्गल परावर्त्तमा अवश्य मोक्ष जाय. ३ कथन अधवा मतभेद. RAKARANA Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥। १९५ ।। पल्पनी, पांचमा आदेशथी ज० एक समयनी अने उ० पूर्वकोटी पृथकत्ववर्ष अधिक पृथक्त्व पल्योपमनी. पुरुष वेदनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ० सागरोपमशत पृथक्त्व अधिकनी. नपुंसकवेदनी ज० १ समयनी अने उ० वनस्पति-कालनी. अवेदीनी स्थिति बे प्रकारनी छे:- १ सादि-अनंत अने २ सादि-सांत. सादि सांत अवे दीनी स्थिति, ज० १ समय अने उ० अंतर्मुहूर्त्तनी. ७ सकषायी ऋण प्रकारना छे:- अनादि अनंत, २ अनादि सांत, ३ सादि-सांत. तेमां सादि-सांतनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ० अर्द्ध पुद्गलपरावर्त्तनी. क्रोध, मान अने मायाकषायी ए ऋणनी ज० अने उ० अंतर्मुहूर्त्तनी. लोभ कषायीनी ज० एक समयनी अने उ० अंतर्मुहूर्तनी. अकषायी बे प्रकारना छे:- १ सादि-अनंत अने २ सादि-सांत तेमां सादि-सांतनी स्थिति, ज० एक समय अने उ० अंतर्मु०नी. ८ सलेश्यी वे प्रकारना छे:- १ अनादि अनंत अने २ अनादि-सांत. कृष्ण लेइयीनी स्थिति, २ कोइ स्त्री उपशमश्रेणि प्राप्त करी अवेदी थइने श्रेणिथी पडी एक समय स्त्री वेदने अनुभवी देव थाय माटे स्त्री वेदीनी एक समयनी स्थिति कही छे, नपुंसक वेदोनी पण जे एक समयनी स्थिति छे ते माटे पण स्त्री वेदीनी माफक समज. ज्यारे एक समय अवेदी थइ बीजे समये मरण पामे माटे त्यारे एक समयनी स्थिति होय. ३ लेश्यानी ज० स्थिति, मनुष्य अने तिथंच आश्रयी जाणवी. कारण ? तेना लेश्या द्रव्यो अवस्थित रहेता नथी अंतर्मुहूर्ते परावर्त्त पामे छे; तेनुं कारण मात्र कषाय छे. कषाय नाश थया बाद केवलीने अवस्थित रहे छे. अप्रशस्त लेश्यानी उ० स्थिति नारक आश्रयी अने प्रशस्त लेश्यानी स्थिति, देव आश्रयी समजवी, ते पण पूर्वभव अने परभवना ने अंतर्मु० अधिक होय के छतां बे अंतर्मु०नो एक अंतर्मु०मां समावेश करेल छे. देव अने नारकना लेश्याद्वन्यो, अवस्थित होय छे. बदलाता नथी. दर्पणमां प्रतिबिंब माफक आकार मात्रने भजे के. * काय स्थिति विचार ॥ १९५॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAL सिद्धांतरहस्य ॥१९६॥ ज. अंतर्मु. अने उ. तेवीस सागरोपम अंतर्मु. अधिकनी. नील लेश्यीनी ज. अंतर्मु० अने उ० पल्यना असंख्यातमो भाग अधिक दश सागरनी. कापोत लेश्यीनी ज. अंतर्मु. अने उ. पल्यना असंख्यातमो भाग कायस्थिति अधिक त्रण सागरनी. तेजो लेश्यीनी ज. अंतर्मु. अने उ. पल्यना असंख्या अधिक वे सागरनी. पद्म | ★ विचार लेश्यीनी ज० अंतर्मु अने उ. अंतर्मु० अधिक दश सागरनी. शुक्ल लेश्यीनी ज. अंतर्मु. अने उ. अंतर्मु. ॥१९६॥ अधिक तेत्रीश सागरनी. अलेश्यीनी स्थिति, सादि-अनंतकालनी.९ सम्यग्दृष्टि बे प्रकारना छे:-१ सादि-अनंत अने २ सादि-सांत. तेमां सादि-सांतनी स्थिति, ज० अंतर्मु. अने उ०६६ सागर-झाझेरी. मिथ्यादृष्टि त्रण प्रकारना छः-१ अनादि अनंत, २ अनादि-सांत अने ३ सादि-सांत. तेमां सादि-सांतनी स्थिति, ज. अंतर्मु० अने उ० देशेउणी अर्द्धपुद्गल-परावर्तनी. मिश्र ( सम्यग्-मिथ्या ) दृष्टिनी ज० उ० अंतमुहर्तनी. १० ज्ञानी |बे प्रकारना छः-१ सादि-अनंत अने २ सादि-सांत. तेमां सादि-सांतनी स्थिति, ज० अंतर्मु. अने उ० ६६४ सागर झाझेरी, मति अने श्रुतज्ञानी नीपण स्थिति एमज जाणवी. अवधिज्ञानीनी ज. एक समय अने उ०६६ सागर झाझरी. मन:-पर्यव ज्ञानीनी ज० एक समयनी अने उ० देशे उणी पूर्व कोटीनी. केवलज्ञानीनी स्थिति, सादि-अनंतकालनी. अज्ञानी अने मति-श्रुतअज्ञानीना त्रण प्रकार छ:-१ अनादि-अनंत, २ अनादि-सांत अने ३ सादि-सांत. तेमां सादि-सांतनी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने उ० देशे उणी अर्द्धपुद्गल परावर्तनी. विभंगज्ञानीनी ज० एक समय अने उ० तेत्रीश सागर-पूर्वकोटी-देशे उणी झाझेरी. ११ चक्षुदर्शनीनी स्थिति, ज. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अंतर्मु० अने उ० हजार-सागर झाझरी. अचक्षुदर्शनी के प्रकार ना छे:-१ अनादि-अनंत अने २ अनादि-सांत. सिद्धांत- अवधि दर्शनीनी ज. एक समय अने उ० १३२ सागर झाझेरी. केवलदर्शनीनी, सादि-अनंतकालनी स्थिति. कायस्थिति रहस्य १२ संयतनी स्थिति, ज. एक समय अने उ० देशे उणी पूर्व कोटीनी. असंयत व्रण प्रकारना छेः-१ अनादि- विचार ॥१९७॥ अनंत, २ अनादि-सांत अने ३ सादि-सांत. तेमां सादि-सांतनी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने उ० देशेउणी अर्द्ध || पुद्गलपरावर्तनी. संयता संयतनी ज. अंतर्मु. अने उ० देशे उणी पूर्वकोटीनी. नोसंयत नोअसं नो संयता संयतनी मादि-अनंतकालनी. १३ साकारोपयोगी अने अनाकारोपयोगीनी स्थिति, ज. उ. अंतर्मुहर्तनी. १४ | आहारक बे प्रकारना छे-छमस्थ अने केवली. छदमस्थ आहारकनी स्थिति, ज० बेसमयन्यून क्षुल्लकभव | ( २५६ आवलीका) नी अने उ० असंख्याता कालचक्रनी, क्षेत्रथी अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाणनी. | केवली आहारकनी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने उ० देशेउणी पूर्वकोटीनी. अनाहारक बे प्रकारना छे:-छदमस्थ | अने केवली. छद्मस्थ अनाहारकनी स्थिति, ज० एक समय अने उ० वे समयनी. केवली अनाहारकना बे प्रकार छः-१ सिद्ध केवली अने २ भवस्थ केवली. सिद्ध केनी स्थिति, सादि-अनंत. भवस्थ के. अनाहारकना बे भेद १ सयोगी केवली अने अयोगी केवली. सयो केवली अनाहारकनी स्थिति, अजघन्य-अनुत्कृष्ट त्रण SARAN २ श्रण समयनी विग्रहगतिमा बे समय अनाहारकना होय छे, माटे बे समय न्यून कहेल छे. ४-५ समयनी पण विग्रहगति क्वचित होय छे परंतु तेनी अत्र विवक्षा करी नथी. उत्कृष्ट अनंतकाल न थाय, कारण ? असंख्याते काले अवश्य विग्रहगति करे; तेमां अनाहारकपणु प्राप्त थाय. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स ग्यनी (ते केवली समुद्रात वखने होय ) अयोगो के. अलाहारकनी स्थिति, ज. ने उ. अंतर्मुहूर्तनी. १५४ नो स्थिति, ज० एक समय अने उ० अंतर्मुनी. अभाषक त्रण प्रकारना छे:-१ अनादि-अनंत, २ सादि-| कायस्थिति अनत अने ३ सादि-सांत. तेमां सादि-सांतनी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने उ. वनस्पति कालनी. १६ परित्तना विचार ॥१९८॥ बे भेदः-१ कायपरित्त (प्रत्येक शरीरी) अने २ संसारपरित्त. कायपरित्तनी स्थिति, ज० अंतर्मु० अने उ. पृथ्वी जीवना काल जेटली ( असंख्यात कालचक्रनी). संसारपरित्तनी ज० अंतर्मु. अने उ. देशेउणी अर्द्धपुद्गल परावर्तनी. अपरित्तना बे भेद छे-१ कायअपरित्त अने २ संसार अपरित्त. कायअपरित्तनी स्थिति, ज. अंतमु० अने उ. वनस्पति-कालनी. संसार अपरित्तना बे भेदः-१ अनादि-अनंत अने २ अनादि-सांत. नोपरित्त नोअपरित्त (सिद्ध )नी स्थिति, सादि--अनंत. १७ पर्यासनी स्थिति, ज. अंतर्मु० अने उ. पृथक्त्वशत सागरोपम अधिकनी. अपर्याप्तनी ज. अने उ. अंतर्मुनी. नोपर्याप्त नोअपनी सादि-अनंत. १८ सूक्ष्मनी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने उ० पृथ्वी-काल प्रमाण, क्षेत्रथी असंख्याता लोकाकाश प्रमाण. यादरनी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने र० असंख्यातो काल. क्षेत्रथी अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाण. नोसूक्ष्म नोवानी सादि-अनंत, १९ संज्ञीनी स्थिति, ज. अंतर्मु. अने उ० शतपृथक्त्व सागर अधिक. असंज्ञीनी ज० अंतर्मु. अने उ० वनस्पतिकालनी. नोसंज्ञी नोअसंज्ञीनी मादि-अनंत. २० भव्य सिद्धिकनी स्थिति, अनादि-सांत. अभव्यसिद्धिकनी अनादि-अनंत अने नोभवसि० नो अभवसि. नी सादि-अनंत. २१ पांचे अस्तिकायनी स्थिति, अनादि-अनंत Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य १९९॥ छे. अद्धा समय पण प्रवाहनी अपेक्षाए अनादि अनंत छे. चरम (जेनो छेल्लो भव थवानो होय ते )नी स्थितिअनादि-सांत. अचरमना वे भेदः-१ अनादि अनंत ( ते अभव्य जीव आश्रयी ) अने २ सादि अनंत ( ते सिद्ध आश्रयी ) इति कायस्थिति ( अष्टादशम प्रज्ञापना पद ) समाप्त. अथ चक्रवर्त्ति चतुर्दशद्वार वर्णन - १ भरतचक्री, २ वनितामां उपना, ३ ऋषभदेवजी पिता, ४ मं गला माता, ५ चोर्याशी लाख पूर्वनुं आयुष्य, ६ पांचसें धनुष्यनुं देहमान, ७ सत्तोतेर लाख पूर्वलगें कुंवरपणे रह्या, ८ एक हजार वर्ष लगें मंडलिकपणे रह्या, ९ साठ हजार वर्ष लगें देश साधना करी, १० एक हजार वर्ष ज्युन छ लाख पूर्व लगें चक्रवर्त्ति पदवी भोगवी, ११ सुभद्राराणी स्त्री रत्न, १२ आरीसा भुवनमां केवल पाम्या पछी एक लाख पूर्व प्रव्रज्या पाली, १३ मुक्तं गया, १४ ऋषभदेवजीना वारामां थया. ॥ बीजा सगर चक्री १ अयोध्यानगरीमा उ०, २ सुमित्र राजा पिता, ३ यशोमती माता, ४ बहुतेर लाख पूर्वनुं आयुष्य, ५ साडाबारसें धनुष्यनुं देहमान, ६ पचास हजारपूर्व सुधी कुंवरपणे रह्या, ७ पचास हजार पूर्व सुधी मंडलिक पणे ह्या, ८ त्रीश हजार वर्ष लगें देश साधना करी, ९ सिंत्तेरलाख पूर्व लगें चक्रीपद, १० भद्रा स्त्री रत्न, ११ २ सगर चीनु राज्यकाल विचारणीय छे कारण ? अजीतनाथ प्रभुना तेओ काकाइ भाइ थाय छे अजीतनाथ प्रभु दिक्षा लीथा बाद तेभो राज्ये बेा छे अने प्रभु पासे दिक्षा लीधी छे माटे राज्यकाल बहु अल्प घटी शके. गृहवासमा ७१ लाख पूर्व रहेल छे एम समवायंगमां के पण कुंवरपणे बहुकाल जगाय हे माटे विद्वानोए विचारखुं. चतुर्दशद्वार वणेन ॥ १९९॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२०॥ चतुदेशद्वार वणेन ॥२०॥ एक लाख पूर्व दीक्षा पाली, १२ मुक्तं गया, १३ अजीतनाथना वारामां थया १४. ।। त्रीजा मघवाचक्री, १ सावत्थिनगरी, २ समुद्रविजय राजा पिता, ३ भद्रामाता, ४ पांच लाख वर्ष आयुष्य, ५ ४ा धनुष्यनु देहमान, ६ | पचीस हजार वर्ष कुंवरपणे रडा, ७ पचीस हजार वर्ष मंडलिकपणे रडा, ८ वीश हजार वर्ष लगें देश साधना, |९ त्रण लाख ने असी हजार वर्ष राज्य, १० सुनदा स्त्री रत्न, ११ पचास हजार वर्ष दीक्षा पाली, १२ वीजे | देवलोकें गया, १३ धर्मनाथना तीर्थमां थया. १४ ॥ चोथासनत्कुमार चक्री १ हस्तिनापुर नगर, २ अश्वसेन राजा पिता, ३ सहदेवी माता, ४ त्रण लाख वर्षन आयुष्य, ५४शा धनुध्यन देहमान, ६ पचास हजार वर्ष कुंवरपणे रह्या, ७ पचास हजार वर्ष मंडलिक०, ८ एक हजार वर्ष देश साधना, नवाणु हजार वर्ष लगें राज्य, १० जया स्त्री रत्न, ११ एक लाख वर्ष लगें दीक्षा०, १२ जीजे देवलोके गया, १३ धर्मनाथना तीर्थमां थया. १४ ॥ पांचमा शांति चक्री १ हस्तिनापुर नगर, २ विश्वसेन राजा पित्ता, ३ अचिरा माता, ४ एक लाख वर्षy आयुष्य, ५ चालीश धनुष्यनु देहमान, ६ पचीश हजार वर्ष कुंवरपणे रा, ७ पचीश हजार वर्ष मंडलिक. ८ आठसें वर्ष देश साधना, ९ चोवीश हजार बसें वर्ष राज्य, १० विजया स्त्री रत्न, ११ पचीश हजार वर्ष दीक्षा०, १२ मुक्तें गया १३ स्वयं तीर्थंकर थया. १४ ।। छहा कुंथु चक्री १ हस्तिनापुर नगर, २ सुरसेन राजा | पिता, ३ श्रीदेवी माता. ४ पंचाणु हजार वर्षनुं आयुष्य, ५ पांत्रीस धनुष्यनु देहमान, ६ पोणी चोवीश हजार' वर्ष कुंवर०, ७ पोणी चोवीश हजार वर्ष मंडलिक०, ८ छसो वर्ष देश साधना, ९ वीश हजारने दोढसो वर्ष Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२०१॥ राज्य, १० कृष्णश्री स्त्री रत्न, ११ पोणी चोवीश हजार वर्ष दीक्षा०, १२ मुक्तं गया, १३ स्वयं तीर्थंकर थया १४ || सातमा अरची १ हस्तिनापुर नगर २ सुदर्शन राजा पिता ३ देवी माता ४ चोर्याशी हजार वर्षनुं * आयुष्य ५ त्रीश धनुष्यनुं देहमान ३ एकवीस हजार वर्ष कुंबर० ७ एकवीश हजार वर्ष मंडलिक० ८ पांचसें वर्ष देश साधना ९ साडीबीश हजार वर्ष राज्य १० सुरश्री स्त्री रत्न ११ एकवीश हजार वर्ष दीक्षा० १२ मुक्त गया १३ स्वयं तीर्थंकर थया १४ ॥ आठमा सुभूम चक्री १ वाणारसी नगरी २ कीर्त्तिवीर्य राजा पिता ३ तारा राणी माता ४ साठ हजार वर्षनुं आयुष्य ५ अय्यावीश धनुष्यनुं देहमान ६ पांच हजार वर्ष कुंवर० ७ पांच हजार वर्ष मंडलीक० ८ चारसें वर्ष देश साधना ९ ओगणपचास हजार ने छसो वर्ष राज्य १० दशमश्री राणी स्त्री रत्न ११ दीक्षा न लीधी १२ सातमी नरके गया १४ अरनाथना तीर्थमां थया. १४ नवमा महापद्म चक्री १ हस्तिनापुर नगर २ पद्मरथ राजा पिता ३ ज्वाला माता ४ श्रीश हजार वर्षनुं आयुष्य ५ वीश धनुव्यनुं देहमान ६ पांच हजार वर्ष कुंवर० ७ पांच हजार वर्ष मंडलिक० ८ त्रणसें वर्ष देश साधना ९ अढार हजार सातसें वर्ष राज्य १० वसुंधरा स्त्री रत्न ११ एक हजार वर्ष दीक्षा० १२ मुक्तं गया १३ मुनीसुव्रत स्वामीना तीर्थमां धया १४ ॥ दशमा हरिषेण चक्री १ कंपीलपुर नगर २ महाहरी राजा पिता ३ मेरादेवी माता ४ दश हजार वर्षं आयुष्य ५ पंदर धनुष्यनुं देहमान ६ सवात्रणसें वर्ष कुंअर० ७ सवात्रणसें वर्ष मंडलिक८ दोढलो वर्ष देश साधना ९ एकहजार आठले सित्तेर वर्ष राज्य १० देवीराणी स्त्रीरत्न ११ सातहजार ऋणसे चतुर्दशद्वार वर्णन ॥२०१॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२०२॥ श्रीश वर्ष दीक्षा० १२ मुक्ते गया १३ नमीनाथना तीर्थमां थया १४ इग्यारमा जयचक्री १ राजगृहि नगरी २ समुद्रविजयराजा पिता ३ विप्रामाता ४ त्रणहजार वर्षनुं आयुष्य ५ बार धनुष्यनुं देहमान ६ त्रणसो वर्ष कुंअर० ७ त्रणसो वर्ष मंडलिक० ८ एकसो वर्ष देशसाधना ९ एकहजार नवसो वर्ष राज्य १० लक्ष्मणा स्त्रीरत्न ११ चारसो वर्ष दीक्षा १२ मुक्ते गया १३ नमीनाथना तीथेनां थया १४ बारमा ब्रह्मदत चक्री १ कंपीलपुरनगर ब्रह्मराजा पिता ३ चूलणी माता ४ सातसो वर्षनुं आयुष्य ५ सातघनुष्यनुं देहमान ६ अट्यावीश वर्ष कुंअर०७ छपन वर्ष मंडलिक० ८ सोल वर्ष देश साधना ९ छसो वर्ष राज्य १० कुर्मती स्त्रीरत्न ११ दीक्षा न लीधी १२ | सातमी नरके गया १३ नेमीनाथ ने पार्श्वनाथना आंतरामां थया. १४ ॥ इनी चक्रवर्ति चतुर्दश द्वारवर्णनं समाप्तं ।।। अथ वासुदेव बलदेवना २२ द्वारोनुं वर्णन - पेला त्रिष्ष्ट वासुदेव १ अचल बलदेव २ वासु०सातमा देव लोकधी चवीने उपना ३ बल० अनुत्तर विमानथी चवीने उपना ४ पोतनपुर नगर ५ प्रजापतिराजापिता ६ वासु० नी माता मृगावती ७ बल०नी माता भद्रा ९ वासु०नं आयुष्य ८४ लाख वर्षनुं ९ बल०नं आयुष्य ८५ लाख वर्षनुं १० ऐसी धनुष्यनुं देहमान ११ गौतमगोत्र १२ वासु० नीलेवण १३ बल० श्वेतवर्णे १४ संभूति नामना पूर्वभवना धर्माचार्य १५ पचीश हजार वर्ष कुंअर० १६ पचीश हजार वर्ष मंडलीक० १७ एकहजार वर्ष देशसाधना १८ २ आधमांचार्य [पूर्वभवना] वासुदेवना जाणवा पूर्वभवे चारित्रपालीनीयाणु करनार वासुदेव थाय के बलदेव अनियाण कृत होय के जेथी वासुदेव नरके जाय के ने बलदेवनी सद्गती धाय छे कुमारादिकाल वासुदेवनी अपेक्षाए जानबुं बलेनो प्रेम अत्यंत होय के बलदेव मोटा होय. छे. चतुर्दशद्वार वर्णन ॥ २०२॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२०३॥ एक ह० वर्ष न्युन ३ || लाख वर्ष राज्य १९ वासु० सातमी नरके गया २० बल० मुक्तं गया २१ श्रेयांसनाथना तीर्थमां धया २२ ॥ बीजा द्विपृष्ट वासु० १ विजयबल० २ वासु० दशमा देवलोकथी० ३ बल० अनुत्तरविमानथी. ४ द्वारिका नगरी ५ ब्रह्मराजा पिता ६ वासु०नी माता उमाराणी ७ बल०नी माता सुभद्रा ८ वासुन्नुं आयुष्य ७२ लाख वर्षनुं ९ बलoनुं आयुष्य ७५ लाख वर्षनुं १० सित्तेर धनुष्यनुं देहमान १० गौतमगोत्र १२ वासु० नीलेवर्णे १३ बल० श्वेतवर्ण० १४ सुभक्ति पूर्व०ना धर्माचार्य १५ पचीश हजार वर्षकुंबर० १६ पचीशहजार वर्ष मंडलिक० १७ एकसो वर्ष देशसाधना १८ एकसो वर्ष ओछा साडाएकोतेरलाख वर्ष राज्य १९ वासु० छठ्ठी नरके गया २० बल० मुक्त गया २१ वासुपूज्यस्वामीना तीर्थमां थया ।। २२ त्रीजा स्वयंभूवासु० १ भद्रबल० २ | वासु०बारमा देवलोकधी ३ बल० अनुत्तर०४ द्वारिका नगरी ५ रुद्रराजापिता ६ वासुनी माता पृथ्वी ७ बल०नी माता सुप्रभा ८ वासुब्नुं आयुष्य साठलाख वर्षनु ९ बलदेवनुं आयुष्य ६५ लाख वर्षनं १० साठ धनुष्यनुं देहमान १९ गौतम गोत्र १२ वासु० नीलेवर्णे १३ बल० वनवणं १४ सुदर्शन नामना पूर्वभवना धर्माचार्य १५ बारहजार वर्ष कुंवर० १६ बारहजार वर्ष मंडलिक० १७ नेषु वर्ष देश सय १८ ओगणसाठ लाख पंचोत्तर हजार नवसो दश वर्ष राज्य १९ वासु० छठ्ठी नरकें गया २० बलदेव मुक् गया २१ विमलनाथना तीर्थमां धया २२ ॥ चोथा पुरुषोत्तम वासु० सुप्रभ बल० २ वासु०ने बल० बन्ने आठमा देव०धी चवी आव्या ३-४ द्वारिका नगरी ५ सोमराजापिता ६ वासुन्नी माता सीता ७ बल नी माता सुदर्शना ८ वासु०नुं त्रीश लाख वर्षनुं आयुष्य ९ २.२ द्वारनुं वर्णन ॥२०३॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२०४॥ २२द्वारनुं वणेन ॥२०४॥ % 3D बल नुं पंचावनलाखवर्षनुं आयुष्य १०पचास धनुष्यनुं देहमान ११ गौतम गोत्र १२ वासु. नीलेवणे १३ वल श्वेतवर्णे १४ श्रेयांस पूर्व. धर्माचार्य १५ सातसो वर्ष कुंवर०१६ तेरसो वर्ष मंडलिक. १७ एंसी वर्ष देशसाधना १८ ओगणत्रीश लाख सताणुहजार नवसो ने वीश वर्ष राज्य १९ वासु० छट्ठी नरके गया २० बल. मुक्तें गया २१ अनंतनाथना तीर्थमां थया २२॥ पांचमा पुरुषसिंह वासु०१ सुदर्शन बल० २ वासु० इशान देवलोक. ३ बल. आठमा देव०४ अश्वपुरी नगरी ५ शिवराजा पिता ६ वासुनी माता उमया ७ बलनी माता विजया ८ वासुब्नु दशलाख वर्षनुं आयुष्य ९ बल नुं सतरलाख वर्षतुं आयुष्य १० पिस्तालीश धनुष्यनुं देहमान ११ गौतमगोत्र १२ वासु. नीलेवणे १३ बल. श्वतवणे १४ कृष्ण नामना पूर्व. धर्माचार्य १५ त्रणमो वर्ष कुंवर०१६ साडाबारसो वर्ष मंडलिक. १७ सित्तेर वर्ष देशसाधना १८ नवलाख अठाणुहजार त्रणसो एंसी वर्ष राज्य १९ वासु० छट्ठी नरके० २० बल. मुक्तें० २१ धर्मनाथना तीर्थमां थया २२ ॥ छट्ठा पुरुष पुंडरिक वासु०१ आनंद बल० २ वासु. चोथा देव० ३ बल आठमा देव० ४ चक्रपुरनगर ५ महाशिवराजा पिता ६ वासुनी माता लक्ष्मी ७ बल नी माता विजयंती ८ वासुन्नु आयुष्य ६५ ह० वर्षन ९ बल नुं आयु. प्य ८५ ह० व० १० ओगणत्रीश धनु० देहमान ११ वासु. नीले० १२ बल० श्वे०व० १३ गौतम गोत्र १४ पूर्व० धर्माचार्य मंगदत्त १५ अढीसो व० कुंवर १६ अढीसो व. मंडलिक. १७ साठ व० देशसाधना १८ चोसठ ह. चारसो चालीश व राज्य १९ वासु० छट्ठी नरके० २० बल मोक्ष०२१ अरनाथना तीर्थमां थया॥ २२ सातमा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ca सिद्धांतरहस्य ॥२०५॥ २२ द्वारनुं वर्णन ॥२०५॥ दत्त वासु. १ नंदन बल. २ वासु. सौधर्म देव० ३ बल. पांचमा देव०४ वाणारसी नगरी ५ अग्निसिंहरा जापिता ६ वासु०नी माता शेषवती ७ बल नी माता जयंती ८ छवीश धनुष्यनुं देहमान ९ वासु नुं आयुष्य ५६ ह० व० १० बल नुं आयुष्य ६५ ह० व० ११ गौतमगोत्र १२ वानी व०१३ ब. श्वे०व० १४ पूर्व धर्माचार्य सागर १५ नवसो व. कुंवर० १६ पचास व. मंडलिक० १७ पचास व० देशसाधना १८ ५५ ह. व. | राज्य १९ वासु. पांचमी नरकें० २० बल० मुक्तें० २१ अरनाथजीना तीर्थमां थया. २२॥ आठमा लक्ष्मण | वासु०१ पद्म ( रामचन्द्र ) बलदेव २ वासु० त्रीजा देव. ३ बल. पांचमा देव० ४ अयोध्यानगरी ५ दशरथ | राजापिता ६ वासुनी माता सुमित्रा ७ बल नी माता अपराजीता ( कौशल्या ) ८ वासु० आयुष्य १२ ह. | व०९ बल नु आयुष्य १५ ह. वन्नु १० सोल धनुष्यनुं देहमान ११ गौतमगोत्र १२ वानी व० १३ ब. श्व० |२०१४ पूर्व० धर्माचार्य समुद्रदत्त १५ एकसो व. कुंवर०१६ त्रीश व. मंडलिक०१७ अग्यारहजार आठसो सिंतेर व राज्य १८ वासु० चोथी नरकें० १८ बल० मोक्षे २० मुनीसुव्रतजीना तीर्थमां थया २१ ॥ नवमा कृष्ण वासु. १ राम बल० २ वासु० सातमा देव० ३ बल० पांचमा देव० ४ मथुरानगरीमां उपना ५ वसुदेवजी २दत वासु नुं देहमान पांत्रीश धनुष्यनुं समवायंगमां कहेल हे पण ते घटी शकतुं नथी आवश्यकादि घणा ग्रंथोमा २६ धनुष्यकहेल छे अने ते अरनाथ तथा मलीनाथना आंतरामा थयेल होवाथी एटलुंज घटी शके माटे सुत्रकारनु आशय बहुश्रुत गम्य छे. ३ मथुरानगरीमां कंसने त्यां या० जनम्पा वृद्धि गोकुल गाममा पाम्या राज्य द्वारिकामा कयु अने कौशांबी अटवीमा मृत्यु धयु ए विचित्रता थइ बक्रदेवजीजें जन्म तो Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥ २०६॥ पिता ६ वासु०नी देवकीमाता ७ बल०नी रोहिणीमाता ८ वासु०नुं आयुष्य एकहजार व० ९ बल०नं आयुष्य बारसो व०नं १० धनु० दशनुं देहमान ११ गौतमगोत्र १२ वा०नी व० १३ ब० श्वे० ० १४ पूर्व० धर्माचार्य दुरंतसेन १५ सोलव० कुंवर १६ छपन व० मंडलिक० १७ नवसो अठ्यावीश व० राज्य १८ वासु० त्रीजी नरकें १९ बल० पांच मे देव० गया २० नेमनाथना समयमां थया २१ ॥ हवे नव प्रतिवासुदेवना नाम कहे छेः-१ अश्वग्रीव २ तारक ३ मेरक ४ मधु ५ निशुंभ ६ बली ७ प्रह्लाद ८ रावण ९ जरासिंधु० प्रति० प्रथम त्रण खंडना भोक्ता होय पछी वासु० तेने तेनाज चक्रवडे मारी वासु० त्रण खंडना भोक्ता धाय छे. वासुदेवना सात रत्नना नाम तथा आकार अने प्रमाण कहे छे:- १ चक्ररत्न वृत्ताकारे चार हाथ प्रमाण २ धनु० र० चक्राकारे चार हाथ प्रमाण ३ खड्गरत्न वृत्ताकारें बनीश अंगुल प्रमाण ४ कौस्तुभरत्न स्तंबलंबाकारे वाम प्रमाण ५ गदा रत्न वत्साकारें हस्त प्रमाण ६ वनमालारत्नलंबाकारें बत्रीश अंगुल प्रमाण ७ शेखरत्न चतुष्कोण चार अंगुल प्रमाणे होय है. वासु०ना वस्त्र पीला बल०ना वस्त्र लीला वासु०नी ध्वजाए ताडनो चिन्ह वलनी ध्वजाए गरुडनो चिन्ह वासुदेवने आयुध पांच १ पंचायन शंख २ सुदर्शनचक्र ३ कौमुदी गदा ४ सारंग धनु० ५ नंदन खर्गे बल० ने आयुध बे, हल अने मूशल इती वासु० बल० वर्णनं समाप्त सौरीपुरमां थयुं छे कारण जादवो मूल सौरीपुरना छे. २ आठमा तथा नवमा वासुदेवनी देश साधनानो काल थोडो हे ते राज्यकालमा अंतर्गत जाणवो जुदो बताबेल नथी. २२ द्वारनं वर्णन ॥२०६ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधरोना १२द्वारर्नु वर्णन * ॥२०७॥ * __ अथ गणधरोना १२ द्वारोनुं वर्णन-पेला गणधर गोवरगाममां उपना १ वसुभूति पिता २ पृथवीमाता सिद्धांत- ३ ज्येष्ठा नक्षत्रे जनम्या ४ इन्द्रभूति नाम ५ गौतम गोत्र ६ जीव छे के नहिं ए संशय हतो ते प्रभुए टाल्यो ७ लापांचसो जणा साथे दीक्षा लीधी ८ पचास वर्ष गृहवास ९ त्रीश वर्ष छद्मस्थपणुं १० बार वर्ष केवल पर्याय ॥२०७॥ ११ सर्वायुष्य ९२ वर्षतुं १२ ।। बीजा गणधर गोवर गामे उपना १ वसुभूति पिता २ पृथ्वी माता ३ कृत्तिका | नक्षत्रे जनम्या ४ अग्निभूति नाम ५ गौतमगोत्र ६ कर्म छे के नहिं ए संशय० ७ पांचसो जणा साथे दीक्षा लीधी ८ छेतालीश वर्ष गृहवास ९बार वर्ष छदमस्थपणुं १० सोल वर्ष केवल. ११ सर्वायुष्य ७४ वर्ष १२ ।। त्रीजा गणधर गोवर गामे उपना १ वसुभूति पिता २ पृथ्वी माता ३ स्वाति नक्षत्रे जनम्या ४ वायुभूति नाम ५ गौतमगोत्र ६ जीव छे तेज शरीर छे के जुदो छ ए संशय० ७ पांचसो जणा साथे दीक्षा लीधी ८ बेतालीश वर्ष गृहवास ९ दश वर्ष छद्मस्थपणुं १० १८ वर्ष केवल० ११ सर्वायुष्य ७० वर्ष १२ ए त्रणे सगा भाइ हता॥ चोथा गणधर कोलागसन्निवेशे उपना १धनमित्र पिता २ वारुणी माता ३ श्रवण नक्षत्रे जनम्या ४ व्यक्त नाम ५ भारद्वाज गोत्र ६ पृथव्यादि पांच भूतो छ के नहिं ए संशय०७ पांचसो जणा साथे दीक्षा. ८ पचास वर्ष गृहवास ९ बार वर्ष छद्मस्थपणुं १० अढार वर्ष केवल. ११ सर्वायुष्य असी वर्ष १२ ॥ पांचमा गणधर - कोलागसन्निवेशे उपना १ धम्मिल पिता २ भहिला माता ३ उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रे जनम्या ४ सुधर्मा नाम ५ अग्निवश्यायन गोत्र ६ मनुष्य मरीने मनुष्यज थाय के केम ए संशय. ७ पांचसो जणा साथे दीक्षा०८ *** * * * Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२०८॥ 15A4 गणधरोना १२द्वारनुं वर्णन ॥२०८॥ पचास वर्ष गृहवास ९ बेतालीश वर्ष छमस्थपणुं १० आठ वर्ष केवल० ११ सर्वायुष्य एकसो वर्ष १२ ॥ छट्ठा गणधर मौर्यमन्निवेशे उपना १ धनदेव पिता २ विजय देवी माता ३ मघा नक्षत्रे जनम्या ४ मंडितं नाम ५ वाशिष्ट गोत्र ६ बंध मोक्ष छे के नहिं ए संशय०७ साडा वणसो जणा साथे दीक्षा लीधी ८ त्रेपन वर्ष गृहवाम ९ चौदवर्ष छदमस्थपणुं १० सोल वर्ष केवल० ११ सर्वायुष्य ८३ वर्ष १२॥ सातमा गणधर मौर्यसन्निवेश उपना १ मौर्यदेव पिता २ विजयदेवी माता ३ रोहिणी नक्षत्रं जनम्या ४ मौर्यपुत्र नाम ५ काश्यप गोत्र ६ देव छ के नहिं ए संशय०७ साडा त्रणसो जणा साथे दीक्षा० ८ पांसठ वर्ष गृहवास चौद वर्ष छमस्थपणुं १० सोल | वर्ष केवल० ११ सर्वायुष्य ९५ वर्ष १२ ।। आठमा गणधर मिथिलामा उपना १ देवदिन्न पिता ३ जयतीमाता | ३ उत्तराषाढा नक्षत्रमा जनम्या ४ अकंपित नाम ५ गौतमगोत्र ६ नरक छे के नहिं ए संशय० ७त्रणसो जणा साथे दीक्षा ८ अडतालीश वर्ष गृहवास ९ नव वर्ष छद्मस्थ० १० एकवीश वर्ष केवल० ११ सर्वायुष्य ७८ वर्ष १शा नवमा गणधर कोशलामां उपना १ वसुदेव पिता २ नंदामाता ३ मृगशिर नक्षत्रे जनम्या ४ अचलभ्राता नाम ५ हारितगोत्र ६ पुण्य पाप छे के नहि ए संशय०७त्रणसो जणा माथे दीक्षा ८ छेतालीश वर्ष गृहवास ९ बार वर्ष छद्मस्थ०१० चौद वर्ष केवल० ११ सर्वायुष्य ७२ वर्ष. १२॥ दशमा गणधर वत्सभूमीमां तुंगिक मनिवेशनी अंदर उपना १ दत्तपिता २ वरुणदेवी माता ३ अश्वनी नन्न जनम्या ४ मेतार्यनाम %252424 २ मंडिक पण नाम छे, Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२०॥ ५ कौडिन्य गोत्र ६ परलोक छे के नहि ए संशय०७ वणसो जणा साथे दीक्षा ८ छन्त्रीश वर्ष गृहवास ९|| | दश वर्ष छद्मस्थ०१० सोलवर्ष केवल०११ सर्वायुष्य ६२ वर्ष० १२॥ इग्यारमा गणधर राजगृहि नगरीमा गणधरोना उपना १ बलपिता २ अतिभद्रामाता ३ पुष्य नक्षत्रे जनम्या ४ प्रभासनाम ५ कौडिन्य गोत्र ६ मोक्ष छे के १२दारनुं नहि ए संशय०७त्रणसो जणा साथे दीक्षा० ८ सोल वर्ष गृहवास ९ आठ वर्ष छद्मस्थ०१० सोल वर्ष केवल वर्णन |११ सर्वायुष्य ४० वर्ष० १२ ॥ सर्वे गणधरो जातिवंत ब्राह्मणो हता वली तेओ विद्वान अध्यापको हता सर्वे ॥२०९॥ द्वादशांगीना धारण करनारा थया नव गणधरो वीर प्रभुनी हयातीमां राजगृही नगरीमां मोक्षं गया वीर प्रभु मोक्षं गया पछी इंद्रभूति (गौतम) तथा सुधर्मा स्वामी अनुक्रमे राजगृही नगरीमा मोक्षे गया सर्वे गणधरोए छेवटे एक मासर्नु पादपोपगमन अनशन करेल छे. सर्वलब्धि युक्त प्रथम संघयण अने समचउरंस संठाणवाला सर्वे गणधरो हता इती गणधर वर्णनं समाप्तं ॥ अथ वीश विहरमान जिनना सोलद्वार कहे छे-पेला सीमंधर स्वामी १ जंबूद्विपना महाविदेह क्षेत्रमा थया २ आठमी पुष्कलावती विजय ३ पुंडरगिणि नगरीमा जनम्या ४ श्रेयांसराजा पिता ५ सत्यकी। माता ६ वृषभलंछन ७ रुकमणी स्त्री ८ सुवर्ण वर्णदेह ९ पांचसे धनुष्य देहमान १० चोर्याशी लाख पूर्वन सर्व आयुष्य ११ तेमां २० लाख पूर्व कुंवरपणे रथा १२ त्रेसठ लाख पूर्व राज्य भोगव्यु १३ एक लाख पूर्व २ हाल विहरमान वीश तिथंकरो महाविदेहमां केवली तरिके विचरे थे पण थया ए भूतकालनु वचन जन्मने आश्रयी समजवू. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२१०॥ चारित्र० १४ एकसोक्रोड साधुओनो परिवार १५ दश लाख केवलीनो परिवार १६ ॥ बीजा युगमंधर स्वामी १ जंबू० महा० २ नवमीवप्र विजय ३ विजयापुरी नगरी ० ४ सुद्रढराजा पिता ५ सुतारा माता ६ गजलंछन ७ प्रीयमंगला स्त्री ८ शेष आठ बोल पूर्ववत् ॥ श्रीजा बाहुस्वामी १ जंबू० महा० २ चोवीशमी वत्स विजय ३ सुसीमापुरी नगरी ४ सुग्रीव राजा पिता ५ विजया माता ६ मृगलंछन ७ मोहनी स्त्री ८ शेष पूर्ववत् ॥ चोथा सुबाहुस्वामी १ जंबू० महा० २ पचीशमी नलीनावती विजय ३ अयोध्या नगरी ४ निषधराजा पिता ५ भुनंदा माता ६ कपीलंछन ७ किंपुरीसा स्त्री ८ शेषपूर्व० ॥ पांचमा सुजातस्वामी १ पूर्वघातकी खंड० २ आठमी पुष्कलावती विजय ३ पुंडरगिणि नगरी ४ देवसेनराजा पिता ५ देवसेना माता ६ सूर्यलंछन ७ जयसेना स्त्री ८ शेष| पूर्ववत् || छठा स्वयंप्रभस्वामी १ पूर्वघातकी खंड० २ नवमी वप्रविजय ३ विजयापुरी नगरी ४ कीर्त्तिगजराजा | पिता ५ मंगला माता ६ चंद्रलंछन ७ प्रीयसेना स्त्री ८ शेषपूर्ववत् ॥ सातमा ऋषभानन स्वामी १ पूर्वधातकी खंड २ चोवीशमी वच्छविजय ३ सुसीमापुरी नगरी ४ कीर्त्तिधरराजा पिता ५ वीरसेना माता ६ सहलंछन ७ जयावती स्त्री ८ शेषपूर्ववत् ॥ आठमा अनंतवीर्यस्वामी १ पूर्व धातकी खंड० २ पचीशमी नलीनावती विजय ३ अयोध्या नगरी ४ मेघरथ राजा पिता ५ मंगलावती माता ६ गजलंछन ७ विजयावती स्त्री ८ शेषपूर्ववत् ॥ नवमा सूरप्रभस्वामी १ पश्चिम धातकी खंड० २ आठमी पुष्कलावती विजय ३ पुंडरगिणि नगरी ४ विजयराजा ३ भवती चोवीशीमां मोझे जशे. जिनना सोलद्वार ॥२१०॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनना सोलद्वार ॥२११॥ | पिता ५ विजया माता ६ चंद्रलंछन ७ नंदसेना स्त्री ८ शेष पूर्ववत् ॥ दशमा विशालप्रभ स्वामी १ पश्चिम सिद्धांत- धातकी० २ नवमीवप्र विजय ३ विजयापूरी नगरी ४ श्रीनागराजा पिता ५ भद्रामाता ६ सूर्यलंछन ७ विमला रहस्य | स्त्री ८ शेषपूर्व० इग्यारमा वज्रधर स्वामी १ पश्चिम धातकी० २ चोवीशमीवत्स विजय ३ सुसीमापूरी नगरी ॥२१॥ | ४ पदमरथ राजा पिता ५ सरस्वति माता ६ शंखलंछन ७ विजया देवी स्त्री ८ शेष पूर्ववत् ९ बारमा चंद्रानन | स्वामी १ पश्चिम धातकी. २ पचीशमी नलीनावती विजय ३ अयोध्या नगरी ४ वाल्मिक राजा पिता ५ पदमा| वती माता ६ वृषभलंछन ७ लीलावती स्त्री ८ शेष पूर्ववत् ॥ तेरमा चंद्रबाहु स्वामी १ पूर्व पुष्करा . २ आठमी पुष्कलावती विजय ३ पुंडरगिणि नगरी ४ देवानंद राजा पिता ५ रेणुका माता ६ कमललंछन ७ सुगंधा स्त्री ४८ शेष पूर्ववत् ॥ चौदमा भुजंगस्वामी १ पूर्व पुष्करार्द्ध २ नवमी वप्रविजय ३ विजयानगरी ४ महाबल राजा पिता ५ महिमा माता ६ कमल लंछन ७ सुगंधसेना स्त्री ८ शेष पूर्ववत् ॥ पंदरमा इश्वर स्वामी १ पूर्व पुष्ककारार्द्ध २ चोवीशमीवत्स विजय ३ सुसीमापुरी नगरी ४ गजसेन राजा पिता ५ यशोज्वला माता ६ चंद्रलंछन |७ भद्रावती स्त्री ८ शेष पूर्ववत् ॥ सोलमा नेमिप्रभ स्वामी १ पूर्व पुष्करार्द्ध २ पचीशमी नलीनावती विजय ३ | अयोध्या नगरी ४ वीरभद्र राजा पिता ५ सेनावती माता ६ सूर्यलंछन ७ मोहनी स्त्री ८शेष पूर्ववत् ॥ सतरमा वीरसेन स्वामी १ पश्चिम पुष्करार्द्ध० २ आठमी पुष्कलावती विजय ३ पुंडरगिणि नगरी ४ भूमीपाल राजा पिता ५ भानुमती माता ६ वृषभ लंछन ७ राजसेना स्त्री ८ शेष पूर्ववत् ॥ अढारमा महाभद्र स्वामी १ पश्चिम पुष्क Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२१२॥ लेश्या विचार २१२॥ रार्द्ध० २ नवमीवप्र विजय ३ विजयापुरी नगरी ४ देवसेन राजा पिता ५ उमा माता ६ गजलंछन ७ सूरिकता स्त्री ८ शेष पूर्ववत् ॥ ओगणीशमा देवयशा स्वामी १ पश्चिम पुष्कराई २ चोवीशमीवत्स विजय ३ सुसीमा४ पुरी नगरी ४ संवरभूती राजा पिता ५ गंगावती माता ६ चंद्रलंछन ७ पदमावती स्त्री ८ शेष पूर्ववत् ॥ वीशमा अजीतवीर्य स्वामी १ पश्चिम पुष्करार्द्ध० २ पचीशमी नलिनावती विजय ३ अयोध्या नगरी ४ राजपाल राजा पिता ५ कनकावती माता ६ शंखलंछन ७ रत्नमाला स्त्री ८ शेष पूर्ववत् इती विहरमान जिन पोडशद्वार वर्णनं समाप्तं ॥ अथ लेश्या-विचार-जेना वडे आत्मा कर्मथी लेपाय ते लेश्या. अथवा कृष्णादि द्रव्यना संयोगथी स्फटिक रत्ननो जेम अन्य नवीन परिणाम थाय छे, तेम योगांतर्गत कृष्णादि परमाणु द्रव्यनी प्रधानताथी जे आत्मानो परिणाम थाय छे ते लेश्या कहेवाय छे. ज्यांसुधी योग होय छे, त्यांसुधी लेश्या होय छे अने ज्यां योगनो अभाव होय छे त्यां लेश्या होती नथी. माटे आ अन्वय-व्यतिरेक सबंधथी लेश्यान कारण योग छे. जेटला प्रमाणमां कषायनो सदभाव होय तेटला प्रमाणमां कषायोने आ लेश्या द्रव्यो सहायक बनीने प्रगट करे छे. केमके योगांतर्गत अन्य द्रव्यो पण कषायने उद्दीपन (बलवान् ) करवाने समर्थ थाय छे. जेमके पित्त द्रव्यमां क्रोधने उद्दीपन करवानो गुण देखाय छ क्रोधातुर माणसनी अति पित्त प्रकृति होय छे. वळी मदिरा २ कारणना सद्भावे कार्यनो सदभाव ते अन्वय अने कारणना अभाचे कार्यनो अभाव ते व्यतिरेक. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२९३॥ दहिं वगेरे बाह्य द्रव्यों, ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्मोदयना हेतुभूत ( निमित्त कारण ) धाय छे अने ब्राह्मी वज आदिक द्रव्यो, ज्ञाना वरणीयादि कर्मना क्षयोपशमना हेतुभूत पण थाय छे. ज्यारे आ बाह्य | द्रव्योमां आ प्रमाणे देखाय हे, त्यारे योगांतर्गत लेइया द्रव्योमां पण सामर्थ्य होय ए योग्यज छे. अर्थात | लेश्या द्रव्यों, कषायना कारण छतां पण लेश्या कषायनी साथै तदात्मक थती नथी; कारण ? कषायना अभा वम पण लेश्या होय छे. कछु छे के " जोगपरिणामो लेस्सा. " माटे योगना उदयथी लेश्या छे अने तेरमा गुणठाणा सुधी ते होय छे. लेश्या छ प्रकारनी छे:-१ कृष्णलेश्या, २ नीललेश्या, ३ कापोतलेश्या, ४ तेजोलेश्या, . पद्मलेश्या, अने ६ शुक्ललेइया, कृष्णलेश्या मेघ अंजन अने खंजन वगेरेना रंग जेवी काळी छे. नील लेइया, पोपट ( शुक), चासपक्षी अने नील कमल वगेरेना रंग जेवी नीली छे. कापोतलेश्या खेरसार, करीरसार अने २ कषाय स्वरुप थवं ते. ३ लेश्या, योगजन्य कहेल छे ते पनवणा-वृत्तिकारना अभिप्राये छे. कर्मग्रंथनी वृत्तिमां त्रण मतो बताया छे:-केटलाक आचार्यों, कर्म परिणामने लेश्या माने छे एटले आठ कर्मना उदयधी माने छे अन्य आचार्यों कषायना उदयधी लेश्या माने छे. वळी बीजा आचार्यों योगना उदयधी माने छे. आ व्रण मतमां 'योगजन्य लेश्या ए मत विशेष माननीय के बीजा ने मत पण सापेक्षताप घटी शके छे. सारांश एछे के:-जे द्रव्य लेश्या ते योगजन्य के अने भाव लेश्यानुं कारण छे: भाव लेश्या कषाय जन्य छे. पण ते द्रव्य लेश्यानी अपेक्षा राखे छे. भाव लेश्या, द्रव्य लेश्या सिवाय होती नथी; परंतु भाव लेश्या सिवाय द्रव्य लेश्या होय छे. कारण ? कपायना नाश पछी पण द्रश्य लेश्या होय छे. लेश्या विचार ॥२१३॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या विचार ।।२१४॥ बंताक (रांगणा )ना पुष्प वगेरेना रंग जेवी छे. तेजोलेश्या, पद्मरागमणि हींगलो अने परवाला वगेरेना रंग सिद्धांत ४ा जेवी लाल छे. पद्मलेश्या, सुवर्ण चंपाना फूल अने कणेरना पुष्प वगेरेना रंग जेवी पीळी छे. शुक्ल लेश्या, रहस्य गायना दूध-दहिं, समुद्रफीण अने शरद् ऋतुना वादळा वगेरेना रंग जेवी धोळी छे. कृष्ण लेश्यानो रस कडवी ॥२१४॥ तुबडी, लींबडो अने कडु वगेरेना रस जेवो कडवो छे. नील लेश्यानो रस, पीपर, आदु अने शूठ वगेरेना रस जेवो तीखो छे. कापोत लेश्यानो रस काचां बिजोरां, कोठ अने आमला वगेरेना रस जेवो खाटो रस छे. तेजो लेश्यानो रस पाकेला आंबाना रस जेवो छे. पद्मलेश्यानो रस द्राक्ष, खजुर अने इक्षु (शेलडी)ना रस जेवो मधुर छे. शुक्ल लेश्यानो रस गोळ, खांड अने साकरना रस जेवो मधुर छे. पहेली त्रण लेश्यानो गंध गायना सर्पना अने हाथी वगेरेना मडदांना दुर्गधथी अनंतगुणो दुरभिगंध छे. पाछली त्रण लेश्यानो गंध, सुगंधी पुष्पो (चंपा वगेरे )ना सुगंधथी अनंतगुणो सुरभिगध छे प्रथमनी त्रण लेश्याओनो स्पर्श, गायनी जीभ अने कर| वतना स्पर्शथी पण अनंतगुणो कर्कश छे. छेल्ली त्रण लेश्याओनो स्पर्श, माखण बूर अने सरसवना फूलथी पण अनंतगुणो कोमल छे. पहेली त्रण लेश्याओ अप्रशस्त (अशुभ) छे अने पाछलनी त्रण लेश्याओ प्रशस्त (शुभ) दछ. पहेली त्रण लेश्याओ संक्लिष्ट छे अने पाछली त्रण लेश्याओ असंक्लिष्ट छे. प्रथमनी त्रण लेश्याओ, शीत | अने रुक्ष स्पर्शवाली छे अने पाछली त्रण लेश्याओ, उष्ण अने स्निग्ध स्पर्शवाली छे. पहेली त्रण ले० दुर्गतिनी | देनारी छे अने पाछली त्रण ले० सुगतिनी देनारी छे. वळी जेम वैडुर्यमणि, भिन्न भिन्न सूत्रना संसगथी विविध SHARE Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥ २१५ ॥ वर्णवाळो देखाय छे, तेम देव अने नारकनी लेश्याओ, अन्य लेश्या - द्रव्योना संसर्गथी तदाकार मात्रने भजे छे; परंतु पोताना स्वरुपने छोडती नथी. माटे देव-नारकनी द्रव्य लेश्याओ अवस्थित ( यावत् जीव सुधी ) रहे छे अने अध्यवसायना परावर्त्तनथी छंए लेश्याओ होय छे; तेथी दुष्ट लेश्यावाला नरकना जीवोने तेजो लेश्या दिथी समकितनी प्राप्ति थाय छे. कारण ? समकितनी प्राप्ति शुभ लेश्यामां होय छे अने पूर्व प्रतिपन्न (ममकितपामेल छए लेइयावाला होय छे. मनुष्य अने तिर्यचोनी द्रव्य लेश्याओ, अन्य लेश्या द्रव्योना संसर्गथी स्वरु पनो त्याग करी तद्रुप पण थह जाय छे. जेम श्वेत वस्त्रने रंगमां झबोळवाथी रंगित ( तद्रुप) बनी जाय छे, ते म मनुष्य-तिर्यचोनी द्रव्य ले अंतर्मुहूर्ते अंतर्मुहूर्त बदली जाय छे; अर्थात् मनुष्य अने तिर्यचोनी द्रव्यने भाव लेश्यानुं परावर्तन थाय छे. लेश्याना परिणाम ३ प्रकारे, ९ प्रकारे, २७ प्रकारे, ८१ प्रकारे, २४३ प्रकारे अने बहु प्रकारे पण परिणमे छे. जे लेश्याना परिणाम होय तेना पहेला अने छेल्ला क्षणमां मरण धतुं नथी. छेल्लं अंतमुहूर्त शेष (बाकी) होय त्यारे अथवा प्रथम अंतर्मुहूर्त व्यतीत थयुं होय त्यारे मृत्यु थाय छे. एमां पण देवनारकनुं मरण, अंतर्मुहूर्त शेष लेश्या रहे त्यारे थाप अने मनुष्य अने तिर्यचनो मृत्यु, प्रथम अंतर्मुहूर्त वीत्या बाद थाय. प्रत्येक लेश्याओनी अनंत वर्गणाओ छे अने ते अनंत प्रदेशवाली होय छे, तेनी अवगाहना असं ख्यात प्रदेशोनी होय छे. लेश्याना अध्यवसाय स्थानो असंख्याता होय छे, ते असंख्यात लोकाकाश जेटला २ कृष्ण लेश्यावाला नारकने तेजो द्रव्यना संसर्गथी कृष्ण लेश्या द्रव्यो अवस्थित छतां तेजो लेश्या, भावधी आकार मात्र होय छे. लेश्या विचार ॥ २१५ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२१६॥ लेश्या विचार | ॥२१६॥ छे. कृष्ण लेश्यानी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टस्थिति ३३ सागर-अंतर्मु० अधिक नील लेनी ज. स्थिति अंतर्मु० अने उ० दश सागर अने पल्योपमना असंख्यातमे भागे अधिक. कापोत लेनी ज० स्थिति अंतर्मु. अने उ० त्रण सागर-पल्योपमना असंख्यातमे भागे अधिक. तेजो लेनी ज. स्थिति अंतर्मु० अने उ. |बे सागर-पल्यो ना असंख्या अधिक० पद्म लेश्यानी ज. स्थिति अंतर्मु० अने उ० दश सागर अंतर्मु. अधिक | शुक्ल-लेश्यानी ज० स्थिति अंतर्मु. अने उ०३३ सागर-अंतर्मु० अधिकनी. ए ओधिक स्थिति कही, हवे भिन्नभिन्नगति आश्रयी स्थिति कहे छ:-नारकोनी कापोत लेश्यानी ज० स्थिति दश हजार वर्ष अने उ० ऋण सागरोपमने पल्योपमना असंख्यातमा भागे अधिक. नील लेश्यानी ज. स्थिति त्रण सागर ने पल्योपमना असंख्या| तमे भागे अधिक. अने उ० स्थिति दश सागर ने पल्पना असंख्या अधिक. कृष्ण लेश्यानी ज. स्थिति दश सागरने पल्यना असं० अधिक, अने उ०३३ सागरनी. देवगतिमा कृष्ण लेश्यानी ज स्थिति दश हजार वर्ष अने उ० पल्यना असंख्यातमा भागनी. नील लेश्यानी ज. स्थिति ते कृष्ण लेश्यानी उ.स्थितिथी एक समय अधिक अने उ० पल्यना असंख्यातमा भागे अधिक. कापोत लेश्यानी ज० स्थिति ते नील लेश्यानी उ० स्थितिथी एक |समय अधिक अने उ. पल्योपमना असंख्यातमा भागे अधिक (आत्रण लेश्यानी स्थिति भवनपति अने व्यंतर आश्रयी जाणवी) तेजोलेश्यानी (भवनपति अने व्यंतर आश्रयी) ज. स्थिति दश हजार वर्षनी अने २ पूर्वना असंख्यातमा भागधी आ पक्यनो असंख्यातमो भाग मोटो समजवो एम सर्वत्र जाणी लेबु. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२१७॥ उ. भवनपतिमा एक सागर झाझेरी अने व्यंतरमा एक पल्यनी. ज्योतिष्कमा ज. पल्यनो आठमो भाग अने | उ. एक पल्यने एक लाख वर्षनी. पहेला देवलोकमां ज. एक पल्य अने उ० बेसागरनी. बीजा देवलोकमां ज. लेश्या पल्योपम झाझेरी अने उ० बेसागर ने पल्यना असंख्यातमा भागनी. पद्मलेश्यानी (बीजे चोथे अने पांचमे) विचार | देवलोके जस्थिति, तेजो लेश्यानी उ० स्थितिथी एक समय अधिक अने उ० दश सागरनी. शुक्ल लेश्यानी ॥२१७॥ (छट्टा देवलोकथी यावत् सर्वार्थसिद्धमा) ज. स्थिति दश सागर समयाधिक अने उ. ३३ सागरनी होय. तियच आश्रयी छए लेश्यानी स्थिति, अंतर्मुहर्तनीज होव अने मनुष्य आश्रयी शुक्ल लेश्या सिवाय पांच लेश्यानी स्थिति, अंतर्मु० नीज होय. मनुष्यमां छमस्थ आश्रयी शुक्ल लेश्यानी अंतर्मु नी अने केवली &| आश्रयी ज. अंतर्मु० अने उ० नव वर्ष न्यून क्रोड पूर्वनी होय. इति लेश्या स्वरुपं समाप्त. अथ भव-संवेध विचार-वर्तमान अने भाविभवनो तेमज आयुष्यनो जे सबंध ते भवसंवेध. पूर्वभव है। अने परभव सबंधी जे जघन्य ने उत्कृष्ट आयुष्यना भेदने लइने चार भांगा थाय छे ते कहे छे:-१ पूर्वभव अने परभवर्नु उत्कृष्ट आयुष्य होय ते प्रथम भंग. २ पूर्वभवन उ० आयुष्य अने परभवन ज. आयुष्य होय ते द्विती-18 यभंग. ३ पूर्वभवमा ज० आयुष्य अने परभवमां उ. आयुष्य होय ते तृतीय भंग. ४ पूर्वभव अने परभव (आगामिभव )मां पण ज. आयुष्य होय ते चतुर्थभंग. आ चारे भांगामां संज्ञीमनुष्य, अने तिर्यंच प्रथमथी ३ पन्नवणासूत्र-लेश्वापद, विशेष जिज्ञासुए जोवु, ४ भगवतीजीमा नव भांगा कहेल के, अहिं चार भांगामा संझेपथी समावेश करेल छे. %%AHARANAGAKARANG Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२१८॥ " भव-संवेध विचार ॥२१८।। छट्ठी नरकभूमिओमां पृथक् पृथक उत्कृष्ठ आठ भव पूरे छ-करे छे, ते आ प्रमाणे:-कोहक मनुष्य के तियच, कोइ पण नरक पृथ्वीमा उत्पन्न थइने त्यांथी मृत्यु पामी मनुष्य के तिर्यंचनी गतिमां जाय अने त्यांथी पुनः तेज | नरकपृथ्वीमा उपजीने फरीने मनुष्य के तिर्यंच गतिमां जाय; एवी रीते आठ भव करे. त्यारबाद नवमे भवे अव इय अन्य पर्यायने पामे परंतु मनुष्य के तिर्यंच न थाय. आ प्रमाणे मर्वत्र भव-संवेध माटे जाणवू. एवीज रीते | मनुष्य के तियच, भवनपतिमां व्यंतरमा ज्योतिष्कमां अने सौधर्म बगेरे आठ देवलोकमां उ० थी आठ भव करे है|छे अने ज० थी नरक अने देव गतिमां पण बे भव करे छे. संज्ञीतिर्यंच (जलचरमच्छ पर्याप्त होय ते) जघन्य आयु प्यथी सातमी नरकमां उत्पन्न थाय. ते उ. आयुष्यवालो के ज. आयुष्यवालो होय तो उ० थी सात भव करे ॐा छे. ते आ प्रमाणे:-कोटिपूर्वना आयुष्यवालो तियच, सातमी नरकमां ज. आयुष्ये उत्पन्न थइ त्यांथी तियच थाय; पाछो सातमी नरकमां जाय एवीज रीते सात भव करे. पछी नरकमां ते जतो नथी अर्थात् अवश्य पर्याय (भव ) बदले. उ० आयुष्यवालो अथवा ज. आयुष्यवालो तिथंच, उ. आयुष्ये सातमी नरकमां उत्पन्न थाय | तो पांच भव करें. जघन्यथी तो चारे भांगामांत्रण भव करे छे. कारण ? सातमी नरकथी नीकलीने अवश्य संज्ञीतियच थाय. संज्ञीमनुष्य, चारे भांगा वडे सातमी नरकमां जाय तो बे भव करे. आनतादि चार देवलोक अने नव ग्रैवेयकमां चारे भांगे उत्पन्न थतो मनुष्य, उ० थी सात भव करे अने ज० थी त्रण भव करे, पछी ३ मनुष्य मरीने देव थाय, एटले एक भव मनुष्यनो अने बीजो देवनो पछी ते तियच थाय; वे भव विना संवेध कहेवाय नहिं. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२१९॥ अवश्य अन्य पर्याय पामे. उ० थी सात भव करे तेमां पण मनुष्यना चार अने देवना त्रण भव करे. ज० थी | बे भव करे ते एक मनुष्यनो अने एक देवनो एम जाणवुं विजयादि चार अनुत्तर-विमानमां उत्पन्न तो मनुष्य, ज० श्री त्रण भव अने उ० थी पांच भव चारे भांगे करे. सर्वार्थ सिद्धमां ज० ने उ० त्रण भव करें पछी अवश्य मोक्ष जाय छे. युगलिक मनुष्य अने तिर्यचो, भवनपति व्यंतर ज्योतिष्क अने पहेला वे देवलोकमां बे भव करे. कारण ? देव मरीने युगलिक थाय नहिं. असंज्ञी पर्याप्त तिर्यच, पहेली नरक भवनपति अने व्यंतरमां बे भव करे. कारण ? नरक के देवमांथी असंज्ञी तिर्यंचमां जाय नहिं भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा सहस्रार सुधी देवलोकना देवो अने पहेली छ नरकना नारको ए सर्व, संज्ञी तिथेच अने मनुष्य पर्याप्तमां आठ भव करे पछी अवश्य अन्यभव करे. ज० स्थितिवाला सातमी नरकना नारको, संज्ञी पर्याप्त तिर्यचमां उ० थी छ भव करें. अने उ० स्थितिवाला नारको, चार भव करे अने ज० थी वे भव करे. आनत आदि चार | देवलोकना देवो अने नव ग्रैवेयकना देवो, मनुष्य गतिमां उ० थी छ भव करे अने विजयादि चार अनुत्तरना देवो उ० थी चार भव करे अने ज०धी आनतादि सर्व देवो बे भव करे. सर्वार्थ सिद्धना देवो, ज० ने उ०धी बेज भव करे. भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने सौधर्म ने इशान देवलोकना देवो, पृथ्वी का० अपूका० अने वनस्पतिका० मां उपजे तो बेज भव करे. असंज्ञीपंचेंद्रिय तथा सज्ञीपंचेंद्रिय तिर्यचो अने सज्ञी मनुष्यो, युगलिक मनुष्य अने तिर्यचमां बेज भव करे. पृथ्वीकायिक जीव, ज० स्थितिमां अपका० तेउका० अने वायुका० मां भव-संवेध विचार ॥२१९॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२२॥ भव-संवैध विचार ॥२२०॥ उ० थी एकांतरे असंख्यात भव करे. अपकायिकजीव पण, पृथ्वी, तेउ० अने वायुकायमा उ० थी असंख्यात भव करे. तेउकायिक जीव पण, पृथ्वी, अप अने वायुकायमां उ० थी असंख्यात भव करे. वायुकायिक जीव पण, पृथ्वी, अप अने तेउकायमां उ• थी असंख्यात भव करे. पृथ्वीआदि चार कायना जीवो, वनस्पतिकायमा उत्पन्न थतां उ. असंख्यात भव करे. वनस्पतिकायिक जीव पण, पृथ्वी आदि चार कायमां उ. असंख्यात | भव करे. वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायमां उ. अनंत भव करे. व्रण विकलेंद्रियो, पृथ्वी आदि पांचे कायमा उत्पन्न थतां उ० संख्याता भव करे अने विकलेंद्रियो, विकलेंद्रियमां पण उ० संख्याता भव करे. पूर्वोक्त आयुष्यनी चतुर्भगीमा उत्कृष्ट आयुष्यवाला, प्रथमना त्रण भांगामां पृथ्वीकायिक आदि जीवो, आठ भव करे छे, ते आ प्रमाणे:-उ० आयुष्यवालो पृथ्वीकायिक, उ० आयुष्यवाला अपकायमा एकांतरे चारवार उपजे एटले आठ भव थाय; पछी अवश्य अन्य भव करे. उ० आयुष्यवालो पृथ्वीका०, ज. आयुष्यवाला. अपकायमां उत्पन्न थइने पण आठ भव उत्कृष्टथी करे. ज. आयुष्यवालो पृथ्वीका०, उ. आयुष्यवाला अपकायमा उत्पन्न थइने उ० आठ भव करे. एवीज रीते उ. आयुष्यवाला त्रणे भांगामां अपकायिक वगेरेनो अने विकलेंद्रियनो पण आठ भव संवेध जाणवो. वळी ज० आयुष्यवालाओनो ज० आयुष्यवालानी अंदर पांचे स्थावरोनो परस्पर असंख्यात भव संवेध जाणवो. स्थावरोनो विकलेंद्रियो साथे संख्यात भव संवेध. ज. भांगे जाणवो. अर्थात् उत्कृष्टथी एटला भव चोथे भांगे करे. उ० अने ज. आयुष्यरुप चारे भांगाओनी अंदर पृथ्वीकायिक आदि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२२१॥ भव-संवेध विचार %A5 % % | स्थावरो अने विकलेंद्रियोनो ज. थी बे भव संवेध जाणवो. युगलिक सिवायना मनुष्यो अने संज्ञी-असंज्ञी सिद्धांत दतियचो, परस्पर उ० थी चारे भांगे आठ भव करे. वली तेओ, पृथवी आदि पांच स्थावर कायमां अने त्रण विकलेंद्रियमां पण चारे भांगे उ० थी आठ भव करे अने ज. वे भव करे, संज्ञी-असंज्ञी (युगलीक सिवायना) १२२१॥ | मनुष्यो, वायुका० अने तेउका मां उत्पन्न थइने ज• ने उ० थी बे भव करे; कारण ? तेउ०-वायुकायची नीक ळेलाने मनुष्य-गति प्राप्त थती नथी. हवे उक्त भवसंवेधोनुं कालमान निश्चित करवा माटे नीचे प्रमाणे आम्नाय छेः-जघन्य अंतर्मुहर्त अने उत्कृष्ट पूर्वक्रोडनी स्थितिवाला तिर्यंचो, सर्व नरकोमा जाय छे अने नारको पण तेटलीज स्थितिवाला तिर्यंचोमां उत्पन्न थाय छे. ज. अंतर्मु० अने उ. क्रोड पूर्वनी स्थितिवाला तिर्यचो. भवनपतिथी मांडी यावत् सहस्रार देवलोक पर्यंत जाय छे अने सहस्रार सुधीना देवो पण तेटलीज स्थितिवाला तियचोमां उपजे छे. असंख्याता (वर्ष) आयुष्यवाला तिर्यचो, इशान देव. सुधी उपजे छे, ते पण पोताना समान आयुष्यवाला अगर तेथी न्युन आयुष्यवाला देवो थाय छे. पृथक्त्व मासना आयुष्यवालो मनुष्य, | पहेली नरक सुधी जाय छेपृ० वर्षना आयुष्यवालो मनुष्य, शर्करादि छ नरक सुधी जाय छे अने क्रोड पूर्व सुधीना आयुष्यवालो मनुष्य, साते नरकमां जाय छे. रत्नप्रभाना नारको, ज० थी पृथक्त्व मासना आयुष्यवाला मनुष्यो थाय छे. बीजीथी छट्ठी नरकना नारको, ज० थी पृथ० वर्षवाला मनुष्यो थाय छे. सातमी नरकना २ पृथक्त्व वर्षथी न्यून आयुष्यवालो जीव, शर्कराप्रभादि नरकमा जतो नश्री. % % % 25 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य | ॥२२२॥ भव-संवेध विचार ॥२२२॥ 4545555251549k नारको, मनुष्य थता नथी. छए नरकना नारको, उत्कृष्टथी क्रोड पूर्वना आयुष्यवाला मनुष्योमा उपजे छे. पृथ० मासना आयुष्यवालो मनुष्य, उत्कृष्ट थी बे देवलोक सुधी जाय छे अने पृथ० वर्षना आयुष्यवालो मनुष्य, छेक सर्वार्थ सिद्ध सुधी जाय छे. क्रोड पूर्व सुधीना आयुष्यवालो मनुव्य, सर्वत्र जाय छे अने उ० थी त्रण पल्यना आयुष्यवालो मनुष्य, इशान देव० सुधी जाय छे. ज. अंतर्मु. आयुष्यवालो तियच अने पृथ० मासना आयु. मनुष्य, युगलिक मनुष्य अथवा तियच थाय छे. उ० क्रोड पूर्वना आयु. मनुष्य अने तियचो, युगलिक मनुष्य अने तियंचमां जाय छे. क्रोड पूर्वथी अधिक आयु. मनुष्य अने तिर्यचो, युगलिकमां उपजता नथी. हवे | | बाकी रहेला ( स्थावरादिक )नी पूर्वापर बन्ने भवनी उ० अने ज. स्थिति, तेओना उ० अने ज. आयुष्यनी | अपेक्षाए जाणवी. वली एवीज रीते विवक्षित वर्तमान भवनी अने प्राप्त थनारा भवनी उ० ने ज• स्थिति, तेमज उ० ने ज० भवसंख्या स्ययं जाणीने विवक्षित प्राणिओना भवसंवेधन काल-मान उ० ने ज० थी विचारीने कहेवू. जेमके पहेली नरकमां उ० आयुष्य पामेला उ० आयुष्यवाला मनुष्यनो उ० भव संवेधकाल, चार सागर अधिक चारक्रोड पूर्वनो होय छे अने ते बन्ने गतिना उ. आयुष्यवालानो भवसंवेधकाल, ज. थी एक सागर | अधिक एक क्रोड पूर्वनो होय, उ. आयुष्यवाला मनुष्य अने ज० आयुष्यवाला नारकनो उ० भवसंवेधकाल, चालीश हजार वर्ष अधिक चार क्रोड पूर्वनो होय छे. उ. आयुष्यवाला मनुष्य अने ज० आयुष्यवाला नार २ उत्कृष्टथी चार भव मनुष्यना अने चार भव नरकना करे. जघन्यथी एक भव मनुष्यनो अने एक भव नरकनो माटे. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२२३॥ | कनो ज० भवसंवेधकाल, दश हजार वर्ष अधिक एक क्रोड पूर्वनो होय छे. ज० आयुष्यवाला मनुष्य अने उ० आयुष्य० नारकनो उ० भव सं० काल, चार सागर अने चार पृथक्त्व मासनो छे अने तेनो ज० भवसंवे० का० एक सागर अने पृ० मासनो होय. ज० आयुष्यवाला ते बन्नेनो उ० भव संवेधकाल, चालीश ह० वर्ष अने चार पृथ० मासनो अने तेओनो ज० भवसंवे०, दश ह० वर्ष अने पृथ० मासनो छे. ज० आयुष्य वडे सानमी नरकमां उप्तन्न थतां उ० आयुष्यवाला तिर्यचनो उ० भवसंवेधकाल, चार क्रोड वर्ष अधिक छासठ सागरनो अने ज० आयुष्यवाला तिर्यचनो भवसं० काल, छासठ सागर अने चार अंतर्मु०नो होय. उ० आयुष्य बडे सातभी नरकमां उत्पन्न थतां उ० आयुष्यवाला मनुष्यनो भव० सं० काल, तंत्रीश सागर अने क्रोड पूर्व अधिक होय. जघन्य अने उ० थी पण तेटलोज काल धाय कारण ? सातमी नरकथी पुनः मनुष्यभवनी प्राप्ति थती नथी. ज० आयुष्ये सातमी नरकमां उत्पन्न थतां ज० आयुष्यवाला मनुष्यनो भवंस० काल, यावीश सागर अने प्रथ० वर्षनो छे. ए प्रमणे सर्व भांगाने विषे सघळा प्राणिओनो उ० के ज० भवसं० काल स्वयं समजी लेबुं. विशेष जिज्ञासुए भगवती - शतक २४ मुं जोवुं. इति भवसंवेध समाप्त. अथ समुद्घात - स्वरुप - सम् उत् अने घात, ए त्रण शब्द मळीने समुद्घात शब्द धयेल छे तेनो समु दायार्थ आ प्रमाणे थाय छे: - एकी भावे ( समस्त पणे ) आत्म वीर्यनी प्रबलताथी वेदनादिवडे भोगवाइने कमांशो ( कर्म परमाणुओ )नो जे नाश ते समुद्घात कहेवाय छे. समुद्घात करनार जीव, घणा काल सुधी भव-संबेध विचार ॥२२३॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत(हस्य (२२४॥ भोगवा योग्य कर्मपुद्गलोने तरतमां खपावी नाखे छे. अर्थात् कालांतरे वेदवा लायक कर्मपुद्गलोने उदीरणा करण वडे चीने- उदयमां लावी तेने भोगवीने खेरवी ( नाश करी ) नाखे छे. ते समुद्घातना सात भेद छे:१ वेदना समुद्घात, २ कषाय म०, ३ मरणांतिक स०, ४ वैक्रेय स०, ५ तैजस म०, ६ आहारक स० अने ७ केवलिसमुद्घात. पहेला छ समुद्घातो, छद्मस्थ जीवोने होय छे अने छेलो समुः मयोगी केवलीने होय छे. पहेला छ समुद्घातोनी एक एक अंतमु० नी स्थिति होय छे अने छेल्ला केवली स० नी आठ समयनी स्थिती होय छे, ते आ प्रमाणे:- १ वेदनाथी दुःखी थयेल जीव, अनंत कर्म परमाणुओथी वींटायल (आच्छादित ) एवा पोताना आत्मप्रदेशोने शरीरथी बाहेर काढीने खभा वगेरेना अंतराने तथा मुख वगेरेना पोकळ भागोने पूरीने लंबाई-पहोळाइथी शरीर प्रमाण क्षेत्रमां व्यापीने अंतर्मुहूर्त सुधी रहे ए अंतर्मुहूर्तमां बहु अशाता वेदनीय कर्मना घणा अंशो ( पुद्गलो ) ने खेरवी ( निर्झरी ) नाखे छे: ए वेदना समुद्घात. २ कषायथी व्याकूळ प्राणी आत्मप्रदेशो बडे पूर्ववत् मुखादि पोकळ भागोने पूरीने लांबा -पहोळा शरीर प्रमाण क्षेत्रमां व्यापीने कषाय मोहनीय कर्मना घणा अंशोने खेरवे छे अने खेरवते छते स्वहेतु वडे अन्य अनेक नवीन कर्म पुद्गलोने ग्रहण करे छे. एकषाय समुद्घात ते क्रोधादिक हेतुओ वडे चार प्रकारनो कट्टेल छे. ३ मरणांतथी दुखित भयेला २ क्रोध बडे क्रोध अने मान वडे मान, ए प्रमाणे कषायोथी कषाय- पुद्गलोने ग्रहण करवा वडे जो नवीन कर्मने ग्रहण न करे तो मुक्तिनो प्रसंग आवी जाय माटे नवीन कर्मने ग्रहण करे छे. समुद्घात स्वरुप ॥२२४॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + समुद्घात स्वरूप ॥२२५॥ ४जीवन ज्यारे आयुष्य अंतर्मुहूर्त बकात रयु होय त्यारे ते जीव, आत्मप्रदेशो वडे पूर्ववत् मुखादिकना छिद्रोने सिद्धांत पूरीने जाडाइ-पहोलाइमां पोताना शरीर प्रमाणे अने लंबाइमां जघन्यतः अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटलो रहस्य | अने उत्कृष्टतः एक दिशामां छेक उत्पत्तिस्थान सुधी असंख्यात योजन प्रमाण क्षेत्रमा व्यापीने अंतर्मु०मा मृत्यु ॥२२५॥ | पामे छे. ए जीव घणा आयुष्य कर्मना पुद्गलोने खेरवी नाखे छे; पण नवीन आयुष्यकर्म-पुद्गलोने ग्रहण करतो नथी. अहिं एटली विशेषता छे के कोइक जीव, एकज मरणांतिक समुद्घात करीने नरकादिकमां उत्पन्न थाय छे; त्यां आहार ले छे अने शरीर पण बांधे छे. वली कोइक जीव, म. समुद्घात करीने उत्पत्ति स्थाने जइने | समुद्घातथी निवृत्त थइ पाछो स्वशरीरमां आवी पुनः समुद्घात करी उत्पत्ति स्थानमां उपजे छे. ४ वैक्रेय समुद्घातने प्राप्त थयेलो वैक्रेय शक्तिवालो जीव, कर्मथी वींटायला आत्मप्रदेशोने शरीरथी बाहेर काढीने जाडाइपहोळाइमां स्वशरीर प्रमाणे अने लंबाइमां संख्यात योजन प्रमाण दंड बनावीने पछी पूर्वोपार्जित वैक्रेय शरीर नाम कर्मना पुद्गलोने खेरवतो अने वैक्रेय शरीरने योग्य अन्य पुद्गल-स्कंधोने लइने समुद्घात करे छे ते वैकेय समुद्घात. ५ तेजस समुदने प्राप्त थयेलो तेजोलेश्या नामनी शक्तिवालो जीव, वैकेय शनी जेम कर्मोथी वींटायेला आत्म प्रदेशोने बाहेर काढीने स्वशरीर प्रमाणे जाडो-पहोलो अने संख्यात योजन प्रमाण लांबो दंड SHRRENA २ आ हकीकत भगवती सूत्रना छठा शतकना छछा उद्देशामां कहेल छे, ते नरकादिथी मांडी यावत् अनुत्तर विमान सुधी सर्व स्थानोमां | पण एम समजवू. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२२६॥ समुद्घात स्वरुप ॥२२६॥ करीने पूर्वबद्ध तेजस नाम कर्मना पुदगलोने खरवे छे अने अन्य तैजस योग्य पुदगलोने लइने तेजो लेश्या मूके छे ते तैजस समुद्घात. ६ आहारक लब्धिवाला चौद पूर्वधरमुनि, तीर्थकरनी समृद्धि जोवा माटे अने कोइ सूक्ष्म अर्थनो संदेह निवारवा वगेरे खास हेतुथी आत्मप्रदेशो वडे स्वशरीर प्रमाणे जाडो-पहोळो अने संख्यात | योजननो लांबो दंड करीने पूर्वसंचित आहारक शरीर नाम कर्मना पुद्गलो बिखेरी अने नवीन आहारक शरीर योग्य पुद्गलोने ग्रहण करीने जे एक हस्त प्रमाण आहारक शरीर करे छे ते आहारक समुद्घात. ७ जे सर्वज्ञ | केवलीने आयुष्य कर्मथी वधारे वेदनीय नाम अने गोत्र कर्म होय ते केवलीसमुद्घात करे छे. प्रथम अंतर्मुहृर्तमां आवर्जीकरण (शुभयोगनो व्यापार ) करे ते सर्व केवलिओने अवश्य करवू पडे छे. त्यारपछी शेष अंतर्मुहूर्त आयुष्य बाकी रहे त्यारे केवली समुद्घात करे, तेनु क्रम अने स्वरूप कहे छे:-प्रथम समयमां केवलीप्रभु, आत्म प्रदेशो वडे स्वशरीर प्रमाणे जाडो-पहोळो अने लंबाइमां उंचे अने नीचे लोकना अंतने स्पर्श करे तेवो दंड अर्थात् चौद राजलोक प्रमाण करे. बीजे समये ते दंडनो पूर्व-पश्चिम लांबो कपाट करे. त्रीजे समये एमांथी प्रदेशोने विस्तारीने उत्तर-दक्षिणमा लांबा मंथान करे अने चोथे समये एना आंतरा पूरे. आ चोथा समयमां आत्मप्रदेशो वडे सर्व लोकमां व्याप्त थाय छे. कारण ? लोकाकाशना अने एक जीवना प्रदेशो समान २ परने उपघात करवा रोषयुक्त तेजोलेश्या, तैजस शरीरथी मूके छे अने परने अनुग्रह करवा ( वीर प्रभुनी जेम) तैजस शरीरथी तैजसपु| द्गलोने ग्रहण करीने शीतलेश्या पण मूके छे. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत- रहस्य ॥२२७|| समुद्घात स्वरुप ॥२२७॥ | छे. पछी पांचमे समये आंतराने संहरे, छठे समये मंथानने संहरे, सातमे समये कपाटने संहरे अने आठमे समये दंडने संहरीने स्वशरीरमां स्थिर थाय; पछी एक अंतर्मुहूर्त बाद योगनिरोध करीने मोक्षे जाय. पहेला अने छेल्ला |समयमां केवलीने उदारिक योग होय छे. बीजा, छठा अने सातमा समयमां उदा. मिश्रयोग होय छे अने त्रीजा चोथा, पांचमा समयमां कार्मण योग होय छे. समुद्घातथी निवृत थइने केवली भगवान् त्रणे प्रकारना योगने खास प्रसंगे प्रवावे छे. ज्यारे अनुत्तर विमानना देवो, मनवडे कंइपण प्रश्न करे त्यारे केवली भगवान् मनोवर्गणाना पुद्गलो लइने मनपणे परिणमावीने मनोयोग वडे ते देवोने उत्तर आपे छे अने मनुष्यादिकना पृष्ट अपृष्ट संशयो टाळवा माटे बोलवू पडे छे आवे प्रसंगे वचनयोग प्रवर्तावे छे अने गमना | गमनादि क्रियामां तेमज पद्दपीठ फलक आदि पाछा सोंपवा होय त्यारे काययोगनी प्रवृत्ति करे छे. छेवटे त्रण योगना रुंधननो क्रम आ प्रमाणे छे-पर्याप्त संज्ञी पंचेंद्रियना मनोयोगथी असंख्यात गुणहीन एवा मनोयोगने समये समये रुंधन करतां असंख्यात समयोमा मनो योगर्नु सर्वथा रंधन करे, पछी पर्याप्त बे इंद्रियना जघन्य | वचनयोगथी असंख्यात गुणहीन एवा वचन योगने समये समये रंधन करतां असंख्याता समयोमां वचनयोगर्नु १ सत्य मनोयोग अने असत्यामषा [व्यवहार ] मनो०, सत्य अने असत्या मुषा वचन योग अने उ. काययोग, २ कोइ एम कहे छे के | छ मास आयुष्य बाकी रहे त्यारे केवली समुद्घात करे, ते अयुक्त छे. जो तेमज होय तो पट्ट आदिकनुं पुन: ग्रहण संभवे परंतु सिद्धांतमा तो पाछा सोपवानुज कहेल छे. विशेष जिज्ञासुए पनवणाना छेल्ला पदनी वृत्ति जोवी. . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत समुद्घात स्व रुप ॥२२८॥ ॥२२८॥ ॐॐॐ सर्वथा रुंधन करे अने त्यारबाद सूक्ष्म पर्याप्त एकेंद्रियना ज० काययोगथी असंख्यात गुणहीन एवा काययोगर्नु ४ समये समये रुंधन करता थका असंख्यात समयोमा सर्वकाय योगर्नु रंधन करीने सिद्ध थाय छे. एम अनंत द केवलीओ के. समुद्घात करीने सिद्ध थया छे अने अनंत केवलीओ के. समुद्घात कर्या वगर पण सिद्धं थया छे. हवे क्या जीवोए क्यो समुद्घात केटलीवार करेल छे अने करशे ते कहे छे-पहेला पांच समु. ( वेदनीयथी तैजस पर्यंत ) सर्व जीवोए अनंतवार करेल छे अने भविष्यकालमां तो केटलाक लघुकर्मी जीवोने ते समु. | थवाना नथी ज्यारे केटलाकने तो एक बे अथवा अनेक थवाना छे केटलाकने संख्याता केटलाकने असंख्याता अने; केटलाक बहुलकर्मि जीवोने अनंत समु. पण धवाना होय छे. आ प्रमाणे अनुत्तर विमानना देवो सिवाय सर्व | दंडकमां समजवू. परंतु अनादि (सूक्ष्म ) निगोदना जीवो आश्रयी भूतकालमां आद्यत्रण समु० करेला होय छे अने भविष्यकाल आश्रयी तो प्रथमनी माफक जाणवू. आहारक समु. मनुष्य सिवायना अन्य जीवोए भूत| कालमा उत्कृष्टथी त्रजवार अनुभवेल होय छे अने केटलाक जीवोए मुद्दल पण न अनुभवेल होय; भविष्यकाल २ अहिं समजवान ए के के छ मास आयुष्य बाकी होय त्यारे जेमने केवलज्ञान उत्पन्न थाय तेओ अवश्य समु० करे अने बाकीना केवलीओ जो आयुष्यथी शेष व्रण को वधारे होय तो के. समु० करे अने आयुष्यथी समान को होय तो न पण करे. ३ आहारक समु० मनुष्यमा चौद पूर्वधरने होय ते पण आहारक लब्धिवालानेज, पण सर्व चौद पूर्वधरने न होय, ४ मनुष्य सिवाय अन्य गतिमा आहारक समु. चार वार ४ करेल न होय कारण ? चोथी वखत आहा० समु० करनार तेज भवमा अवश्य मोक्षे जाय एम पन्नवणा सूत्रनी टीकामां कहेलुं के बळी ग्रंथातरमा *कयु डे के-चत्तारियवाराओ, चउद्दस पूची करेइ आहार; संसारम्मि वसंता, इगजम्मे दुन्नीवाराओ. AHARASHTRA Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२२९॥ समुद्घात स्वरुप ॥२२९॥ आश्रयी उ० थी चार वार संभवे. केटलाकने भूत अने भविष्य आश्रयी मुद्दल पण न होय. केवली समु. मनुष्य | सिवाय अन्य जीवोए भूतकालमां करेल नथी. भविष्यकाल आश्रयी पण उ० थी कोइकने एकवार संभवे, | मनुष्य आश्रयी कोइकने अतीतकाले एक थयेल होय छे अर्थात् केवलि समु० थी उत्तीर्ण थयेला आश्रयी जाणवू. अने भविष्य आश्रयी पण एकज घटी शके. पहेलो समुद्घात, असाता वेदनीय कर्मना आश्रयवालो छे. बीजो समु०, कषाय मोहनीय कर्मना आश्रयवालो छे. त्रीजो स०, शेष अंतर्मुहर्त आयुष्य कर्मना आश्रयवालो छे. | चोथो, पांचमो अने छठ्ठो एत्रण समुद्घात, नाम कर्मना आश्रयवाला छ अने सातमो समु०, वेदनीय नाम अने गोत्र कर्मना आश्रयवालो छे. ए सात समुद्घातो जीवोना कह्या. हवे अजीव-समुद्घात कह छे:-अचित्त महा स्कंधरुप अजीवथी थयेल जे समुद्घात ते अजीवसमु० कहेवाय छे. ते पुदगलना विश्रसा-परिणामथी (स्वभावथी ) थाय छे अने ते सर्वलोक व्यापी थाय छे. तेनो काल केवलि समुद्घातनी जेम आठ समयनो छे अर्थात् आठ समयमां समाप्त थाय छे. इति समुद्घात स्वरुप समाप्त. अथ पांच ज्ञान- स्वरुप-ज्ञान पांच प्रकारना छेः-१ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनः पर्यवज्ञान अने ५ केवलज्ञान. हवे पांचे ज्ञानना क्रमशः लक्षण कहे छे:-१ पांच इंद्रिय अने मन ए छना व्यापार बडे जे वस्तुनुं ज्ञान धाय ते मतिज्ञान. २ कंबूग्रीवादि आकारे जे वस्तु होय ते 'घट' अने जलादि धारण करे २ पनवणा सूत्रना ३६ मा पदथी विशेष जाणवू. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२३०॥ एवं पूर्वापर पर्याय विशिष्ट मतिपूर्वक जे ज्ञान ते श्रुतज्ञान. ए बन्ने (मति श्रुत) ज्ञान, अक्ष ( आत्मा ) ते थकी पर, इंद्रिय अने मन जेना निमित्त थाय छे माटे परमार्थतः परोक्ष अने लोक व्यवहारमां ते प्रत्यक्ष ज्ञान कहेवाय छे. ३ द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव ए चार मर्यादा वडे इंद्रियनी अपेक्षा विना रुपी ( मूर्त्त ) द्रव्यने जे विषय करनार ते अवधिज्ञान. ते १ द्रव्यथी जघन्य अनंत प्रदेशी एक स्कंध एवा अनंत स्कंधने जाणे अने उत्कृष्टथी परमाणुमात्र जाणे. २ क्षेत्रथी ज० सूक्ष्म पनकना शरीर प्रमाण क्षेत्रने जाणे, उ० सर्वलोक प्रमाण असंख्याता खंड अलोकंमध्ये स्थापीों एटलं क्षेत्र जाणे. ३ कालथी ज० आवलिकानो असंख्यातमो भाग पूर्वापर जाणे, उ० असंख्याता कालचक्र - भूत भविष्य जाणे. ४ भावधी ज० सर्व पर्यायनो अनंतमो भाग जाणे, उ० एक द्रव्धना असंख्यात पर्याय, एम सर्व द्रव्यना पर्याय असंख्य असंख्य गणतां अनंत पर्याय जाणे. ४ मनुष्यलोकने विषे संज्ञी पंचेंद्रियना मनोगत भावनुं जाणवुं तथा मनना पर्यायने पण जे प्रत्यक्ष जाणे ते मनः पर्यवज्ञान. अवधि अने मनः पर्यवज्ञान, देशतः प्रत्यक्ष छे. ५ संपूर्णज्ञान-त्रणे कालमां समस्त लोकालोक (सर्व द्रव्य, गुण अने पर्याय ) जेना वडे जणाय ते केवलज्ञान. ए सर्वतः प्रत्यक्ष छे. हवे पांच ज्ञानमां प्रथम मति ज्ञानना २८ भेड़ कहे छे:- १ श्रोत्रेंद्रिय व्यंजनावग्रह, २ भ्राणेंद्रिय व्यं० ३ रसनेंद्रिय व्यं, ४ स्पर्शनेंद्रिय व्यंजनावग्रह. ए चार इंद्रियथी व्यंजनावग्रह थाय छे. पांच इंद्रिय अने मन ए छना १ अर्थावग्रह, २ इहा, २. अलोक अरुपी ( अमूर्त) होवाथी जाणे नहि, पण रुपी पदार्थ एटला होय तो जाशी शके एटली शक्ति छे. पांचज्ञानतुं स्वरूप ॥२३०॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत स्वरुप ॥२३॥ क्त ज्ञान ते अर्थावधी आवलिकाना (ते नैश्चयि ३ अवाय अने ४ धारणा. ए चार चार भेद करतां २४ भेद अने ४ भेद व्यंजनावग्रहना; ए सर्व मली २८ भेद थाय छे. दीपक, जेम घटादिकने प्रगट करे छे तेम जे छता पदार्थोने प्रगट करे ते व्यंजन अथवा इंद्रिय साथे पांचज्ञान शब्दादिकना पुद्गलोर्नु जे सबंध थर्बु ते व्यंजन. आ व्यंजनावग्रहज्ञान, अत्यंत अस्फुट छे. घाणेंद्रियादि चार इंद्रियोमा श्रोत्रंद्रिय वडे शब्द, स्पर्श मात्रथीज संभळाय छे; गंध रस अने स्पर्श, ज्यारे बद्ध-स्पृष्ट थाय त्यारे ॥२३॥ ते घाणेंद्रियादिथी जणाय छे. चक्षु अने मन, अप्राप्यकारी होवाथी रुपादिक साथे बन्नेनो सबंध थतो नथी. | अर्थात् ए बन्नेनो व्यंजनावग्रह थतो नथी. श्रोत्रादि चार इंद्रियो प्राप्यकारी छे. स्पर्शनादि इंद्रियोनो व्यंजनावग्रह थया पछी 'आ कंइक वस्तु छे' ए जे अव्यक्त ज्ञान ते अर्थावग्रह. चक्षु अने मननो व्यंजनावग्रह थया सिवाय प्रथमधीज अर्थावग्रह थाय छे. व्यंजनावग्रहनो काल जघन्यथी आवलिकाना असंख्यातमा भाग प्रमाण अने उ० थी पृथक्त्व श्वासोश्वास प्रमाण छे. अर्थावग्रहनो एक समयनो काल छे. (ते नैश्चयिक अर्था| वग्रहनो जाणवो) अने व्यवहारिक अर्थावग्रहनो एक अंतर्मुहूर्त कालमान छे. जे अवग्रहित अर्थ तेना वर्ण, गंध अने रसादि धर्मनी विचारणा ते 'इहा' तेनो काल एक अंतर्मु० छे. ते पछी इहित अर्थन निर्णय करवू ते ' अपाय' तेनुं पण कालमान अंतर्मु. नु छे. त्यारपछी निर्णित अर्थने अमूक काल सुधी धारी राखे ते 'धारणा' तेनी स्थिति संख्याता तथा असंख्याताकालनी छे. जाति स्मरणज्ञान पण धारणानोज भेद छे. एवं २ धारणाना वासना, संस्कार अने स्मृति ए व्रण भेद थाय छे. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत स्वरुप ॥२३२॥ मतिज्ञानना २८ भेद थया. वली एकेकना यार भेद पण कहेल छे. ते आ प्रमाणेः-१ बहु, २ अबहु, ३ बहुविध, ४|४ अबहुविध, ५ क्षिप्र, ६ अक्षिप्र, ७ निश्रित, ८ अनिश्रित, ९संदिग्ध, १० असंदिग्ध, ११ ध्रुव अने १२ पांचज्ञान अध्रुव. आ बार भेदथी २८ ने गुणतां ३३६ भेद, श्रुत निश्रित मतिना थाय छे अने अश्रुत निश्रित मतिना चार | भेद ते १ औत्पातिकी, २ वैनयिकी, ३ कार्मिकी अने ४ पारिणामिकी ए चार प्रकारनी बुद्धि भेळवतां सर्व ३४० ॥२३२॥ | भेद पण मति ज्ञानना थाय छे. हवे श्रुतज्ञानना १४ भेद कहे छः-१ अक्षरश्रुत, २ अनक्षरश्रुत, ३ संज्ञिश्रुत, ४ असंज्ञीश्रुत, ५ सम्यकश्रुत, ६ असम्यक् (मिथ्या) श्रुत, ७ सादिश्रुत, ८ अनादिश्रुत, ९ सपर्यवसितश्रुत, १. अपर्यवसितश्रुत, ११ गमिक श्रुत, १२ अगमिक श्रुत, १३ अंगप्रविष्ट अने १४ अंगबाह्यश्रुत. हवे प्रथम अक्षर | श्रुतना त्रण भेद १ संज्ञाक्षर, २ व्यंजनाक्षर अने ३ लब्ध्यक्षर. तेमा १ संज्ञाक्षर ते ब्राह्मीआदि अढार लीपीरुप अढार प्रकारचं छे. २ व्यंजनाक्षर ते 'अ' कारथी मांडी 'ह'कार पर्यंत अक्षर-उच्चाररुप छे. एबे प्रकारो यद्यपि ज्ञानात्मक नथी तथापि श्रुतना कारणरुप होवाथी उपचार बडे ए बन्नेने श्रुतज्ञान कहेलं छे. ३ लब्ध्यक्षर ते शब्द-श्रवण तथा रूप दर्शनादिथकी अर्थ-परिज्ञान गर्भित जे अक्षरनी उपलब्धि (साक्षात्कार थर्बु ) ते लब्ध्यक्षर जाणवू. आ त्रण प्रकारना अक्षरो वडे वाणीगम्य पदार्थोंने प्रतिपादन करनाऊं जे ज्ञान ते अक्षरश्रुत. बाकीनुं ज्ञान ते-श्वास लेवा-मकवाथी खांसी खावाथी थुकवाथी हुंकारो (खोखारो) करवाथी चपटी वगाडवा वगेरेथी जे ज्ञान थाय छे ते बीजु अनक्षरश्रुत कहेवाय छे. त्रीजु संज्ञिश्रुत, ते संज्ञाना ३ प्रकार छः-१ दीर्घ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतरहस्य ॥२३३॥ कालिकी, २ हेतुवादोपदेशिकी अने ३ दृष्टिवादोपदेशिकी. तेमां जे जीवोने भूत भविष्यकालादि दीर्घकालनी जे संज्ञा होय ते दीर्घकालिकीमज्ञा. तात्कालिक इष्ट-अनीष्ट वस्तु जाणीने प्रवृत्ति के निवृत्ति करवी ते हेतुवादो दो | पदेशिकीसंज्ञा अने क्षायोपशमिकज्ञान बडे सम्यग्दृष्टिने जे विशिष्टज्ञानरुप संज्ञा ते दृष्टिवादोपदेशिकीसंज्ञा. एत्रण संज्ञामां हेतुवादोपदेशिकीसंज्ञा, विकलेंद्रिय तथा असंज्ञि पंचेंद्रियने होय छे अने संज्ञिपंचेंद्रियने दीर्घ-| | कालिकी संज्ञा होय छे. एकेंद्रियने कोइपण संज्ञा न होय. माटे सिद्धांतमा दीर्घकालिकी संज्ञा वडेज संज्ञीपणु कहेलं छे ते संज्ञिनुं जे श्रुत ते संज्ञिश्रुत. चोथु असंज्ञीश्रुत एटले-मनरहित (असजी) जीवोने केवळ इंद्रियथी उत्पन्न थयेलं जे ज्ञान ते. जे जिनेश्वर प्रणीत आवश्यकादिश्रुत ते पांचमुं सम्यकश्रुत अने स्वकल्पनाथी रचित. जे श्रुत ते छटुं असम्यकश्रुत. हवे ७ सादिश्रुत, ८ अनादिश्रुत, ९मपर्यवसित (मांत) श्रुत अने १० अपर्यवसित ( अनंत) श्रुत. ए चारनु स्वरुप साथे कहे छः-१ द्रव्यथी एक जीव आश्रयी द्वादशांगी, मादि-सांत पांचज्ञान स्वरुप ॥२३३॥ ॐॐॐॐॐ २ सम्बगरष्टि मनुष्यनेज होव, ३ सम्यकदृष्टि जीवे ग्रहण करेलु मिथ्याश्रुत पण सम्यक्त होय छे अने मिथ्यारिवए ग्रहण करेलु आवश्यकादिसूत्र मिथ्याभुत थाय छे. आ सबंधे भाष्यकार कहे के के:-सदसद विसेसगाओ, भवहेउ जहच्छिओवलंभाओ; नाणफलाभावाओ, मिच्छादिहिस्स अन्नाणं. १ सन् अपत्नो तफावत न हीवाधी, अमुक अपेक्षाए वस्तु, सत् अने अमुक अपेक्षाए असत् एम अनेकांत ज्ञानना अभावधी, संसारना हेतुभूत अने बद्रछा [स्वेच्छा ] पणे कहेल होबाथी तेमज ज्ञान- फल जे विरति तेनो अभाव होवाधी मिथ्यादृष्टिनुं सर्वश्रुत अज्ञानजले, विपयोसपणाधी मिध्या दृष्टिने देशे उगा दश पूर्व सुधीनु सम्यक्श्रुत पण मिथ्याश्रुत थाय छे. दश पूर्वना ज्ञानवालो नियमा सम्पष्टि होय छे. का Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२३४॥ छे अने घणा जीवो आश्रयी अनादि-अनंत छ. २ क्षेत्रधी भरत-औरावत आश्रयी सादि-सांत अने महाविदेह पांचज्ञान, आश्रयी अनादि-अनंत छ. ३ कालथी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल आश्रयी सादि-सांत अने महाविदेह आ स्वरुप श्रयी सदाकाल होवाथी अनादि-अनंत छे. ४ भावथी भव्य जीव आश्रयी सादि-सांत अने अभव्य आश्रयी ॥२३४॥ | ( मिथ्याश्रुत ) अनादि-अनंत छ. ११ जे सूत्रमा जे आलापक (आलावा ) सरखा होय ते गमिकश्रुत, ते प्रायः दृष्टिवाद सूत्रने विषे होय अने १२ जे सूत्रमा आलापक सरखा न होय ते अगमिकश्रुत, ते प्रायः कालिक| श्रुतमा होय. १३ जे द्वादशांगीरुप ते अंग प्रविष्ट तेमां पहेलं आचारांग १८ हजार पदनुं छे एम क्रमशः इग्यार अंग सुधी पदनुं प्रमाण बमणुं (डबल) जाणवू. बारमुं दृष्टिवाद अंग तेना पांच भेद छे-१ परिकर्म, २ सूत्र, ३ पूर्वानुयोग, ४ पूर्वगत अने ५ चूलिका. चोथा पूर्वगत भेदमां १४ पूर्वो छे. तेना नामः-१ उत्पादपूर्व, एकक्रोड | पदनुं छे. २ अग्राहणी (अग्रेणीय) पूर्व ते ९६ लाख पदनुं छे. ३ वीर्यप्रवाद पूर्व, ते ७० लाख पदनु छे ४ अस्तिहा प्रवाद पूर्व. ते ६० लाख पदनु छे. ५ ज्ञानप्रवाद पूर्व, ते एकपद न्यून क्रोड पदनु छे. ६ सत्यप्रवाद पूर्व, ते छ | पद अधिक एक क्रोड पदनुं छे. ७ आत्मप्रवाद पूर्व, २६ क्रोड पदनु छे. ८ कर्मप्रवाद पूर्व, एक क्रोड अॅसीलाख, पदनुं छे. ९प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, ८४ लाख पदनुं छे. १० विद्याप्रवाद पूर्व, एकक्रोड दश लाख पदनु छे. ११ कल्याण ( अवंध्य ) पूर्व, २६ क्रोड पदनुं छे. १२ प्राणायुः पूर्व, एक क्रोड छपन्नलाख पदनुं छे. १३ क्रिया|| Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२३५॥ विशाल पूर्व, ९ कोड पदनुं छे. अने १४ लोकबिंदुसार पूर्व, १शा क्रोडं पदनुं छे. ए सर्व अंगप्रविष्ट श्रुत कहेवाय छे. चौदमुं अंगबाह्यश्रुत ते आवश्यक, दशवैकालिकादिक जाणवुं. प्रकारांतरे श्रुत ज्ञानना २० भेद पण थाय छे ते कहे छे:- १ पर्यायश्रुत, २ पर्याय समासश्रुत, ३ अक्षर०, ४ अक्षर समास०, ५ पद०, ६ पदसमास०, ७ संघात०, ८ संघात समाम०, ९ प्रतिपत्ति०, १० प्रतिपत्ति समास०, ११ अनुयोग, १२ अनुयोग समास०, १३ प्राभृत प्राभृत०, १४ प्राभृत प्रा० समास०, १५ प्राभृत०, १६ प्राभृत स०, १७ वस्तु०, १८ वस्तु स०, १९ पूर्वश्रुत, अने २० पूर्व सः श्रुत. हवे तेनुं स्वरुप कहे छे:- १ पर्याय श्रुत-लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदना जीवोनुं जे सर्वथी जघन्यश्रुत होय छे तेनाथी अन्य जीवोमां एक अविभाज्य अंश ( पर्याय ) नी जे वृद्धि ते पर्यायश्रुत अने तेवा बे ऋण आदि पर्यायनी जे वृद्धि ते बीजुं पर्याय समासश्रुत. अकारादि अक्षरोमांधी एक लब्धयक्षरनुं जे ज्ञान ते त्रीजुं अक्षरश्रुत अने तेवा वे त्रण वगेरे अक्षरनुं जे ज्ञान ते चोथुं अक्षर स०श्रुत. आचारंगादिना अढार हजार वगेरे पदोनी जे संख्या कहेल छे तेमांधी एक पदनुं जे ज्ञान ते पांचमुं पदश्रुत अने बे ऋण वगेरे घणा पदोनुं जे ज्ञान ते छहुं पद स०श्रुत गति आदिक बाशठ मार्गणामांशी एक मार्गणानुं जे ज्ञान ते सातमुं संघातश्रुत अने विशेष मार्गणानुं जे ज्ञान ते आठमुं संघात स० श्रुत. संपूर्ण गति आदिक द्वारामांधी एक द्वारमां जे जीवादि वगेरेनी मार्गणा ( विचारणा ) ते नवमुं प्रतिपत्तिश्रुत अने बे त्रण द्वारोने विषे जे २ चौद पूर्वना पदनुं प्रमाण नंदी सूत्रनी टीकाना अनुसारे लखेक के अंधातरमां मतांतर छे. पांचज्ञाननुं स्वरूप ॥२३५॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचज्ञान स्वरुप ॥२३६॥ सिद्धांत मार्गणा ते दशमुं प्रतिपंत्ति सश्रुत. जे मत्पद प्ररूपणादि द्वारोमांधी एक द्वारनुं वर्णन ते इग्यारमुं अनुयोगश्रत 13 अने एकथी वधारे द्वारनुं जे वर्णन ते बारमुं अनुयोग मश्रुत. जेम सूत्रमा उद्देशा छे तेम पूर्वनामाभृत प्राभृ॥२३६॥ तोमांथी एक प्राभृत प्रान्नु जे ज्ञान ते तेरभु प्राभृत प्रा. श्रुत अने अनेक प्राभृत प्राग्नु जे ज्ञान ते चौदमु प्रा० प्रा० समास श्रुत. अध्ययनोनी जेम पूर्वमा वस्तु-अंतर्वर्तीरुप प्राभृतो ( पाहुडा)मांथी एक प्राभृतर्नु जे ज्ञान ते |पंदरमु प्राभृतश्रुत अने अनेक प्राभृतनुं जे ज्ञान ते सोलमुं प्राभृत सश्रुत. श्रुत स्कंधनी जेम पूर्वमां वस्तुओ | ( अधिकार विशेष )मांथी एक वस्तुनुं जे ज्ञान ते सत्तर, वस्तुश्रुत अने अनेक वस्तुनुं जे ज्ञान ते अढारमुं वस्तु | सश्रुत. उत्पादादि १४ पूर्वमांथी एक पूर्वनु जे ज्ञान ते उगणीश, पूर्वश्रत अने अनेक पूर्वनुं जे ज्ञान ते वीशमुं पूर्व से. श्रुत. हवे अवधिज्ञानना छ भेद कहे छः-१ अनुगामी-जे नेत्रनी जेम माथे चाले ते. २ अननुगामी जे क्षेत्रे ज्ञान उत्पन्न थाय त्यांज जाणे पण माथे न चाले (एक स्थानमां स्थिर रहेल दीपकनी जेम) ते. ३ वर्धमान-जे उत्तरोत्तर वृद्धिने पामतुं ज्ञान ते. जघन्यथी उत्पन्न वेला एक अंगुलना असंख्यातमा भागे जाणे पछी वृद्धि पामतां असंख्याता लोकप्रमाण जाणे. ४ हीयमान-प्रथम शुभ अध्यवमायथी घणा प्रमाणमां जाणे पछी अशुभ अध्यवसायथी घटतुं जाय ते. ५ प्रतिपाती-जे संख्य असंख्य योजन अने संपूर्ण लोकने जाणीने पण १ प्रतिपत्तिओ प्रायः अत्यारे जीवाभिगमसूत्रमा देखाय छे. २ श्रुतना २० मेदनो विशेष स्वरुप कर्मग्रंथादि शास्त्री जाणवु. ३ प्रतिपाती | [ पडवाइ] अवधि ते एकदम जाय अने हीयमान ने क्रमशः घटे. प्रतिपाती अवधि, प्रमाथी अथवा भातरथी जाय. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य २३७॥ पडे ते. ६ अप्रतिपाती जे संपूर्ण लोक जाणीने अलोकनो एक आकाश प्रदेशने जाणवानुं सामर्थ्य ते. अप्रति| पाती ज्ञानवाळाने अवश्य केवलज्ञान उत्पन्न थाय. आ छ प्रकारनं अवधिज्ञान, देव अने नारकने भवप्रत्ययिक होप छे अने मनुष्य अने तिर्यंचने गुण प्रत्यधिक होय छे. चोथुं मनः पर्यवज्ञान, तेना वे भेदः-१ ऋजुमति अने २ विपुलमति. ते अप्रमत्त अने लब्धिसंपन्न संयमीने होय छे. “ अमुके घडो चिंतव्यो छे " एवं जे सामान्यरुपे जाणवुं ते ऋजुमति अने ए घडो, द्रव्यथी सुवर्णादिकनो, क्षेत्रथी पाटली पुत्रादिनो, कालधी शीतकालादिनो अने भावधी पीतवर्णादिनो छे एवी रीते विशेष जाणे ते विपुलमति. ऋजुमति कदाच पडे पण खरो अने विपुलमति, तद्भव मोक्षगामी होय छे. पांचमुं केवलज्ञान ते एकज प्रकारनुं छे. केवलज्ञान उत्पन्न थया पछी शेष क्षायोपशमिक चार ज्ञान होता नथी. केवलज्ञान, सर्व लोकालोकनुं प्रकाशक छे. हवे अज्ञाननुं स्वरुप अने भेद कहे छे अज्ञान एटले कुत्सित ( अयथार्थ ) ज्ञान. जोके ते ज्ञानावरणीयना क्षयोपशम जन्य छे तोपण मिथ्यात्व मोहनीयना योगधी मलिन थयेलं छे माटे आगममां सर्वज्ञ तीर्थंकरोए तेने अज्ञान कहेलुं छे, जेम उत्तम पुरुष नीचना संगधी नीच गणाय के तेम मति अने श्रुतज्ञान पण मिध्यात्वना योगधी अज्ञान संज्ञाने पामेल छे. विएटले विरुद्ध अने भंग एटले विकल्प, अर्थात् विरुद्ध विकल्पो जेमां थाय एवं जे ज्ञान ते विभंगज्ञान कहेवाय छे. हवे पांच ज्ञाननुं स्वरुप द्रव्य क्षेत्र, काल अने भावधी कहे छे:- १ मतिज्ञानी, आदेशथी (सामान्य थी) २ केटलाक आचार्यों कहे छे के चार ज्ञान केवलज्ञानमां अंतर्भाव पाने के. पांचज्ञाननुं स्वरुप ॥२३७॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचज्ञान सिद्धांतरहस्य ॥२३८॥ स्वरुप |॥२३८॥ द्रव्यतः सर्व द्रव्योने जाणे पण देखे नहि. क्षेत्रतः आदेशथी सर्वक्षत्र-लोकालोकने जाणे पण देखे नहि. कालतः आधी सर्व कालने जाणे पण देखे नहि. अने भावतः आ०थी सर्व भावने जाणे पण देखे नहि. अथवा आदेश एटले श्रुत, ते श्रुत जेने प्राप्त थयेलं होय तेने अक्षरनी परिपाटी विना पण मतिज्ञान श्रुतानुसारे प्रसरे छे. द्रव्यतः श्रुतज्ञानी ( दश पूर्वी वगेरे ) केवल अभिलाप्य द्रव्योने उपयोगथी जाणी शके छे अने देखे छे. ते सिवायना श्रुतज्ञानीना सबंधमां भजना जाणवी. क्षेत्र, काल अने भावथी पण एमज जाणवू. कारण ? श्रुत केवलीने केवलज्ञानी समान, सिद्धांतमां कहेल छ. अवधिज्ञानी द्रव्यतःजघन्यथी रूपी (मूर्त) द्रव्योने जुवे छे.ते तैजस अने भाषा द्रव्यना मध्यमां रहेल द्रव्योने जुवे छे अने उ०थी सूक्ष्म अने बादर सर्व रूपी-द्रव्योने विशेषाकारथी जुवे छे. क्षेत्रतः ज. अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाण क्षेत्रने जुवे छे अने उ. असंख्याता लोकाकाश | प्रमाण जोइ शके छ. कालतः ज. एक आवलिकानो असंख्यातमो भाग अने उ० असंख्याता कालचक्र भूत भविष्यने जुवे छे. भावतः ज. अनंत द्रव्योना अनंत पर्यायोने जाणे छ, परंतु प्रत्येक द्रव्यना पटला पर्यायो २ पन्नत्रणा सूत्रमा त ज्ञानमां देखवापणु कहेल छे. कारण ? अवेयक अने अनुत्तरविमान आदिना चित्रो पण सूत्रज्ञानी आलेखी शके छे. ते देखवा सिवाय का घटी शक! माटे श्रुतज्ञानी देखे है एम कहेलं छे ते विशेष स्फुट जाणे छ; अर्थात् एमने तद्दन साक्षात्कार Vाजे जणाय है. म समजाय छ. वस्तुतः ते परोक्षज्ञान छ.३ " जावइ तिसमयाहारगस्स सहमस्स पणग जीवस्त ओगाहणा जहमा ओहिसितं जहमतु" इति नंदी-वृत्ती. 5452-%%%%849 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य ॥२३९॥ जाणे नहि. उब्धी अनंत पर्यायाने जाणे छे; ते अनंत पर्यायो, सर्व पर्यायोना अनंतमा भागे छे. हवे क्षेत्र अने कालना विषयनो परस्पर संबंध कहे छेः-१ जे कालधी आवलिकानो असंख्यातमो भाग जाणे, ते क्षेत्रथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग जाणे. २ जे कालथी आवलिकानो संख्यातमो भाग जाणे, ते क्षेत्रथी अंगुलनो संख्यातमो भाग जाणे. ३ जे आवलिकानी अंदर जाणे, ते क्षेत्रथी संपूर्ण अंगुलने जाणे. ४ जे कालथी आव लिका पर्यंत जाणे, ते क्षेत्रथी अंगुलपृथक्त्व जाणे. ५ जे कालथी एक अंतर्मुहूर्त जाणे, ते क्षेत्रथी एक हाथ जाणे. ६ जे कालथी एक दीवसनी अंदर जाणे, ते क्षेत्रथी एक गाउ जाणे. ७ जे कालथी पृथक्त्व दीवस जाणे, ते क्षेत्रथी एक योजन जाणे. ८ जे कालथी पक्षनी अंदर जाणे, ते क्षेत्रथी २५ योजन जाणे. ९ जे कालधी संपूर्ण पक्ष जाणे, ते क्षेत्रथी भरत क्षेत्र जेटलं जाणे. १० जे कालथी एक मास अधिक जाणे, ते क्षेत्री जंबूद्वीप जेटलं जाणे. ११ जे कालथी एक वर्ष जाणे, ते क्षेत्रथी अखिल मनुष्यलोक ( अढीद्वीप) जाणे. १२ जे कालथी पृथ० वर्ष० जाणे, ते क्षेत्रथी रुचकद्वीप सुधी जाणे. १३ जे कालथी संख्याता वर्ष जाणे, ते क्षेत्रथी संख्याता द्वीप- समुद्र जाणे. १४ जे कालथी असंख्याता वर्ष जाणे, ते क्षेत्रथी असंख्याता द्वीप समुद्र अथवा संख्याता द्वीप समुद्र जाणे. कालमां वृद्धि थाय त्यारे क्षेत्र, द्रव्य अने भावमां अवश्य वृद्धि थाय अने क्षेत्रमां वृद्धि धतां कालमां वृद्धि थाय अथवा न पण धाय. कारण ? कालथी क्षेत्र सूक्ष्म छे. क्षेत्र वृद्धिधी द्रव्य-भाव २ संख्याता द्वीप समुद्र कहेवानुं कारण के मोटो समुद्र एक पण असंख्यात योजननो होवाथी योजन असंख्यातज थाय. पांचज्ञाननुं स्वरूप ॥२३९॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रहस्य // 240 // **** स्वरुप // 24 // *** वधे छे. मनःपर्यवज्ञानी-ऋजुमति, द्रव्यतः मनुष्य क्षेत्रमा संज्ञीपर्याप्त जीवोए ग्रहण करेला अनंत मनोद्रव्यस्कंधोने उपयोग आपतां जुवे छे ( जाणे के ) अने मनः पर्यवज्ञानी-विपुलमति, तेज स्कंधोने द्रव्य-पर्यायनी अपेक्षाए विशेष स्पष्टपणे अने अधिक जाणे छे. क्षेत्रतः ऋजुमति, नीचे तिर्यग्लोकना मध्यभागथी रत्नप्रभा पृथवीना सहस्रयोजन पर्यंत अने उंचे ज्योतिष्कमंडलना उपरना भाग सुधी; तेमज तिरछो (अढी अंगुलन्यून)। बे समुद्र अने अढीद्वीप सुधी जाणे छे विपुल० पुरं जाणे छे कालतः ऋजुमति, ज• थी पल्योपमना असंख्यातमा भाग जेटलो अतीत-अनागत कालने जाणे अने उ० पण तेटलोज जाणे. विपुलमति, तेटलोज जाणे पण विशुद्ध जाणे. ऋजुमति भावतः सर्व पदार्थोना अनंतमा भागे रहेला अनंता पर्यायो जाणे अने विपुलमति, तेटलाज पर्यायोने विशुद्धपणे जाणे. केवलज्ञानी द्रव्यतः सर्व (रुपी-अरुपी) द्रव्योने, क्षेत्रतः सर्व लोकालोकने, कालतः मर्वकालने अने भावतः सर्वभावोने एक समये जाणे. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान बन्ने साथे होय छे. ए बन्नेनी साथे अवधिज्ञान अथवा मनः पर्यवज्ञान होय तो त्रण ज्ञान साथे होय. श्रमणपणामां केवल सिवाय चार ज्ञान पण साथे होय छे. केवलज्ञान उत्पन्न थये संपूर्ण एकज केवलज्ञान होय छे. इतिज्ञान स्वरुप समाप्त. // समाप्तोऽयं ग्रंथः उपाध्याय श्रीमहेवचंद्रजी महाराज सुप्रसादात् // 2 एनो विशेष स्वरुप विशेषावश्यकादिथी जाणवू. 3 मनःपर्यायना अतिशय क्षयोपशमपणाथी जे घटादि वस्तु जुवे हे ते अवश्य विशेष सहित से . सिद्धांतमा मनःपर्यवज्ञान विशेषज्ञान कोल से निधी मनापर्ववनं दर्शन कहेल नथी. * * * * *